Sunday, 8 March 2015

चौदह अगस्त की सन्ध्या थी

चौदह अगस्त की संध्या थी वह देस  राग की ही बहार थी
विचित्र - वीणा  का वादन  था विभावरी वह कलाकार थी ।

हम  पहुँचें  इसके  पहले ही विभा वहॉ पर विराजमान थी
वीणा उसके  हाथों  में  थी  सरस्वती - सम  विद्यमान थी ।

प्रोग्राम  बहुत  ही  दिलकश  था नाम था उसका 'देस राग'
शीर्षक सबको  खूब  जँचा था जैसे पंखुडियों - बीच पराग ।

परिचय  की  मोहताज़  नहीं  थी  विभावरी  ने छेडी - तार
जब  वीणा  के  छिडे  तार  तो  अद्भुत  थी  उसकी  झंकार ।

आसा  ने आलाप  लिया  था  'चिट्ठी आई है'  वाला गीत
जनता  खोई  थी उस  धुन  में तभी  हो गया गीत अतीत ।

करतल ध्वनि से हॉल भर गया यद्यपि ऑखें भर आई थीं
वीणा  चुप  हो  गई किन्तु अब दर्शक  -  दीर्घा हर्षायी थी ।

तभी  विभा  का  परिचय  देने  आसा  वरी  वहॉ  आई  है
उसने  कहा  " विभा  अँधी  है "  वह  मेरी  ही  सहोदरा है ।

" मैं  भी  देख  नहीं  सकती  हूँ  पर  मैं  भी  गाती  हूँ गीत
विभावरी -  वीणा  पर  होती  मन  -  बहलाता  है  संगीत ।"

सन्नाटा  छा  गया  हॉल  में  पसरा  था  बस  केवल मौन
यह  क्या  हुआ  क्यों  हुआ  ऐसा ऐसी सज़ा दिया है कौन ?

आसा - विभावरी  बहनों  में  ऐसी  विचित्र  सी  थी झंकार
शब्द - तार  मिल  गए  परस्पर अद्भुत था  यह चमत्कार ।

बिन ऑखों  की  दो - बहनों  ने नयनों में भर दिया है जल
पर अद्भुत वरदान मिल गया अब उज्ज्वल है उनका कल ।

1 comment:

  1. बहुत प्रेरक प्रस्तुति...कोशिश करने वालों की राह में शारीरिक अक्षमता कभी बाधा नहीं बनती...

    ReplyDelete