[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7751
असृगमिन्दवः पथा धर्मन्नृतस्य सुश्रियः। विदाना अस्य योजनम्॥1॥
परमात्मा के सत्य - रूप का ज्ञानी को है समुचित - भान ।
सत्-पथ पर वह ही चलता है वैभव का मिलता वरदान ॥1॥
7752
प्र धारा मध्वो अग्रियो महीरपो वि गाहते । हविर्हविष्षु वन्द्यः ॥2॥
परमात्मा हम सबको प्रिय है परम - मित्र है वही हमारा ।
परमानन्द वही देता है सब कुछ मिलता उसके द्वारा ॥2॥
7753
प्र युजो वाचो अग्रियो वृषाव चक्रदद्वने । सद्माभि सत्यो अध्वरः॥3॥
सत् - पथ पर तुम चलो निरन्तर परमात्मा हमसे कहते हैं ।
प्रिय - वाणी से प्रवचन करते हम उसकी उपासना करते हैं ॥3॥
7754
परि यत्काव्या कविर्नृम्णा वसानो अर्षति । स्वर्वाजी सिषासति॥4॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा दिव्य - गुणों का वह स्वामी है ।
कवि - कर्मों का वह अभिलाषी आनन्द - रूप अन्तर्यामी है ॥4॥
7755
पवमानो अभि स्पृधो विशो राजेव सीदति । यदीमृण्वन्ति वेधसः॥5॥
परमात्मा प्रोत्साहित करता कर्म - मार्ग वह दिखलाता है ।
सबको सुख - सन्मति देता है कर्म - धर्म वह सिखलाता है ॥5॥
7756
अव्यो वारे परि प्रियो हरिर्वनेषु सीदति । रेभो वनुष्यते मती ॥6॥
परमात्मा सबका प्यारा है वह ही देता है ज्ञान - आलोक ।
प्रभु साधक - मन में रहता है वह हर लेता है हर शोक ॥6॥
7757
स वायुमिन्द्रमश्विना साकं मदेन गच्छति । रणा यो अस्य धर्मभिः॥7॥
प्रभु - उपासना करने वाले विद्वत् - जन उनको पाते हैं ।
खट् - रागों से वही बचाते वह मञ्जिल तक पहुँचाते हैं ॥7॥
7758
आ मित्रावरुणा भगं मध्वः पवन्त ऊर्मयः। विदाना अस्य शक्मभिः॥8॥
जो परमात्म - परायण होते सब का करते हैं उपकार ।
वसुधा है परिवार हमारा हे प्रभु कर दो बेडा - पार ॥8॥
7759
अस्मभ्यं रोदसी रयिं मध्वो वाजस्य सातये । श्रवो वसूनि सं जितम्॥9॥
परमात्मा अवढर - दानी है सत् - जन को देता वर - दान ।
वरद - हस्त हम पर भी रखना हे प्रभु दीन - बन्धु भगवान ॥9॥
7751
असृगमिन्दवः पथा धर्मन्नृतस्य सुश्रियः। विदाना अस्य योजनम्॥1॥
परमात्मा के सत्य - रूप का ज्ञानी को है समुचित - भान ।
सत्-पथ पर वह ही चलता है वैभव का मिलता वरदान ॥1॥
7752
प्र धारा मध्वो अग्रियो महीरपो वि गाहते । हविर्हविष्षु वन्द्यः ॥2॥
परमात्मा हम सबको प्रिय है परम - मित्र है वही हमारा ।
परमानन्द वही देता है सब कुछ मिलता उसके द्वारा ॥2॥
7753
प्र युजो वाचो अग्रियो वृषाव चक्रदद्वने । सद्माभि सत्यो अध्वरः॥3॥
सत् - पथ पर तुम चलो निरन्तर परमात्मा हमसे कहते हैं ।
प्रिय - वाणी से प्रवचन करते हम उसकी उपासना करते हैं ॥3॥
7754
परि यत्काव्या कविर्नृम्णा वसानो अर्षति । स्वर्वाजी सिषासति॥4॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा दिव्य - गुणों का वह स्वामी है ।
कवि - कर्मों का वह अभिलाषी आनन्द - रूप अन्तर्यामी है ॥4॥
7755
पवमानो अभि स्पृधो विशो राजेव सीदति । यदीमृण्वन्ति वेधसः॥5॥
परमात्मा प्रोत्साहित करता कर्म - मार्ग वह दिखलाता है ।
सबको सुख - सन्मति देता है कर्म - धर्म वह सिखलाता है ॥5॥
7756
अव्यो वारे परि प्रियो हरिर्वनेषु सीदति । रेभो वनुष्यते मती ॥6॥
परमात्मा सबका प्यारा है वह ही देता है ज्ञान - आलोक ।
प्रभु साधक - मन में रहता है वह हर लेता है हर शोक ॥6॥
7757
स वायुमिन्द्रमश्विना साकं मदेन गच्छति । रणा यो अस्य धर्मभिः॥7॥
प्रभु - उपासना करने वाले विद्वत् - जन उनको पाते हैं ।
खट् - रागों से वही बचाते वह मञ्जिल तक पहुँचाते हैं ॥7॥
7758
आ मित्रावरुणा भगं मध्वः पवन्त ऊर्मयः। विदाना अस्य शक्मभिः॥8॥
जो परमात्म - परायण होते सब का करते हैं उपकार ।
वसुधा है परिवार हमारा हे प्रभु कर दो बेडा - पार ॥8॥
7759
अस्मभ्यं रोदसी रयिं मध्वो वाजस्य सातये । श्रवो वसूनि सं जितम्॥9॥
परमात्मा अवढर - दानी है सत् - जन को देता वर - दान ।
वरद - हस्त हम पर भी रखना हे प्रभु दीन - बन्धु भगवान ॥9॥
सुन्दर सकारात्मक विचार...
ReplyDeleteअद्भुत प्रवाहमयी अनुवाद...कुछ व्यस्तताओं की वजह से १ माह से ब्लोग्स पर नहीं आ सका, पुरानी रचनाओं को पढ़ने के लिए फिर आना होगा..आभार
ReplyDeleteपरमेश्वर सबका प्यारा है सब को देता है ज्ञान - आलोक ।
ReplyDeleteसाधक के मन में रहता है वह हर लेता है रोग - शोक ॥
सुंदर भाव