Wednesday, 25 June 2014

द्वारिका

मैं भिलाई स्टील प्लांट के स्कूल में , बच्चों को संस्कृत पढाती थी । मैं तीस मिनट से ज़्यादा कभी नहीं पढाती थी । जो थोडा सा समय बचता था उसमें बच्चों के साथ गप्पें मारती थी । उस दिन भी मैं बच्चों से बातें ही कर रही थी कि - " बताओ  बच्चों ! कौन सी पिक्चर हिट हो रही है ? कौन से हीरो - हीरोइन टॉप में चल रहे हैं ?" बच्चों को बहुत मज़ा आ रहा था । उस समय शायद रितिक रोशन और प्रीति जिंटा की कोई फिल्म हिट हुई थी । बच्चे चटखारें ले - ले कर , मुझे एक्टिंग - सहित स्टोरी सुना रहे थे , तभी अचानक प्रिंसिपल साहब आए और पूछने लगे - " शर्मा मैडम ! हँसने की आवाज़ किधर से आ रही है ?" बच्चे डर - कर चुप हो गए, पर मैने कहा - " आइये सर ! हमारे क्लास - रूम में बहुत इन्टरेस्टिंग टॉपिक चल रहा है । सर , सचमुच क्लास - रूम में आ गए , मैंने उन्हें अपनी चेयर दी और बच्चों के साथ जाकर बैठ गई । फिर अचानक एक लडके ने मुझसे पूछा  " मैडम ! आपका फेवरेट हीरो कौन है ? " 

" तुम लोगों ने कृष्ण का नाम तो सुना होगा ? " सबने एक स्वर में कहा -" हॉ ।" 
" वही मेरा हीरो है ।" 
"वे तो किसी फिल्म में काम नहीं किए हैं तो वे हीरो कैसे हो सकते हैं ?"
" विप्लव ! क्या तुम इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हो ?"
" जिस क्लास में रितिक और प्रीति जिंटा पढते हैं , कृष्ण वहॉ के हेड- मास्टर रह चुके हैं । है न मैडम ?" 
पूरा माहौल ठहाकों से भर गया । उसी समय बेल लग गई और प्रिंसिपल सर , मुस्कुराते हुए बाहर निकल गए । 

कृष्ण का चरित्र मुझे बहुत आकर्षित करता है । उसका चरित्र अनूठा है । विरोधाभास से भरा हुआ है । हर घडी कौतूहल है , नित - नवीन है और आनन्द से भरा हुआ है । उसने अपने जीवन में कितने उल्टे - पुल्टे काम किए पर फिर भी - " कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम् ।" 

कंस - वध के पश्चात् , कंस के ससुर , जरासंध ने , मथुरा पर, बार - बार , आक्रमण किया । उसने सत्रह - बार आक्रमण किया और कृष्ण को ललकारा । ऐसी परिस्थिति में , कृष्ण को , यदुवंशियों की सुरक्षा की चिन्ता होने लगी । वे यादवों को , मथुरा से निकाल कर , कहीं अन्यत्र बसाना चाहते थे पर यादव मथुरा छोडने के लिए तैयार ही नहीं थे , तब कृष्ण ने रातों - रात , जब यदुवंशी सो रहे थे , उन्हें नींद में ही , द्वारिका में शिफ्ट कर दिया । इस कृत्य के लिए उन्हें " रण- छोड " की उपाधि से अपमानित भी होना पडा पर उन्हें क्या फर्क पडता है ? 

यदुवंशी , जब भोर के धुँधलके में जगे , तो बिस्तर से उठ- कर , चलते हुए , दीवारों से टकराने लगे और " द्वारि कः = दरवाजा किधर है ? " कह कर , एक - दूसरे से पूछने लगे और इस प्रकार , समुद्र के भीतर , बसाए गए , उस नगर का नाम "द्वारिका " पड गया , जो देश के चार पीठों में से एक है ।      

Sunday, 22 June 2014

निद्रा

जीव - मात्र को गोद में अपनी प्रतिदिन तुम्हीं सुलाती हो 
व्यथा  सभी  की हर लेती हो स्वप्न - नए दिखलाती हो ।

चेतन  होते  थके -  हुए  जन  नव - जीवन  पा  जाते  हैं
पा उमँग का उत्स तुम्हीं से नव- राग-रागिनी गाते  हैं ।

दुख  से  जब  घिर जाता मानव तुम्हीं सान्त्वना देती हो
दुख  से   भूख से नींद बडी है स्वयं - सिध्द कर देती हो ।

शिशु  जब  रो - रो  कर   थक जाता गोद में तेरी जाता है 
निद्रा से  विश्राम  प्राप्त  कर  व्यथा - मुक्त  हो  जाता  है ।

देह  में  जब  पीडा  होती  है  तुम्हीं  कष्ट  को  हरती  हो 
मन - बहला - कर धीरे - धीरे घाव मनुज का भरती हो ।

राजा   हो  या  रंक  सभी  को  गोद  तुम्हारी  प्यारी  है 
सभी  प्यार  करते  हैं  तुमसे  तेरी  महिमा   न्यारी है ।

जिजीविषा  तेरा  -  प्रसाद  है आकॉक्षा  तेरा  वर  - दान 
तुम ही तो जय की माध्यम हो कृतज्ञता का होता भान ।

प्राण - शक्ति का क्षरण रोकती माता - सम तुम हो सबकी
तुमसे ऊर्जा पाकर हम दुख अर्पित करते  निज- उर की ।

प्रिय - जन भी जब साथ छोडते तुम देती हो अपना ऑचल
बॉह - पकड आश्रय देती हो होता है जब अन्तर - व्याकुल ।

जब  शरीर  का  क्षय  होता  है  जरा - जीर्ण  हो   जाता देह 
सदा - सदा के लिए पकड कर ले जाती हो तुम निज-गेह ।

जीवन  का संग्राम  झेल कर जब यह तन - थक जाता है 
महा - नींद  में तुम्हीं  सुलाती  तभी शान्ति वह पाता  है ।

जब  वह  पुनः जन्म  लेता  है तब  भी  साथ  निभाती  हो 
जन्मान्तर भी आश्रय देकर  तुम  दिव्यता  सिखाती  हो ।
  

Thursday, 19 June 2014

लय

लय शब्द झनझनाता मन के सितार को है 
सुर अपने - आप ही सुरीला हुआ जाता है ।
जगती का कण- कण बँधा लय रागिनी से 
लय से ही नियति को कर्म सभी भाता है ।

बावरी - बयार भी तो  लय में  ही  बहती  है
सरिता भी कल-कल लय में कही जाती है ।
झरना  भी  झर -  झर सुर में झरा जाता है
कोयल  भी  कुहू - कुहू  सुर में ही गाती है ।

घनन - घनन  घन  गर्जत  हैं आते  मानो 
सुर लय ताल जगती को  ज्यों पढाते हों ।
दामिनी भी दमक - दमक छवि बिखराती
मेघ मानो मही पर मल्हार गाते आते हों ।

मनुज  के  पलक  झपकने  में  होता  लय 
दृष्टि  में  भी लय है जो सृष्टि देख जाती है ।
हृदय की गति  धक - धक करती है  मानो
परिभाषा लय की जगत को समझाती है ।

लय की महत्ता सर्व-विदित है भली - भॉति
लय - बध्द  रोता हुआ नर यहॉ आता  है ।
बँधा  रहे  लय  से  प्रयास -  रत  रहता  है
जीवन की तृषा से विराम लय से पाता है ।  

Wednesday, 18 June 2014

॥ अथ नवमं मण्डलम् ॥

                सूक्त - 1

[ ऋषि- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7691
स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुतः॥1॥

अत्यन्त सौम्य है वह परमात्मा अनन्त - गुणों का वह स्वामी है ।
जो  भी  सौम्य - भाव अपनाता  बन जाता प्रभु - अनुगामी  है ॥1॥

7692
रक्षोहा विश्वचर्षणिरभि योनिमयोहितम् । द्रुणा सधस्थमासदत्॥2॥

हे  पावन  पूजनीय  परमात्मन्  तुम ही इस जग के सृष्टा हो ।
अन्तर्मन में तुम बस जाओ तुम  ही जगती  के  द्रष्टा  हो ॥2॥

7693
वरिवोधातमो भव मंहिष्ठो वृत्रहन्तमः। पर्षि राधो मघोनाम् ॥3॥

परमात्मा सब सुख देता है अज्ञान - तमस  को  वही मिटाता ।
सर्वोपरि  है  वह  परमेश्वर  सत्पथ  पर  वह  ही  ले जाता ॥3॥

7694
अभ्यर्ष महानां देवानां वीतिमन्धसा । अभि वाजमुत श्रवः ॥4॥

कृपा - सिन्धु  है  वह  परमात्मा  सब  पर  कृपा  वही करता है ।
वह  ही  हमें  समर्थ  बनाता  हम  सब  की  विपदा हरता है ॥4॥

7695
त्वामच्छा चरामसि तदिदर्थं दिवेदिवे । इन्दो त्वे न आशसः ॥5॥

निष्काम - कर्म हो लक्ष्य हमारा इस पथ पर हम चलें निरन्तर ।
दुनियॉ  है  परिवार  हमारा  सुख - दुख  बॉटें  सदा  परस्पर ॥5॥

7696
पुनाति ते परिस्त्रुतं सोमं सूर्यस्य दुहिता । वारेण शश्वता तना ॥6॥

प्रतिदिन - परमेश्वर पूजन  से सौम्य स्वभाव स्वतः मिल जाता ।
उषा  जिस  तरह  सुख देती  है  सौम्य - भाव सुख देने आता ॥6॥

7697
तमीमण्वीः समर्य आ गृभ्णन्ति योषणो दश । स्वसारः पार्ये दिवि॥7॥

श्रध्दा - पूरित है जिसका मन  दस  गुण  वाला  बन  जाता  है ।
साधक को सब कुछ मिलता है मन का संतोष वही पाता है॥7॥

7698
तमीं हिन्वन्त्यग्रुवो धमन्ति बाकुरं दृतिम् । त्रिधातु वारणं मधु ॥8॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करता  तन - मन  बनता  ऊर्जा - वान ।
उसका आत्मिक- बल बढता है कृपा-सिन्धु है वह भगवान॥8॥

7699
अभी3 ममघ्र्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम् । सोममिन्द्राय पातवे॥9॥

श्रध्दा  से यश - वैभव मिलता श्रध्दा से मिलता  सत् - ज्ञान ।
वह  वाणी  का  वैभव  देती  श्रध्दा  में  बसते हैं भगवान ॥9॥

7700
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा विश्वा वृत्राणि जिघ्नते । शूरो मघा च मंहते॥10॥

श्रध्दा - भाव  से  ही  विज्ञानी  अज्ञान - तमस  को  दूर  भगाता ।
वीर - विजय अविरल पाता है जीवन अपना सफल बनाता ॥10॥ 

    

Monday, 16 June 2014

सूक्त - 2

[ऋषि- मेधातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7701
पवस्व देववीरति पवित्रं सोम रंह्या । इन्द्रमिन्दो वृषा विश॥1॥

प्रभु  की असीम अनुकम्पा  से  ही  पावन  होता  है अन्तर्मन ।
मन  की  प्यास  तभी बुझती है जब परमेश्वर देते हैं दर्शन॥1॥

7702
आ वच्यस्व महि प्सरो वृषेन्दो द्युम्रवत्तमः। आ योनिं धर्णसिः सदः॥2॥

पता नहीं किस विधि - विधान से धरा अवनि बनते सुख साधन ।
एक - मात्र प्रभु ही उपास्य है वह देता सब कुछ मन - भावन ॥2॥

7703
अधुक्षत प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः। अपो वसिष्ट सुक्रतुः ॥3॥

प्रभु  की  छवि अत्यन्त  दिव्य  है  वह छवि आकर्षित करती  है ।
सचमुच  सर्व - समर्थ  वही  है  पृथ्वी  पर परम्परा पलती  है ॥3॥

7704
महान्तं त्वा महीरन्वापो अर्षन्ति सिन्धवः। यद्गोभिर्वासयिष्यसे॥4॥

सलिल - समीर सँग - सँग बहते  पृथ्वी  परिभ्रमण  करती है ।
सब प्राणी सुख आश्रय पाते धरती कितना धीरज धरती है॥4॥

7705
समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिवः। सोमः पवित्रे अस्मयुः॥5॥

अति  अद्भुत  है  वह परमात्मा वह सिन्धु रूप में विद्यमान  है ।
शुभ - कर्मों का वही प्रदाता एक - मात्र वह शक्ति - मान है ॥5॥

7706
अचिक्रदद्वृषा  हरिर्महान्मित्रो  न   दर्शतः । सं  सूर्येण  रोचते ॥6॥

वह  प्रभु  ही  सत् - पथ  दिखलाता  परम - मित्र  है  वही  हमारा ।
कहता आत्म - ज्ञान तुम पाओ यह तो  है अधिकार  तुम्हारा ॥6॥

7707
गिरस्त इन्द ओजसा मर्मृज्यन्ते अपस्युवः। याभिर्मदाय शुम्भसे॥7॥

वेद - ऋचायें  यह  समझाती  शब्दों  की  अद्भुत  है  महिमा ।
कर्म लक्ष्य तक पहुँचाता है यह  है  सत्कर्मों  की गरिमा ॥7॥

7708
तं त्वा मदाय घृष्वय उ लोककृत्नुमीमहे । तव प्रशस्तयो महीः ॥8॥

दुनियॉ  परमात्मा  का  घर  है  वेद - ऋचा उसका जस  गाती  ।
ज्ञान - आलोक  वही  देता  है  पल - पल प्रतिभा पल जाती ॥8॥

7709
अमभ्यमिन्दविन्द्रयुर्मध्वः पवस्व धारया । पर्जन्यो वृष्टिमॉ इव॥9॥

जैसे  रिमझिम  वर्षा आकर  वसुधा  का सिञ्चन करती है ।
वैसे प्रभु की आनन्द - वृष्टि मानव को उपकृत करती है ॥9॥

7710
गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः॥10॥

कर्म  -  स्वतंत्र  यहॉ  हम  सब  हैं  कर्मानुसार  पाते  हैं  फल ।
सत्कर्मों का फल सुख - कर है सत्कर्मों से मिलता बल ॥10॥

Sunday, 15 June 2014

सूक्त - 3

[ऋषि- शुनः शेप आजीगर्ति । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7711
एष देवो अमर्त्यः पर्णवीरिव दीयति । अभि द्रोणान्यासदम् ॥1॥

आलोक - प्रदाता है परमात्मा कण - कण में वह ही बसता है ।
वह अनादि है अविनाशी है भाव - भूमि पर वह  रमता  है ॥1॥

7712
एष देवो विप्रा कृतोSति ह्वरांसि धावति । पवमानो अदाभ्यः ॥2॥

मेधावी - मन  में  वह  रहता  विद्वत् - जन  करते  हैं ध्यान ।
वह  पावन  है  पूजनीय  है  निशि - दिन देता है वरदान ॥2॥

7713
एष देवो विपन्युभिः पवमान ऋतायुभिः। हरिर्वाजाय मृज्यते॥3॥

जिसने वाणी का वैभव पाया प्रभु का जो करता गुण - गान ।
सब की विपदा  वह हरता है दया - दृष्टि रखता भगवान ॥3॥

7714
एष विश्वानि वार्या शूरो यन्निव सत्वभिः। पवमानः सिषासति॥4॥

सब को  पात्रानुसार  फल  देता  कर्मानुकूल  मिलता  है  बल ।
सत्कर्मों का फल शुभ - शुभ है सज्जन होता सदा सफल ॥4॥

7715
एष देवो रथर्यति पवमानो दशस्यति । आविष्कृणोति वग्वनुम्॥5॥

परम  पूज्य  है  वह  परमात्मा  वह ही है शुचिता का धाम । 
वही अभ्युदय देता  सब को आओ  चलें  वहीं अविराम ॥5॥

7716
एष  विप्रैरभिष्टुतोSपो  देवो वि गाहते । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥6॥

ज्ञान - गम्य  है  वह  परमात्मा ज्ञानी - जन  करते हैं ध्यान ।
वह है अजर अमर शुभचिंतक कृपा सिन्धु है वह भगवान॥6॥

7717
एष दिवं वि धावति तिरो रजांसि धारया । पवमानः कनिक्रदत्॥7॥

सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा  वह  रक्षक  है  वही  वितान ।
वह सन्मार्ग दिखाता सब को हमको करता है आह्वान ॥7॥

7718
एष दिवं व्यासरत्तिरो रजांस्यस्पृतः । पवमानः स्वध्वरः ॥8॥

शुध्द - बुध्द है सरल - तरल है कण - कण में वह ही रहता है ।
वह सब को सुख देता रहता सब की विपदा वह हरता है ॥8॥

7719
एष प्रत्नेन जन्मना देवो देवेभ्यः सुतः । हरिः पवित्रे अर्षति ॥9॥

जिनका अन्तर्मन पावन है  परम - आत्मा उस मन में  रहता ।
शुभ - भावों को धारण कर लो यही बात वह सब से कहता ॥9॥

7720
एष उ स्य पुरुव्रतो जज्ञानो जनयन्निषः। धारया पवते सुतः॥10॥

अनन्त - शक्ति  का  वह  स्वामी  है  पात्रानुकूल  देता है बल ।
वह  सब  की  रक्षा  करता  है  कर्मानुरूप  देता  है  फल ॥10॥  

Saturday, 14 June 2014

सूक्त - 4

[ऋषि- हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7721
सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥1॥

अभ्युदय  वही  परमात्मा  देता  कर्मानुसार  देता  है  फल ।
जिसने जैसा कर्म किया है वह  वैसा  ही  पाता  है  फल ॥1॥

7722
सना ज्योतिः सना स्व1र्विश्वा च सोम सौभगा । अथा नो वस्यसस्कृधि॥2॥

परमात्मा आनन्द - रूप  है  वह  देता  है  सुख - कर जीवन ।
दया - दृष्टि सब पर रखता है जीवन बन जाता  है उपवन॥2॥

7723
सना दक्षमुत क्रतुमप सोम मृधो जहि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥3॥

जो  परमात्म - परायण  होते  प्रभु  उनकी  रक्षा  करते  हैं ।
कर्म - प्रवीण बनाते उनको उनकी विपदा  भी  हरते हैं ॥3॥

7724
पवीतारः पुनीतन सोममिन्द्राय पातवे । अथा नो वस्यसस्कृधि॥4॥

जब  हम  दीक्षीत करें किसी को शौर्य - धैर्य का युग्म बतायें ।
सत्पथ पर चलना सिखलायें जीवन - रण में दक्ष बनायें ॥4॥

7725
त्वं सूर्ये न आ भज तव क्रत्वातवोतिभिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥5॥

ज्ञान - मार्ग से कर्म - कुशलता  हे  प्रभु  तुम  ही  हमें  सिखाना ।
धरती पर सुख - वैभव देना परलोक में भी सम्बंध निभाना ॥5॥

7726
तव क्रत्वा तवोतिभिर्ज्योक्पश्येम सूर्यम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥6॥

ज्ञान - मार्ग और  कर्म - मार्ग  के  राही  समर्थ  बन जाते हैं ।
वे  प्रभु   का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन सफल बनाते हैं ॥6॥

7727
अभ्यर्ष स्वायुध सोम द्विबर्हसं रयिम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥7॥

स्वयं प्रकाशित वह परमात्मा सब को देता है ज्ञान - आलोक ।
अज्ञान - तिमिर को वही मिटाता वह हर लेता है हर शोक ॥7॥

7728
अभ्य1र्षानपच्युतो रयिं समत्सु सासहिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥8॥

सज्जन  नेम - नियम  से  चलते  प्रभु रखते हैं उनका ध्यान ।
वह  ही  सदा  सफल  होते  हैं  दया - दृष्टि  रखते भगवान ॥8॥

7729
त्वां यज्ञैरवीवृधन् पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥9॥

परमात्मा  सब  की  रक्षा करते आनन्द - मय जीवन देते हैं ।
सबको पावन वही बनाते अपने - पन से अपना  लेते  हैं ॥9॥

7730
रयिं नश्चित्रमश्विनमिन्दो विश्वायुमा भर । अथा नो वस्यसस्कृधि॥10॥

जो जन प्रभु - उपासना करते सत्पथ  पर अविरल  चलते  हैं ।
वे ही यश - वैभव पा कर फिर निज जीवन को  गढते  हैं ॥10॥ 

Friday, 13 June 2014

सूक्त - 5

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- आप्रीसूक्त । छन्द- गायत्री - अनुष्टुप् ।]

7731
समिध्दो विश्वतस्पतिः पवमानो वि राजति । प्रीणन् वृषा कनिक्रदत्॥1॥

परमात्मा आलोक - प्रदाता  सब  को  पावन  वही  बनाता ।
मनो - कामना  पूरी  करता स्वयं - प्रकाश बनाने आता॥1॥

7732
तनूनपात् पवमानः श्रृङ्गे शिशानो अर्षति । अन्तरिक्षेण रारजत्॥2॥

वह  प्रभु  घट - घट  का  वासी है वसुधा में वह विद्यमान  है ।
सज् - जन  उसे  जानता  है वह देह - रूप में वर्तमान है ॥2॥

7733
ईळेन्यः पवमानो रयिर्वि राजति द्युमान् । मधोर्धाराभिरोजसा॥3॥

जो  जन  प्रभु - उपासना करते परमात्मा का  करते  ध्यान ।
वह आनन्द - अमृत पाते हैं  बन  जाते हैं मनुज - महान॥3॥

7734
बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः। देवेषु देव ईयते॥4॥

परमात्मा अत्यन्त - अद्भुत  है  दिव्य - देह  धारण करता  है ।
एक - मात्र  वह  पूजनीय  है  दया - दृष्टि  वह ही रखता है ॥4॥

7735
उदातैर्जिहते  बृहद्  द्वारो देवीर्हिरण्ययीः। पवमानेन सुष्टुता:॥5॥

उस प्रभु की छवि अति - अद्भुत है पृथ्वी पर है अन्वेषण - बीज ।
अविरल - अन्वेषण जब होता तब  मिलती है दुर्लभ - चीज ॥5॥

7736
सुशिल्पे बृहती मही पवमानो वृषण्यति । नक्तोषासा न दर्शते॥6॥

उषा - काल स्वर्णिम वेला में मन शुभ - चिन्तन ही करता है ।
ब्रह्म - मुहूर्त्त  इसी  को  कहते  हर  मानव प्रसन्न रहता है ॥6॥

7737
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ॥7॥

कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही आत्म - ज्ञान पथ पर चलता है ।
दीन - बन्धु  है  वह  परमात्मा अभिलाषा -  पूरी  करता  है ॥7॥

7738
भारती     पवमानस्य     सरस्वतीळा    मही । 
इमं नो यज्ञमा गमन्तिस्त्रो देवीः सुपेशसः॥8॥

ज्ञान - मार्ग  का  राही  सचमुच  विद्या  का  पाता  है  वरदान ।
उसका  यश  - अभिवर्धन  होता  दर्शन  देते  हैं  भगवान ॥8॥

7739
त्वष्टारमग्रजां    गोपां    पुरोयावानमा    हुवे ।
इन्दुरिन्द्रो वृषा हरिः पवमानः प्रजापतिः॥9॥

परमात्मा  पालक  -  पोषक  है  विविध -  विधा  से  देता  ज्ञान ।
साधक को सुख - सन्तति देता कृपा - सिन्धु है वह भगवान॥9॥

7740
वनस्पतिं  पवमान  मध्वा समङ्ग्धि धारया ।
सहस्त्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम्॥10॥

हे  पावन - पूजनीय  परमात्मा  देना  तुम  रिमझिम  -  बरसात ।
फूले - फले वनस्पति - औषधि जिये मनुज थिरके ज्यों पात॥10॥

7741
विश्वे    देवा:   स्वाहाकृतिं   पवमानस्या   गत ।
वायुर्बृहस्पतिः सूर्योSग्निरिन्द्रः सजोषसः॥11॥

सत् - संगति  सबसे सुख - कर  है यह ही सन्मार्ग दिखाती है ।
ज्ञान - यज्ञ अति आवश्यक है जिजीविषा भरने आती है ॥11॥  

Thursday, 12 June 2014

सूक्त - 6

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7742
मन्द्रया सोम धारया वृषा पवस्व देवयुः । अव्यो वारेष्वस्मयुः॥1॥

सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा सत् - जन ही उसको पाते हैं ।
वह सबका है सगा बराबर प्रभु हम सबको अपनाता है ॥1॥

7743
अभि त्यं मद्यं मदमिन्दविन्द्र इति क्षर । अभि वाजिनो अर्वतः॥2॥

प्रेम - रूप  है  वह  परमात्मा  प्रेम  की  करता  है  बरसात ।
धरती  सुख  से  सनी  हुई  है  बल  भरने आती  है रात ॥2॥

7744
अभि त्यं पूर्व्यं मदं सुवानो अर्ष पवित्र आ । अभि वाजमुत श्रवः॥3॥

परमात्मा  हम  सबका  पालक  सबका  रखता  है  वह  ध्यान ।
वह सबको प्रोत्साहित करता चले निरन्तर शुभ - अभियान॥3॥

7745
अनु द्रप्सास इन्दव आपो न प्रवतासरन् । पुनाना इन्द्रमाशत॥4॥

वसुन्धरा  नव - पल्लव  देती  वह  ही  देती  है  धन - धान ।
कण - कण में प्रभु बसा हुआ है अविरल देता  है वरदान॥4॥

7746
यमत्यमिव वाजिनं मृजन्ति योषणो दश । वने क्रीळन्तमत्यविम्॥5॥

तन - अरण्य  में  क्रीडा करता आत्मा है अत्यन्त - महान ।
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा हम सब हैं उसकी सन्तान॥5॥

7747
तं गोभिर्वृषणं रसं मदाय देववीतये । सुतं भराय सं सृज ॥6॥

परमात्मा  है  ध्येय  हमारा  हम  सब  हैं  उसके  अनुगामी ।
परमात्मा आनन्द - रूप  है वह ही है हम सबका स्वामी ॥6॥

7748
देवो देवाय धारयेन्द्राय पवते सुतः। पयो यदस्य पीपयत् ॥7॥

वह  परमात्मा  अति -  अद्भुत   है  पात्रानुरूप  देता  है  फल ।
सत्कर्मों का फल शुभ - शुभ है सज्जन होता सदा सफल॥7॥

7749
आत्मा यज्ञस्य रंह्या सुष्वाणः पवते सुतः। प्रत्नं निपाति काव्यम्॥8॥

परमात्मा  जगती  का  रक्षक  वह  ही  कवि  है रचना - कार ।
वेद - रूप में उसकी वाणी जन - जन का करती है उध्दार ॥8॥

7750
एवा पुनान इन्द्रयुर्मदं मदिष्ठ वीतये । गुहा चिद्दधिषे गिरः॥9॥

परमात्मा सबका शुभ - चिन्तक जगती पर करता उपकार ।
हम सबको सुख - साधन देता अवसर देता है बार - बार ॥9॥
 

Monday, 9 June 2014

सूक्त - 7

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7751
असृगमिन्दवः पथा धर्मन्नृतस्य सुश्रियः। विदाना अस्य योजनम्॥1॥

परमात्मा के सत्य - रूप का ज्ञानी  को  है समुचित - भान ।
सत्-पथ पर वह ही चलता है वैभव का मिलता वरदान ॥1॥

7752
प्र धारा मध्वो अग्रियो महीरपो वि गाहते । हविर्हविष्षु वन्द्यः ॥2॥

परमात्मा  हम  सबको  प्रिय  है  परम - मित्र  है वही हमारा ।
परमानन्द  वही  देता  है  सब  कुछ  मिलता उसके द्वारा ॥2॥

7753
प्र युजो वाचो अग्रियो वृषाव चक्रदद्वने । सद्माभि सत्यो अध्वरः॥3॥

सत् - पथ  पर  तुम  चलो  निरन्तर परमात्मा हमसे कहते  हैं ।
प्रिय - वाणी से प्रवचन करते हम उसकी उपासना करते  हैं ॥3॥

7754
परि यत्काव्या कविर्नृम्णा वसानो अर्षति । स्वर्वाजी सिषासति॥4॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  दिव्य - गुणों का वह स्वामी है ।
कवि - कर्मों का वह अभिलाषी आनन्द - रूप अन्तर्यामी है ॥4॥

7755
पवमानो अभि स्पृधो विशो राजेव सीदति । यदीमृण्वन्ति वेधसः॥5॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करता  कर्म - मार्ग  वह  दिखलाता  है ।
सबको सुख - सन्मति देता है कर्म - धर्म वह सिखलाता है ॥5॥

7756
अव्यो वारे परि प्रियो हरिर्वनेषु सीदति । रेभो वनुष्यते मती ॥6॥

परमात्मा  सबका  प्यारा  है  वह  ही  देता  है  ज्ञान - आलोक ।
प्रभु  साधक - मन  में  रहता  है  वह  हर लेता  है हर शोक ॥6॥

7757
स वायुमिन्द्रमश्विना साकं मदेन गच्छति । रणा यो अस्य धर्मभिः॥7॥

प्रभु - उपासना  करने  वाले  विद्वत् -  जन  उनको  पाते  हैं ।
खट् - रागों से वही बचाते वह मञ्जिल तक पहुँचाते  हैं ॥7॥

7758
आ मित्रावरुणा भगं मध्वः पवन्त ऊर्मयः। विदाना अस्य शक्मभिः॥8॥

जो  परमात्म -  परायण  होते  सब  का  करते  हैं  उपकार । 
वसुधा  है  परिवार  हमारा  हे  प्रभु  कर  दो  बेडा - पार ॥8॥

7759
अस्मभ्यं रोदसी रयिं मध्वो वाजस्य सातये । श्रवो वसूनि सं जितम्॥9॥

परमात्मा  अवढर - दानी  है  सत् - जन  को  देता  वर -  दान ।
वरद - हस्त हम पर भी रखना हे प्रभु दीन - बन्धु भगवान ॥9॥  

Sunday, 8 June 2014

सूक्त - 8

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7760
एते सोमा अभि प्रियमिन्द्रस्य काममक्षरन् । वर्धन्तो अस्य वीर्यम्॥1॥

हे अनन्त - शक्ति के स्वामी तन - मन सबका स्वस्थ बनाना ।
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर ध्येय मेरा तुम ही बतलाना ॥1॥

7761
पुनानासश्चमूषदो गच्छन्तो वायुमश्विना । ते नो धान्तु सुवीर्यम्॥2॥

हे  पावन  पूजनीय  परमात्मा  हम  सब  का  बल - वर्धन  करना ।
अविरल शुभ - चिन्तन हो सब का कर्म - मार्ग पर तुम ले चलना॥2॥

7762
इन्द्रस्य सोम राधसे पुनानो हार्दि चोदय । ऋतस्य योनिमासदम्॥3॥

एक - मात्र  सच  है  परमात्मा  वह  सब को प्रेरित करता है ।
वह अपना है वही सगा है वह ही सब की विपदा हरता है ॥3॥

7763
मृजन्ति त्वा दश क्षिपो हिन्वन्ति सप्त धीतयः। अनु विप्रा अमादिषुः॥4॥

कर्म - ज्ञान से ही सम्भव है यश - वैभव की प्राप्ति धरा  पर ।
परितोष प्राप्त होने पर ही तो आनन्द देता  है  परमेश्वर ॥4॥

7764
देवेभ्यस्त्वा मदाय कं सृजानमति मध्यः। सं गोभिर्वासयामसि ॥5॥

अज्ञान  मिटाता  वह  परमात्मा अन्तर्मन  पावन करता है ।
परमेश्वर है विषय ध्यान का वह आस - पास ही रहता है ॥5॥

7765
पुनानः कलशेष्वा वस्त्राण्यरुषो हरिः। परि गव्यान्यव्यत ॥6॥

परमात्मा  सबकी  रक्षा  करता  सबको  प्रोत्साहित करता है ।
अद्भुत - गति है परमेश्वर में कण - कण में वह ही रहता है ॥6॥

7766
मघोन आ पवस्व नो जहि विश्वा अप द्विषः। इन्दो सखायमा विश॥7॥

परमात्मा  सबका  पालक  है  भाव -  भूमि  पर  वह  बसता  है ।
भाव का भूखा वह अविरल है सरल - सहज मन में रमता है ॥7॥

7767
वृष्टिं दिवः परि स्त्रव द्युम्नं पृथिव्या अधि । सहो नः सोम पृत्सु धा:॥8॥

जो परमात्म - परायण होते प्रति - दिन प्रभु की पूजा करते हैं ।
विजयी  होते  वही  निरन्तर  प्रभु उसका  जीवन  गढते हैं ॥8॥

7768
नृचक्षसं त्वा वयमीन्द्रपीतं स्वर्विदम् । भक्षीमहि प्रजामिषम्॥9॥

जो  साधक सत् - संगति करता  दिव्य - गुणों  को  अपनाता  है ।
वह  प्रभु का प्यारा बन जाता वह  आनन्द - अमृत  पाता  है ॥9॥

  

Saturday, 7 June 2014

सूक्त - 9

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7769
परि प्रिया दिवः कविर्वयांसि नप्त्योर्हितः। सोवानो याति कविक्रतुः॥1॥

प्रकृति - पुरुष  दोनों  मिल - जुल  कर मधुर - भावना से रहते हैं ।
परमात्मा  सबकी  रक्षा  करते  सबकी  विपदा  वह  हरते  हैं ॥1॥

7770
प्रप्र  क्षयाय पन्यसे जनाय जुष्टो अद्रुहे । वीत्यर्ष  चनिष्ठया ॥2॥

जो  कर्म - मार्ग  पर  चलता  है  खट् - रागों  से  जो रहता दूर ।
उनके  मन  में  प्रभु  बसते  हैं  देते  हैं अपना - पन भरपूर ॥2॥

7771
स सूनुर्मातरा शुचिर्जातो जाते अरोचयत् । महान्मही ऋतावृधा॥3॥

कर्म - योग  की  महिमा अद्भुत  मनुज  सतत  होता आलोकित ।
वही  दुलारा है जननी का जिसको  पाकर  वह  होती  हर्षित ॥3॥

7772
स सप्त धीतिभिर्हितो नद्यो अजिन्वदद्रुहः। या एकमक्षि वावृधुः॥4॥

अष्ट - योग  की  राह  अनूठी  तन -  मन  में  होता  परिवर्तन ।
ध्यान में मन लगने लगता है प्रभु - प्रेम में होता अभिवर्धन॥4॥

7773
ता अभि सन्तमस्तृतं महे युवानमा दधुः। इन्दुमिन्द्र तव व्रते॥5॥

निष्काम - कर्म  के  द्वारा  ही  हम  परमात्मा  को  पा सकते हैं ।
कर्म - योग  की  राह अनूठी  प्रभु  हमको अपना  सकते  हैं ॥5॥

7774
अभि वह्निरमर्त्यः सप्त पश्यति वावहिः। क्रिविर्देवीरतर्पयत् ॥6॥

अष्ट - योग  में  ध्यान - धारणा  साधक  को सीढी दिखलाती है ।
सभी  जगह  वह  विद्यमान  है  यही  बात  वह समझाती  है ॥6॥

7775
अवा कल्पेषु नः पुमस्तमांसि सोम योध्या । तानि पुनान जङ्घनः॥7॥

अज्ञान - तिमिर  है  शत्रु  हमारा पा जायें हम ज्ञान - आलोक ।
हे  प्रभु  पावन  हमें  बनाना  हर  लेना  हम  सबका  शोक ॥7॥

7776
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः। प्रत्नवद्रोचया रुचः ॥8॥

पुनर्नवा -  जीवन  यदि  चाहो  परमात्मा  का  कर  लो  ध्यान ।
वेद - ऋचा का गान करो तुम बन सकते हो मनुज - महान ॥8॥

7777
पवमान महि श्रवो गामश्वं रासि वीरवत् । सना मेधां सना स्वः॥9॥

परमात्म - कृपा की महिमा अद्भुत वह प्रभु तो अवढर - दानी  हैं ।
आनन्द - अमृत  दे  देना  प्रभु  हम  तो  साधारण - प्राणी  हैं ॥9॥

सूक्त - 10

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7778
प्र स्वानासो रथा इवार्वन्तो न श्रवस्यवः। सोमासो राये अक्रमुः॥1॥

परमात्मा की गति अद्भुत है विद्युत - समान  है उसका  बल ।
अभिलाषी  है  वैभव  देने  का  कर्मानुसार  देता  है  फल ॥1॥

7779
हिन्वानासो रथा इव दधन्विरे गभस्त्योः। भरासः कारिणामिव॥2॥

कर्म  -  मार्ग  का  पथिक  सदा  ही  कर्म -  हेतु  तत्पर  रहता  है ।
सत्कर्मों का फल समय-समय पर सज्जन को मिलता रहता है॥2॥

7780
राजानो न प्रशस्तिभिः सोमासो गोभिरञ्जते । यज्ञो न सप्त धातुभिः॥3॥

यज्ञ - वेदिका  है  यह  धरती  प्रकृति - मात आहुति  देती  है ।
परमात्मा ही यज्ञ - रूप है यज्ञ - ज्योति तम हर  लेती  है॥3॥

7781
परि सुवानास इन्दवो मदाय बर्हणा गिरा । सुता अर्षन्ति धारया॥4॥

प्रभु - प्रकाश  से  सभी प्रकाशित वह मन को पावन करता  है ।
आनन्द - अमृत  वह  देता है वह सबकी विपदा  हरता  है ॥4॥

7782
आपानासो विवस्वतो जनन्त उषसो भगम् । सूरा अण्व वि तन्वते॥5॥

परमात्मा आलोक - प्रदाता अज्ञान - तमस को  वही  मिटाता ।
भिनसरहा - ऐश्वर्य - प्रदाता सन्मार्ग सभी को वही दिखाता॥5॥

7783
अप द्वारा मतीनां प्रत्ना ऋण्वन्ति कारवः। वृष्णो हरस आयवः॥6॥

जो  कर्म - मार्ग  पर  चलता  है  प्रतिदिन उपासना  करता  है ।
प्रभु का सच्चा - भक्त वही है वह निज - जीवन को गढता है॥6॥

7784
समीचीनास आसते होतारः सप्तजामयः। पदमेकस्य पिप्रतः॥7॥

एक - निष्ठ  हो  कर  जो  साधक  परमेश्वर का करता ध्यान ।
वह ही सदा सफल होता  है  वरद - हस्त  रखते भगवान॥7॥

7785
नाभा नाभिं न आ ददे चक्षुश्चित्सूर्ये सचा । कवेरपत्यमा दुहे॥8॥

वह आलोक - रूप  परमात्मा  सज्जन  के  मन  में  रहता  है ।
वह ही अन्वेषण - बल  देता शोध - हेतु  प्रेरित  करता  है ॥8॥

7786
अभि प्रिया दिवस्पदमध्वर्युभिर्गुहा हितम् । सूरः पश्यति चक्षसा॥9॥

कण - कण में रहता है फिर भी अत्यन्त सूक्ष्म है वह परमात्मा ।
भाव का भूखा है वह भोला निश्चित पहुँचेगी उस तक आत्मा ॥9॥

Friday, 6 June 2014

सूक्त - 11

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7787
उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवॉ इयक्षते ॥1॥

सत् - संगति में सब का सुख है यह नर - जीवन को गढता है ।
जीवन - उपवन  बन  जाता  है  परमेश्वर  विपदा हरता है ॥1॥

7788
अभि ते मधुना पयोSथर्वाणो अशिश्रयुः। देवं देवाय देवयु ॥2॥

जो  अपना अधिकार  समझता  वह  ही  अथर्वा  कहलाता  है ।
दिव्य - शक्तियॉ  प्रभु  देते  हैं  परमानन्द  मनुज  पाता है ॥2॥

7789
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते । शं राजन्नोषधीभ्यः॥3॥

हे  पावन  पूजनीय  परमात्मा  तुम  औषधि  का  दे  दो  दान ।
सबका तन - मन रहे सुरक्षित दया - दृष्टि रखना भगवान ॥3॥

7790
बभ्रवे नु स्वतवसेSरुणाय दिविस्पृशे । सोमाय गाथमर्चत ॥4॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  वह  ही  हम सबका स्वामी है ।
सबका  ध्यान  वही  रखता है मनुज उसी का अनुगामी है ॥4॥

7791
हस्तच्युतेभिरद्रिभिः सुतं सोमं पुनीतन । मधावा धावता मधु॥5॥

प्रभु वाक् - वज्र धारण करता है अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
यश - वैभव  वह  ही  देता  है  सब  को  सत्पथ  वही दिखाता ॥5॥

7792
नमसेदुप सीदत दध्नेदभि श्रीणीतन । इन्दुमिन्द्रे दधातन ॥6॥

फल  से  लदी  डाल झुकती है गुणी मनुज झुक - झुक जाता है ।
वसुधा का सुख उसकी थाती सुख - वैभव वह  ही  पाता  है ॥6॥

7793
अमित्रहा विचर्षणिः पवस्व सोम शं गवे । देवेभ्यो अनुक्रामकृत॥7॥

जगती में  देव - असुर दोनों को मनुज - मात्र रेखाञ्कित करता ।
स्वार्थ - भाव में असुर दौडता देव - मनुज सत्पथ पर चलता॥7॥

7794
इन्द्राय सोम पातवे मदाय परि षिच्यसे । मनश्चिन्मनसस्पतिः॥8॥

प्रभु - उपासना  जो  करते  हैं  करते  जो  परमेश्वर  का  ध्यान ।
उनका जीवन उज्ज्वल होता वह बन जाता मनुज - महान ॥8॥

7795
पवमान सुवीर्यं रयिं सोम रिरीह नः। इन्दविन्द्रेण नो युजा ॥9॥

परमात्म  परायण  जो  होते  हैं  परमेश्वर  पर  करते   विश्वास ।
प्रभु  उसको  यश - वैभव  देते  रहते  हैं  उसके आस - पास ॥9॥

Thursday, 5 June 2014

सूक्त - 12

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7796
सोमा असृग्रमिन्दवः सुता ऋतस्य सादने । इन्द्राय मधुमत्तमा:॥1॥

सच्चिदानन्द  है  वह  परमात्मा  वह आनन्द  हमें  देता  है ।
षड् - ऋतु - सुख वह ही देता है सबकी विपदा हर लेता है॥1॥

7797
अभि विप्रा अनूषत गावो वत्सं न मातरः। इन्द्रं सोमस्य पीतये॥2॥

दिव्य - गुणों को धारण करके मनुज दिव्यता को  पाता  है ।
आकर्षण के कारण प्रभु पर वह अनुरक्त  हुआ  जाता  है ॥2॥

7798
मदच्युत्क्षेति सादने सिन्धोरूर्मा विपश्चित् । सोमो गौरी अधि श्रितः॥3॥

सरिता में जल - ऊर्मि थिरकती पण्डित वेद - ऋचा  गाता  है ।
वैसे ही आनन्द - रूप  प्रभु श्रध्दा  के  सँग - सँग आता  है ॥3॥

7799
दिवो नाभा विचक्षणोSव्यो वारे महीयते । सोमो यः सुक्रतुःकविः॥4॥

अनन्त  गुणों  का  वह  स्वामी  है  कर्मानुसार  देता  है  फल ।
कर्म - मार्ग  की  महिमा  भारी सत्कर्मों की है राह सुफल ॥4॥

7800
यः सोमः कलशेष्वॉ अन्तः पवित्र आहितः। तमिन्दुः परि षस्वजे॥5॥

परमेश्वर यश - वैभव देते सज्जन सुख - कर  जीवन जीते  हैं ।
सत्कर्मों  का  फल  मीठा है राही आनन्द - अमृत पीते  हैं ॥5॥

7801
प्रवाचमिन्दुरिष्यति समुद्रस्याधि विष्टपि । जिन्वन् कोशं मधुश्चुतम्॥6॥

अन्तरिक्ष जल - सञ्चय करता नभ में भरा  लबा-लब  जल ।
सुख से सनी हुई है धरती सुख में भी होते नयन - सजल ॥6॥

7802
नित्यस्तोत्रो वनस्पतिर्धीनामन्तः सबर्दुघः। हिन्वानो मानुषा युगा॥7॥

भाव  का  भूखा  है  परमात्मा  भाव  से  उसको  पा  सकते  हैं ।
सरल सहज मन उसको भाता सख्य -भाव अपना सकते हैं॥7॥

7803
अभि प्रिया दिवस्पदा सोमो हिन्वानो अर्षति । विप्रस्य धारया कविः॥8॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करता  ज्ञान - मार्ग  वह  दिखलाता  है ।
आनन्द की  वर्षा  करता  है  सुख  का  स्वरूप  समझाता है ॥8॥

7804
आ पवमान धारय रयिं सहस्त्रवर्चसम् । अस्मे इन्दो स्वाभुवम्॥9॥

सत्पथ  पर  चलने  वाला  ही  परमेश्वर  को  प्यारा लगता  है ।
प्रभु  सज्जन  को  वैभव  देता  उस की  विपदा  हर लेता है॥9॥  

Wednesday, 4 June 2014

सूक्त - 13

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7805
सोमः पुनानो अर्षति सहस्त्रधारो अत्यविः। वायोरिन्द्रस्य निष्कृतम्॥1॥

परमेश्वर  सब  का  रक्षक  है  वह  राग - द्वेष  से  रहता  दूर ।
सज्जन को शुभ - फल देता है अपना - पन देता भरपूर ॥1॥

7806
पवमानमवस्यवो  विप्रमभि  प्र  गायत ।  सुष्वाणं  देववीतये॥2॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करता  सब  को  उज्ज्वल   वही  बनाता ।
कण - कण में वह बसा हुआ है सज्जन मन में स्वतः समाता॥2॥

7807
पवन्ते वाजसातये सोमा: सहस्त्रपाजसः । गृणाना देववीतये ॥3॥

प्रभु  पर  आस्था  रखने  वालों  का  रोचक  होता  है  व्यक्तित्व ।
कर्म - मार्ग पर चलते - चलते  स्थिर हो जाता है अस्तित्व ॥3॥

7808
उत नो वाजसातये पवस्व बृहतीरिषः। द्युमदिन्दो  सुवीर्यम् ॥4॥

धीर - वीर  सज्जन  करते   हैं  वसुधा  के  वैभव  का  उपभोग ।
हे प्रभु सदा विजय - श्री देना प्रतिभा का हो सार्थक उपयोग॥4॥

7809
ते नः सहस्त्रिणं रयिं पवन्तामा सुवीर्यम् । सुवाना देवास इन्दवः॥5॥

दिव्य - शक्ति  का  श्रोत  वही  है  वैभव  का  भी  वह  है  स्वामी ।
हे प्रभु  हमें  समर्थ  बना  दो  हम  सब  हैं  तेरे  ही अनुगामी ॥5॥

7810
अत्या हियाना न हेतृभिरसृग्रं वाजसातये । वि वारमव्यमाशवः॥6॥

ज्ञान - रूप  है  वह  परमेश्वर  जो  उसकी  उपासना  करते  हैं ।
प्रभु  उनकी  रक्षा  करते  हैं अज्ञान - तमस  को वे हरते हैं ॥6॥

7811
वाश्रा अर्षन्तीन्दवोSभि वत्सं न धेनवः । दधन्विरे गभस्त्योः॥7॥

पावन  मन  से  जब  भी  कोई  परमात्मा  का  करता  ध्यान ।
प्रभु उसको आलोकित करते वह बन जाता मनुज - महान॥7॥

7812
जुष्ट इन्द्राय मत्सरः पवमान कनिक्रदत् । विश्वा अप द्विषो जहि॥8॥

जो  नर  परमेश्वर  पर आश्रित  है उसका  हो जाता  बेडा - पार ।
राग - द्वेष  उसका  मिट जाता  प्रभु  हर  लेते  उसका  भार ॥8॥

7813
अपघ्नन्तो अराव्णः पवमाना: स्वर्दृशः। योनावृतस्य सीदत ॥9॥

कर्म - मार्ग  हो ज्ञान - मार्ग  हो  प्रभु  सब  को  प्रेरित  करते  हैं ।
सब के प्रति सत् - भाव  निभाते सबकी  विपदा  वे  हरते  हैं ॥9॥

Tuesday, 3 June 2014

सूक्त - 14

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7814
परि प्रासिष्यदत्कविः सिन्धोरूर्मावधि श्रितः। कारं बिभ्रत् पुरुस्पृहम्॥1॥

पुलकित पवन पडी पनघट पर सिन्धु - ऊर्मियों में थिरकन है ।
हिम - गिरि के उत्तुँग - शिखर का नभ से होता संघर्षण  है ॥1॥

7815
गिरा यदी सबन्धवः पञ्च व्राता अपस्यवः। परिष्कृण्वन्ति धर्णसिम्॥2॥

ज्ञान - कर्म से जब जुड जाता वसुन्धरा सब- विधि सजती है ।
मन - इन्द्रिय जो बहिर्मुखी है अन्तर्गमन में ही फबती है ॥2॥

7816
आदस्य शुष्मिणो रसे विश्वे देवा अमत्सत ।यदी गोभिर्वसायते ॥3॥

आनन्द -  रूप  है  वह  परमात्मा   धीर -  वीर  उसको  पाता  है ।
जो  जितना  समर्थ  है उतना  प्रभु  के  आस - पास आता  है ॥3॥

7817
निरिणानो वि धावति जहच्छर्याणि तान्वा । अत्रा सं जिघ्रते युजा॥4॥

अति आकर्षक  है  परमेश्वर  चिन्तन  में  वह आ  जाता  है ।
कौतूहल का विषय वही है मुझको बहुत - बहुत भाता है ॥4॥

7818
नप्तीभिर्यो विवस्वतः शुभ्रो न मामृजे युवा । गा: कृण्वानो न निर्णिजम्॥5॥

जिनका अन्तर्मन  पावन  है  प्रभु  का  करते  हैं  साक्षात्कार ।
उसका ध्यान सदा प्रभु रखते सज्जन का हर लेते हैं भार ॥5॥

7819
अति श्रिती तिरश्चता गव्या जिगात्यण्व्या । वग्नुमिर्यति यं विदे ॥6॥

अन्तर्मन  जब  पावन  होता  प्रभु  की ओर  स्वतः  जाता  है ।
श्रुतियॉ  हमसे  कहती  हैं  परमेश्वर अनुभव  में आता  है ॥6॥

7820
अभि क्षिपः समग्मत मर्जयन्तीरिषस्पतिम् । पृष्ठा गृभ्णत वाजिनः॥7॥

परमेश्वर  सुख -  साधन  देता  उसने  कर्म -  स्वतंत्र  बनाया । 
प्रभु -दर्शन हम पा सकते हैं सब - समर्थ है यह नर-काया ॥7॥

7821
परि दिव्यानि मर्मृशद्विश्वानि सोम पार्थिवा । वसूनि याह्यस्मयुः॥8॥

विविध - सुखों से भरी है वसुधा हे प्रभु सुख- कर जीवन देना ।
जीवन  यह  सार्थक  हो  जाए अपने - पन से अपना लेना ॥8॥    

Monday, 2 June 2014

सूक्त - 15

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7822
एष धिया यात्यण्व्या शूरो रथेभिराशुभिः। गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम्॥1॥

कर्म - स्वतंत्र  बनाया  प्रभु  ने  कर्मानुसार  मिलता  है  फल ।
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा धारण करता है अनन्त- बल॥1॥

7823
एष   पुरू   धियायते   बृहते   देवतातये । यत्रामृतास  आसते ॥2॥

अनन्त - शक्ति  का  वह  स्वामी  है  अनन्त - कर्म  खुद करता है ।
कर्म - मार्ग पर चल कर मानव मञ्जिल तक स्वयं पहुँचता है॥2॥

7824
एष हितो वि नीयतेSन्तः शुभ्रावता पथा । यदी तुञ्जन्ति भूर्णयः॥3॥

जो साधक उपासना करते हैं वह  ही  करते  हैं  साक्षात्कार ।
वही  परम - पद  भी  पाते  हैं  परमेश्वर  का  है  उपकार ॥3॥

7825
एष श्रृङ्गाणि धोधुवच्छिशीते यूथ्यो3 वृषा । नृम्णा दधान ओजसा॥4॥

परमेश्वर की महिमा अद्भुत  हमें  दिया  है  सब  सुख - साधन ।
धरा - गगन में भरा है वैभव धरती है अतिशय मन-भावन॥4॥

7826
एष रुक्मिभिरीयते वाजी शुभ्रेभिरंशुभिः। पतिः सिन्धूनां भवन्॥5॥

परमेश्वर  की  शुभ्र - रश्मियॉ दश - दिशि  में  होती गति-मान ।
सतत  प्रवाहित  होती  रहती  साधक  पर  होती  मेहरबान ॥5॥

7827
एष वसूनि पिब्दना परुषा ययिवॉ अति । अव शादेषु गच्छति॥6॥

पूजनीय  है  वह  परमात्मा  जो  उन - पर  निर्भर  रहते  हैं ।
उनका ध्यान सदा रखते  हैं  प्रभु उनकी  रक्षा  करते  हैं ॥6॥

7828
एतं मृजन्ति मर्ज्यमुप द्रोणेष्वायवः। प्रचक्राणं महीरिषः ॥7॥

आओ प्रभु - उपासना कर  लें  वह  विराट  सब  का वरेण्य है ।
आवश्यक है शोध उसी पर अन्वेषण का भी वह विषय  है॥7॥

7829
एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सप्त धीतयः। स्वायुधं मदिन्तमम्॥8॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करते  सब  का  ध्यान  वही  रखते  हैं ।
अस्त्र - शस्त्र है नहीं ज़रूरी पर  दुष्टों  को  दण्डित  करते  हैं ॥8॥

Sunday, 1 June 2014

सूक्त - 16

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7830
प्र ते सोतार ओण्यो3 रसं मदाय धृष्वये । सर्गो न तक्त्येतशः॥1॥

तन - मन  को पहले सबल बना कर खट् - रागों से पाओ पार ।
आनन्द - भाव को समझो जानो यही तो है मन का आहार॥1॥

7831
क्रत्वा दक्षस्य रथ्यमपो वसानमन्धसा ।गोषामण्वेषु सश्चिम॥2॥

मनुज जियो तुम सुख- कर जीवन कौशल से बन जाओ समर्थ ।
वैभव  पाते  रहो  निरन्तर  अपने  जीवन  का  समझो अर्थ ॥2॥

7832
अनप्तमप्सु  दुष्टरं सोमं पवित्रं आ सृज । पुनीहीन्द्राय पातवे ॥3॥

कर्म - मार्ग  हो  सुखद  तुम्हारा  एक  लक्ष्य  लेकर  बढ  जाओ ।
सत्पथ पर तुम चलो निरन्तर कर्मानुकूल अपना फल पाओ॥3॥

7833
प्र पुनानस्य चेतसा सोमः पवित्रे अर्षति । क्रत्वा सधस्थमासदत्॥4॥

सोम - पान  तुम  अविरल  करना  इस  से  मन  होता  है  पावन ।
सोम मनुज को सौम्य बनाता बनता है ध्येय- पूर्ति का साधन॥4॥

7834
प्र त्वा नमोभिरिन्दव इन्द्र सोमा असृक्षत । महे भराय कारिणः॥5॥

यह  वसुन्धरा  वीरों  की  है  सुख - साधन  का  उपयोग  करो ।
तुम  अपनी  कमजोरी  को जीतो सबल बनो पर धीर- धरो॥5॥

7835
पुनानो रूपे अव्यये विश्वा अर्षन्नभि श्रियः। शूरो न गोषु तिष्ठति॥6॥

यश - वैभव का भोग करो पर खट् - रागों में तुम मत उलझो ।
शूर - वीर - संयमी बनो तुम अपने बारे में समझो - बूझो ॥6॥

7836
दिवो न सानु पिप्युषी धारा सुतस्य वेधसः। वृथा पवित्रे अर्षति॥7॥

विज्ञानी - ध्यानी बन जायें हम बडे भाग्य से नर - तन पाया ।
धीर - वीर यदि न बन पाये तो यह मानव - जन्म गँवाया॥7॥ 

7837
त्वं सोम विपश्चितं तना पुनान आयुषु । अव्यो वारं वि धावसि॥8॥

हे  परमात्मा  तुम  प्रणम्य  हो  तुम  सदा  हमारी  रक्षा  करना ।
साधन - भजन  हमें  सिखलाना  मेरी  भी  सुधि  लेते  रहना॥8॥

सूक्त - 17

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7838
प्र निम्रेनेव सिन्धवो घ्नन्तो वृत्राणि भूर्णयः। सोमा असृग्रमाशवः॥1॥

परमात्मा  अज्ञान  मिटा - कर  प्रोत्साहित  सब  को  करता  है ।
यम नियम  मार्ग से जो चलते हैं उनका ध्यान सदा रखता है॥1॥

7839
अभि सुवानास इन्दवो वृष्ट्यः पृथिवीमिव । इन्द्रं सोमासो अक्षरन्॥2॥

जैसे  पावस  धरा  भिगो - कर  अन्न  अ‍ॅकुरित  करती  है ।
वैसे ही प्रभु कृपा मनुज-मन में अन्वेषण गुण भरती है॥2॥

7840
अत्यूर्मिर्मत्सरो मदः सोमः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥3॥

कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही प्रभु - कृपा - पात्र बन जाता है ।
उस  सतत  अनुग्रह  होता  प्रभु  से अपना - पन  पाता  है ॥3॥

7841
आ कलशेषु धावति पवित्रे परि षिच्यते । उक्थैर्यज्ञेषु वर्धते ॥4॥

जब  समवेत  स्वरों  से  साधक  वेद - ऋचा का करते गान ।
ऐसा  प्रतीत  होता  है  मानो  सन्मुख  बैठे  हैं  भगवान ॥4॥

7842
अत्ति त्री सोम रोचना रोहन्न भ्राजसे दिवम् । इष्णन्त्सूर्यं न चोदयः॥5॥

सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा बिखराते सूर्य - चन्द्र आलोक ।
नीति - नियम से सभी  बँधे हैं प्रभु हरते हैं सबका शोक ॥5॥

7843
अभि विप्रा अनूषत मूर्धन्यज्ञस्य कारवः। दधानाश्चक्षसि प्रियम्॥6॥

अनुष्ठान  अति  आवश्यक  है  इससे  ही  मन  होता  है  पावन ।
सुमिरन हर साधक करता है यह क्षण होता है मन - भावन॥6॥

7844
तमु त्वा वाजिनं नरो धीभिर्विप्रा अवस्यवः। मृजन्ति देवतातये॥7॥

साधक  जब  पूजा  करता  है  वाक् - अर्थ  पर  रहता  ध्यान ।
भाव  का  भूखा  है  परमेश्वर  वह  ही  देता  है  समाधान ॥7॥

7845
मधोर्धारामनु क्षर तीव्रः सधस्थमासदः। चारुरृताय पीतये ॥8॥

सत्पथ पर हम चलें निरन्तर प्रभु - सामीप्य  हमें  मिल जाए ।
वरद - हस्त रखना प्रभु मुझ पर झूम - झूम मेरा मन गाए॥8॥