[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7796
सोमा असृग्रमिन्दवः सुता ऋतस्य सादने । इन्द्राय मधुमत्तमा:॥1॥
सच्चिदानन्द है वह परमात्मा वह आनन्द हमें देता है ।
षड् - ऋतु - सुख वह ही देता है सबकी विपदा हर लेता है॥1॥
7797
अभि विप्रा अनूषत गावो वत्सं न मातरः। इन्द्रं सोमस्य पीतये॥2॥
दिव्य - गुणों को धारण करके मनुज दिव्यता को पाता है ।
आकर्षण के कारण प्रभु पर वह अनुरक्त हुआ जाता है ॥2॥
7798
मदच्युत्क्षेति सादने सिन्धोरूर्मा विपश्चित् । सोमो गौरी अधि श्रितः॥3॥
सरिता में जल - ऊर्मि थिरकती पण्डित वेद - ऋचा गाता है ।
वैसे ही आनन्द - रूप प्रभु श्रध्दा के सँग - सँग आता है ॥3॥
7799
दिवो नाभा विचक्षणोSव्यो वारे महीयते । सोमो यः सुक्रतुःकविः॥4॥
अनन्त गुणों का वह स्वामी है कर्मानुसार देता है फल ।
कर्म - मार्ग की महिमा भारी सत्कर्मों की है राह सुफल ॥4॥
7800
यः सोमः कलशेष्वॉ अन्तः पवित्र आहितः। तमिन्दुः परि षस्वजे॥5॥
परमेश्वर यश - वैभव देते सज्जन सुख - कर जीवन जीते हैं ।
सत्कर्मों का फल मीठा है राही आनन्द - अमृत पीते हैं ॥5॥
7801
प्रवाचमिन्दुरिष्यति समुद्रस्याधि विष्टपि । जिन्वन् कोशं मधुश्चुतम्॥6॥
अन्तरिक्ष जल - सञ्चय करता नभ में भरा लबा-लब जल ।
सुख से सनी हुई है धरती सुख में भी होते नयन - सजल ॥6॥
7802
नित्यस्तोत्रो वनस्पतिर्धीनामन्तः सबर्दुघः। हिन्वानो मानुषा युगा॥7॥
भाव का भूखा है परमात्मा भाव से उसको पा सकते हैं ।
सरल सहज मन उसको भाता सख्य -भाव अपना सकते हैं॥7॥
7803
अभि प्रिया दिवस्पदा सोमो हिन्वानो अर्षति । विप्रस्य धारया कविः॥8॥
परमात्मा प्रोत्साहित करता ज्ञान - मार्ग वह दिखलाता है ।
आनन्द की वर्षा करता है सुख का स्वरूप समझाता है ॥8॥
7804
आ पवमान धारय रयिं सहस्त्रवर्चसम् । अस्मे इन्दो स्वाभुवम्॥9॥
सत्पथ पर चलने वाला ही परमेश्वर को प्यारा लगता है ।
प्रभु सज्जन को वैभव देता उस की विपदा हर लेता है॥9॥
7796
सोमा असृग्रमिन्दवः सुता ऋतस्य सादने । इन्द्राय मधुमत्तमा:॥1॥
सच्चिदानन्द है वह परमात्मा वह आनन्द हमें देता है ।
षड् - ऋतु - सुख वह ही देता है सबकी विपदा हर लेता है॥1॥
7797
अभि विप्रा अनूषत गावो वत्सं न मातरः। इन्द्रं सोमस्य पीतये॥2॥
दिव्य - गुणों को धारण करके मनुज दिव्यता को पाता है ।
आकर्षण के कारण प्रभु पर वह अनुरक्त हुआ जाता है ॥2॥
7798
मदच्युत्क्षेति सादने सिन्धोरूर्मा विपश्चित् । सोमो गौरी अधि श्रितः॥3॥
सरिता में जल - ऊर्मि थिरकती पण्डित वेद - ऋचा गाता है ।
वैसे ही आनन्द - रूप प्रभु श्रध्दा के सँग - सँग आता है ॥3॥
7799
दिवो नाभा विचक्षणोSव्यो वारे महीयते । सोमो यः सुक्रतुःकविः॥4॥
अनन्त गुणों का वह स्वामी है कर्मानुसार देता है फल ।
कर्म - मार्ग की महिमा भारी सत्कर्मों की है राह सुफल ॥4॥
7800
यः सोमः कलशेष्वॉ अन्तः पवित्र आहितः। तमिन्दुः परि षस्वजे॥5॥
परमेश्वर यश - वैभव देते सज्जन सुख - कर जीवन जीते हैं ।
सत्कर्मों का फल मीठा है राही आनन्द - अमृत पीते हैं ॥5॥
7801
प्रवाचमिन्दुरिष्यति समुद्रस्याधि विष्टपि । जिन्वन् कोशं मधुश्चुतम्॥6॥
अन्तरिक्ष जल - सञ्चय करता नभ में भरा लबा-लब जल ।
सुख से सनी हुई है धरती सुख में भी होते नयन - सजल ॥6॥
7802
नित्यस्तोत्रो वनस्पतिर्धीनामन्तः सबर्दुघः। हिन्वानो मानुषा युगा॥7॥
भाव का भूखा है परमात्मा भाव से उसको पा सकते हैं ।
सरल सहज मन उसको भाता सख्य -भाव अपना सकते हैं॥7॥
7803
अभि प्रिया दिवस्पदा सोमो हिन्वानो अर्षति । विप्रस्य धारया कविः॥8॥
परमात्मा प्रोत्साहित करता ज्ञान - मार्ग वह दिखलाता है ।
आनन्द की वर्षा करता है सुख का स्वरूप समझाता है ॥8॥
7804
आ पवमान धारय रयिं सहस्त्रवर्चसम् । अस्मे इन्दो स्वाभुवम्॥9॥
सत्पथ पर चलने वाला ही परमेश्वर को प्यारा लगता है ।
प्रभु सज्जन को वैभव देता उस की विपदा हर लेता है॥9॥
बहुत ही सार्थक प्रस्तुति...
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