[ऋषि- असित काश्यप । देवता- आप्रीसूक्त । छन्द- गायत्री - अनुष्टुप् ।]
7731
समिध्दो विश्वतस्पतिः पवमानो वि राजति । प्रीणन् वृषा कनिक्रदत्॥1॥
परमात्मा आलोक - प्रदाता सब को पावन वही बनाता ।
मनो - कामना पूरी करता स्वयं - प्रकाश बनाने आता॥1॥
7732
तनूनपात् पवमानः श्रृङ्गे शिशानो अर्षति । अन्तरिक्षेण रारजत्॥2॥
वह प्रभु घट - घट का वासी है वसुधा में वह विद्यमान है ।
सज् - जन उसे जानता है वह देह - रूप में वर्तमान है ॥2॥
7733
ईळेन्यः पवमानो रयिर्वि राजति द्युमान् । मधोर्धाराभिरोजसा॥3॥
जो जन प्रभु - उपासना करते परमात्मा का करते ध्यान ।
वह आनन्द - अमृत पाते हैं बन जाते हैं मनुज - महान॥3॥
7734
बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः। देवेषु देव ईयते॥4॥
परमात्मा अत्यन्त - अद्भुत है दिव्य - देह धारण करता है ।
एक - मात्र वह पूजनीय है दया - दृष्टि वह ही रखता है ॥4॥
7735
उदातैर्जिहते बृहद् द्वारो देवीर्हिरण्ययीः। पवमानेन सुष्टुता:॥5॥
उस प्रभु की छवि अति - अद्भुत है पृथ्वी पर है अन्वेषण - बीज ।
अविरल - अन्वेषण जब होता तब मिलती है दुर्लभ - चीज ॥5॥
7736
सुशिल्पे बृहती मही पवमानो वृषण्यति । नक्तोषासा न दर्शते॥6॥
उषा - काल स्वर्णिम वेला में मन शुभ - चिन्तन ही करता है ।
ब्रह्म - मुहूर्त्त इसी को कहते हर मानव प्रसन्न रहता है ॥6॥
7737
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ॥7॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही आत्म - ज्ञान पथ पर चलता है ।
दीन - बन्धु है वह परमात्मा अभिलाषा - पूरी करता है ॥7॥
7738
भारती पवमानस्य सरस्वतीळा मही ।
इमं नो यज्ञमा गमन्तिस्त्रो देवीः सुपेशसः॥8॥
ज्ञान - मार्ग का राही सचमुच विद्या का पाता है वरदान ।
उसका यश - अभिवर्धन होता दर्शन देते हैं भगवान ॥8॥
7739
त्वष्टारमग्रजां गोपां पुरोयावानमा हुवे ।
इन्दुरिन्द्रो वृषा हरिः पवमानः प्रजापतिः॥9॥
परमात्मा पालक - पोषक है विविध - विधा से देता ज्ञान ।
साधक को सुख - सन्तति देता कृपा - सिन्धु है वह भगवान॥9॥
7740
वनस्पतिं पवमान मध्वा समङ्ग्धि धारया ।
सहस्त्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम्॥10॥
हे पावन - पूजनीय परमात्मा देना तुम रिमझिम - बरसात ।
फूले - फले वनस्पति - औषधि जिये मनुज थिरके ज्यों पात॥10॥
7741
विश्वे देवा: स्वाहाकृतिं पवमानस्या गत ।
वायुर्बृहस्पतिः सूर्योSग्निरिन्द्रः सजोषसः॥11॥
सत् - संगति सबसे सुख - कर है यह ही सन्मार्ग दिखाती है ।
ज्ञान - यज्ञ अति आवश्यक है जिजीविषा भरने आती है ॥11॥
7731
समिध्दो विश्वतस्पतिः पवमानो वि राजति । प्रीणन् वृषा कनिक्रदत्॥1॥
परमात्मा आलोक - प्रदाता सब को पावन वही बनाता ।
मनो - कामना पूरी करता स्वयं - प्रकाश बनाने आता॥1॥
7732
तनूनपात् पवमानः श्रृङ्गे शिशानो अर्षति । अन्तरिक्षेण रारजत्॥2॥
वह प्रभु घट - घट का वासी है वसुधा में वह विद्यमान है ।
सज् - जन उसे जानता है वह देह - रूप में वर्तमान है ॥2॥
7733
ईळेन्यः पवमानो रयिर्वि राजति द्युमान् । मधोर्धाराभिरोजसा॥3॥
जो जन प्रभु - उपासना करते परमात्मा का करते ध्यान ।
वह आनन्द - अमृत पाते हैं बन जाते हैं मनुज - महान॥3॥
7734
बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः। देवेषु देव ईयते॥4॥
परमात्मा अत्यन्त - अद्भुत है दिव्य - देह धारण करता है ।
एक - मात्र वह पूजनीय है दया - दृष्टि वह ही रखता है ॥4॥
7735
उदातैर्जिहते बृहद् द्वारो देवीर्हिरण्ययीः। पवमानेन सुष्टुता:॥5॥
उस प्रभु की छवि अति - अद्भुत है पृथ्वी पर है अन्वेषण - बीज ।
अविरल - अन्वेषण जब होता तब मिलती है दुर्लभ - चीज ॥5॥
7736
सुशिल्पे बृहती मही पवमानो वृषण्यति । नक्तोषासा न दर्शते॥6॥
उषा - काल स्वर्णिम वेला में मन शुभ - चिन्तन ही करता है ।
ब्रह्म - मुहूर्त्त इसी को कहते हर मानव प्रसन्न रहता है ॥6॥
7737
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ॥7॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही आत्म - ज्ञान पथ पर चलता है ।
दीन - बन्धु है वह परमात्मा अभिलाषा - पूरी करता है ॥7॥
7738
भारती पवमानस्य सरस्वतीळा मही ।
इमं नो यज्ञमा गमन्तिस्त्रो देवीः सुपेशसः॥8॥
ज्ञान - मार्ग का राही सचमुच विद्या का पाता है वरदान ।
उसका यश - अभिवर्धन होता दर्शन देते हैं भगवान ॥8॥
7739
त्वष्टारमग्रजां गोपां पुरोयावानमा हुवे ।
इन्दुरिन्द्रो वृषा हरिः पवमानः प्रजापतिः॥9॥
परमात्मा पालक - पोषक है विविध - विधा से देता ज्ञान ।
साधक को सुख - सन्तति देता कृपा - सिन्धु है वह भगवान॥9॥
7740
वनस्पतिं पवमान मध्वा समङ्ग्धि धारया ।
सहस्त्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम्॥10॥
हे पावन - पूजनीय परमात्मा देना तुम रिमझिम - बरसात ।
फूले - फले वनस्पति - औषधि जिये मनुज थिरके ज्यों पात॥10॥
7741
विश्वे देवा: स्वाहाकृतिं पवमानस्या गत ।
वायुर्बृहस्पतिः सूर्योSग्निरिन्द्रः सजोषसः॥11॥
सत् - संगति सबसे सुख - कर है यह ही सन्मार्ग दिखाती है ।
ज्ञान - यज्ञ अति आवश्यक है जिजीविषा भरने आती है ॥11॥
बहुत सुंदर...
ReplyDeleteनयी सोच और नयी तकनीक के साथ नये युग की शुरुवात
सुन्दर सकारात्मक विचार...
ReplyDeleteपरमात्मा अत्यन्त - अद्भुत है दिव्य - देह धारण करता है ।
ReplyDeleteएक - मात्र वह पूजनीय है दया - दृष्टि वह ही रखता है ॥4॥
पावन वेद वाणी !