जीव - मात्र को गोद में अपनी प्रतिदिन तुम्हीं सुलाती हो
व्यथा सभी की हर लेती हो स्वप्न - नए दिखलाती हो ।
चेतन होते थके - हुए जन नव - जीवन पा जाते हैं
पा उमँग का उत्स तुम्हीं से नव- राग-रागिनी गाते हैं ।
दुख से जब घिर जाता मानव तुम्हीं सान्त्वना देती हो
दुख से भूख से नींद बडी है स्वयं - सिध्द कर देती हो ।
शिशु जब रो - रो कर थक जाता गोद में तेरी जाता है
निद्रा से विश्राम प्राप्त कर व्यथा - मुक्त हो जाता है ।
देह में जब पीडा होती है तुम्हीं कष्ट को हरती हो
मन - बहला - कर धीरे - धीरे घाव मनुज का भरती हो ।
राजा हो या रंक सभी को गोद तुम्हारी प्यारी है
सभी प्यार करते हैं तुमसे तेरी महिमा न्यारी है ।
जिजीविषा तेरा - प्रसाद है आकॉक्षा तेरा वर - दान
तुम ही तो जय की माध्यम हो कृतज्ञता का होता भान ।
प्राण - शक्ति का क्षरण रोकती माता - सम तुम हो सबकी
तुमसे ऊर्जा पाकर हम दुख अर्पित करते निज- उर की ।
प्रिय - जन भी जब साथ छोडते तुम देती हो अपना ऑचल
बॉह - पकड आश्रय देती हो होता है जब अन्तर - व्याकुल ।
जब शरीर का क्षय होता है जरा - जीर्ण हो जाता देह
सदा - सदा के लिए पकड कर ले जाती हो तुम निज-गेह ।
जीवन का संग्राम झेल कर जब यह तन - थक जाता है
महा - नींद में तुम्हीं सुलाती तभी शान्ति वह पाता है ।
जब वह पुनः जन्म लेता है तब भी साथ निभाती हो
जन्मान्तर भी आश्रय देकर तुम दिव्यता सिखाती हो ।
व्यथा सभी की हर लेती हो स्वप्न - नए दिखलाती हो ।
चेतन होते थके - हुए जन नव - जीवन पा जाते हैं
पा उमँग का उत्स तुम्हीं से नव- राग-रागिनी गाते हैं ।
दुख से जब घिर जाता मानव तुम्हीं सान्त्वना देती हो
दुख से भूख से नींद बडी है स्वयं - सिध्द कर देती हो ।
शिशु जब रो - रो कर थक जाता गोद में तेरी जाता है
निद्रा से विश्राम प्राप्त कर व्यथा - मुक्त हो जाता है ।
देह में जब पीडा होती है तुम्हीं कष्ट को हरती हो
मन - बहला - कर धीरे - धीरे घाव मनुज का भरती हो ।
राजा हो या रंक सभी को गोद तुम्हारी प्यारी है
सभी प्यार करते हैं तुमसे तेरी महिमा न्यारी है ।
जिजीविषा तेरा - प्रसाद है आकॉक्षा तेरा वर - दान
तुम ही तो जय की माध्यम हो कृतज्ञता का होता भान ।
प्राण - शक्ति का क्षरण रोकती माता - सम तुम हो सबकी
तुमसे ऊर्जा पाकर हम दुख अर्पित करते निज- उर की ।
प्रिय - जन भी जब साथ छोडते तुम देती हो अपना ऑचल
बॉह - पकड आश्रय देती हो होता है जब अन्तर - व्याकुल ।
जब शरीर का क्षय होता है जरा - जीर्ण हो जाता देह
सदा - सदा के लिए पकड कर ले जाती हो तुम निज-गेह ।
जीवन का संग्राम झेल कर जब यह तन - थक जाता है
महा - नींद में तुम्हीं सुलाती तभी शान्ति वह पाता है ।
जब वह पुनः जन्म लेता है तब भी साथ निभाती हो
जन्मान्तर भी आश्रय देकर तुम दिव्यता सिखाती हो ।
हिंदी लेखन जगत की और से यह शायद अनूठा कृतज्ञता ज्ञापन होगा निद्रा के प्रति , वाह !!
ReplyDeleteमंगलकामनाएं आपको !
निद्रा से चिर निद्रा तक की आश्वस्ति
ReplyDeleteजीवन का संग्राम झेल कर जब यह तन - थक जाता है
ReplyDeleteमहा - नींद में तुम्हीं सुलाती तभी शान्ति वह पाता है ।
...अद्भुत यात्रा निद्रा की...
प्राण - शक्ति का क्षरण रोकती माता - सम तुम हो सबकी
ReplyDeleteतुमसे ऊर्जा पाकर हम दुख अर्पित करते निज- उर की ।
वाह निद्रा की सुंदर परिभाषा..
निंद्रा देवी की स्तुति में सुन्दर रचना...
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