[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7838
प्र निम्रेनेव सिन्धवो घ्नन्तो वृत्राणि भूर्णयः। सोमा असृग्रमाशवः॥1॥
परमात्मा अज्ञान मिटा - कर प्रोत्साहित सब को करता है ।
यम नियम मार्ग से जो चलते हैं उनका ध्यान सदा रखता है॥1॥
7839
अभि सुवानास इन्दवो वृष्ट्यः पृथिवीमिव । इन्द्रं सोमासो अक्षरन्॥2॥
जैसे पावस धरा भिगो - कर अन्न अॅकुरित करती है ।
वैसे ही प्रभु कृपा मनुज-मन में अन्वेषण गुण भरती है॥2॥
7840
अत्यूर्मिर्मत्सरो मदः सोमः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥3॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही प्रभु - कृपा - पात्र बन जाता है ।
उस सतत अनुग्रह होता प्रभु से अपना - पन पाता है ॥3॥
7841
आ कलशेषु धावति पवित्रे परि षिच्यते । उक्थैर्यज्ञेषु वर्धते ॥4॥
जब समवेत स्वरों से साधक वेद - ऋचा का करते गान ।
ऐसा प्रतीत होता है मानो सन्मुख बैठे हैं भगवान ॥4॥
7842
अत्ति त्री सोम रोचना रोहन्न भ्राजसे दिवम् । इष्णन्त्सूर्यं न चोदयः॥5॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा बिखराते सूर्य - चन्द्र आलोक ।
नीति - नियम से सभी बँधे हैं प्रभु हरते हैं सबका शोक ॥5॥
7843
अभि विप्रा अनूषत मूर्धन्यज्ञस्य कारवः। दधानाश्चक्षसि प्रियम्॥6॥
अनुष्ठान अति आवश्यक है इससे ही मन होता है पावन ।
सुमिरन हर साधक करता है यह क्षण होता है मन - भावन॥6॥
7844
तमु त्वा वाजिनं नरो धीभिर्विप्रा अवस्यवः। मृजन्ति देवतातये॥7॥
साधक जब पूजा करता है वाक् - अर्थ पर रहता ध्यान ।
भाव का भूखा है परमेश्वर वह ही देता है समाधान ॥7॥
7845
मधोर्धारामनु क्षर तीव्रः सधस्थमासदः। चारुरृताय पीतये ॥8॥
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर प्रभु - सामीप्य हमें मिल जाए ।
वरद - हस्त रखना प्रभु मुझ पर झूम - झूम मेरा मन गाए॥8॥
7838
प्र निम्रेनेव सिन्धवो घ्नन्तो वृत्राणि भूर्णयः। सोमा असृग्रमाशवः॥1॥
परमात्मा अज्ञान मिटा - कर प्रोत्साहित सब को करता है ।
यम नियम मार्ग से जो चलते हैं उनका ध्यान सदा रखता है॥1॥
7839
अभि सुवानास इन्दवो वृष्ट्यः पृथिवीमिव । इन्द्रं सोमासो अक्षरन्॥2॥
जैसे पावस धरा भिगो - कर अन्न अॅकुरित करती है ।
वैसे ही प्रभु कृपा मनुज-मन में अन्वेषण गुण भरती है॥2॥
7840
अत्यूर्मिर्मत्सरो मदः सोमः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥3॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही प्रभु - कृपा - पात्र बन जाता है ।
उस सतत अनुग्रह होता प्रभु से अपना - पन पाता है ॥3॥
7841
आ कलशेषु धावति पवित्रे परि षिच्यते । उक्थैर्यज्ञेषु वर्धते ॥4॥
जब समवेत स्वरों से साधक वेद - ऋचा का करते गान ।
ऐसा प्रतीत होता है मानो सन्मुख बैठे हैं भगवान ॥4॥
7842
अत्ति त्री सोम रोचना रोहन्न भ्राजसे दिवम् । इष्णन्त्सूर्यं न चोदयः॥5॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा बिखराते सूर्य - चन्द्र आलोक ।
नीति - नियम से सभी बँधे हैं प्रभु हरते हैं सबका शोक ॥5॥
7843
अभि विप्रा अनूषत मूर्धन्यज्ञस्य कारवः। दधानाश्चक्षसि प्रियम्॥6॥
अनुष्ठान अति आवश्यक है इससे ही मन होता है पावन ।
सुमिरन हर साधक करता है यह क्षण होता है मन - भावन॥6॥
7844
तमु त्वा वाजिनं नरो धीभिर्विप्रा अवस्यवः। मृजन्ति देवतातये॥7॥
साधक जब पूजा करता है वाक् - अर्थ पर रहता ध्यान ।
भाव का भूखा है परमेश्वर वह ही देता है समाधान ॥7॥
7845
मधोर्धारामनु क्षर तीव्रः सधस्थमासदः। चारुरृताय पीतये ॥8॥
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर प्रभु - सामीप्य हमें मिल जाए ।
वरद - हस्त रखना प्रभु मुझ पर झूम - झूम मेरा मन गाए॥8॥
Thanks for this post. I like the constructions you have done to replicate the crux of the vedic mantra
ReplyDelete