पुरुषार्थी क्लेश नहीं पाता है गुरु शिक्षा से वर्धित होता
यश पाता जगती में वह ही ज्ञान मार्ग से विकसित होता ।
जो नर निज को परमात्मा के पथ पर रखते सदा सतत
चहुँ - दिशि वही प्रगति पाते हैं उद्यम में नित रहते रत ।
सप्रयास सदगुण संग जीकर तम गुण का परित्याग करें
निन्दित कर्मों से पृथक रहें हम यश पाकर भी धीर - धरें ।
सन्जीवन है वेद - ज्ञान यह सबको देता शुभ - भोग यही
दुःख के पीछे तो सुख आता है चार - बलों का मार्ग यही ।
इन्द्रिय निग्रह यदि हम कर लें जीवन बन जाए अजर अमर
जन - मन दुर्गम जिसे मानता सत जन पाते हैं सुख सत्वर ।
सूर्य - चन्द्र साक्षात् देव हैं वे दुनियाँ को नीति सिखाते हैं
नेम - नियम अति आवश्यक है यह सीख हमें दे जाते हैं ।
करें सात्विक भोजन निश दिन रखें स्वस्थ निज तन व मन
सात्विकता से ही तो बढ़ती है मानव की प्रज्ञा और चिन्तन ।
जड़ - चेतन से सत लेकर नित करें सदा निज का कल्याण
अति समर्थ है प्रकृति सम्पदा सदा बढायें उसका मान ।
हरी - भरी इन वनस्पति से उत्तम औषधि निर्माण हम करें
व्याधि - शमन हो जाये जन का परोपकार से क्लेश हरें ।
उद्भव - पालक - प्रलय का कर्ता वही परम है वही महान
ऋषि - गण ध्यान करें उनका ही सूर्य चन्द्र देते व्याख्यान ।
उस विराट की विविध-विधा का ऋषि जानें हैं करके ध्यान
उसी ब्रह्म की महिमा का नित दिवा - रात्रि कहते आख्यान ।
सृष्टि और तन के अवयव का बहुत निकट का यह नाता है
वही परम है सर्व नियन्ता वह परमपिता कहलाता है ।
ईश्वर - प्रणीत जो सत्य नियम है माननीय है , है सर्वोत्तम
पद - प्रधान हम पा सकते हैं संतति यदि बन जायें उत्तम ।
कर्म - प्रधान सृष्टि यह अनुपम उसी परम का है वरदान
कण - कण में वह ही रमता है उसी ब्रह्म का धर लें ध्यान ।
जल प्राणी को शुचि करता है पावन -पथ पर उन्मुख करता
वेद ब्रह्म बहि अभ्यन्तर को प्रक्षालित कर आलोकित करता ।
धरा गगन यह परम हेतु है अतिशय लघु अतिशय है शुध्द
ऊष्मा देता सूर्य सभी को आनन्दित नर हो जाते हैं बुध्द ।
श्वास ग्रहण कर मानव पाता भोजन की भी शक्ति पुनीत
परमेश्वर का आज्ञाकारी जित - इन्द्रिय गाता चल गीत ।
उद्योगी- योगी- ज्ञानी - नर ही प्रगति - शिखर को छू पाते हैं
गत -आगत का नीति नियम यह सिध्द पुरुष वैभव पाते हैं ।
सत - जन की जो करे उपेक्षा करें शीघ्र उनका प्रतिकार
गुरु से समुचित- शिक्षा- पाकर बाँटें सविनय विद्या साभार ।
विपरीत क्षणों में शांत रखें मन वेद- मार्ग को ही अपनायें
बाधाएँ तो आती - जाती हैं अति - शुचि वेद ऋचा को गायें ।
धर्माचरण पुनीत कर्म है शौर्य - शक्ति है वर्द्धित होती
ब्रह्मचर्य तप सिखलाता है जितेन्द्रिय ही पा सकता मोती ।
परि -आवरण शुध्द होता है नभ-मण्डल होता है शुचितर
यज्ञ - धूम की महिमा अद्भुत पुण्य - लाभ होता है द्रुततर ।
परमात्मा के नियम से चलें सत्कर्म सतत कर सुखी रहें
धर्म -पुरुष नित निर्भय रह कर शोक -व्याधि से दूर रहें ।
शांति और वैभव पाता है नर बाधाओं से हो पार
कठिनाई पथ की सीढ़ी है हेतु प्रगति का यही है सार ।
द्विज निज तृषा शांत करते हैं करके सर सरिता में स्नान
ज्ञानी वेद - पुरुष के गुण को गाकर करें अहर्निश ध्यान ।
रवि की सप्त रश्मियाँ ओजस तिमिर मिटायें जहाँ-जहाँ हो
विद्वत - जन नित विद्या बाँटें वेद - ज्ञान आलोक यहाँ हो ।
भू - पर वेद - ज्ञान से पूरित रहें सूर्य सम नित आलोकित
चतुर्शक्तियाँ वर्द्धित होतीँ प्रसन्न चित्त हम रहें प्रतिष्ठित ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ . ग . ]