Thursday, 29 August 2013

मुण्डकोपनिषद्


गुरुकुल के शिष्य प्रार्थना करके देवगणों से यह कहते हैं 
"यह जीवन हो यज्ञ परायण प्रभु स्तवन सतत करते हैं।"

शौनक ने जब  जिज्ञासा की अंगिरा ने यह  बात बताई 
"मनुज हेतु  दो विद्यायें हैं परा- अपरा महिमा समझाई।

चतुर्वेद  है अपरा - विद्या जहाँ यज्ञ - फलों का वर्णन  है
वेदपाठ की विधि शिक्षा है कल्प में यज्ञ याग जीवन है। 

वैयाकरण है शब्द-साधना निरुक्त कहलाता शब्द-कोष 
ग्रह - नक्षत्र  युक्त विद्या है ज्योतिष का है  यह उदघोष।

चार वेद और  छहों शास्त्र  ही कहलाते हैं अपरा - विद्या
परब्रह्म  का तत्त्व - ज्ञान  ही  कहलाती  है  परा - विद्या। 

सूक्ष्म सर्व - व्यापी है वह तो परब्रह्म जिसको कहते हैं
सब प्राणी के आश्रय हैं वे ज्ञानी जन अनुभव करते हैं।

परब्रह्म प्रभु निज इच्छा से स्वयं ही सृष्टि  बीज बोते हैं 
अकर्ता है वह ईश्वर फिर भी कर्मों में लिप्त नहीं होते हैं। 

संकल्प - रूप तप प्रभु  करते  हैं धरते हैं ब्रह्मा का बल 
दुनियाँ रचकर वे  देते हैं कर्म और सुख दुःख का फल। 

शौनक ने कहा अंगिरा ऋषि से  ईश्वर सबको भाता है 
जिसे जान लेने पर ऋषिवर सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है। 

वेदों  के  अनुरूप  जियें  हम  सार्वभौम  है सत्य  यही 
आलस्य प्रमाद न हो जीवन में धर्म मार्ग में चले सही।

यज्ञ हमें प्रतिदिन करना है मानवता का हो यह ध्येय
जलती आग में ही आहुति दें याद रहे नित श्रेय - प्रेय। 

जो अपना कल्याण चाहते गुरु की शरण में वे जाते हैं 
गुह्य वेद को वही समझते परम पद को वह ही पाते हैं। "

द्वितीय मुण्डक

सर्व- व्याप्त है वह परमात्मा निराकार है वह परमेश्वर 
बिना प्राण इन्द्रिय व मन के सर्व शक्तिमान हैं प्रभुवर। 

जग विराट रूप है प्रभु का अग्नि रूप माथा को  मानो
सूर्य चंद्र  दो नयन हैं उनके कर्ण हैं दशों दिशायें जानो।

चतुर्वेद  उनकी  वाणी  है  परमात्मा  का प्राण पवन है 
जगत समूचा ह्रदय है उनका धरा ही मानो प्रभुचरण है। 

प्रभु की ही अचिन्त्य शक्ति से अग्नि तत्त्व उत्पन्न हुआ
है सूर्य रूप में वही प्रज्ज्वलित चंद्र अग्नि से प्रगट हुआ। 

उत्पन्न हुए फिर मेघ चंद्र से मेघों से वनस्पतियाँ आई 
वनस्पति-खाने से वीर्य बना नर ने वीर्य से आकृति पाई। 

ऋग्वेद - ऋचाएँ  साममंत्र भी प्रभु से ही उत्पन्न हुए हैं 
यजुर्वेद और सब श्रुतियाँ यज्ञादि - कर्म सम्पन्न हुए हैं । 

सभी यज्ञ क्रतु दान - दक्षिणा प्रभु से ही उत्पन्न हुई हैं 
संवत्सर रूप काल अधिकारी भक्तजोड़ियाँ प्रगट हुई हैं । 

परमात्मा के फलस्वरूप ही सभी लोक उत्पन्न हुए हैं 
सूर्य - चंद्र आलोक लुटाते परमेश्वर से ही  प्रगट हुए हैं । 

विविध मनुज और पशु-पक्षी भी वसु रुद्रादि देवतागण 
सब प्राणी उत्पन्न हुए जो यह है उसी ब्रह्म का चिन्तन। 

प्राण - अपान सभी जीवन के विविध अन्न व फलाहार 
ब्रह्मचर्य तप सत श्रध्दा भी प्रभु की देन है सब व्यवहार।

सब  प्राणी  में  वह  रहता  है  सागर- शैल सभी नदियाँ
सब उससे ही उत्पन्न हुई हैं रस से भरी सभी औषधियाँ।

तप  भी वही  है  कर्म  वही  है वह  हृदय गुहा में रहता है 
जो नर प्रभु को पा लेता है भ्रम - संशय में नहीं रहता है। 

परमात्मा को पाना है  यदि  करें प्रणव का  ही चिन्तन 
प्रगाढ़ प्रेम हो उस ईश्वर पर ब्रह्म - प्राप्ति पर करें मनन। 

आलोक पुञ्ज प्रभु के समीप आलोक नहीं पाता है सूर्य 
उसअसीम आलोक के सम्मुख निष्प्रभ हो जाता है सूर्य।

जो भी तत्त्व प्रकाश - शील है उसी ब्रह्म का  है वह अंश 
पुरुषोत्तम के ही प्रकाश से आलोकित  है आलोक- वंश । 

बाहर - भीतर ऊपर- नीचे सर्व- व्याप्त है वह परमेश्वर 
प्रत्यक्ष  दिखाई  वे  देते  हैं जगत - रूप  में  वे  प्रभुवर। 

तृतीय मुण्डक

मानव पीपल- वृक्ष सदृश है वृक्ष-हृदय में घर दिखता है 
जहाँ ब्रह्म जीव दो खग रहते हैं जीव कर्म-फल चखता है।

जीवस्वतः में ही निमग्न हो भाँति-भाँति के दुख़ पाता है 
जब ईश्वर को वह पा लेता है शोक रहित वह हो जाता है । 

सबके प्राणों का प्राण वही है सब जीवों में उनका बल है 
जो भी जग में घटित हो रहा वह भी परमात्मा का बल है। 

 वह  सब प्राणी में उद्भासित है वह  ही तो  है सबका नूर 
भक्त यही अनुभव  करता है  वह अहंकार  से रहता  दूर। 

परमेश्वर को वह पाता  है जो प्रभु - उपासना  करता  है 
भोगासक्त नहीं पाता है वह प्रभु से प्यार नहीं करता  है। 

जीत सत्य की ही होती है मानव निज मन में धीर-धरे 
जो नर प्रभु को पाना चाहे वह सत्य आचरण सदा करे। 

अचिंत्य सूक्ष्म वह परमेश्वर साधक के मन में रहता है 
हृदय देश में निज स्वरूप को स्वयं प्रकाशित करता है। 

कण- कण में वह विद्यमान है बहुत दूर है बहुत निकट 
बाहर न जाओ उसे खोजने भीतर ही है अत्यंत निकट। 

ज्ञानी पुरुष समझ जाता है जग का है कोई परमाधार 
वही विवेकी  है जो त्याग दे सार  वस्तु के हेतु  असार। 

परमात्मा उनको नहीं मिलते जो केवल श्रुति गाते हैं 
अभिमानी उन्हें नहीं पाते विनयशील उनको पाते  हैं। 

जैसे सरिता नाम त्यागकर सागर में लय हो जाती है
बस वैसे ही  पावन आत्मा  ब्रह्म - लीन  हो जाती  है  । 

परब्रह्म  को जो पाता  है स्वतः ब्रह्म  वह  हो  जाता  है 
जन्म - मृत्यु से तर जाता है अजर अमर हो जाता है। 

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ  ग  ]
 

 

  

        


3 comments:

  1. पढ़ने में आनन्द आ रहा है।

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  2. रचना के साथ आपको विवरण देना चाहिए था :(
    कितने लोग समझ पायेंगे इन महान कृतियों को ?
    अनूठी कृतियों के लिए आभार !

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  3. "शौनक ने जब जिज्ञासा की अंगिरा ने यह बात बताई
    मनुज हेतु दो विद्यायें हैं परा-अपरा महिमा समझाई।"

    'परा-अपरा विद्या' का प्रसंग मेरी जानकारी में नारद और सनतकुमार के साथ जुड़ा है.

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