Friday, 13 June 2014

सूक्त - 5

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- आप्रीसूक्त । छन्द- गायत्री - अनुष्टुप् ।]

7731
समिध्दो विश्वतस्पतिः पवमानो वि राजति । प्रीणन् वृषा कनिक्रदत्॥1॥

परमात्मा आलोक - प्रदाता  सब  को  पावन  वही  बनाता ।
मनो - कामना  पूरी  करता स्वयं - प्रकाश बनाने आता॥1॥

7732
तनूनपात् पवमानः श्रृङ्गे शिशानो अर्षति । अन्तरिक्षेण रारजत्॥2॥

वह  प्रभु  घट - घट  का  वासी है वसुधा में वह विद्यमान  है ।
सज् - जन  उसे  जानता  है वह देह - रूप में वर्तमान है ॥2॥

7733
ईळेन्यः पवमानो रयिर्वि राजति द्युमान् । मधोर्धाराभिरोजसा॥3॥

जो  जन  प्रभु - उपासना करते परमात्मा का  करते  ध्यान ।
वह आनन्द - अमृत पाते हैं  बन  जाते हैं मनुज - महान॥3॥

7734
बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः। देवेषु देव ईयते॥4॥

परमात्मा अत्यन्त - अद्भुत  है  दिव्य - देह  धारण करता  है ।
एक - मात्र  वह  पूजनीय  है  दया - दृष्टि  वह ही रखता है ॥4॥

7735
उदातैर्जिहते  बृहद्  द्वारो देवीर्हिरण्ययीः। पवमानेन सुष्टुता:॥5॥

उस प्रभु की छवि अति - अद्भुत है पृथ्वी पर है अन्वेषण - बीज ।
अविरल - अन्वेषण जब होता तब  मिलती है दुर्लभ - चीज ॥5॥

7736
सुशिल्पे बृहती मही पवमानो वृषण्यति । नक्तोषासा न दर्शते॥6॥

उषा - काल स्वर्णिम वेला में मन शुभ - चिन्तन ही करता है ।
ब्रह्म - मुहूर्त्त  इसी  को  कहते  हर  मानव प्रसन्न रहता है ॥6॥

7737
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ॥7॥

कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही आत्म - ज्ञान पथ पर चलता है ।
दीन - बन्धु  है  वह  परमात्मा अभिलाषा -  पूरी  करता  है ॥7॥

7738
भारती     पवमानस्य     सरस्वतीळा    मही । 
इमं नो यज्ञमा गमन्तिस्त्रो देवीः सुपेशसः॥8॥

ज्ञान - मार्ग  का  राही  सचमुच  विद्या  का  पाता  है  वरदान ।
उसका  यश  - अभिवर्धन  होता  दर्शन  देते  हैं  भगवान ॥8॥

7739
त्वष्टारमग्रजां    गोपां    पुरोयावानमा    हुवे ।
इन्दुरिन्द्रो वृषा हरिः पवमानः प्रजापतिः॥9॥

परमात्मा  पालक  -  पोषक  है  विविध -  विधा  से  देता  ज्ञान ।
साधक को सुख - सन्तति देता कृपा - सिन्धु है वह भगवान॥9॥

7740
वनस्पतिं  पवमान  मध्वा समङ्ग्धि धारया ।
सहस्त्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम्॥10॥

हे  पावन - पूजनीय  परमात्मा  देना  तुम  रिमझिम  -  बरसात ।
फूले - फले वनस्पति - औषधि जिये मनुज थिरके ज्यों पात॥10॥

7741
विश्वे    देवा:   स्वाहाकृतिं   पवमानस्या   गत ।
वायुर्बृहस्पतिः सूर्योSग्निरिन्द्रः सजोषसः॥11॥

सत् - संगति  सबसे सुख - कर  है यह ही सन्मार्ग दिखाती है ।
ज्ञान - यज्ञ अति आवश्यक है जिजीविषा भरने आती है ॥11॥  

3 comments:

  1. सुन्दर सकारात्मक विचार...

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  2. परमात्मा अत्यन्त - अद्भुत है दिव्य - देह धारण करता है ।
    एक - मात्र वह पूजनीय है दया - दृष्टि वह ही रखता है ॥4॥

    पावन वेद वाणी !

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