निज दायित्व निभाते कैसे अंत:करण प्राण और बानी
कौन उन्हें करता प्रवृत्त है यह रहस्य समझाओ ज्ञानी ।
सम्पूर्ण जगत का परम हेतु है उससे सब उत्पन्न हुए हैं
उसी परम से बल पाकर वे कर्म - क्षेत्र में सफल रहे हैं ।
ईश्वर ही सबका प्रेरक है जग से जब प्रयाण करते हैं
होते जीवन - मुक्त भक्त - जन देह - मुक्त हो तन तजते हैं ।
सत- चित- आनंद परब्रह्म तक इन्द्रिय नहीं पहुंच पाती है
चेतन- शक्ति ब्रह्म से इन्द्रिय प्रेरित होकर बढ़ती जाती है ।
कौन कहे ऐसी स्थिति में वह परब्रह्म ऐसा होता है
वाणी है असमर्थ इसी से संकेत मात्र आश्रय होता है ।
ब्रह्म - तत्त्व वह वाक् -अतीत है परिभाषा है उसकी मौन
जो वाणी का प्रेरक - बल है सर्व - नियन्ता है वह कौन ?ब्रह्म - तत्त्व वह वाक् -अतीत है परिभाषा है उसकी मौन
मन से मति से वह अतीत है मन का मति का है जो ज्ञाता
मन में मनन बुध्दि में निश्चय की समर्थता का वह दाता ।
चक्षु से परे परब्रह्म है शक्ति उसी की नयन - दृष्टि भी
प्रेरक वही है दृश्य- जगत का अंश - मात्र है देह - शक्ति भी ।चक्षु से परे परब्रह्म है शक्ति उसी की नयन - दृष्टि भी
श्रवण से पृथक परब्रह्म है प्रेरक ज्ञाता है शक्ति - प्रदायक
ग्रहण करते हैं कर्ण शब्द को समर्थ सर्व है ब्रह्म विधायक ।
प्राण - विधाता जिससे वह है उसी ब्रह्म का आंशिक गीत ।
अहंकार - मुक्त वे हो जाते हैं जो ईश्वर को पहचानते हैं
परमहंस वे यही समझते भगवान स्वयं को जानते हैं
ब्रह्म - ज्ञान की ज्ञान - शक्ति भी देता है वह अन्तर्यामी
मंत्रों में भी अद्भुत बल है ब्रह्म - सुधा पाते सत - गामी ।ब्रह्म - ज्ञान की ज्ञान - शक्ति भी देता है वह अन्तर्यामी
सार्थक हो यह मानव -जीवन परम प्राप्ति में जन तत्पर हो
जन्म - मृत्यु से तर जायें हम प्रभु दर्शन हमको द्रुततर हो ।
अनल - अनिल - इंद्र तीनों ही सब देवों में परम - श्रेष्ठ हैं
स्पर्श ब्रह्म का उन्हें प्राप्त है देवताओं में भाग्यवान हैं ।अनल - अनिल - इंद्र तीनों ही सब देवों में परम - श्रेष्ठ हैं
अग्नि अनिल ने दिव्य यक्ष का पाया था पहले दर्शन लाभ
प्रभु को पहचाना था इंद्र ने पहले पाया सान्निध्य - लाभ ।
उत्सुकता उठती है साधक में जिज्ञासा मन में नहीं समाती
क्षण भर अपना रूप दिखाकर परब्रह्म छवि छिप छिप जाती ।उत्सुकता उठती है साधक में जिज्ञासा मन में नहीं समाती
आराध्य - देव के पास पहुँच कर साधक प्रेम मग्न होता है
ईष्ट - प्राप्ति की इच्छा होती प्रेम में वह आपा खोता है ।
आनंद - रूप वह ब्रह्म सभी का प्रिय है हम जानें न जानें
हम सब सुख की खोज में ही हैं अति आत्मीय ब्रह्म को मानें ।आनंद - रूप वह ब्रह्म सभी का प्रिय है हम जानें न जानें
जान नहीं सकते पढ़ - सुन कर वह परमेश्वर है अति पावन
ब्रह्म - ज्ञान प्रासाद नींव है तप - दम - कर्म आदि हैं साधन ।
जिसे रहस्य ब्रह्म - विद्या का तद् - अनुसार ज्ञात होता है
शुभाशुभ कर्मों को अशेष कर परमधाम में स्थित होता है ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]
अद्भुत अनुवाद, ठीक वैसा ही जैसा संस्कृत में पढ़ मन में बसा हुआ था। अगला, कठोपनिषद।
ReplyDeleteअद्भुत अनुवाद,
ReplyDeleteRECENT POST : पाँच( दोहे )
श्रवण से पृथक परब्रह्म है प्रेरक ज्ञाता है शक्ति - प्रदायक
ReplyDeleteग्रहण करते हैं कर्ण शब्द को समर्थ सर्व है ब्रह्म विधायक ।
प्राण नहीं है परब्रह्म वह उससे भी तो है वह अतीत
प्राण - विधाता जिससे वह है उसी ब्रह्म का आंशिक गीत ।
सुप्रभात संग प्रणाम केनोपनिषद हेतु सरस्वती माँ की कृपा बनी रहे
इसी तरह सरल सुगम्य तरीके से उपनिषदीय ज्ञान का प्रवाह करती रहें -आभार !
ReplyDeleteआनंद - रूप वह ब्रह्म सभी का प्रिय है हम जानें न जानें
ReplyDeleteहम सब सुख की खोज में ही हैं अति आत्मीय ब्रह्म को मानें
सुंदर अनुवाद..!