Tuesday, 3 June 2014

सूक्त - 14

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7814
परि प्रासिष्यदत्कविः सिन्धोरूर्मावधि श्रितः। कारं बिभ्रत् पुरुस्पृहम्॥1॥

पुलकित पवन पडी पनघट पर सिन्धु - ऊर्मियों में थिरकन है ।
हिम - गिरि के उत्तुँग - शिखर का नभ से होता संघर्षण  है ॥1॥

7815
गिरा यदी सबन्धवः पञ्च व्राता अपस्यवः। परिष्कृण्वन्ति धर्णसिम्॥2॥

ज्ञान - कर्म से जब जुड जाता वसुन्धरा सब- विधि सजती है ।
मन - इन्द्रिय जो बहिर्मुखी है अन्तर्गमन में ही फबती है ॥2॥

7816
आदस्य शुष्मिणो रसे विश्वे देवा अमत्सत ।यदी गोभिर्वसायते ॥3॥

आनन्द -  रूप  है  वह  परमात्मा   धीर -  वीर  उसको  पाता  है ।
जो  जितना  समर्थ  है उतना  प्रभु  के  आस - पास आता  है ॥3॥

7817
निरिणानो वि धावति जहच्छर्याणि तान्वा । अत्रा सं जिघ्रते युजा॥4॥

अति आकर्षक  है  परमेश्वर  चिन्तन  में  वह आ  जाता  है ।
कौतूहल का विषय वही है मुझको बहुत - बहुत भाता है ॥4॥

7818
नप्तीभिर्यो विवस्वतः शुभ्रो न मामृजे युवा । गा: कृण्वानो न निर्णिजम्॥5॥

जिनका अन्तर्मन  पावन  है  प्रभु  का  करते  हैं  साक्षात्कार ।
उसका ध्यान सदा प्रभु रखते सज्जन का हर लेते हैं भार ॥5॥

7819
अति श्रिती तिरश्चता गव्या जिगात्यण्व्या । वग्नुमिर्यति यं विदे ॥6॥

अन्तर्मन  जब  पावन  होता  प्रभु  की ओर  स्वतः  जाता  है ।
श्रुतियॉ  हमसे  कहती  हैं  परमेश्वर अनुभव  में आता  है ॥6॥

7820
अभि क्षिपः समग्मत मर्जयन्तीरिषस्पतिम् । पृष्ठा गृभ्णत वाजिनः॥7॥

परमेश्वर  सुख -  साधन  देता  उसने  कर्म -  स्वतंत्र  बनाया । 
प्रभु -दर्शन हम पा सकते हैं सब - समर्थ है यह नर-काया ॥7॥

7821
परि दिव्यानि मर्मृशद्विश्वानि सोम पार्थिवा । वसूनि याह्यस्मयुः॥8॥

विविध - सुखों से भरी है वसुधा हे प्रभु सुख- कर जीवन देना ।
जीवन  यह  सार्थक  हो  जाए अपने - पन से अपना लेना ॥8॥    

1 comment:

  1. आनन्द - रूप है वह परमात्मा धीर - वीर उसको पाता है ।
    जो जितना समर्थ है उतना प्रभु के आस - पास आता है ॥3॥

    परमात्मा की साधना धैर्य मांगती है

    ReplyDelete