Wednesday 17 April 2013

बताओ मैं कहाँ हूँ ? [ लघु - कथा ]

छत्तीसगढ़ की सुन्दरता अद्वितीय है , और उसमें हमारा बस्तर तो , छत्तीसगढ़ रूपी मुंदरी में जड़ा हुआ पन्ना है । मैं कुछ दिनों के लिए कोंडागांव गई थी । मेरे घर के सामने डोंगरी के पास , बच्चे खेलने आ जाते थे । मैं उन्हें टुकुर - टुकुर देखा करती थी , मुझे ऐसा लगता था , जैसे मैं भी उनमें से एक हूँ मनुष्य का देह तो बड़ा हो जाता है , पर उसका बचपन अपना मुँह बिचका - बिचका कर , उम्र भर अज़ीब सी शरारतें करता रहता है । वे बच्चे सबसे पहले ग्राम -- देवता की आराधना किया करते थे -

कला के नगरी कोंडागांव कतका सुघ्घर कोंडागांव मार्कन्डेय कोरा म बइठे सब ले सुघ्घर कोंडागांव दुनियाँ भर म   जस बगरे हे शिल्प - गाँव ए कोंडागांव खेती होथे संजीवनी के ओखदपुर ए कोंडागांव ।

रुख राई के बीच म बइठे ध्यान करत हे कोंडागांव दुनियाँ . भर ल बांहटत हावय कला नमूना कोंडागाँव निखरय कला गाँव के कीर्ति सदा रहय संतोष के छाँव प्रभु से हावय एही प्रार्थना बनय कल्परुख कोंडागांव ।

प्रार्थना करने के बाद वे बच्चे , सलफी के आम के और पीपल के रुख के पीछे छिप जाते थे और जोर से चिल्ला कर पूछते थे - ' बताओ मैं कहाँ हूँ ? ' देखते - देखते वे बच्चे मेरे अन्तर्मन के बच्चे से घुल - मिल गए । प्यास लगने पर मुझसे पानी माँगना और कई तरह के बहाने बनाकर , मेरे करीब आना और मेरे द्वारा घंटों उनका इंतज़ार करना , एक तरह से हमारी आदत में शुमार हो गया । जिस दिन उन्हें आने में देर हो जाती , मैं बिस्किट का पैकेट और लोटा - गिलास में पानी लेकर , उनके सामने बैठ जाती और फिर वे मुझे अपनी व्यस्तता बताते हुए कहते -'आंटी थोड़ा धीरज रखिये , हम लोग थोड़ी देर में आयेंगे । हमें अभी प्यास नहीं लगी है । ' उनका मना करना भी मुझे उतना ही अच्छा लगता , जितना उनका मुस्कुराते हुए दौड़कर आना । बिस्किट का पैकेट खोलने पर फूलो जोर से कहती - आंटी बस सबको एक - एक दे दीजिये , इससे ज्यादा हम लोगों से नहीं खाया जाएगा , है न लालू ? और फिर मज़ाल है कि कोई बच्चा , और बिस्किट ले ले । फूलो का फतवा सुनकर , मेरी आँखों में पानी आ जाता था , पर मैं उन बच्चों को एक से ज्यादा बिस्किट कभी नहीं खिला पाई । मैं तरसकर रह गई । मैं इतनी दीन हीन कभी नहीं हुई थी , जितना इन बच्चों ने मुझे बना दिया था ।

अचानक एक दिन वे बच्चे खेलने नही आये । मैं रुआँसी होकर उनकी खोज - खबर लेने पहुँची । मुझे पता चला कि फूलोदई और राजोदई को नक्सली, उठा कर ले गए हैं । फूलो तेरह बरस की और राजो ग्यारह बरस की थी ।

मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई । मैंने इन दोनों बच्चों के लिए साधना, अनुष्ठान, मंत्र - जप सब कुछ किया साथ साथ रोना - गाना भी चलता ही रहा । अचानक तीन महीने बाद , वे दोनोँ आईं पर वे अब घर से बाहर नहीं निकलतीं । मैं उनके घर गई । उनकी माँ से मिली तो पता चला कि वे दोनों बच्चियाँ , नक्सलियों की हवस की शिकार हो चुकी हैं । बुझी - बुझी सी उनकी आँखें और सूखा हुआ उनका चेहरा , वह सब कुछ बयान कर रहा था , जो बच्चियों ने अपने मुँह से नहीं कहा ।

दोनोँ बच्चियों से मिलकर जब मैं वापस लौट रही थी , तो उनकी माँ वेदवती , मुझे मिली । उसने जोर जोर से रोते हुए , मुझसे कहा - ' दीदी ! इससे तो अच्छा होता कि नक्सली इन्हें मार डालते । मैं किस - किस के सवालों का जवाब दूँ ? इनका बाप तो घर - बार छोड़ कर कहीं चला गया है , पर इन दोनों का मुँह देख कर मैं कहीं जा भी नहीं पा रही हूँ । ' मैंने समझाया कि - ' इन्हें पढाओ - लिखाओ । जब ये दोनों अपने पैरों पर खड़ी हो जायेंगी , तब तुम इन पर गर्व करोगी । हिम्मत रखो , मैं तुम्हारे साथ हूँ । '

दस - पन्द्रह दिन बाद , नक्सली फिर , इन्हीं बच्चियों को उठा कर ले गए और आज तक , उनकी कोई खबर नहीं है । उनकी माँ भी आज कल दिखाई नहीं देती । उनके घर का कपाट खुला हुआ है , पर घर में कोई नहीं है ।

मुझे रात - रात भर नींद नहीं आती । मैं फफक - फफक कर रोती हूँ और डोंगरी के बीच से , सलफी और पीपर - पेड़ के पीछे से मुझे फूलो और राजो की आवाज़ सुनाई देती है । वे मुझसे पूछतीं हैं -' आंटी ! बताओ मैं कहाँ हूँ '।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

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