Sunday, 25 August 2013

ईशावास्योपनिषद्


सत्  चित्  आनंद  ब्रह्म  पूर्ण  है  परब्रह्म से जगत  पूर्ण है
पूर्ण  ब्रह्म  से  पूर्ण   निकालें  तब  भी रहता  शेष  पूर्ण  है ।

सर्वत्र समाया है परमात्मा सम्पूर्ण जगत में वही व्याप्त है
ब्रह्म- अंश से रहित कुछ  नहीं  ईश  जगत में परिव्याप्त है ।

आसक्ति त्याग मन को समझायें कर्मवीर मुझको बनना है
ब्रह्म - रूप  ईश्वर  निमित्त  ही  श्रेष्ठ  कर्म  हमको  करना  है ।

भोग  हमारा  ध्येय  नहीं  है  माया - ममता  में  न बँधना
जो  भी साधन  दिया है प्रभु ने व्यय पूजा- निमित्त करना ।

कर्म - प्रधान  जगत की रचना  निरभिमान  हो  कर्म  करें
राग  -  द्वेष   से  तभी  बचेंगे   हर्ष  - शोक  में   धीर -  धरें ।

जन्म  भोग  के लिए  नहीं है तप है जीवन - यापन करना
कर्म  न  डालेंगे  बंधन  में  कर्म  करो  पर  लिप्त  न रहना ।

यह  मानव  तन  दुर्लभ  देकर  हमसे  कहते  हैं  परमेश्वर
जन्म- मृत्यु से तर जा मानव  भोग - राग में नष्ट न कर ।

परब्रह्म  है  अचल  एक  है  मन  से अधिक  वेग  है उसका
आदि - देव वह ज्ञान - रूप है सूर्य - समीर अंश है जिसका ।

सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमात्मा  प्रेमी -जन  उनको पाते हैं
वे  हैं  दूर  बहुत  फिर  भी  वे  आर्तनाद  सुन  कर  आते हैं ।

सत्य- रूप  सर्वेश्वर  श्री- मुख सूरज  आभा से ढँका हुआ है
वह  ही  तो  दर्शन  पाएगा  जो  सदाचार  में  लगा हुआ है ।

हे यम भक्त जनों के पोषक मैं वही हूँ यह चिन्तन करता हूँ
परब्रह्म जो दिव्य रूप है " सोहSम् " यह अनुभव करता हूँ ।

हे  अग्ने! अधिष्ठातृ- देवता  शुभ- राह  चलें  दो  आशीर्वाद
पथ  के  कण्टक  नष्ट  करें  प्रभु  सत्कर्म हेतु हो शंखनाद ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग  ]

6 comments:

  1. वाह, संस्कृत से पूरी तरह मिलता अनुवाद। पढ़कर आनन्द आ गया। बस पहले श्लोक में ७ की जगह ४ पूर्ण शब्द से ही भाव स्पष्ट हो गया।

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  2. सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा प्रेमी -जन उनको पाते हैं
    वे हैं दूर बहुत फिर भी वे आर्तनाद सुन कर आते हैं ।

    स्तुत्य, प्रणाम, निःशब्द,
    गर्व है छत्तीसगढ़ की माटी पर

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  3. सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा प्रेमी -जन उनको पाते हैं
    वे हैं दूर बहुत फिर भी वे आर्तनाद सुन कर आते हैं ।

    वह दूर से दूर है और पास से पास !

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  4. आनंदित करता अनुवाद

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  5. बहुत सुंदर अनुवाद .....

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