Monday, 26 August 2013

केनोपनिषद्

निज  दायित्व  निभाते  कैसे  अंत:करण  प्राण और बानी
  कौन  उन्हें  करता  प्रवृत्त  है यह रहस्य  समझाओ ज्ञानी ।

सम्पूर्ण जगत का परम हेतु है उससे सब उत्पन्न हुए हैं
               उसी  परम  से  बल  पाकर वे कर्म - क्षेत्र  में सफल रहे  हैं ।

ईश्वर  ही  सबका  प्रेरक  है  जग  से जब  प्रयाण  करते  हैं
होते जीवन - मुक्त भक्त - जन देह - मुक्त  हो तन तजते हैं ।

सत- चित- आनंद परब्रह्म तक इन्द्रिय नहीं पहुंच पाती है
               चेतन- शक्ति ब्रह्म से इन्द्रिय प्रेरित होकर बढ़ती जाती  है ।

कौन  कहे  ऐसी  स्थिति  में  वह  परब्रह्म  ऐसा  होता   है
वाणी  है असमर्थ  इसी  से  संकेत  मात्र आश्रय  होता  है ।

ब्रह्म -  तत्त्व  वह वाक् -अतीत है परिभाषा है उसकी  मौन
                      जो वाणी का प्रेरक - बल  है सर्व - नियन्ता  है  वह कौन ?

                    मन से मति से वह अतीत है मन का मति का है जो ज्ञाता
मन में मनन  बुध्दि में निश्चय की समर्थता का वह दाता । 

चक्षु   से  परे  परब्रह्म  है  शक्ति  उसी  की  नयन - दृष्टि  भी
                     प्रेरक  वही है दृश्य- जगत का अंश - मात्र है देह - शक्ति भी ।


श्रवण  से  पृथक  परब्रह्म  है प्रेरक ज्ञाता है शक्ति - प्रदायक
ग्रहण करते हैं कर्ण  शब्द  को समर्थ सर्व है ब्रह्म विधायक  ।

               प्राण  नहीं  है  परब्रह्म  वह  उससे   भी   तो  है  वह  अतीत
               प्राण - विधाता  जिससे  वह  है  उसी ब्रह्म का आंशिक गीत । 

               अहंकार -  मुक्त  वे  हो  जाते  हैं  जो  ईश्वर  को पहचानते हैं
परमहंस  वे  यही  समझते  भगवान  स्वयं  को  जानते   हैं 

 ब्रह्म - ज्ञान  की  ज्ञान -  शक्ति  भी  देता  है  वह  अन्तर्यामी 
                  मंत्रों  में  भी  अद्भुत  बल  है  ब्रह्म - सुधा  पाते  सत - गामी ।


                   सार्थक हो यह मानव -जीवन परम प्राप्ति में जन तत्पर हो 
जन्म - मृत्यु से तर जायें हम प्रभु दर्शन हमको द्रुततर हो । 

अनल - अनिल - इंद्र तीनों  ही  सब  देवों  में  परम - श्रेष्ठ हैं
                    स्पर्श   ब्रह्म  का  उन्हें  प्राप्त  है  देवताओं  में  भाग्यवान  हैं ।


                    अग्नि अनिल ने दिव्य यक्ष का पाया था पहले  दर्शन लाभ
 प्रभु  को पहचाना  था इंद्र ने पहले पाया सान्निध्य - लाभ ।

उत्सुकता उठती है साधक में जिज्ञासा  मन में नहीं समाती
               क्षण भर अपना रूप दिखाकर परब्रह्म छवि छिप छिप जाती ।


                आराध्य - देव के पास  पहुँच  कर साधक प्रेम मग्न होता है
ईष्ट  -  प्राप्ति  की  इच्छा  होती  प्रेम  में  वह  आपा  खोता है ।


आनंद - रूप वह  ब्रह्म  सभी  का  प्रिय  है  हम जानें न जानें
                 हम सब सुख की खोज में ही हैं अति आत्मीय ब्रह्म को मानें ।


                 जान नहीं सकते पढ़ - सुन कर वह परमेश्वर है अति पावन
ब्रह्म - ज्ञान प्रासाद नींव है तप - दम - कर्म आदि हैं साधन ।

जिसे  रहस्य  ब्रह्म - विद्या  का तद् - अनुसार  ज्ञात होता है
                     शुभाशुभ कर्मों को अशेष कर परमधाम  में स्थित  होता है ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग  ]

5 comments:

  1. अद्भुत अनुवाद, ठीक वैसा ही जैसा संस्कृत में पढ़ मन में बसा हुआ था। अगला, कठोपनिषद।

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  2. श्रवण से पृथक परब्रह्म है प्रेरक ज्ञाता है शक्ति - प्रदायक
    ग्रहण करते हैं कर्ण शब्द को समर्थ सर्व है ब्रह्म विधायक ।

    प्राण नहीं है परब्रह्म वह उससे भी तो है वह अतीत
    प्राण - विधाता जिससे वह है उसी ब्रह्म का आंशिक गीत ।

    सुप्रभात संग प्रणाम केनोपनिषद हेतु सरस्वती माँ की कृपा बनी रहे

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  3. इसी तरह सरल सुगम्य तरीके से उपनिषदीय ज्ञान का प्रवाह करती रहें -आभार !

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  4. आनंद - रूप वह ब्रह्म सभी का प्रिय है हम जानें न जानें
    हम सब सुख की खोज में ही हैं अति आत्मीय ब्रह्म को मानें

    सुंदर अनुवाद..!

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