Saturday, 31 May 2014

सूक्त - 18

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7846
परि सुवानो गिरिष्ठा: पवित्रे सोमो अक्षा:। मदेषु सर्वधा असि॥1॥

सर्व  व्याप्त है वह परमात्मा विद्युत में भी  वह  विद्यमान  है ।
हर  वैभव  में  वही समाया दीप  में  वही  प्रवाहमान  है ॥1॥

7847
त्वं विप्रस्त्वं कविर्मधु प्र जातमन्धसः। मदेषु सर्वधा असि॥2॥

अद्भुत  बल  है  परमात्मा में विविध - रसों की वह मिठास है ।
उसे  ढूढने  दूर  न  जाओ  वह  तो  अपने  आस - पास  है ॥2॥

7848
तव विश्वे सजोषसो देवासः पीतिमाशत । मदेषु सर्वधा अधि॥3॥

आनन्द - रूप है वह परमात्मा विज्ञानी - जन उनको पाते  हैं ।
बिना ज्ञान के भोग कठिन है विद्वत् - जन यह समझाते हैं॥3॥

7849
आ यो विश्वानि वार्या वसूनि हस्तयोर्दधे । मदेषु सर्वधा अधि॥4॥

पात्रानुसार ही वह परमात्मा विभूति - दान  सब  को  देता  है ।
जिसको सुख की आकांक्षा है उसको  प्रभु अपना  लेता  है ॥4॥

7850
य  इमे  रोदसी  मही  सं  मातरेव  दोहते । मदेषु सर्वधा अधि ॥5॥

धरा - गगन हैं मात - पिता सम विविध - विधा में भरा है भोग ।
सबको मिले इसी चिन्तन से जितना चाहो कर लो उपयोग ॥5॥

7851
परि यो रोदसी उभे सद्यो वाजेभिरर्षति । मदेषु सर्वधा अधि ॥6॥

कण - कण में वैभव भरा हुआ है होना है इस पर परि- शोध ।
धरा - गगन हैं केन्द्र प्रकृति के हम सबको होता है बोध ॥6॥

7852
स शुष्मी कलशेष्वा पुनानो अचिक्रदत् । मदेषु  सर्वधा असि॥7॥

परमात्मा  ही  शब्द - ब्रह्म  है  पर  वह  शब्दों  में  नहीं  समाता ।
वह नेति - नेति से परिभाषित मात्र - भाव से वह मिल जाता॥7॥

2 comments:

  1. वह तो अपने आस - पास है...बहुत खूब...

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  2. वह तो अपने आस - पास है...बहुत खूब...

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