Friday, 30 August 2013

माण्डूक्योपनिषद्






जगत ऒम का ही स्वरूप है किन्तु  ब्रह्म  सर्वथा पृथक है 
निराकार - साकार भी है वह इन  दोनों से रहित अकथ है। 

जैसे जीवात्मा विषयों का उन्नीस मुख से करती उपभोग 
वैसे ही जन देह की आत्मा है जग -ज्ञाता भोक्ता का योग। 

लक्षण जिसका नहीं है कोई जिसमें ब्रह्म - प्रतीति सार है 
सर्व शांत - शिव अद्वितीय है पूर्ण  ब्रह्म  वह  ही अपार  है।

चेतन ही जिसका मुख  है आनन्द ही जिसका भोजन है 
वह आनंद-मय प्राज्ञ ब्रह्म ही पूर्ण - ब्रह्म संशय मोचन है। 

परब्रह्म  वह  ओंकार  है  'अ' ' उ ' ' म'  अक्षरा -  कार  है  
परमेश्वर के  तीन पाद  हैं  यह  तीन पाद ही ओंकार  है।
 
' अ 'ही ब्रह्म का प्रथम पाद है 'अ 'अक्षर साक्षात् ईश्वर है 
'अ ' और ब्रह्म एक ही तो हैं  परमेश्वर पूजा - पथ पर है। 

'उ' ही ब्रह्म का द्वितीय पाद है प्रभु का हिरण्यगर्भ रूप है
इस रहस्य को जानने वाला ईश्वर का ही द्वितीय रूप है।

'म 'ही ब्रह्म का तृतीय पाद है 'अ उ म' में विलय होता है
इस प्राज्ञ रूप का ज्ञाता ही प्रभु - चरणों में लय होता है। 

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ  ग  ]
 


4 comments:

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  2. पिछली पोस्‍ट का शीर्षक 'मुण्डकोपनिषद्' था और यह पोस्‍ट 'माण्डूक्योपनिषद्'?
    अद्वैत, द्वैत या द्वैताद्वैत.

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  3. १२ श्लोकों में व्यक्त सृष्टि का अद्भुत सत्य। सुन्दर अनुवाद, स्पष्ट करता हुआ।

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  4. परब्रह्म वह ओंकार है 'अ' ' उ ' ' म' अक्षरा - कार है
    परमेश्वर के तीन पाद हैं यह तीन पाद ही ओंकार है।
    satya ko sundar shabdon me utara hai aapne .badhai .

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