[ऋषि- मेधातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7701
पवस्व देववीरति पवित्रं सोम रंह्या । इन्द्रमिन्दो वृषा विश॥1॥
प्रभु की असीम अनुकम्पा से ही पावन होता है अन्तर्मन ।
मन की प्यास तभी बुझती है जब परमेश्वर देते हैं दर्शन॥1॥
7702
आ वच्यस्व महि प्सरो वृषेन्दो द्युम्रवत्तमः। आ योनिं धर्णसिः सदः॥2॥
पता नहीं किस विधि - विधान से धरा अवनि बनते सुख साधन ।
एक - मात्र प्रभु ही उपास्य है वह देता सब कुछ मन - भावन ॥2॥
7703
अधुक्षत प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः। अपो वसिष्ट सुक्रतुः ॥3॥
प्रभु की छवि अत्यन्त दिव्य है वह छवि आकर्षित करती है ।
सचमुच सर्व - समर्थ वही है पृथ्वी पर परम्परा पलती है ॥3॥
7704
महान्तं त्वा महीरन्वापो अर्षन्ति सिन्धवः। यद्गोभिर्वासयिष्यसे॥4॥
सलिल - समीर सँग - सँग बहते पृथ्वी परिभ्रमण करती है ।
सब प्राणी सुख आश्रय पाते धरती कितना धीरज धरती है॥4॥
7705
समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिवः। सोमः पवित्रे अस्मयुः॥5॥
अति अद्भुत है वह परमात्मा वह सिन्धु रूप में विद्यमान है ।
शुभ - कर्मों का वही प्रदाता एक - मात्र वह शक्ति - मान है ॥5॥
7706
अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः । सं सूर्येण रोचते ॥6॥
वह प्रभु ही सत् - पथ दिखलाता परम - मित्र है वही हमारा ।
कहता आत्म - ज्ञान तुम पाओ यह तो है अधिकार तुम्हारा ॥6॥
7707
गिरस्त इन्द ओजसा मर्मृज्यन्ते अपस्युवः। याभिर्मदाय शुम्भसे॥7॥
वेद - ऋचायें यह समझाती शब्दों की अद्भुत है महिमा ।
कर्म लक्ष्य तक पहुँचाता है यह है सत्कर्मों की गरिमा ॥7॥
7708
तं त्वा मदाय घृष्वय उ लोककृत्नुमीमहे । तव प्रशस्तयो महीः ॥8॥
दुनियॉ परमात्मा का घर है वेद - ऋचा उसका जस गाती ।
ज्ञान - आलोक वही देता है पल - पल प्रतिभा पल जाती ॥8॥
7709
अमभ्यमिन्दविन्द्रयुर्मध्वः पवस्व धारया । पर्जन्यो वृष्टिमॉ इव॥9॥
जैसे रिमझिम वर्षा आकर वसुधा का सिञ्चन करती है ।
वैसे प्रभु की आनन्द - वृष्टि मानव को उपकृत करती है ॥9॥
7710
गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः॥10॥
कर्म - स्वतंत्र यहॉ हम सब हैं कर्मानुसार पाते हैं फल ।
सत्कर्मों का फल सुख - कर है सत्कर्मों से मिलता बल ॥10॥
7701
पवस्व देववीरति पवित्रं सोम रंह्या । इन्द्रमिन्दो वृषा विश॥1॥
प्रभु की असीम अनुकम्पा से ही पावन होता है अन्तर्मन ।
मन की प्यास तभी बुझती है जब परमेश्वर देते हैं दर्शन॥1॥
7702
आ वच्यस्व महि प्सरो वृषेन्दो द्युम्रवत्तमः। आ योनिं धर्णसिः सदः॥2॥
पता नहीं किस विधि - विधान से धरा अवनि बनते सुख साधन ।
एक - मात्र प्रभु ही उपास्य है वह देता सब कुछ मन - भावन ॥2॥
7703
अधुक्षत प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः। अपो वसिष्ट सुक्रतुः ॥3॥
प्रभु की छवि अत्यन्त दिव्य है वह छवि आकर्षित करती है ।
सचमुच सर्व - समर्थ वही है पृथ्वी पर परम्परा पलती है ॥3॥
7704
महान्तं त्वा महीरन्वापो अर्षन्ति सिन्धवः। यद्गोभिर्वासयिष्यसे॥4॥
सलिल - समीर सँग - सँग बहते पृथ्वी परिभ्रमण करती है ।
सब प्राणी सुख आश्रय पाते धरती कितना धीरज धरती है॥4॥
7705
समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिवः। सोमः पवित्रे अस्मयुः॥5॥
अति अद्भुत है वह परमात्मा वह सिन्धु रूप में विद्यमान है ।
शुभ - कर्मों का वही प्रदाता एक - मात्र वह शक्ति - मान है ॥5॥
7706
अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः । सं सूर्येण रोचते ॥6॥
वह प्रभु ही सत् - पथ दिखलाता परम - मित्र है वही हमारा ।
कहता आत्म - ज्ञान तुम पाओ यह तो है अधिकार तुम्हारा ॥6॥
7707
गिरस्त इन्द ओजसा मर्मृज्यन्ते अपस्युवः। याभिर्मदाय शुम्भसे॥7॥
वेद - ऋचायें यह समझाती शब्दों की अद्भुत है महिमा ।
कर्म लक्ष्य तक पहुँचाता है यह है सत्कर्मों की गरिमा ॥7॥
7708
तं त्वा मदाय घृष्वय उ लोककृत्नुमीमहे । तव प्रशस्तयो महीः ॥8॥
दुनियॉ परमात्मा का घर है वेद - ऋचा उसका जस गाती ।
ज्ञान - आलोक वही देता है पल - पल प्रतिभा पल जाती ॥8॥
7709
अमभ्यमिन्दविन्द्रयुर्मध्वः पवस्व धारया । पर्जन्यो वृष्टिमॉ इव॥9॥
जैसे रिमझिम वर्षा आकर वसुधा का सिञ्चन करती है ।
वैसे प्रभु की आनन्द - वृष्टि मानव को उपकृत करती है ॥9॥
7710
गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः॥10॥
कर्म - स्वतंत्र यहॉ हम सब हैं कर्मानुसार पाते हैं फल ।
सत्कर्मों का फल सुख - कर है सत्कर्मों से मिलता बल ॥10॥
सुन्दर सन्देश...शुभकामनाएं...
ReplyDeleteप्रभु की असीम अनुकम्पा से ही पावन होता है अन्तर्मन ।
ReplyDeleteमन की प्यास तभी बुझती है जब परमेश्वर देते हैं दर्शन॥1॥
...बिल्कुल सच..सदैव की तरह उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार