कल रात अचानक किसी ने मुझे झकझोर कर जगाया | जगाने वाला कोई पुरुष था | मैंने
अनुमान लगाया कि कोई साहित्यकार होगा | उसने बहुत दुखी होकर मुझसे कहा - " हाँ
मैं तो आउट डेटेड हो गया हूँ , है न ? तुमने तो मुझे दरकिनार कर ही दिया है , तो अब
पहचानने का प्रश्न ही कहाँ उठता है | "
मेरी आँखे बंद थीं , किन्तु मैं उन्हें अच्छी तरह देख रही थी | उन्होंने धोती पहन रखी थी
और बदन पर गाँवनुमा कुर्ता था | गले में स्वच्छ , सफेद अँगोछा लटक रहा था | उनकी
दृष्टि में बड़प्पन की चमक थी | मैंने हाथ जोड़ कर कहा - " मुझे क्षमा कीजिए ! मैं जानती
हूँ कि आप मेरे बेहद करीब हैं , किन्तु मैं आपको पहचान नहीं पा रही हूँ | कृपया आप
अपना परिचय दीजिए | "
उनका चेहरा उतर गया , उन्होंने कातर दृष्टि से मुझे देखा - मानों कह रहे हों कि अब
अपना परिचय भी देना पड़ेगा ? फिर मेरी ओर उपालंभ दृष्टि डालते हुए , उन्होंने धीरे
से कहा - "मुझे मम्मट कहते हैं ।"
मारे आश्चर्य के मेरी आँखे खुल गईं | घड़ी में देखा , रात के दो बज रहे थे | अब मम्मट
का दयनीय चेहरा , मेरी आँखों से ओझल ही नहीं हो रहा था | मैं आत्मग्लानि से मरी
जा रही थी | वस्तुत: हुआ यह कल शाम को ही "काव्यप्रकाश " को मैंने अल्मारी से
हटाकर , पठेरा में रख दिया था , मेरे मन के किसी कोने को , यह बात अच्छी नहीं
लगी होगी , इसीलिये मैंने उन्हें , नींद में देख लिया और उनके विचार जान लिए |
मम्मट , मुझसे कह रहे थे - "बस परीक्षा पास करने के लिए ही , तुम लोग मुझे
पढ़ते हो | मुझे कभी समझने की चेष्टा ही नहीं की | कितने गैर जिम्मेदार हो तुम
लोग | " मुझे उनकी डांट अच्छी लग रही थी | मैं सोचने लगी - वे ठीक ही तो कहते
हैं | हम अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो चुके हैं कि हमारे पास सत - साहित्य को पढ़ने
के लिए समय ही नहीं है | सच कहूँ तो ये हमारे पूर्वज हैं | मम्मट , कालिदास ,
प्रेमचन्द, तुलसी , सूर , कबीर ,मीरा , महादेवी , निराला यही तो हमारे पूर्वज हैं | जब
भी मैं अपनी पुस्तक , किसी को भेंट करती हूँ , तो बरबस मेरे मुँह से निकल जाता है -
"इदन्नमम | "
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]
अनुमान लगाया कि कोई साहित्यकार होगा | उसने बहुत दुखी होकर मुझसे कहा - " हाँ
मैं तो आउट डेटेड हो गया हूँ , है न ? तुमने तो मुझे दरकिनार कर ही दिया है , तो अब
पहचानने का प्रश्न ही कहाँ उठता है | "
मेरी आँखे बंद थीं , किन्तु मैं उन्हें अच्छी तरह देख रही थी | उन्होंने धोती पहन रखी थी
और बदन पर गाँवनुमा कुर्ता था | गले में स्वच्छ , सफेद अँगोछा लटक रहा था | उनकी
दृष्टि में बड़प्पन की चमक थी | मैंने हाथ जोड़ कर कहा - " मुझे क्षमा कीजिए ! मैं जानती
हूँ कि आप मेरे बेहद करीब हैं , किन्तु मैं आपको पहचान नहीं पा रही हूँ | कृपया आप
अपना परिचय दीजिए | "
उनका चेहरा उतर गया , उन्होंने कातर दृष्टि से मुझे देखा - मानों कह रहे हों कि अब
अपना परिचय भी देना पड़ेगा ? फिर मेरी ओर उपालंभ दृष्टि डालते हुए , उन्होंने धीरे
से कहा - "मुझे मम्मट कहते हैं ।"
मारे आश्चर्य के मेरी आँखे खुल गईं | घड़ी में देखा , रात के दो बज रहे थे | अब मम्मट
का दयनीय चेहरा , मेरी आँखों से ओझल ही नहीं हो रहा था | मैं आत्मग्लानि से मरी
जा रही थी | वस्तुत: हुआ यह कल शाम को ही "काव्यप्रकाश " को मैंने अल्मारी से
हटाकर , पठेरा में रख दिया था , मेरे मन के किसी कोने को , यह बात अच्छी नहीं
लगी होगी , इसीलिये मैंने उन्हें , नींद में देख लिया और उनके विचार जान लिए |
मम्मट , मुझसे कह रहे थे - "बस परीक्षा पास करने के लिए ही , तुम लोग मुझे
पढ़ते हो | मुझे कभी समझने की चेष्टा ही नहीं की | कितने गैर जिम्मेदार हो तुम
लोग | " मुझे उनकी डांट अच्छी लग रही थी | मैं सोचने लगी - वे ठीक ही तो कहते
हैं | हम अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो चुके हैं कि हमारे पास सत - साहित्य को पढ़ने
के लिए समय ही नहीं है | सच कहूँ तो ये हमारे पूर्वज हैं | मम्मट , कालिदास ,
प्रेमचन्द, तुलसी , सूर , कबीर ,मीरा , महादेवी , निराला यही तो हमारे पूर्वज हैं | जब
भी मैं अपनी पुस्तक , किसी को भेंट करती हूँ , तो बरबस मेरे मुँह से निकल जाता है -
"इदन्नमम | "
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]