Monday, 16 June 2014

सूक्त - 2

[ऋषि- मेधातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7701
पवस्व देववीरति पवित्रं सोम रंह्या । इन्द्रमिन्दो वृषा विश॥1॥

प्रभु  की असीम अनुकम्पा  से  ही  पावन  होता  है अन्तर्मन ।
मन  की  प्यास  तभी बुझती है जब परमेश्वर देते हैं दर्शन॥1॥

7702
आ वच्यस्व महि प्सरो वृषेन्दो द्युम्रवत्तमः। आ योनिं धर्णसिः सदः॥2॥

पता नहीं किस विधि - विधान से धरा अवनि बनते सुख साधन ।
एक - मात्र प्रभु ही उपास्य है वह देता सब कुछ मन - भावन ॥2॥

7703
अधुक्षत प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः। अपो वसिष्ट सुक्रतुः ॥3॥

प्रभु  की  छवि अत्यन्त  दिव्य  है  वह छवि आकर्षित करती  है ।
सचमुच  सर्व - समर्थ  वही  है  पृथ्वी  पर परम्परा पलती  है ॥3॥

7704
महान्तं त्वा महीरन्वापो अर्षन्ति सिन्धवः। यद्गोभिर्वासयिष्यसे॥4॥

सलिल - समीर सँग - सँग बहते  पृथ्वी  परिभ्रमण  करती है ।
सब प्राणी सुख आश्रय पाते धरती कितना धीरज धरती है॥4॥

7705
समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिवः। सोमः पवित्रे अस्मयुः॥5॥

अति  अद्भुत  है  वह परमात्मा वह सिन्धु रूप में विद्यमान  है ।
शुभ - कर्मों का वही प्रदाता एक - मात्र वह शक्ति - मान है ॥5॥

7706
अचिक्रदद्वृषा  हरिर्महान्मित्रो  न   दर्शतः । सं  सूर्येण  रोचते ॥6॥

वह  प्रभु  ही  सत् - पथ  दिखलाता  परम - मित्र  है  वही  हमारा ।
कहता आत्म - ज्ञान तुम पाओ यह तो  है अधिकार  तुम्हारा ॥6॥

7707
गिरस्त इन्द ओजसा मर्मृज्यन्ते अपस्युवः। याभिर्मदाय शुम्भसे॥7॥

वेद - ऋचायें  यह  समझाती  शब्दों  की  अद्भुत  है  महिमा ।
कर्म लक्ष्य तक पहुँचाता है यह  है  सत्कर्मों  की गरिमा ॥7॥

7708
तं त्वा मदाय घृष्वय उ लोककृत्नुमीमहे । तव प्रशस्तयो महीः ॥8॥

दुनियॉ  परमात्मा  का  घर  है  वेद - ऋचा उसका जस  गाती  ।
ज्ञान - आलोक  वही  देता  है  पल - पल प्रतिभा पल जाती ॥8॥

7709
अमभ्यमिन्दविन्द्रयुर्मध्वः पवस्व धारया । पर्जन्यो वृष्टिमॉ इव॥9॥

जैसे  रिमझिम  वर्षा आकर  वसुधा  का सिञ्चन करती है ।
वैसे प्रभु की आनन्द - वृष्टि मानव को उपकृत करती है ॥9॥

7710
गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः॥10॥

कर्म  -  स्वतंत्र  यहॉ  हम  सब  हैं  कर्मानुसार  पाते  हैं  फल ।
सत्कर्मों का फल सुख - कर है सत्कर्मों से मिलता बल ॥10॥

2 comments:

  1. सुन्दर सन्देश...शुभकामनाएं...

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  2. प्रभु की असीम अनुकम्पा से ही पावन होता है अन्तर्मन ।
    मन की प्यास तभी बुझती है जब परमेश्वर देते हैं दर्शन॥1॥
    ...बिल्कुल सच..सदैव की तरह उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार

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