Saturday, 14 June 2014

सूक्त - 4

[ऋषि- हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7721
सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥1॥

अभ्युदय  वही  परमात्मा  देता  कर्मानुसार  देता  है  फल ।
जिसने जैसा कर्म किया है वह  वैसा  ही  पाता  है  फल ॥1॥

7722
सना ज्योतिः सना स्व1र्विश्वा च सोम सौभगा । अथा नो वस्यसस्कृधि॥2॥

परमात्मा आनन्द - रूप  है  वह  देता  है  सुख - कर जीवन ।
दया - दृष्टि सब पर रखता है जीवन बन जाता  है उपवन॥2॥

7723
सना दक्षमुत क्रतुमप सोम मृधो जहि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥3॥

जो  परमात्म - परायण  होते  प्रभु  उनकी  रक्षा  करते  हैं ।
कर्म - प्रवीण बनाते उनको उनकी विपदा  भी  हरते हैं ॥3॥

7724
पवीतारः पुनीतन सोममिन्द्राय पातवे । अथा नो वस्यसस्कृधि॥4॥

जब  हम  दीक्षीत करें किसी को शौर्य - धैर्य का युग्म बतायें ।
सत्पथ पर चलना सिखलायें जीवन - रण में दक्ष बनायें ॥4॥

7725
त्वं सूर्ये न आ भज तव क्रत्वातवोतिभिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥5॥

ज्ञान - मार्ग से कर्म - कुशलता  हे  प्रभु  तुम  ही  हमें  सिखाना ।
धरती पर सुख - वैभव देना परलोक में भी सम्बंध निभाना ॥5॥

7726
तव क्रत्वा तवोतिभिर्ज्योक्पश्येम सूर्यम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥6॥

ज्ञान - मार्ग और  कर्म - मार्ग  के  राही  समर्थ  बन जाते हैं ।
वे  प्रभु   का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन सफल बनाते हैं ॥6॥

7727
अभ्यर्ष स्वायुध सोम द्विबर्हसं रयिम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥7॥

स्वयं प्रकाशित वह परमात्मा सब को देता है ज्ञान - आलोक ।
अज्ञान - तिमिर को वही मिटाता वह हर लेता है हर शोक ॥7॥

7728
अभ्य1र्षानपच्युतो रयिं समत्सु सासहिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥8॥

सज्जन  नेम - नियम  से  चलते  प्रभु रखते हैं उनका ध्यान ।
वह  ही  सदा  सफल  होते  हैं  दया - दृष्टि  रखते भगवान ॥8॥

7729
त्वां यज्ञैरवीवृधन् पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥9॥

परमात्मा  सब  की  रक्षा करते आनन्द - मय जीवन देते हैं ।
सबको पावन वही बनाते अपने - पन से अपना  लेते  हैं ॥9॥

7730
रयिं नश्चित्रमश्विनमिन्दो विश्वायुमा भर । अथा नो वस्यसस्कृधि॥10॥

जो जन प्रभु - उपासना करते सत्पथ  पर अविरल  चलते  हैं ।
वे ही यश - वैभव पा कर फिर निज जीवन को  गढते  हैं ॥10॥ 

1 comment:

  1. दया - दृष्टि सब पर रखता है जीवन बन जाता है उपवन

    सुंदर भाषा बेहतरीन अभिव्यक्ति ! मंगलकामनाएं आपको !

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