Friday, 6 June 2014

सूक्त - 11

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7787
उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवॉ इयक्षते ॥1॥

सत् - संगति में सब का सुख है यह नर - जीवन को गढता है ।
जीवन - उपवन  बन  जाता  है  परमेश्वर  विपदा हरता है ॥1॥

7788
अभि ते मधुना पयोSथर्वाणो अशिश्रयुः। देवं देवाय देवयु ॥2॥

जो  अपना अधिकार  समझता  वह  ही  अथर्वा  कहलाता  है ।
दिव्य - शक्तियॉ  प्रभु  देते  हैं  परमानन्द  मनुज  पाता है ॥2॥

7789
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते । शं राजन्नोषधीभ्यः॥3॥

हे  पावन  पूजनीय  परमात्मा  तुम  औषधि  का  दे  दो  दान ।
सबका तन - मन रहे सुरक्षित दया - दृष्टि रखना भगवान ॥3॥

7790
बभ्रवे नु स्वतवसेSरुणाय दिविस्पृशे । सोमाय गाथमर्चत ॥4॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  वह  ही  हम सबका स्वामी है ।
सबका  ध्यान  वही  रखता है मनुज उसी का अनुगामी है ॥4॥

7791
हस्तच्युतेभिरद्रिभिः सुतं सोमं पुनीतन । मधावा धावता मधु॥5॥

प्रभु वाक् - वज्र धारण करता है अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
यश - वैभव  वह  ही  देता  है  सब  को  सत्पथ  वही दिखाता ॥5॥

7792
नमसेदुप सीदत दध्नेदभि श्रीणीतन । इन्दुमिन्द्रे दधातन ॥6॥

फल  से  लदी  डाल झुकती है गुणी मनुज झुक - झुक जाता है ।
वसुधा का सुख उसकी थाती सुख - वैभव वह  ही  पाता  है ॥6॥

7793
अमित्रहा विचर्षणिः पवस्व सोम शं गवे । देवेभ्यो अनुक्रामकृत॥7॥

जगती में  देव - असुर दोनों को मनुज - मात्र रेखाञ्कित करता ।
स्वार्थ - भाव में असुर दौडता देव - मनुज सत्पथ पर चलता॥7॥

7794
इन्द्राय सोम पातवे मदाय परि षिच्यसे । मनश्चिन्मनसस्पतिः॥8॥

प्रभु - उपासना  जो  करते  हैं  करते  जो  परमेश्वर  का  ध्यान ।
उनका जीवन उज्ज्वल होता वह बन जाता मनुज - महान ॥8॥

7795
पवमान सुवीर्यं रयिं सोम रिरीह नः। इन्दविन्द्रेण नो युजा ॥9॥

परमात्म  परायण  जो  होते  हैं  परमेश्वर  पर  करते   विश्वास ।
प्रभु  उसको  यश - वैभव  देते  रहते  हैं  उसके आस - पास ॥9॥

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