[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7769
परि प्रिया दिवः कविर्वयांसि नप्त्योर्हितः। सोवानो याति कविक्रतुः॥1॥
प्रकृति - पुरुष दोनों मिल - जुल कर मधुर - भावना से रहते हैं ।
परमात्मा सबकी रक्षा करते सबकी विपदा वह हरते हैं ॥1॥
7770
प्रप्र क्षयाय पन्यसे जनाय जुष्टो अद्रुहे । वीत्यर्ष चनिष्ठया ॥2॥
जो कर्म - मार्ग पर चलता है खट् - रागों से जो रहता दूर ।
उनके मन में प्रभु बसते हैं देते हैं अपना - पन भरपूर ॥2॥
7771
स सूनुर्मातरा शुचिर्जातो जाते अरोचयत् । महान्मही ऋतावृधा॥3॥
कर्म - योग की महिमा अद्भुत मनुज सतत होता आलोकित ।
वही दुलारा है जननी का जिसको पाकर वह होती हर्षित ॥3॥
7772
स सप्त धीतिभिर्हितो नद्यो अजिन्वदद्रुहः। या एकमक्षि वावृधुः॥4॥
अष्ट - योग की राह अनूठी तन - मन में होता परिवर्तन ।
ध्यान में मन लगने लगता है प्रभु - प्रेम में होता अभिवर्धन॥4॥
7773
ता अभि सन्तमस्तृतं महे युवानमा दधुः। इन्दुमिन्द्र तव व्रते॥5॥
निष्काम - कर्म के द्वारा ही हम परमात्मा को पा सकते हैं ।
कर्म - योग की राह अनूठी प्रभु हमको अपना सकते हैं ॥5॥
7774
अभि वह्निरमर्त्यः सप्त पश्यति वावहिः। क्रिविर्देवीरतर्पयत् ॥6॥
अष्ट - योग में ध्यान - धारणा साधक को सीढी दिखलाती है ।
सभी जगह वह विद्यमान है यही बात वह समझाती है ॥6॥
7775
अवा कल्पेषु नः पुमस्तमांसि सोम योध्या । तानि पुनान जङ्घनः॥7॥
अज्ञान - तिमिर है शत्रु हमारा पा जायें हम ज्ञान - आलोक ।
हे प्रभु पावन हमें बनाना हर लेना हम सबका शोक ॥7॥
7776
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः। प्रत्नवद्रोचया रुचः ॥8॥
पुनर्नवा - जीवन यदि चाहो परमात्मा का कर लो ध्यान ।
वेद - ऋचा का गान करो तुम बन सकते हो मनुज - महान ॥8॥
7777
पवमान महि श्रवो गामश्वं रासि वीरवत् । सना मेधां सना स्वः॥9॥
परमात्म - कृपा की महिमा अद्भुत वह प्रभु तो अवढर - दानी हैं ।
आनन्द - अमृत दे देना प्रभु हम तो साधारण - प्राणी हैं ॥9॥
7769
परि प्रिया दिवः कविर्वयांसि नप्त्योर्हितः। सोवानो याति कविक्रतुः॥1॥
प्रकृति - पुरुष दोनों मिल - जुल कर मधुर - भावना से रहते हैं ।
परमात्मा सबकी रक्षा करते सबकी विपदा वह हरते हैं ॥1॥
7770
प्रप्र क्षयाय पन्यसे जनाय जुष्टो अद्रुहे । वीत्यर्ष चनिष्ठया ॥2॥
जो कर्म - मार्ग पर चलता है खट् - रागों से जो रहता दूर ।
उनके मन में प्रभु बसते हैं देते हैं अपना - पन भरपूर ॥2॥
7771
स सूनुर्मातरा शुचिर्जातो जाते अरोचयत् । महान्मही ऋतावृधा॥3॥
कर्म - योग की महिमा अद्भुत मनुज सतत होता आलोकित ।
वही दुलारा है जननी का जिसको पाकर वह होती हर्षित ॥3॥
7772
स सप्त धीतिभिर्हितो नद्यो अजिन्वदद्रुहः। या एकमक्षि वावृधुः॥4॥
अष्ट - योग की राह अनूठी तन - मन में होता परिवर्तन ।
ध्यान में मन लगने लगता है प्रभु - प्रेम में होता अभिवर्धन॥4॥
7773
ता अभि सन्तमस्तृतं महे युवानमा दधुः। इन्दुमिन्द्र तव व्रते॥5॥
निष्काम - कर्म के द्वारा ही हम परमात्मा को पा सकते हैं ।
कर्म - योग की राह अनूठी प्रभु हमको अपना सकते हैं ॥5॥
7774
अभि वह्निरमर्त्यः सप्त पश्यति वावहिः। क्रिविर्देवीरतर्पयत् ॥6॥
अष्ट - योग में ध्यान - धारणा साधक को सीढी दिखलाती है ।
सभी जगह वह विद्यमान है यही बात वह समझाती है ॥6॥
7775
अवा कल्पेषु नः पुमस्तमांसि सोम योध्या । तानि पुनान जङ्घनः॥7॥
अज्ञान - तिमिर है शत्रु हमारा पा जायें हम ज्ञान - आलोक ।
हे प्रभु पावन हमें बनाना हर लेना हम सबका शोक ॥7॥
7776
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः। प्रत्नवद्रोचया रुचः ॥8॥
पुनर्नवा - जीवन यदि चाहो परमात्मा का कर लो ध्यान ।
वेद - ऋचा का गान करो तुम बन सकते हो मनुज - महान ॥8॥
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पवमान महि श्रवो गामश्वं रासि वीरवत् । सना मेधां सना स्वः॥9॥
परमात्म - कृपा की महिमा अद्भुत वह प्रभु तो अवढर - दानी हैं ।
आनन्द - अमृत दे देना प्रभु हम तो साधारण - प्राणी हैं ॥9॥
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