[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7778
प्र स्वानासो रथा इवार्वन्तो न श्रवस्यवः। सोमासो राये अक्रमुः॥1॥
परमात्मा की गति अद्भुत है विद्युत - समान है उसका बल ।
अभिलाषी है वैभव देने का कर्मानुसार देता है फल ॥1॥
7779
हिन्वानासो रथा इव दधन्विरे गभस्त्योः। भरासः कारिणामिव॥2॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही कर्म - हेतु तत्पर रहता है ।
सत्कर्मों का फल समय-समय पर सज्जन को मिलता रहता है॥2॥
7780
राजानो न प्रशस्तिभिः सोमासो गोभिरञ्जते । यज्ञो न सप्त धातुभिः॥3॥
यज्ञ - वेदिका है यह धरती प्रकृति - मात आहुति देती है ।
परमात्मा ही यज्ञ - रूप है यज्ञ - ज्योति तम हर लेती है॥3॥
7781
परि सुवानास इन्दवो मदाय बर्हणा गिरा । सुता अर्षन्ति धारया॥4॥
प्रभु - प्रकाश से सभी प्रकाशित वह मन को पावन करता है ।
आनन्द - अमृत वह देता है वह सबकी विपदा हरता है ॥4॥
7782
आपानासो विवस्वतो जनन्त उषसो भगम् । सूरा अण्व वि तन्वते॥5॥
परमात्मा आलोक - प्रदाता अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
भिनसरहा - ऐश्वर्य - प्रदाता सन्मार्ग सभी को वही दिखाता॥5॥
7783
अप द्वारा मतीनां प्रत्ना ऋण्वन्ति कारवः। वृष्णो हरस आयवः॥6॥
जो कर्म - मार्ग पर चलता है प्रतिदिन उपासना करता है ।
प्रभु का सच्चा - भक्त वही है वह निज - जीवन को गढता है॥6॥
7784
समीचीनास आसते होतारः सप्तजामयः। पदमेकस्य पिप्रतः॥7॥
एक - निष्ठ हो कर जो साधक परमेश्वर का करता ध्यान ।
वह ही सदा सफल होता है वरद - हस्त रखते भगवान॥7॥
7785
नाभा नाभिं न आ ददे चक्षुश्चित्सूर्ये सचा । कवेरपत्यमा दुहे॥8॥
वह आलोक - रूप परमात्मा सज्जन के मन में रहता है ।
वह ही अन्वेषण - बल देता शोध - हेतु प्रेरित करता है ॥8॥
7786
अभि प्रिया दिवस्पदमध्वर्युभिर्गुहा हितम् । सूरः पश्यति चक्षसा॥9॥
कण - कण में रहता है फिर भी अत्यन्त सूक्ष्म है वह परमात्मा ।
भाव का भूखा है वह भोला निश्चित पहुँचेगी उस तक आत्मा ॥9॥
7778
प्र स्वानासो रथा इवार्वन्तो न श्रवस्यवः। सोमासो राये अक्रमुः॥1॥
परमात्मा की गति अद्भुत है विद्युत - समान है उसका बल ।
अभिलाषी है वैभव देने का कर्मानुसार देता है फल ॥1॥
7779
हिन्वानासो रथा इव दधन्विरे गभस्त्योः। भरासः कारिणामिव॥2॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही कर्म - हेतु तत्पर रहता है ।
सत्कर्मों का फल समय-समय पर सज्जन को मिलता रहता है॥2॥
7780
राजानो न प्रशस्तिभिः सोमासो गोभिरञ्जते । यज्ञो न सप्त धातुभिः॥3॥
यज्ञ - वेदिका है यह धरती प्रकृति - मात आहुति देती है ।
परमात्मा ही यज्ञ - रूप है यज्ञ - ज्योति तम हर लेती है॥3॥
7781
परि सुवानास इन्दवो मदाय बर्हणा गिरा । सुता अर्षन्ति धारया॥4॥
प्रभु - प्रकाश से सभी प्रकाशित वह मन को पावन करता है ।
आनन्द - अमृत वह देता है वह सबकी विपदा हरता है ॥4॥
7782
आपानासो विवस्वतो जनन्त उषसो भगम् । सूरा अण्व वि तन्वते॥5॥
परमात्मा आलोक - प्रदाता अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
भिनसरहा - ऐश्वर्य - प्रदाता सन्मार्ग सभी को वही दिखाता॥5॥
7783
अप द्वारा मतीनां प्रत्ना ऋण्वन्ति कारवः। वृष्णो हरस आयवः॥6॥
जो कर्म - मार्ग पर चलता है प्रतिदिन उपासना करता है ।
प्रभु का सच्चा - भक्त वही है वह निज - जीवन को गढता है॥6॥
7784
समीचीनास आसते होतारः सप्तजामयः। पदमेकस्य पिप्रतः॥7॥
एक - निष्ठ हो कर जो साधक परमेश्वर का करता ध्यान ।
वह ही सदा सफल होता है वरद - हस्त रखते भगवान॥7॥
7785
नाभा नाभिं न आ ददे चक्षुश्चित्सूर्ये सचा । कवेरपत्यमा दुहे॥8॥
वह आलोक - रूप परमात्मा सज्जन के मन में रहता है ।
वह ही अन्वेषण - बल देता शोध - हेतु प्रेरित करता है ॥8॥
7786
अभि प्रिया दिवस्पदमध्वर्युभिर्गुहा हितम् । सूरः पश्यति चक्षसा॥9॥
कण - कण में रहता है फिर भी अत्यन्त सूक्ष्म है वह परमात्मा ।
भाव का भूखा है वह भोला निश्चित पहुँचेगी उस तक आत्मा ॥9॥
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