Tuesday, 24 September 2013

हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में ब्लॉग सेमिनार

हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के ब्लॉग सेमिनार के विषय में मुझे कुछ भी नहीं मालूम था पर सञ्जीव तिवारी और अरविन्द मिश्र के सौजन्य से मुझे इस कार्यक्रम में जाने का अवसर उपलब्ध हुआ । सौभाग्य से टिकिट भी जल्दी मिल गई और मैं 19/ 09 / 2013 / को मुँबई - हावरा मेल से ए-1 बोगी में 34 नम्बर के बर्थ में बैठकर वर्धा के लिए रवाना हो गई । जैसे ही मै वर्धा पहुँची एक व्यक्ति मेरे पास आया और मेरा झोला उठाने लगा फिर उसने मुझे बताया कि वह हिन्दी विश्वविद्यालय से आया है । मैं गाडी में बैठ गई और गाडी चल पडी हिन्दी विश्वविद्यालय की ओर । रिमझिम -रिमझिम बारिश हो रही थी और मैं पंत की कविता की पंक्तियों को मन ही मन गुनगुना रही थी.....

  " पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश ।
 मेखलाकार पर्वत अपार अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड ।

अवलोक रहा है बार-बार नीचे जल में निज-महाकार ।
जिसके चरणों में पडा ताल दर्पण सा फैला है विशाल ।"

कुछ ही देर में गाडी " महात्मा गॉंधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय " परिसर पर पहुँच गई और ' नागार्जुन सराय ' में 215 नम्बर का कक्ष मुझे मिल गया ।यह परिसर वैभवशाली एवम् गरिमामण्डित्  तो है ही साथ ही उसमें गज़ब का आकर्षण भी है ।छोटे-छोटे पौधे भी बहुत आग्रह-पूर्वक मुझे अपने पास बुला रहे हैं ।मैंने उनसे वादा किया कि मैं तुमसे मिलूँगी जरूर और फिर अपने कमरे में पहुँच गई ।मेरे कमरे की खिडकी के सामने  पहाडी का सौन्दर्य , झांक रहा था,उसने मुझसे कहा-" इस कक्ष में तुम्हारा स्वागत है । उसने मुस्कुरा- कर मुझसे कहा- " तुम चाहो तो झट से एक कविता लिख लो, कल-परसों तुम व्यस्त रहोगी बस आज का ही समय है ।" मैंने मुस्कुराकर उसकी बात मान ली और सचमुच एक कविता लिख डाली , जैसे ही कविता पूरी हुई किसी ने मेरा द्वार खटखटाया । मैंने दरवाजा खोला तो सामने ,रचना और सिध्दार्थ खडे थे । उनसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा ।विशेषकर रचना की 'टूटी-फूटी' भाषा में बडी सरलता और अपनापन था ।रात्रि में भोजन के समय तक बहुत से भाई-बन्धु पहुँच चुके थे ।सभी का आत्मीय भरा व्यवहार पाकर ऑंखें भर आईं और मैंने यह अनुभव किया कि यह भी अपना ही परिवार है ।हम एक-दूसरे से इस तरह मिल रहे थे जैसे बरसों से एक-दूसरे को जानते हैं ।

  19 और 20 सितम्बर 2013 को हिन्दी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति श्री विभूति नारायण रॉय के मार्गदर्शन में ," हबीब तनवीर प्रेक्षागृह में , हिंदी ब्लॉग का राष्ट्रीय सेमिनार सम्पन्न हुआ । इस ब्लॉग सेमिनार में अनेक प्रदेशों से पधारे ब्लॉगर्स ने न केवल अपनी उपस्थिति दी अपितु सभी कार्यक्रम में उन्होने अपना योगदान भी दिया । वर्धा में आयोजित इस सेमिनार में कुल सात सत्र थे । सेमिनार की रूपरेखा कुछ इस प्रकार थी ।

एक-उद्घाटन सत्र :- विषय प्रवर्तन , सोशल मीडिया के तीव्र उद्भव के बीच हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रास्थिति ।

दो -ब्लॉग, फेसबुक ,ट्विटर की तिकडी, एक -दूसरे के विकल्प या पूरक ? प्रतिद्वन्द्वी या सहयोगी ?

तीन-तकनीकी-सत्र , ब्लॉग बनाने की तकनीक , देवनागरी -यूनीकोड का प्रयोग,इन्स्क्रिप्ट, ट्रान्सलिटरेशन, इनपुट-मेथड आदि ।

चार-सोशल मीडिया और राजनीति :- देश के राजनैतिक परिदृश्य में सोशल मीडिया की भूमिका और इसके विविध आयाम ।

पॉंच-ब्लॉग में हिन्दी साहित्य :- साहित्य के कितने आयामों को छूता है हिन्दी ब्लॉग और इन्टरनेट ?

छः-तकनीकी सत्र :-हिन्दी ब्लॉग व हिन्दी वेवसाइटों के लिए ध्यान रखने योग्य बातें, लोकप्रिय और खोजप्रिय बनाने के नुस्खे । संकलक के आर. एस. एस. प्रारूप व प्रमुख हिस्से ।

सात-खुली चर्चा :- हिन्दी ब्लॉगिंग को सांस्थानिक समर्थन कैसे ? पत्रकारिता और जनसंचार सम्बन्धी पाठ्यक्रमों में सभी स्तरों [डिप्लोमा, डिग्री , एम. फिल., शोध-कार्य ] में हिन्दी ब्लॉगिंग का विषय सम्मिलित होना ।विश्वविद्यालय की वेबसाइट "हिंदी समय " पर एक समर्थ ब्लॉग एग्रीगेटर "चिट्ठा समय " को सक्रिय किया जाना ।

इस सेमिनार में मुझे सबसे ज्यादा मज़ा किसमें आया ,यदि यह बात मैं बता दूँगी तो भाई लोग मेरा उपहास करेंगे और शायद मुझे ऐसे कार्यक्रम में कभी नहीं बुलायेंगे पर मेरा बताने का मन कर रहा है कि मुझे क्या अच्छा लगा । एक- " कुलगीत " जिसे बच्चों ने झूम-झूम कर गाया और जिसकी शब्द-रचना पर मन मुग्ध हो
गया ।दो-सेवाग्राम-भ्रमण । बापू को करीब से जीने का अवसर मिला , मन तृप्त हो गया ।तीन -कवि-गोष्ठी , इसमें सिध्दार्थजी की कविता से ज्यादा उनके कविता सुनाने के अँदाज़ पर मज़ा  आया ।चार-सुबह-सुबह पहाडी पर चढने में बहुत मज़ा आया यद्यपि लौटते समय सैंडिल में मिट्टी लग जाने की वजह से उसे हाथ में पकड कर लाना पडा ,पर किसी ने देखा नहीं ।

हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूति नारायण रॉय ने ,न केवल औपचारिकता-वश अपितु व्यक्तिगत रुचि लेकर इस सेमिनार में अपनी सहभागिता दी । वे अधिकतर समय सेमिनार में ही उपस्थित रहे, इस अवसर पर उनकी श्रीमतीजी का भी आत्मीय -पूर्ण व्यवहार हमें भरपूर मिला ।" जयतु ब्लॉगम् ।"

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ. ग. ]   

Wednesday, 18 September 2013

नैन- बैन

अपनी  आँखों  को  समझाओ  जान  न   जाए  दुनियाँ  सारी
बैन  -  नैन  से   नैन  न   करे   जल  जाएगी   दुनियाँ   सारी।

भीग  रहे  हम  तुम  पावस  में  चकित अचंभित है जग सारा
घर - बाहर  बरखा  छाई  पर जल  जाए जग  प्यार  का मारा।

पूँजी  परम  प्रेम  की  प्रियतम  जग -  बैरी  से  रखो बचाकर
मानव  - जीवन  होता  सार्थक  प्रेम - रूप  पारस  को  पाकर।

नयन  - गिरा  की  गरिमा  अद्भुत  शब्दों  पर  भारी  पड़ती है
जब -जब वह चुप चुप दिखती है अनगिन प्रेम कथा गढ़ती है।

ग्रन्थ   सभी   हैं   मुखरित   होते   तेरे   नयनों  की  बानी  में
नख  से  सिख  तक  भर  देते  हैं  राग  प्रणय के  हर प्राणी में।

नयन  हैं  छोटे  भाव  बड़े  हैं  गुरु  लघु  में किस तरह समाये
चपल चंचला चुप न रहे वह छलक छलक सब कुछ कह जाये।

कहना  कितना  कठिन  और  चुप  रहना  उससे  भी  भारी है
इसीलिए    अनकहे  -  बैन   की   आख्या   सबसे   न्यारी   है।

तुम  हो  चुप  अँखियाँ  कहती  हैं  जो  शब्दों  से कहा न जाये
बस  इतनी  सी  बात  समझ  ले बिन तेरे अब जिया न जाये।

नयन  नयन  की  भाषा  पढ़  ले  कैसी  अद्भुत  बात  निराली
इन्द्रधनुष  उतरा  अँखियों में मुख पलाश की बन गई लाली।

लाज- भरे अधमुंदे  नयन  ने सतसई  कह  दी दृष्टि झुकाकर
शब्दों  से  अनछुए  रह  गए  भाव  नयन  की  पोथी  पा  कर।

लिखा  हुआ  हर  एक  भाव  है   मंत्र  सदृश  मेरे  जीवन  में
तू   है  दूर  बहुत  मुझसे  पर  हर  पल  बसता  मेरे  मन   में।

आकर्षण  है  अजब  नयन  में  मौन  निमंत्रण देते हर क्षण
युगों -युगों तक भटके मन को आश्रय देते हैं क्षण प्रतिक्षण।

दृष्टि  अनूठी  तेरी  प्रियतम  कह  जाती अनगिन- आख्यान
चुप -चुप दिखती  है  पर सबको परिणय का करती आह्वान।

अद्भुत अनुपम  नयना जिसमें काम -  राम  दोनों  हैं  बसते
एक  - दूसरे  के  पूरक  हम  यही  रहस्य  मनुज  से  कहते।

पुरुषार्थ   चार   होते   हैं   भाई   नयन   तुम्हारे   कहते   हैं
धर्म - अर्थ  और  काम - मोक्ष  से हम नर -तन को गढ़ते हैं।

शकुन्तला शर्मा ,भिलाई [छ ग ]


         

   

Saturday, 14 September 2013

नागरी - व्यथा

मैं देवनागरी हूँ। 
चार वेद मेरे ही माध्यम से प्रगट हुए हैं। 
मेरी संख्या बावन है 
पर छब्बीस की संख्या वाली लिपि से 
मैं प्रतिक्षण तिरस्कृत होती हूँ। 
बिना हाथ -पैरों वाली लिपि को 
वैज्ञानिक की संज्ञा से अभिहित किया जाता है 
और स्वस्थ अंग- प्रत्यंग वाली 
मैं अपने ही घर में उपेक्षिता हूँ। 

मेरी वैज्ञानिकता के विषय में तो आप जानते हैं 
मिट्टी से 'क' बनाइये ,उसमें फूँक मारिये 
आपको 'क' ध्वनि सुनाई पड़ेगी। 
इसी प्रकार मेरे प्रत्येक वर्ण की 
परीक्षा की जा सकती है। 
 मैं गागर में सागर भर सकती हूँ 
यह मेरा अहं नहीं ,इस लिपि की विशेषता है

पंचतंत्र और हितोपदेश 
क्या किसी के. जी. से कम रुचिकर हैं ?
कम शिक्षाप्रद हैं ?
ऋग्वेद की डेढ़ पंक्ति के आशय को ,इतने ही शब्दों में 
क्या किसी और लिपि में छंद -बध्द करना संभव है ?

पतंजलि का योगसूत्र 
वात्स्यायन का कामसूत्र
नारद का भक्तिसूत्र 
बादरायण का ब्रह्मसूत्र 
कौटिल्य का अर्थशास्त्र 
शारंगधर और चरक की चिकित्सा पध्दति 
संगीत के विविध राग -रागिनियाँ 
नृत्य की अप्रतिम भंगिमायें 
ऐसी कौन सी विधा है ,
जिसकी छवि मुझसे नहीं निखरी ?
मैं पारस हूँ ,मैनें जिसे भी छुआ 
वह कंचन हो गया। 

मैं जीती -जागती बैठी हूँ 
पर वर्ष में एक बार 
मेरा श्राध्द किया जाता है 
'हिंदी डे ' मनाया जाता है ,
जिसमें बड़े -बड़े अफसरों को 
'चीफगेस्ट ' बनाया जाता है ,
जिनके मन मस्तिष्क में ,अभी भी 
महारानी विक्टोरिया विराजमान है ,
जो 'भारत ' को 'इण्डिया ' और 'राष्ट्रगीत' को 
'नेशनल एंथम ' कहने में अपनी शान समझते हैं। 

'वे ' भारतेंदु को नहीं जानते 
यह भी नहीं जानते कि -
"निज भाषा उन्नति अहै निज उन्नति को मूल। 
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटय न हिय को शूल ।।"

शकुन्तला शर्मा ,भिलाई [छ ग ] 

Wednesday, 11 September 2013

विनोबा भावे

आज विनोबा जी का जन्म -दिवस है। ११ सितम्बर १८९५ को " गागोदे " नामक गाँव में उनका जन्म हुआ जो महाराष्ट्र में ,कर्नाटक की सीमा से लगा हुआ है। १५ अगस्त १९८२ में ,मैं पवनार आश्रम गई थी। यह आश्रम वर्धा के पास 'धाम ' नदी के तट पर स्थित है। "पवनार " पव अर्थात् पाओ नार का अर्थ है 'लता। ' अभिप्राय यह कि आवश्यकता की समस्त वस्तुयें तरु -लताओं से ही प्राप्त करो। अपने आश्रम के लिए विनोवा जी कोई भी वस्तु बाहर से नहीं खरीदते थे। उपयोग की सभी वस्तुयें आश्रम में ही उत्पन्न की जाती थीं और संन्यासी -गण उन वस्तुओं से अपने उपयोग की वस्तुयें स्वत: बना लेते थे। उन्हें केवल नमक खरीदना पड़ता था क्योंकि पवनार आश्रम समुद्र -तट पर नहीं था। 'पवनार' आश्रम वस्तुत: महिलाओं का आश्रम है। देश की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति जब सर्वथा प्रतिकूल थी ,उस समय हमारी माँ की उम्र की स्त्रियाँ ,ब्रह्मचर्य धारण कर ,संन्यासी की तरह आश्रम में रहती थीं ,यह कितना आश्चर्य -जनक है और विनोबा जी जैसे संत का संरक्षण उन्हें प्राप्त था ,यह उनका कितना बड़ा सौभाग्य है ?

आश्रम में कपास की उपज होती थी और संन्यासी -गण अपने -अपने लिए वस्त्र स्वयं बुनती थीं और उसी वस्त्र को पहनती थीं। उनकी पोशाक में एक अधोवस्त्र हुआ करता था ,जो घुटने के नीचे तक रहता था और ऊपर कुरता होता था ,साथ में एक लंबा सा दुपट्टा होता था। यह पोशाक उन पर बहुत फबता था और इससे उन्हें काम -काज करने में कोई असुविधा भी नहीं होती थी। आश्रम में कुसियार की खेती होती थी और उससे मधुरस जैसा गुड़ आश्रम में ही बना लिया जाता था। उस गुड का स्वाद शहद जैसा ही था। भोजन में लगभग आधा लीटर दूध भी परोसा गया था ,जिसके स्वाद की तुलना ,कामधेनु के दूध से की जा सकती है। भोजन में बड़ी -बड़ी स्वादिष्ट रोटियाँ ,रुचिकर सब्जियाँ और नीम की पत्ती की चटनी भी परोसी गई थी। तन और मन दोनों इस भोजन से तृप्त हो गया और मेरा मन "जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन " की सार्थकता का अनुभव करने लगा। भोजन के बाद मैं पुस्तकालय गई और कुछ किताबें खरीद लाई  । खरीदी हुई पुस्तकों पर उन्होंने हस्ताक्षर की जगह लिखा है "रामहरि।" मैं १५ अगस्त को इसलिए गई थी कि वे कुछ कहेंगे पर जब उन्हें बताया गया कि आज १५ अगस्त है तो वे बच्चों की तरह देर तक हँसते रहे पर कुछ बोले नहीं। 

संध्या समय प्रार्थना कक्ष में मैंने देखा कि आश्रम का कोई भी सदस्य प्रार्थना -मात्र नहीं कर रहा है। प्रार्थना के साथ -साथ कोई चरखा चला रहा है तो कोई तकली तो कोई अन्यान्य कार्य में संलग्न है। जीवन में पहली बार मैंने कर्मयोग को चरितार्थ होते हुए देखा और मैंने समझने की चेष्टा की ,कि संभवतः गीता का कर्मयोग यही है जिसे भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाया था। 

मैं १९६३ में भी विनोबा जी को देखी थी जब वे बिलासपुर में  'नार्मल स्कूल ' में आए थे। तब मैं महारानी लक्ष्मी बाई स्कूल में नवमी कक्षा में पढ़ती थी , हमारा पूरा स्कूल विनोबा जी को सुनने के लिए आया हुआ था । मैंने देखा कि विनोबा जी इतनी तेजी से चल रहे थे कि उनके स्वागत में खड़े हुए लोग उनके पीछे लगभग दौड़ रहे थे। उस समय उनका "भूदान आँदोलन " बहुत लोकप्रिय था। लोग उन्हें देवता की तरह मानते थे और अपनी सैकड़ों एकड़ जमीन दान में दे दिया करते थे। आज वही विनोबा दुबले -पतले और कमज़ोर दिखाई दे रहे हैं। अभी वे भोजन के नाम पर केवल शहद खाते हैं। बच्चों की सी सरलता है उनमें और सरलता क्यों न हो ? "सरलता ही तो साधुता है " इस कथन को वे स्वयं चरितार्थ कर रहे थे।

"विनोबा जी की लाखों एकड़ जमीन गुम हो गई है पता नहीं केंद्र सरकार इसे ढूढने के लिए क्या करेगी ? यह तो वही जाने पर उनके समर्थकों ने जमीन बचाने की गुहार लगाई है। "[सुरेंद्र प्रसाद सिंह ,नई दिल्ली ]

अभी मैं सत्संग भवन में बैठी हूँ। सत्संग में सभी आगन्तुक एवं आश्रम के सदस्य भी बैठे हैं। मुझे सामने जगह नहीं मिली है मैं बहुत पीछे में बैठी हूँ पर भीड़ के बीच से विनोबा जी ने मुझे बुलाया और मुझसे कहा -"तुम्हारे बाल कितने लंबे हैं ,इन्हें छोटा करो। " दूसरी बात उन्होंने मुझसे कही -"संस्कृतं पठितव्यम्।" अर्थात् तुम्हें संस्कृत पढ़ना चाहिये। उनके कथन का मैंने विश्लेषण किया तो मुझे यह समझ में आया कि आश्रम की सभी संन्यासियों की तरह मैं भी अपने बाल छोटे कर लूँ। दूसरी बात उन्होंने मुझसे संस्कृत पढ़ने के लिए कहा ,क्यों ? मैं संस्कृत में एम ए थी ,पर मुझे कुछ नहीं आता था ,आज भी वैसी ही हूँ पर आज संस्कृत के प्रति अनुराग हो गया है। हम उनसे मिलकर आए हैं और १५ नवंबर 1982 को उनका देहावसान हो गया। ' पवनार ' में उनकी पुण्य -तिथि को "मित्र -मिलन " के रूप में मनाया जाता है। विनोबा ने न किसी से दीक्षा ली , न किसी को दीक्षा दी। वे आजीवन " अप्प दीपो भव " की राह पर चले। 

आश्रम के प्रवेश द्वार पर दो वृक्ष आमने- सामने खड़े हैं। एक वृक्ष पर " जयप्रकाश " लिखा हुआ है और दूसरे पर "प्रभावती।" बरसों पूर्व महान क्रांतिकारी जयप्रकाश नारायण और उनकी धर्मपत्नी प्रभावती ने उन पौधों को रोपा था जो आज छायादार वृक्ष बन चुके हैं। तन -मन से थके हुए जन को ये वृक्ष अपनी ओर आकृष्ट करते हैं ,मानों हमसे कह रहे हों कि -"आओ ! आश्रम को जानो ,जानकर इसे जियो और जीकर ,जीवन की पूर्णता को प्राप्त करो। "

शकुन्तला शर्मा ,भिलाई [छ ग ]

Monday, 9 September 2013

श्री गणेशाय नमः

अभीप्सितार्थसिध्दयर्थम्, पूजितो यः सुरासुरैः।
सर्वविघ्न हरस्तस्मै महा गणाधिपतये नमः  ।।

गणेश जी विवेक के प्रतीक हैं ,विघ्न -विनाशक हैं एवं प्रथम पूज्य हैं। इसके पीछे भी एक कहानी है। एक बार देवगणों में विवाद हो गया कि सबसे पहले किसकी पूजा की जाए ? सभी अपने आपको श्रेष्ठ कहने लगे ,तब यह निर्णय हुआ कि जो सबसे पहले सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करेगा ,उसी की पूजा सर्व -प्रथम होगी। सभी देवगण अपने -अपने वाहन पर सवार होकर परिक्रमा के लिए निकल पड़े। गणेश जी ने सोचा कि माता -पिता की महिमा तो सर्वोपरि है और उन्होंने शिव -पार्वती की परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम कर लिया। गणेश जी विजयी घोषित किए गए। इसके पश्चात् किसी भी तरह की पूजा में गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती है। यह हमारी परम्परा बन चुकी है।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ,स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को गति देने के लिए और सामाजिक चेतना की बढ़ोतरी के लिए घर -घर में ,गणेश चतुर्थी के दिन गणेश स्थापना का संदेश दिया। उसी रास्ते पर पूरा देश चल रहा है। निश्चित रूप से गणेशोत्सव से परस्पर भाई -चारा एवं मित्रता पूर्ण सम्बन्धों में बढ़ोतरी होती है। चिन्तन परिमार्जित होता है और समाज में सुख -समृद्धि एवं शांति स्थापित होती है। अतः हमें गणेश जी की स्थापना अपने मन -मस्तिष्क में करना चाहिए।

गणेश जी बुध्दि के देवता हैं। विवेक के समुचित उपयोग के द्वारा हम किस तरह विषम परिस्थिति में भी सम्यक समाधान ढूढ़ लेते हैं यह हमारी बुध्दि पर निर्भर करता है। हम अपने विवेक का उपयोग ,जिस प्रकार ,जिस दिशा में और जिस भाव से करते हैं उसी के अनुरूप हमें परिणाम प्राप्त होते हैं। हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि बुध्दि का सार्थक प्रयोग हो ,सृजनात्मक प्रयोग हो। स्मरण रहे कि सृजन ही धर्म है ,विनाश अधर्म है। सृजन में ही सुख संतोष निहित है अतः हम यह संकल्प लें कि हमारा जीवन सृजन हेतु समर्पित हो।

मानव -जीवन में जो विधेयात्मक चिन्तन है वही कल्प -वृक्ष है। इसे ही ऋतंभरा -प्रज्ञा कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य के भीतर यह प्रज्ञा विद्यमान है। गणेश जी ने अपनी बुध्दि का सार्थक उपयोग कर ,हम सबको बुध्दि का विधेयात्मक प्रयोग करना सिखाया है। "सिध्दि बुध्दि सहिताय श्रीमन्महागणाधिपतये नमः। "

शकुन्तला शर्मा ,भिलाई [छ ग ]   
  

Thursday, 5 September 2013

वयम् राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिता:

 कल उस समय मुझे आश्चर्य -मिश्रित सुखानुभूति हुई
 जब मैंने अपने ही घर पर
सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन को दिन -दहाड़े देखा।
वही चेहरा , समुन्दर सी आँखे
और सिर पर पगड़ी थी।
मुख -मुद्रा गंभीर थी।

मेरे घर पर कुछ इस तरह घुसे
जैसे कोई साहूकार अपने देनदार के घर
वसूलने पहुँचता है।
कहने लगे -"तुम शिक्षक हो , बताओ
कितने बच्चों को तुमने शिक्षित किया है ?"
मुझे काटो तो खून नहीं।
युध्द भूमि में पीठ दिखाते हुए मैंने कहा -
"हम पढ़ाते तो हैं पर बच्चे ही--------------"
उन्होंने फिर कहा -
"बच्चे यदि जीवन मूल्यों को ,गुरु -लाघव को
और सृजन के अर्थ को नहीं समझते
इसका तात्पर्य तो यही है कि
तुमने अपने दायित्व का निर्वाह
भलीभांति नहीं किया।
तुम्हें युवा -पीढ़ी के मन -मस्तिष्क के संचालन का
गुरुतर भार सौंपा गया था
बताओ ! इस दिशा में तुमने क्या किया ?"

उनके एक-एक शब्द ,मेरे मस्तिष्क को संज्ञा-शून्य
मेरे अहंकार को चूर -चूर ,
और मेरे हृदय को छलनी कर रहे थे।
उनके शब्द -बाणों में यति नहीं थी ,
गति थी अविरल गति।
उन्होंने मेरी चेतना को झिंझोड़ कर पुन: कहा -
"किसी भी राष्ट्र का स्तर ,
उस देश के शिक्षकों के स्तर पर निर्भर करता है ,
क्या तुमने कभी अपना मूल्यांकन किया
कि तुम कितने पानी में खड़ी हो ?
जो छात्र नवीं कक्षा में पढ़ता है ,उसका स्तर
पाँचवीं -छठवीं कक्षा के छात्र के बराबर है ,
सातवीं -आठवीं के छात्र ,जोड़ना -घटाना ,
गुणा -भाग नहीं जानते
और नवीं -दसवीं के छात्र हिंदी की किताब पढ़ते समय
[अंग्रेज़ी और संस्कृत ,तो वे पढ़ ही नहीं सकते ]
हर वाक्य में गलतियाँ करते हैं।
क्या तुमने कभी सोचा कि इसके मूल में कौन है ?"

मेरा होश -हरिन हो गया।
उनका गला भर आया था ,
रुँधे गले से उन्होंने कहा -
" अरे भाइयों -बहनों ! ज़रा सोचो तो
अपना जन्म -दिवस ,
क्या इसीलिए मैंने तुम शिक्षकों के नाम समर्पित किया था
कि तुम अपना लक्ष्य भूलकर ,
एक सामान्य नागरिक की तरह जियो ?"

इन शब्दों के ही साथ -साथ ,
उनकी आँखों से झर -झर आँसू बहने लगे।
भरी हुई तो मैं भी थी ,फूट पड़ी ,
भरे कण्ठ से मैंने स्वीकारा -
" अब मैं आपसे क्या कहूँ  ?
कहने को तो हम शिक्षक हैं
पर हम अपना दायित्व भूल चुके हैं।
आजकल हम अपनी आन और मान के लिए नहीं जीते ,
अपने छोटे -छोटे सुखों के लिए जीते और मरते हैं। "

अचानक मेरे भीतर का चेतना -शून्य शिक्षक जाग उठा
उसकी ओजस्वी -वाणी आज भी मेरे कानों में गूँज रही है -
उसने कहा था -
"हम मानव -मूल्यों के लिए और सृजन के लिए जियेंगे ,
हम अपनी वाणी को अपने आचरण में उतार कर रहेंगे। "
तभी अचानक मेरी आँख खुल गई।
मैंने अनुभव किया कि वे आश्वस्त होकर चले जा रहें हैं।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ ग ]       

Monday, 2 September 2013

श्वेताश्वतरोपनिषद्

ब्रह्म  कौन  है  हम  हैं  कौन हम सबका आधार कौन है 
कहाँ रहता है तीन काल में हम सबका स्वामी है कौन ?

एक नदी के पाँच श्रोत हैं ज्ञानेन्द्रिय ही पाँच श्रोत हैं 
नदी का वेग है बड़ा भयंकर जन्म मृत्यु से ओत प्रोत है।

मन ही जग की रचना करता अमन ही करता है संहार 
जग में जन्म मृत्यु का भय है प्रबल वेग ही तो है हार। 

अपरा -  परा  की  यह  रचना पुरुषोत्तम ही धारण  करते  हैं 
जीवात्मा आस्वादन करती संचालन नियमन प्रभु करते हैं।

वह  प्रभु सर्व- शक्ति- मान  है  अल्पज्ञ  जीव  तो है बलहीन
किंतु अजन्मा हैं तीनों ही जीवात्मा प्रकृति और प्रभु तीन।

सम्पूर्ण विश्व यह देह उसी का वे सर्जक  पोषक  संहारक हैं 
पर कर्ता - पन का भाव नहीं है प्रकृति जगत के वे कारक हैं।

 जैसे तिल में तेल दही में घी नदी में जल छिपकर रहता है
मनुज  -हृदय में वैसे ही वह परम - पुरुष निवास करता  है।

ओंकार नाम से ही करना है हमको  परमात्मा  का  ध्यान
जन्म - मृत्यु  के पार चलें हम अमृत  पाने का है आह्वान।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]

Sunday, 1 September 2013

तैत्तिरीयोपनिषद्

भौतिक आध्यात्मिक पदार्थ को मनुज आपस में जोड़ देता है 
इस रहस्य को जान - समझ  कर विविध  शक्तियाँ पा लेता है ।

भौतिकता से पंच - प्राण जुड़ते हैं विविध लोक से प्राण जुड़े हैं
भौतिक- बल सूक्ष्म - शक्ति की पूरक दोनों तत्त्व महान बड़े हैं । 

"ओंकार "  की  महिमा  अद्भुत  यह  तो है  परमेश्वर  का  नाम
ओम  समाधान  -  सूचक  है  अति- अद्भुत  है  इसका  काम  ।

चिंतन - मनन - निदिध्यासन भी हर मनुज हेतु आवश्यक है 
सदाचार  है  बहुत  जरूरी  इह - पर  गुण  का  यह   गाहक  है । 

सत्यवचा - ऋषि  का  कहना  है  सच  ही गुण में सर्व - श्रेष्ठ है
प्रत्येक  कर्म  हो  सत्य - निष्ठ  तभी  फल  भी  होता यथेष्ठ  है

धर्म  में  दृढ़ता  तब  आती है तप की कसौटी सत्य - वचन है
नाक  मुनि  यह  समझाते  हैं  श्रेष्ठ   तपस्या  वेद -  पठन  है

श्रुतियों   के  अनुकूल  कर्म   हो  बाधाएँ  हमें  डिगा  न  पायें
दृढ़ता  से तप  करें  हम  सभी  सत्य - भाव  के पथ पर जायें । 

जैसा  चिन्तन  मानव  करता  है  वह  वैसा  ही  बन जाता है
संकल्प  सदा  पूरा  होता  है  भावानुसार  नर  फल  पाता  है।  

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ  ग  ]