Saturday, 7 June 2014

सूक्त - 9

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7769
परि प्रिया दिवः कविर्वयांसि नप्त्योर्हितः। सोवानो याति कविक्रतुः॥1॥

प्रकृति - पुरुष  दोनों  मिल - जुल  कर मधुर - भावना से रहते हैं ।
परमात्मा  सबकी  रक्षा  करते  सबकी  विपदा  वह  हरते  हैं ॥1॥

7770
प्रप्र  क्षयाय पन्यसे जनाय जुष्टो अद्रुहे । वीत्यर्ष  चनिष्ठया ॥2॥

जो  कर्म - मार्ग  पर  चलता  है  खट् - रागों  से  जो रहता दूर ।
उनके  मन  में  प्रभु  बसते  हैं  देते  हैं अपना - पन भरपूर ॥2॥

7771
स सूनुर्मातरा शुचिर्जातो जाते अरोचयत् । महान्मही ऋतावृधा॥3॥

कर्म - योग  की  महिमा अद्भुत  मनुज  सतत  होता आलोकित ।
वही  दुलारा है जननी का जिसको  पाकर  वह  होती  हर्षित ॥3॥

7772
स सप्त धीतिभिर्हितो नद्यो अजिन्वदद्रुहः। या एकमक्षि वावृधुः॥4॥

अष्ट - योग  की  राह  अनूठी  तन -  मन  में  होता  परिवर्तन ।
ध्यान में मन लगने लगता है प्रभु - प्रेम में होता अभिवर्धन॥4॥

7773
ता अभि सन्तमस्तृतं महे युवानमा दधुः। इन्दुमिन्द्र तव व्रते॥5॥

निष्काम - कर्म  के  द्वारा  ही  हम  परमात्मा  को  पा सकते हैं ।
कर्म - योग  की  राह अनूठी  प्रभु  हमको अपना  सकते  हैं ॥5॥

7774
अभि वह्निरमर्त्यः सप्त पश्यति वावहिः। क्रिविर्देवीरतर्पयत् ॥6॥

अष्ट - योग  में  ध्यान - धारणा  साधक  को सीढी दिखलाती है ।
सभी  जगह  वह  विद्यमान  है  यही  बात  वह समझाती  है ॥6॥

7775
अवा कल्पेषु नः पुमस्तमांसि सोम योध्या । तानि पुनान जङ्घनः॥7॥

अज्ञान - तिमिर  है  शत्रु  हमारा पा जायें हम ज्ञान - आलोक ।
हे  प्रभु  पावन  हमें  बनाना  हर  लेना  हम  सबका  शोक ॥7॥

7776
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः। प्रत्नवद्रोचया रुचः ॥8॥

पुनर्नवा -  जीवन  यदि  चाहो  परमात्मा  का  कर  लो  ध्यान ।
वेद - ऋचा का गान करो तुम बन सकते हो मनुज - महान ॥8॥

7777
पवमान महि श्रवो गामश्वं रासि वीरवत् । सना मेधां सना स्वः॥9॥

परमात्म - कृपा की महिमा अद्भुत वह प्रभु तो अवढर - दानी  हैं ।
आनन्द - अमृत  दे  देना  प्रभु  हम  तो  साधारण - प्राणी  हैं ॥9॥

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