Wednesday, 31 July 2013

अथर्ववेद


पुरुषार्थी  क्लेश  नहीं  पाता  है गुरु शिक्षा से वर्धित होता
यश पाता जगती में वह ही ज्ञान मार्ग से विकसित होता ।

जो नर निज को परमात्मा के पथ पर रखते सदा सतत
चहुँ - दिशि वही प्रगति पाते  हैं उद्यम  में नित  रहते रत ।

सप्रयास सदगुण संग जीकर तम गुण का परित्याग करें
निन्दित कर्मों से पृथक रहें हम यश पाकर भी धीर - धरें ।

सन्जीवन  है  वेद - ज्ञान यह सबको  देता  शुभ - भोग यही
दुःख के पीछे तो  सुख  आता है चार - बलों  का  मार्ग  यही ।

इन्द्रिय निग्रह यदि हम कर लें जीवन बन जाए अजर अमर
जन - मन दुर्गम जिसे मानता सत जन पाते हैं सुख सत्वर ।

सूर्य - चन्द्र साक्षात् देव  हैं वे दुनियाँ  को  नीति  सिखाते  हैं
नेम - नियम  अति आवश्यक है यह  सीख  हमें  दे जाते  हैं ।

करें सात्विक भोजन निश दिन रखें स्वस्थ निज तन व मन
सात्विकता से ही तो  बढ़ती है मानव की प्रज्ञा और चिन्तन ।

जड़ - चेतन से सत लेकर नित करें सदा निज का  कल्याण
अति  समर्थ  है  प्रकृति  सम्पदा  सदा  बढायें  उसका  मान ।

हरी - भरी इन वनस्पति से उत्तम औषधि निर्माण हम करें
व्याधि - शमन  हो जाये  जन  का परोपकार  से  क्लेश  हरें ।

उद्भव - पालक - प्रलय का कर्ता  वही  परम है  वही  महान
ऋषि - गण ध्यान करें उनका  ही सूर्य चन्द्र देते व्याख्यान ।

उस विराट की विविध-विधा का ऋषि जानें हैं करके ध्यान
उसी ब्रह्म  की महिमा का नित दिवा - रात्रि कहते आख्यान ।

सृष्टि और तन के अवयव का बहुत निकट का यह  नाता है
वही  परम  है  सर्व  नियन्ता  वह  परमपिता  कहलाता  है  ।

ईश्वर - प्रणीत जो सत्य नियम है माननीय है , है सर्वोत्तम
पद - प्रधान हम पा सकते हैं  संतति  यदि बन जायें उत्तम  ।

कर्म - प्रधान सृष्टि  यह  अनुपम  उसी  परम का है वरदान
कण - कण में वह ही  रमता है  उसी ब्रह्म का धर लें ध्यान ।

जल प्राणी को शुचि करता है पावन -पथ पर उन्मुख करता
वेद ब्रह्म बहि अभ्यन्तर को प्रक्षालित कर आलोकित करता ।

धरा  गगन यह परम हेतु है अतिशय लघु अतिशय है शुध्द
ऊष्मा देता  सूर्य  सभी को आनन्दित नर  हो जाते  हैं बुध्द ।

श्वास ग्रहण कर  मानव  पाता  भोजन  की  भी शक्ति पुनीत
परमेश्वर  का  आज्ञाकारी जित -  इन्द्रिय  गाता  चल  गीत ।

उद्योगी- योगी- ज्ञानी - नर ही प्रगति - शिखर को छू पाते हैं
गत -आगत का नीति नियम यह सिध्द पुरुष वैभव पाते हैं ।

सत - जन  की जो करे  उपेक्षा  करें  शीघ्र  उनका  प्रतिकार
गुरु से समुचित- शिक्षा- पाकर बाँटें  सविनय विद्या साभार ।

विपरीत क्षणों  में शांत  रखें मन वेद- मार्ग को ही अपनायें
बाधाएँ तो आती - जाती हैं अति - शुचि वेद ऋचा को गायें ।

धर्माचरण  पुनीत  कर्म  है  शौर्य -  शक्ति  है  वर्द्धित  होती
ब्रह्मचर्य तप सिखलाता है जितेन्द्रिय ही  पा सकता मोती ।

परि -आवरण शुध्द होता है नभ-मण्डल  होता है शुचितर
यज्ञ - धूम की महिमा अद्भुत पुण्य - लाभ होता है द्रुततर ।

परमात्मा के नियम से चलें सत्कर्म सतत कर सुखी रहें
धर्म -पुरुष नित निर्भय रह कर शोक -व्याधि से दूर रहें  ।

शांति  और  वैभव  पाता  है  नर  बाधाओं   से   हो  पार
कठिनाई पथ की  सीढ़ी  है  हेतु  प्रगति का यही  है सार ।

द्विज निज तृषा शांत करते हैं करके सर सरिता में स्नान
ज्ञानी वेद - पुरुष के गुण  को गाकर करें अहर्निश ध्यान ।

रवि की सप्त रश्मियाँ ओजस तिमिर मिटायें जहाँ-जहाँ हो
विद्वत - जन नित विद्या बाँटें वेद - ज्ञान आलोक यहाँ हो ।

भू - पर वेद - ज्ञान से पूरित रहें सूर्य सम नित आलोकित
चतुर्शक्तियाँ  वर्द्धित होतीँ प्रसन्न चित्त हम रहें प्रतिष्ठित ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ . ग . ] 









  

Monday, 29 July 2013

विदुर - नीति

                                                   

Sunday, 28 July 2013

देख कबीरा रोया

                                                                                                          
 
बालक हिंदुस्तानी था
पर घर किसी अंग्रेज़ के घर जैसा था ।
अंग्रेजी में पढना, अंग्रेजी में लिखना
अंग्रेजी में बोलना,
यहाँ तक कि खाना-पीना हँसना-रोना
सब अंग्रेज़ी में होता था ।

हिंदुस्तान से पढ़-लिख कर
ऊँची शिक्षा के लिए वह विदेश गया ।
वहाँ उसने विदेशी छात्रों को देखा -
कोई कबीर पर शोध कर रहा है
तो कोई कालिदास पर,
कोई बिहारी पर तो कोई विद्यापति पर
कोई वेद पर तो कोई कठोपनिषद पर ।
सभी विषय भारतीय थे ।

विदेशी छात्र ललक कर इसके पास आए
कि बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ।
जिज्ञासुओं के पूछने पर
भारतीय छात्र ने कहा-
" हू इज़ कठोपनिषद ?
एन्ड आई डोन्ट नो, व्हाट इज़ कालिदास
एण्ड व्हाट इज़ कबीर ?"

शकुन्तला शर्मा, भिलाई  [ छ. ग. ]

Wednesday, 24 July 2013

सामवेद

                        
सामवेद   में   उपासना  है   समन्वयन  ही   है   उपासना
ज्ञान  कर्म  का  योग  इसी  से द्रष्टा- दृश्य का  युग्म बना ।

ज्ञान का दाता  वही  ब्रम्ह है  कर्म फलों का  वही  प्रदाता
कण- कण में वह  ही स्थित है उपासना के फल का दाता।

अग्नि हमारा है हित साधक पारस पावन  है  यह पावक
गति में हरदम वह रहता है रथ सम है वह मारुत वाहक ।

कर्मफलों का साधक पावक शुचिता को  धारण करता है
दोष  मलिनता  दूर  भगाता  सबको  दोषमुक्त  करता है ।

कहीं कभी भी अग्नि जलायें भस्म  शेष  केवल रहता है
पावक है गतिशील इसी से आच्छादित नभ  में रहता है ।

सूर्य रूप  में  अग्नि  वृष्टि  से अन्न दान दे  कर  जाता  है
निज प्रकाश से तिमिर मिटाता सतगुण तब बढ़ जाता है ।

आठ वसुओं में अग्नि एक है वह नर का आश्रय रक्षक है
 उसके गुण को जानें परखें मनुज हितों का वह साधक है ।

हमसे  कहते हैं  परमात्मा  यज्ञ  हवन जो  तुम करते हो
मेघ समाहित हो जल देता उसी अन्न  से तुम पलते हो ।

दुष्टों  से  निज  रक्षा  निमित्त  हम  यज्ञ  करें हों  हृष्ट पुष्ट
सज्जन सुख साधन को पायें  हों  देव कृपा से दुष्ट - नष्ट ।

प्रवाह पवन प्रभु से प्रेरित  है  जिससे  भू-पर  रहने  वाले
परस्पर शब्द  श्रवण  करते  हैं प्रभु  उपासना करने वाले ।

सूर्य  प्रकाशित होता है ज्यों शशि  प्रकाश ग्रहण करता है
वैसे ही गुरु से उत्तम-विद्या शिष्य सविनय ग्रहण करता है।

परमात्मा की कृपा-दृष्टि हो जलदायी-विद्युत सोम-तृप्त हो
पूर्ण-तृप्त हो जल बरसाए  धान्य-प्रचुर  फिर हमें प्राप्त हो ।

नम्र नीति-नत नृप हो निर्मल अनर्थ अन्यथा हो जाता है
आपस में  ही लड़  पड़ता  नर स्वत;  नष्ट वह हो जाता है ।

सदुपदेश के नित्य श्रवण से मन आत्मा पोषित होती  है
दुर्गुण  दूर  इसी  से  होता  दुर्वचनों  से  रक्षा  भी होती है ।

ऊषाकाल में  नर यदि जागें तो उद्योगी- कर्मठ वे होते  हैं
ऊषा-सदृश स्त्री को घर में  लक्ष्मी के नित दर्शन होते  हैं ।

यदि सूरज न हो तो तम  में दुष्ट- जन करें  जग  में  राज
भू पर यदि परमात्मा न हो अस्त व्यस्त हो जाए समाज।

सूर्य-अग्नि वसुधा पर न हो लोक सभी जड़वत हो जायें
सूर्य-रश्मियाँ रोग नष्ट कर भय मेटें जिजीविषा जगायें ।

परमेश्वर ने रवि को नभ  में ऋतुओं का आधार  बनाया
वनस्पतियाँ धान्यादि पकें  महत धर्म  का पाठ पढ़ाया ।

उत्तम-वर्षा से ही  इस जग को श्रेष्ठ  उपज  मिल  पाता है
अन्नादि  प्रचुर मात्रा में होता  धान्य गगन  बरसाता है ।

सर्व-जगत  उत्पादक है जो  सूर्य-देव  है  ज्योति-स्वरूप
धर्म-बुध्दि को प्रेरित करता भक्ति योग्य है ज्ञान-स्वरूप ।

पैदा होता अग्नि अऱणि से नभ-पवन-तन में अवस्थित
अनल के अनुग्रह से ही गरिमा-गिरा  होती  व्यवस्थित ।

ब्रह्म का अनुग्रह  हो और  फिर  वर्षा से सोम  मिले  जब
सोम-मधु सम्पृक्त करके सोम पियें सौभाग्य समझ तब ।

जो जन प्रभु उपासना करते  उनका बल  बढ़ता जाता है
अनिष्ट-निवारण होता उनका रिपु भी निर्बल हो जाता है ।

यज्ञ समाकर रवि-किरणों में विविध-व्याधि से लड़ता है
रूप विलक्षण पाकर कहता वह सूर्य-रश्मियों में रहता है ।

दुर्जन भी जिनके सम्मुख कर्मों का सार्थक फल पा जायें
उसी देव की अनुकम्पा से ही परिजन प्रबल पुरुषार्थ पायें।

मेघ-दामिनी जल बरसाते हैं वे ही तो हमें  अन्न देते  हैं
यज्ञ-हवन प्रतिदिन करके हम इनको ही भोजन  देते हैं ।

शकुन्तला शर्मा, भिलाई  [ छ. ग  ]





                                                                                        

Monday, 22 July 2013

बाबा रामदेव


बा- बात में योग सिखाते बाबा रामदेव स्वामी
बा- बार समझाते हैं वे पतञ्जलि के अनुगामी ।

राष्ट्रदेव का चिन्तन करते भक्ति जगाते जन- मन में
हिमा जिनकी सबसे न्यारी बल भर देते जन गण में ।

दे- शक्ति के वे विग्रह हैं वे हैं भारत का सम्मान
रुण - देव सम उनकी गति है वे हैं जग का गौरव गान ।

Wednesday, 17 July 2013

यजुर्वेद

                                    


 जो नर यज्ञ - हवन  करते हैं  इह - पर  में वे  सुख  पाते हैं 
पर  उपकार  में  रत  रहते हैं  श्रेष्ठ  कर्म  से  यश   पाते  हैं ।

धर्म  मार्ग  ईश्वर  ने दिखाया  सत्य न्याय से युक्त  वही है
वह ही शुभचिंतक है सबका पुरुषार्थ मात्र का श्रोत वही है ।

जैसा  कर्म  जीव  करता  है   वैसा  ही  प्रतिफल  पाता  है
दुष्ट कर्म का प्रतिफल दुख है मनुज  इसी से दुख पाता है ।

ईश्वर का आदेश  यही  है  दुष्ट  बुध्दि  का त्याग  हम करें 
प्रेरित हो कर  फिर  सत्पथ पर  हर  मानव  का दुख हरें ।

वेद -  ज्ञान के  द्वारा मानव  श्रेष्ठ  मार्ग  का  बने  सृजेता
सत्कर्मों  के माध्यम  से वह शत्रु  जीत कर बने विजेता ।

सृष्टि ब्रह्म की अद्भुत अनुपम सूर्य जगत को करे प्रकाशित
वसुधा  होती  पुष्ट  वायु  से  यह  धरती  हमसे  हो रक्षित ।

नर पाए आरोग्य यज्ञ से व्याधि  नाश हो यश - विस्तार
पूर्ण आयु ले जिए धरा पर सुख - समृध्दि सतत हो सार ।

दुष्ट- बुध्दि  नर  पीडा  पाते  निम्न  योनियों  में जाते  हैं
सत्य धर्म के पथिक संत ही कष्ट - क्लेश से बच पाते हैं ।

मात- पिता षड् - ऋतु सम  होते  देते  हैं  उत्तम  उपदेश
उन्हें नित्य संतुष्ट  रखें  हम  पायें  सदा  सुखद  सन्देश ।

बाल्य- काल में मात- पिता ज्यों संतति को देते आकार
उन्हें सदा ही हम कृतज्ञ बन गरिमा- मय देवें  व्यवहार ।

पर- हित चिन्तन होता जिसका विद्यावान वही  होता है
नभ शुचि होता यज्ञ धूम से आरोग्य तभी पावस देता है ।

राजपुरुष का यज्ञ न्याय है जन- हित हो राजा का ध्येय
धर्म अर्थ और काम  मोक्ष हो हर मानव का चिंतन श्रेय ।

ईश्वर का आदेश  यही है सिंहासन  उत्तम जन को  सौंपो 
सुख से भर दो वसुन्धरा को क्षुद्र-पुरुष को कभी न सौंपो ।

आज्ञा यह भी  है ईश्वर  की उत्तम  हो  व्यक्तित्व  तुम्हारा
जड्ता कभी न हो तन- मन में जग पूरा  परिवार हमारा ।

विद्याओं  में जो  पारंगत  हो  राजतंत्र  का  हो  अधिकारी
सतजन की  रक्षा  करता  हो  दुर्जन  हेतु  विपद हो भारी ।

ब्रह्मचर्य  है  पहला  आश्रम  उत्तम  विद्या  ग्रहण  करे  नर 
द्वितीय गृहस्थाश्रम में सञ्चय तृतीय आश्रम धर्मम् चर ।

चतुर्थ आश्रम संन्यासी  का  बन संन्यासी  धर्म  धरे नर
वेद - गिरा का  करे  प्रकाश  तम मेटे आलोक  प्रभा  धर ।

सुख वैभव यदि नर चाहे तो निज स्वभाव  स्तर अनुरुप
 निज इच्छा से विवाह कर ले  मोद मनाये निजस्वरुप ।

ज्यों पश्चिम जा कर विद्वद्जन करें वस्तुओं का सन्धान
नर - नारी  उत्तम सन्तति से  श्रेष्ठ  गुणों के बनें निधान ।

दो  ही तीर्थ  धरा  पर  पावन गुरु  सेवा  विद्या  अद्वितीय
उदधि - पार  आने  जाने में हों समर्थ जो तीर्थ - द्वितीय ।

सत्य न्याय चहुँ हो आलोकित न्यायासन पर सज्जन हों
दुष्टों  को  जो दण्ड  दे सकें  सिंहासन  पर  पावन  नर हों ।

सेना - नायक  वही  बने  जो  धर्म  मार्ग का अनुयायी हो
दया-रहित हो दुष्टों के प्रति सज्जन का वह अनुगामी हो ।

जैसे  सेनापति  सेना  को  सूर्य   मेघ  को  वर्धित  करता
वैसे  ही  गुरु सदाचरण  से  प्राणिमात्र  की  सेवा  करता ।

सभी  लोक  ज्यों  सूर्य  लोक  से  उत्तम  आश्रय  पाते   हैं
श्रेष्ठ  पुरुष वैसा ही आश्रय  निज आश्रित को  दे  जाते हैं ।

मात पिता निज संतति  की ज्यों रक्षा  करते प्रेरित करते
अध्यापक  भी  निज  शिष्यों को विद्या से संवर्धित करते ।

औषधियों  से होम  जो करता  जग को  सुरभित करता है
सर्वाधिक शुभचिंतक है जग का महादान वह ही करता है ।

गो- धन  की  जो  सेवा  करता अति परोपकारी है वह नर
जो  भी  भावुक  पशुपालक  है वास करे सुख वैभव के घर ।

व्यथित कभी भी आत्मा न हो नितप्रति इसका ध्यान रखें
वज्रपात न  करें किसी पर बन  कर कृतज्ञ निज को परखें ।

वेद - वाङमय  जो  कहते  हैं  हम  करें  उसी  का  अनुष्ठान 
संतति को  मॉं सँस्कारित करती  वैसे ही सबको देवें ज्ञान ।

पथ- औषधि का सेवन करके करें प्रकाशित  निज जीवन
विद्वद् जन की सेवा  करके सेवा भावी बन जाए तन - मन ।

बढ  जाता   है  मान   मान  से  सदा   दूसरों  को  दें   मान
मान - महत्ता  के ज्ञाता  को  शीर्ष  सदृश  अति उत्तम मान ।

आत्मा  तन  से  जब  जाती  है  वही  भाव  नित मन में हो
शव  के  जल  जाने  पर  कोई  संस्कार  कभी  न उसका हो ।

परमेश्वर  है  एक  सदा  से  उपासना हो  उसी  की प्रतिदिन
कर्म नहीं निष्फल होता है रहें धर्म में रत छिन- पल- छिन ।

ऋग्वेद  सदृश  हो  उत्तम वाणी यजुर्वेद सम उज्ज्वल  मन
हो सामवेद सम प्राञ्जल  प्राण अथर्ववेद  सम हो यह तन ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ. ग. ]








Friday, 5 July 2013

थाईलैण्ड में कवयित्री सम्मेलन


" .....21वीं शताब्दी में नारी उज्जागरण का प्रबलतम ज्वार है ए. आई. पी.सी.। दुनियॉं की सारी बहनों, आओ तुम्हारे पास खोने को मात्र वर्जनाओं की ऊँची दीवारें और सदियों की ज़ंजीरें हैं तथा पाने के लिए भविष्य के सारे सपने जिसे पुरुष समाज ने अपनी बपौती मान रखी है।"
-डा. लारी आज़ाद [ संस्थापक ए. आई. पी. सी. ]
22/ 6 / 2013
अभी आषाढ महीना दो दिन बाद आने वाला है , पर उसके स्वागत में  सुबह से ही , काली घटायें छाई हुई हैं। मैं ट्रेन में बैठी हूँ । कोलकाता जा रही हूँ । कोलकाता से हम  'थाईलैण्ड' जायेंगे , जहॉं ' बैंकाक ' में हमारा 11वॉं अन्तर्राष्ट्रीय कवयित्री सम्मेलन आयोजित है । भारत के विभिन्न प्रदेशों से 34 बहनें जा रही हैं और कुछ बहनें हमें ' बैकाक ' में मिलने वाली हैं । मैं  'आज़ाद -हिन्द ' 12129 में ए-1 कोच में 30 नम्बर के बर्थ में बैठी हूँ ।अभी गाडी भाटापारा को पार कर रही है । किसान , कोठार के पैरा को , घर के भीतर , सुरक्षित जगह में रख रहे हैं क्योकि बरसात आने को आतुर है और यदि पैरा बाहर रह गया तो गाय- बैल की भूख कैसे मिटेगी ? नदी आ गई मतलब बिलासपुर आने वाला है । मेरी सहेली चन्द्रा भी इसी ट्रेन में मेरे साथ ही जा रही है । वह ' चाम्पा '  में आकर ट्रेन पकड लेगी , वैसे उसकी टिकट भी ' दुर्ग ' से  ही है पर चूँकि वह ' कोरबा ' में रहती है , उसे 'चाम्पा ' ही पास पडेगा । चन्द्रा आ गई है । हमने सामान बर्थ के नीचे रखकर लॉक कर दिया है और दोनों गपशप में लगी हुई हैं । दुनियॉं-जहॉं की बातें , जो खतम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं , पर चन्द्रा बहुत थकी - थकी सी लग रही है और सोना चाह रही है । मैने उसे कितना समझाया कि सोना बहुत महँगा हो गया है पर वह मानती ही नहीं । मैंने उससे कहा कि चल पहले खा लेते हैं फिर सोने की बात करेंगे । हमने अपने झोले से रोटी-सब्ज़ी का डिब्बा निकाला और खा कर अपने-अपने बर्थ में बिस्तर ठीक करने का उपक्रम कर रहे हैं ।
23 / 6 / 2013
आदतन ' आज़ाद- हिन्द ' 5.00 बजे प्रातः हावरा पहुँच गई । मैं नींद में थी तभी एक झन चिल्लाता हुआ , हमारे बर्थ के सामने से गुज़रा - " दादा ! उतरो- उतरो , हावरा आ गया । बउदी ! हावरा आ गया , उतरो-उतरो ।" मैं झकना कर तुरन्त नीचे उतरी फिर चन्द्रा को उठाई , चल उठ , हावरा आ गया , फिर हम दोनों वेटिंग-रुम में चले गए । आराम से बैठ कर दोनों झन कॉफी मँगवा कर पिए । वहीं पर एक टी. सी. बैठी थी , उसका नाम ' शँकरी ' था । उससे मेरी दोस्ती हो गई । वह अपनी दो बेटियों ' राधिका ' और ' रैना ' के साथ बैठी हुई थी । बातों ही बातों में उसने हमें बताया कि वह " वेलूर - मठ " जा रही है । उसने मुझसे भी आग्रह किया कि मैं उसके साथ  "वेलूर-मठ "  चलूँ । मैंने तुरन्त उसकी बात मान ली क्योंकि मेरे पास चार बजे तक का समय था और अभी तो सात ही बजे हैं । मैंने मुस्कुराते हुए चन्द्रा से कहा - " चल वेलूर-मठ चलते हैं - गोरस बेचत हरि मिले एक पन्थ दो काज ।"
" वेलूर-मठ " मैं कई बार आई हूँ , हर बार उतना ही सुकून उतनी ही शान्ति पाई हूँ । गँगा की गोद में बैठा हुआ यह मठ , मुझे बहुत भाता है , ' शान्ति - निकेतन ' की तरह लगता है । चूँकि यहॉं फोटो खींचने की मनाही थी , एक आर्मी अफसर को फोटो खींचते देखकर , अपना मेल आई डी उसे दे आई हूँ , ताकि वह अपने खींचे हुए फोटो मुझे मेल कर सके । उसने हॉं तो कहा है पर देखते हैं कि वह भेजता है या नहीं । वेलूर-मठ में हमने भोजन किया, हमने वहॉं गुराम और खीर भी खाई । मज़ा आ गया । जैसे ही हम लोग मठ से बाहर निकले तो चन्द्रा ने कहा - "कोलकाता में डाभ नहीं पिए तो क्या किए ?" तुरन्त हम लोग नारियल-पानी पिए और वहीं से टैकसी लेकर फिर " दमदम- एयरपोर्ट " के लिए निकल गए । हम यहॉं दो बजे ही पहुँच गए हैं जबकि हमें चार बजे पहुँचना था , वैसे यहॉं आठ-दस बहनें दिख रही हैं , जो हमारी तरह थोडा पहले आ गई हैं । चन्द्रा थोडा घूम-कर आती हूँ कह कर कहीं गई है और बिना समय खोए हम सभी बहनें , बोलने-बताने में लग गई हैं । रात में दो बजे हमारी फ्लाइट है ।
24 / 6 / 2013
आज आषाढ कृष्णपक्ष की प्रतिपदा है । सुकुआ उगने को है और हम  बैंकॉक पहुँचे हैं । यहॉं ए. आई. पी .सी. की ओर से एक खास तरीके का हार और हमारे लिए गाडी और गाईड लेकर एक शख्स आया हुआ है । उसने फूलों के हार से हम सब का स्वागत किया । यह हार अमलतास के फूलों की तरह न केवल पीले रंग का है अपितु आकार में भी अमलतास की तरह है । वस्तुतः संस्कृत साहित्य में अमलतास की बडी महिमा है ।बैंकॉक से हम सडक-मार्ग से ' पटाया ' जा रहे हैं । रास्ता बहुत सुन्दर एवम् लुभावना है , वैसे भी भोर का वक्त बहुत खुशनुमा लगता ही है । महादेवी के शब्दों में...." कनक से दिन मोती सी रात सुनहली सॉंझ गुलाबी प्रात , मिटाता रंगता बारम्बार कौन जग का यह चित्राधार ।" रास्ते में हमारा गाईड कुछ विशेष जगह के विषय में बताता था । हम जिज्ञासा-वश अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में प्रश्न भी किया करते थे और वह समाधान की चेष्टा में अपनी मातृभाषा की ओट में छिप जाता था ।उसकी यह भाषा भी हमें अच्छी लगने लगी थी । उसका नाम व्ही था । रास्ता लम्बा था पर चूँकि सभी रात-भर जागे हुए थे ,अधिकॉंश सदस्यों की ऑंखें बँद थीं पर कुछ लोग जाग रहे थे और खिडकी पर अपनी निगाहें जमाए , सुन्दर दृश्यों को अपनी ऑंखों में समेट लेने को तत्पर दिखाई दे रहे थे । अब हम " पटाया " पहुँच चुके हैं । चन्द्रा और मुझे 5208 नम्बर का कमरा मिला है ।" MIKE GARDEN RESORT " में हमें ठहरना है । हम अपने-अपने कक्ष में गए और फिर थोडी ही देर में जलपान के लिए नीचे आए । जलपान के पश्चात् हम पुनः अपने कक्ष में चले गए । हमने विश्राम किया फिर हम बाहर निकल गए, हमारा भ्रमण और भोजन साथ-साथ सुचारु रुप से चलता रहा ।
25 / 6 / 2013
आज हम पटाया समुद्र तट की ओर जा रहे हैं । पटाया का समुद्र-तट बहुत सुन्दर है । यह विश्व के आठ सुन्दरतम तटों में से एक है । यहॉं का पानी पिस्ता के रँग का है । यहॉं हम पैराग्लाइडिंग करेंगे , समुद्र में पानी के अन्दर मास्क लगा कर जायेंगे और जल-क्रीडा करेंगे । मैं पैराग्लाइडिंग की टिकट खरीद ली हूँ और अब पैराग्लाइडिंग के लिए जा रही हूँ ।
पैराग्लाइडिंग में बहुत मज़ा आया । मुझे ऐसा लगा जैसे मैं आकाश में उड रही हूँ । डर की कोई बात नहीं थी क्योंकि नीचे समुद्र तो है ही और हम गॉंवों में पले हैं , तैरना जानते हैं ।मेरे एक मित्र ने मुझे मन्दिर जाने की सलाह दी है पर यहॉं कोई मन्दिर दिखता ही नहीं हॉं! बौध्द-विहार हम ज़रुर जायेंगे । अब लञ्च लेने के बाद हम " कोरल-आईलैण्ड " और " नूँग-नूच गॉंव " देखने जायेंगे । मैं और अञ्जू नूँग-नूच को "नूँग-चूँग " ही कहते रहे हमें आखिर तक उसका असली नाम " नूँग-चूँग " कहना नहीं आया ।  ये दोनों ही जगहें मनोरम हैं । यहॉं हमने गजराज को क्रिकेट खेलते हुए देखा , जिसे सभी ने सराहा । यहॉं के बगीचे में बैठ कर हमने जम कर फोटोग्राफी की और घर से जो चना-मुर्रा ले गए थे उसे बॉंट कर खाया और कुछ शरारती बहनों ने छीन-छीन कर खाया । यही तो मज़ा है , दोस्तों के साथ घूमने का ।
26 / 6 / 2013
आज हमें पटाया से बैंकॉक जाना है । आज बैंकॉक में हमारा 11वॉ अन्तर्राष्ट्रीय कवयित्री सम्मेलन का आयोजन किया गया है । यह आयोजन भारत के राजदूत श्री अनिल वाधवा के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न होगा । मुझे छत्तीसगढ की ओर से उन्हें अँग-वस्त्र भेंट करना है । इस कार्यक्रम में मुझे " कुल-गीत " गाना है पर हमारे पास संगीत का कोई साधन नहीं है । मैने यह बात मुख्य-सचिव प्रथम राजनैतिक श्री राजेश शर्मा को बताई और उन्होंने हारमोनियम और तबला , वादक के साथ हमें उपलब्ध करवा दिया । दो लाइन गाकर मैंने जल्दी से प्रैक्टिस कर ली और अपने साथ , सौदामिनी ,सुनन्दा और भारती बहनों को ले लिया और फिर हमने झूम-झूम कर गाया ..." हम झूमेंगे हम गायेंगे जीवन का गीत सुनायेंगे ए. आई. पी.सी. का परचम हम देश-देश फहरायेंगे।" वादक कलाकारों का नाम साबरी-बन्धु था , उन्होंने इतना सुन्दर संगत दिया कि  जनता झूम उठी । हमें भी बहुत मज़ा आया । " हिज़ एम्बैसी " में बाहर से भी हिन्दुस्तानी जनता  अपनी बात कहने और हमें सुनने के लिए आई थी । हमने अपनी बात कविता के माध्यम से कही । अनिल जी ने हमारी बात ध्यान से सुनी और सराहना भी की । उन्होंने मुझे " THE BLESSED JUNO " सम्मान से अलॅंकृत भी किया । वस्तुतः 'जुनो ' एक क्रान्तिकारी महिला है जिसने सृजन के लिए क्रान्ति को अपना हथियार बनाया और ऑंदोलन का सूत्रपात किया ।
27 / 6 / 2013
" बैंकॉक " में हम " ALL SEASONS SIAM " होटल में ठहरे हुए हैं । छत्तीसगढ को 222 नम्बर का कक्ष मिला है । आज हम सुबह-सुबह , बौध्द-विहार देखने जा रहे हैं । यहॉं हमने दो बौध्द-विहार देखा । दोनों में बुध्द की स्वर्ण-प्रतिमा है । एक विहार में वे शान्त-चित्त , बैठे हुए मिले और दूसरे विहार में 80 फीट लम्बी उनकी हेम-प्रतिमा है जहॉं वे शान्ति-मुद्रा में लेटे हुए हैं । यह भव्य मूर्ति है , दृष्टि हटती नहीं है । जैसे भारत में कुशीनगर में जो पाषाण‌-प्रतिमा है , उतनी ही बडी , ठीक वैसी ही मुद्रा में यह स्वर्ण-प्रतिमा है । समाधि में जाते समय बुध्द के शिष्य आनन्द ने उनसे पूछा था कि हमारे लिए क्या आदेश है ? बुध्द ने कहा था -" अप्प दीपो भव ।" अर्थात् तुम अपने दीपक स्वयम् बनो । बुध्द के प्रथम शिष्य थे प्रसेनजित जो यशोधरा के पिता और बुध्द के ससुर थे । बुध्द ने यह सिध्द कर दिया कि " न धर्मवृध्देषु वयः समीक्ष्यते ।"
28 / 6 / 2013
आज भारतीय समयानुसार प्रातः चार बजे हम अपने वतन लौट जायेंगे । अभी दिन-भर हम और घूमेंगे क्योंकि
थाईलैण्ड का वाट [मुद्रा] हमारे पास बचा हुआ है , उसे खर्च करेंगे । ड्रीमलैण्ड जायेंगे , अम्बिके-मॉल जायेंगे फिर डिनर के बाद " सुवर्णभूमि एयरपोर्ट " जायेंगे । अभी हम ड्रीमलैण्ड आए हैं । सचमुच यह सपनों की दुनियॉं है । यहॉं सब कुछ है , तरह-तरह के झूले , नौका-विहार की विभिन्न शैलियॉं मुझे लुभा रही हैं । यहॉं कार ड्राईविंग भी मैंने कर ली है । मुझे बहुत मज़ा आ रहा है । बडे खतरनाक किस्म के झूले और गाडियॉं भी हैं पर मैंने ठान लिया है कि मैं सबकी सवारी करुँगी।
यहॉं एक कलाकृति को देखकर मुझे अपने भिलाई के ' नेल्सन ' की याद आ गई , जिसमें एक आदमी ज़मीन में धँसा हुआ है , बाहर बस उसके हाथ,पैर और चेहरा दिखाई दे रहा है । वह इतनी बडी कलाकृति थी कि मैं उसे अपने मोबाईल के कैमरे में कैद नहीं कर पाई । मानो वह मुझसे कह रहा हो कि " शकुन्तला जी ! भले ही आज मैं ज़मीन में धँसा हुआ हूँ पर मुझे भरोसा है कि एक दिन मैं अपने पैरों पर अवश्य खडा हो सकूँगा , मैं अभी भी इतना निरीह नहीं हूँ , जितना आप मुझे समझ रही हैं । " मैंने उसकी अदम्य इच्छा-शक्ति को सलाम किया  और मैं आगे बढ गई ।
यहॉं देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास " चन्द्रकान्ता " की शैली में एक समूचा राजमहल है , जहॉं इन्सान दिन में भी डर जाए । चारों ओर डरावने दृश्य हैं , ऐसा लगता है मानों ऐयार हमारा पीछा कर रहे हों । मैं और अन्जू हाथ पकड कर चल रहे थे फिर भी हम दोनों डर के मारे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते थे । ले-देकर किसी तरह वहॉं से बाहर आए । ड्रीमलैण्ड में एक ग्लेशियर भी था जहॉं हमने " सोनमर्ग " की शीतलता का अनुभव किया । यहॉं संगीत की स्वर- लहरी सुनाई दे रही थी , जिसमें बीच-बीच में " पंथी " की धुन का समावेश था । मुझे बहुत मज़ा आया, मैं और वर्षा उस धुन पर थिरकने लगे । थोडी देर में वर्षा ने मुझसे कहा कि उसे ठंड लग रही है और हम वहॉं से बाहर आ गए ।
ड्रीम-लैण्ड का बगीचा भी बहुत सुन्दर है , जहॉं भी नज़र जाती है , वहॉं से हटती नहीं है । जितना हो सका हमने इन दृश्यों को कैमरे में कैद कर लिया है । यहीं हमारे लञ्च की व्यवस्था भी है । भोजन के बाद हम अपने अगले पडाव की ओर लौटने लगे । अब हम " अम्बिके-मॉल " पहुँच गए हैं । यहॉं जिसे जो-जो खरीदना था , सबने खरीदा और लौटते समय , मैं, वर्षा और नागेश्वर रास्ता भटक गए । बडी मुश्किल से हम मीटिंग - प्लेस तक पहुँच पाए। चलते-चलते हम बुरी तरह थक चुके थे, डिनर के लिए हम अपने परिचित होटल में गए और इतमिनान से हमने भोजन किया फिर हम अपनी गाडी से " सुवर्णभूमि- एयरपोर्ट " पहुँच गए । चूँकि हमारी फ्लाइट देर रात में थी , हम एयरपोर्ट में भी मस्ती करते रहे और फिर प्लेन में बैठकर अपने वतन " "दमदम-एयरपोर्ट" लौट आए । हमने अपना-अपना सामान लिया और फिर मुस्कुराते हुए अपने-अपने गन्तव्य की ओर यह कहते हुए निकल गए - " आमी आश्ची । "