[ऋषि- हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7721
सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥1॥
अभ्युदय वही परमात्मा देता कर्मानुसार देता है फल ।
जिसने जैसा कर्म किया है वह वैसा ही पाता है फल ॥1॥
7722
सना ज्योतिः सना स्व1र्विश्वा च सोम सौभगा । अथा नो वस्यसस्कृधि॥2॥
परमात्मा आनन्द - रूप है वह देता है सुख - कर जीवन ।
दया - दृष्टि सब पर रखता है जीवन बन जाता है उपवन॥2॥
7723
सना दक्षमुत क्रतुमप सोम मृधो जहि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥3॥
जो परमात्म - परायण होते प्रभु उनकी रक्षा करते हैं ।
कर्म - प्रवीण बनाते उनको उनकी विपदा भी हरते हैं ॥3॥
7724
पवीतारः पुनीतन सोममिन्द्राय पातवे । अथा नो वस्यसस्कृधि॥4॥
जब हम दीक्षीत करें किसी को शौर्य - धैर्य का युग्म बतायें ।
सत्पथ पर चलना सिखलायें जीवन - रण में दक्ष बनायें ॥4॥
7725
त्वं सूर्ये न आ भज तव क्रत्वातवोतिभिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥5॥
ज्ञान - मार्ग से कर्म - कुशलता हे प्रभु तुम ही हमें सिखाना ।
धरती पर सुख - वैभव देना परलोक में भी सम्बंध निभाना ॥5॥
7726
तव क्रत्वा तवोतिभिर्ज्योक्पश्येम सूर्यम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥6॥
ज्ञान - मार्ग और कर्म - मार्ग के राही समर्थ बन जाते हैं ।
वे प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन सफल बनाते हैं ॥6॥
7727
अभ्यर्ष स्वायुध सोम द्विबर्हसं रयिम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥7॥
स्वयं प्रकाशित वह परमात्मा सब को देता है ज्ञान - आलोक ।
अज्ञान - तिमिर को वही मिटाता वह हर लेता है हर शोक ॥7॥
7728
अभ्य1र्षानपच्युतो रयिं समत्सु सासहिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥8॥
सज्जन नेम - नियम से चलते प्रभु रखते हैं उनका ध्यान ।
वह ही सदा सफल होते हैं दया - दृष्टि रखते भगवान ॥8॥
7729
त्वां यज्ञैरवीवृधन् पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥9॥
परमात्मा सब की रक्षा करते आनन्द - मय जीवन देते हैं ।
सबको पावन वही बनाते अपने - पन से अपना लेते हैं ॥9॥
7730
रयिं नश्चित्रमश्विनमिन्दो विश्वायुमा भर । अथा नो वस्यसस्कृधि॥10॥
जो जन प्रभु - उपासना करते सत्पथ पर अविरल चलते हैं ।
वे ही यश - वैभव पा कर फिर निज जीवन को गढते हैं ॥10॥
7721
सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥1॥
अभ्युदय वही परमात्मा देता कर्मानुसार देता है फल ।
जिसने जैसा कर्म किया है वह वैसा ही पाता है फल ॥1॥
7722
सना ज्योतिः सना स्व1र्विश्वा च सोम सौभगा । अथा नो वस्यसस्कृधि॥2॥
परमात्मा आनन्द - रूप है वह देता है सुख - कर जीवन ।
दया - दृष्टि सब पर रखता है जीवन बन जाता है उपवन॥2॥
7723
सना दक्षमुत क्रतुमप सोम मृधो जहि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥3॥
जो परमात्म - परायण होते प्रभु उनकी रक्षा करते हैं ।
कर्म - प्रवीण बनाते उनको उनकी विपदा भी हरते हैं ॥3॥
7724
पवीतारः पुनीतन सोममिन्द्राय पातवे । अथा नो वस्यसस्कृधि॥4॥
जब हम दीक्षीत करें किसी को शौर्य - धैर्य का युग्म बतायें ।
सत्पथ पर चलना सिखलायें जीवन - रण में दक्ष बनायें ॥4॥
7725
त्वं सूर्ये न आ भज तव क्रत्वातवोतिभिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥5॥
ज्ञान - मार्ग से कर्म - कुशलता हे प्रभु तुम ही हमें सिखाना ।
धरती पर सुख - वैभव देना परलोक में भी सम्बंध निभाना ॥5॥
7726
तव क्रत्वा तवोतिभिर्ज्योक्पश्येम सूर्यम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥6॥
ज्ञान - मार्ग और कर्म - मार्ग के राही समर्थ बन जाते हैं ।
वे प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन सफल बनाते हैं ॥6॥
7727
अभ्यर्ष स्वायुध सोम द्विबर्हसं रयिम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥7॥
स्वयं प्रकाशित वह परमात्मा सब को देता है ज्ञान - आलोक ।
अज्ञान - तिमिर को वही मिटाता वह हर लेता है हर शोक ॥7॥
7728
अभ्य1र्षानपच्युतो रयिं समत्सु सासहिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥8॥
सज्जन नेम - नियम से चलते प्रभु रखते हैं उनका ध्यान ।
वह ही सदा सफल होते हैं दया - दृष्टि रखते भगवान ॥8॥
7729
त्वां यज्ञैरवीवृधन् पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥9॥
परमात्मा सब की रक्षा करते आनन्द - मय जीवन देते हैं ।
सबको पावन वही बनाते अपने - पन से अपना लेते हैं ॥9॥
7730
रयिं नश्चित्रमश्विनमिन्दो विश्वायुमा भर । अथा नो वस्यसस्कृधि॥10॥
जो जन प्रभु - उपासना करते सत्पथ पर अविरल चलते हैं ।
वे ही यश - वैभव पा कर फिर निज जीवन को गढते हैं ॥10॥
दया - दृष्टि सब पर रखता है जीवन बन जाता है उपवन
ReplyDeleteसुंदर भाषा बेहतरीन अभिव्यक्ति ! मंगलकामनाएं आपको !