[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7787
उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवॉ इयक्षते ॥1॥
सत् - संगति में सब का सुख है यह नर - जीवन को गढता है ।
जीवन - उपवन बन जाता है परमेश्वर विपदा हरता है ॥1॥
7788
अभि ते मधुना पयोSथर्वाणो अशिश्रयुः। देवं देवाय देवयु ॥2॥
जो अपना अधिकार समझता वह ही अथर्वा कहलाता है ।
दिव्य - शक्तियॉ प्रभु देते हैं परमानन्द मनुज पाता है ॥2॥
7789
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते । शं राजन्नोषधीभ्यः॥3॥
हे पावन पूजनीय परमात्मा तुम औषधि का दे दो दान ।
सबका तन - मन रहे सुरक्षित दया - दृष्टि रखना भगवान ॥3॥
7790
बभ्रवे नु स्वतवसेSरुणाय दिविस्पृशे । सोमाय गाथमर्चत ॥4॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा वह ही हम सबका स्वामी है ।
सबका ध्यान वही रखता है मनुज उसी का अनुगामी है ॥4॥
7791
हस्तच्युतेभिरद्रिभिः सुतं सोमं पुनीतन । मधावा धावता मधु॥5॥
प्रभु वाक् - वज्र धारण करता है अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
यश - वैभव वह ही देता है सब को सत्पथ वही दिखाता ॥5॥
7792
नमसेदुप सीदत दध्नेदभि श्रीणीतन । इन्दुमिन्द्रे दधातन ॥6॥
फल से लदी डाल झुकती है गुणी मनुज झुक - झुक जाता है ।
वसुधा का सुख उसकी थाती सुख - वैभव वह ही पाता है ॥6॥
7793
अमित्रहा विचर्षणिः पवस्व सोम शं गवे । देवेभ्यो अनुक्रामकृत॥7॥
जगती में देव - असुर दोनों को मनुज - मात्र रेखाञ्कित करता ।
स्वार्थ - भाव में असुर दौडता देव - मनुज सत्पथ पर चलता॥7॥
7794
इन्द्राय सोम पातवे मदाय परि षिच्यसे । मनश्चिन्मनसस्पतिः॥8॥
प्रभु - उपासना जो करते हैं करते जो परमेश्वर का ध्यान ।
उनका जीवन उज्ज्वल होता वह बन जाता मनुज - महान ॥8॥
7795
पवमान सुवीर्यं रयिं सोम रिरीह नः। इन्दविन्द्रेण नो युजा ॥9॥
परमात्म परायण जो होते हैं परमेश्वर पर करते विश्वास ।
प्रभु उसको यश - वैभव देते रहते हैं उसके आस - पास ॥9॥
7787
उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवॉ इयक्षते ॥1॥
सत् - संगति में सब का सुख है यह नर - जीवन को गढता है ।
जीवन - उपवन बन जाता है परमेश्वर विपदा हरता है ॥1॥
7788
अभि ते मधुना पयोSथर्वाणो अशिश्रयुः। देवं देवाय देवयु ॥2॥
जो अपना अधिकार समझता वह ही अथर्वा कहलाता है ।
दिव्य - शक्तियॉ प्रभु देते हैं परमानन्द मनुज पाता है ॥2॥
7789
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते । शं राजन्नोषधीभ्यः॥3॥
हे पावन पूजनीय परमात्मा तुम औषधि का दे दो दान ।
सबका तन - मन रहे सुरक्षित दया - दृष्टि रखना भगवान ॥3॥
7790
बभ्रवे नु स्वतवसेSरुणाय दिविस्पृशे । सोमाय गाथमर्चत ॥4॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा वह ही हम सबका स्वामी है ।
सबका ध्यान वही रखता है मनुज उसी का अनुगामी है ॥4॥
7791
हस्तच्युतेभिरद्रिभिः सुतं सोमं पुनीतन । मधावा धावता मधु॥5॥
प्रभु वाक् - वज्र धारण करता है अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
यश - वैभव वह ही देता है सब को सत्पथ वही दिखाता ॥5॥
7792
नमसेदुप सीदत दध्नेदभि श्रीणीतन । इन्दुमिन्द्रे दधातन ॥6॥
फल से लदी डाल झुकती है गुणी मनुज झुक - झुक जाता है ।
वसुधा का सुख उसकी थाती सुख - वैभव वह ही पाता है ॥6॥
7793
अमित्रहा विचर्षणिः पवस्व सोम शं गवे । देवेभ्यो अनुक्रामकृत॥7॥
जगती में देव - असुर दोनों को मनुज - मात्र रेखाञ्कित करता ।
स्वार्थ - भाव में असुर दौडता देव - मनुज सत्पथ पर चलता॥7॥
7794
इन्द्राय सोम पातवे मदाय परि षिच्यसे । मनश्चिन्मनसस्पतिः॥8॥
प्रभु - उपासना जो करते हैं करते जो परमेश्वर का ध्यान ।
उनका जीवन उज्ज्वल होता वह बन जाता मनुज - महान ॥8॥
7795
पवमान सुवीर्यं रयिं सोम रिरीह नः। इन्दविन्द्रेण नो युजा ॥9॥
परमात्म परायण जो होते हैं परमेश्वर पर करते विश्वास ।
प्रभु उसको यश - वैभव देते रहते हैं उसके आस - पास ॥9॥
सुन्दर सन्देश...
ReplyDelete