[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7822
एष धिया यात्यण्व्या शूरो रथेभिराशुभिः। गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम्॥1॥
कर्म - स्वतंत्र बनाया प्रभु ने कर्मानुसार मिलता है फल ।
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा धारण करता है अनन्त- बल॥1॥
7823
एष पुरू धियायते बृहते देवतातये । यत्रामृतास आसते ॥2॥
अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है अनन्त - कर्म खुद करता है ।
कर्म - मार्ग पर चल कर मानव मञ्जिल तक स्वयं पहुँचता है॥2॥
7824
एष हितो वि नीयतेSन्तः शुभ्रावता पथा । यदी तुञ्जन्ति भूर्णयः॥3॥
जो साधक उपासना करते हैं वह ही करते हैं साक्षात्कार ।
वही परम - पद भी पाते हैं परमेश्वर का है उपकार ॥3॥
7825
एष श्रृङ्गाणि धोधुवच्छिशीते यूथ्यो3 वृषा । नृम्णा दधान ओजसा॥4॥
परमेश्वर की महिमा अद्भुत हमें दिया है सब सुख - साधन ।
धरा - गगन में भरा है वैभव धरती है अतिशय मन-भावन॥4॥
7826
एष रुक्मिभिरीयते वाजी शुभ्रेभिरंशुभिः। पतिः सिन्धूनां भवन्॥5॥
परमेश्वर की शुभ्र - रश्मियॉ दश - दिशि में होती गति-मान ।
सतत प्रवाहित होती रहती साधक पर होती मेहरबान ॥5॥
7827
एष वसूनि पिब्दना परुषा ययिवॉ अति । अव शादेषु गच्छति॥6॥
पूजनीय है वह परमात्मा जो उन - पर निर्भर रहते हैं ।
उनका ध्यान सदा रखते हैं प्रभु उनकी रक्षा करते हैं ॥6॥
7828
एतं मृजन्ति मर्ज्यमुप द्रोणेष्वायवः। प्रचक्राणं महीरिषः ॥7॥
आओ प्रभु - उपासना कर लें वह विराट सब का वरेण्य है ।
आवश्यक है शोध उसी पर अन्वेषण का भी वह विषय है॥7॥
7829
एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सप्त धीतयः। स्वायुधं मदिन्तमम्॥8॥
परमात्मा प्रोत्साहित करते सब का ध्यान वही रखते हैं ।
अस्त्र - शस्त्र है नहीं ज़रूरी पर दुष्टों को दण्डित करते हैं ॥8॥
7822
एष धिया यात्यण्व्या शूरो रथेभिराशुभिः। गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम्॥1॥
कर्म - स्वतंत्र बनाया प्रभु ने कर्मानुसार मिलता है फल ।
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा धारण करता है अनन्त- बल॥1॥
7823
एष पुरू धियायते बृहते देवतातये । यत्रामृतास आसते ॥2॥
अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है अनन्त - कर्म खुद करता है ।
कर्म - मार्ग पर चल कर मानव मञ्जिल तक स्वयं पहुँचता है॥2॥
7824
एष हितो वि नीयतेSन्तः शुभ्रावता पथा । यदी तुञ्जन्ति भूर्णयः॥3॥
जो साधक उपासना करते हैं वह ही करते हैं साक्षात्कार ।
वही परम - पद भी पाते हैं परमेश्वर का है उपकार ॥3॥
7825
एष श्रृङ्गाणि धोधुवच्छिशीते यूथ्यो3 वृषा । नृम्णा दधान ओजसा॥4॥
परमेश्वर की महिमा अद्भुत हमें दिया है सब सुख - साधन ।
धरा - गगन में भरा है वैभव धरती है अतिशय मन-भावन॥4॥
7826
एष रुक्मिभिरीयते वाजी शुभ्रेभिरंशुभिः। पतिः सिन्धूनां भवन्॥5॥
परमेश्वर की शुभ्र - रश्मियॉ दश - दिशि में होती गति-मान ।
सतत प्रवाहित होती रहती साधक पर होती मेहरबान ॥5॥
7827
एष वसूनि पिब्दना परुषा ययिवॉ अति । अव शादेषु गच्छति॥6॥
पूजनीय है वह परमात्मा जो उन - पर निर्भर रहते हैं ।
उनका ध्यान सदा रखते हैं प्रभु उनकी रक्षा करते हैं ॥6॥
7828
एतं मृजन्ति मर्ज्यमुप द्रोणेष्वायवः। प्रचक्राणं महीरिषः ॥7॥
आओ प्रभु - उपासना कर लें वह विराट सब का वरेण्य है ।
आवश्यक है शोध उसी पर अन्वेषण का भी वह विषय है॥7॥
7829
एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सप्त धीतयः। स्वायुधं मदिन्तमम्॥8॥
परमात्मा प्रोत्साहित करते सब का ध्यान वही रखते हैं ।
अस्त्र - शस्त्र है नहीं ज़रूरी पर दुष्टों को दण्डित करते हैं ॥8॥
परमेश्वर की शुभ्र - रश्मियॉ दश - दिशि में होती गति-मान ।
ReplyDeleteसतत प्रवाहित होती रहती साधक पर होती मेहरबान ॥5॥
प्रभु की कृपा सदा यूँ ही बरसती रहे