Tuesday, 31 December 2013

सूक्त - 75

[ऋषि- सिन्धुक्षित् प्रैयमेध । देवता-नदियॉं । छन्द- जगती ।]

9592
प्र  सु  व आपो  महिमानमुत्तमं  काऊर्वोचाति  सदने  विवस्वतः ।
प्र  सप्तसप्त  त्रेधा  हि  चक्रमुः प्र सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा॥1॥

जल - देव  प्राण  की  प्यास  बुझाना  तेरी  अद्भुत  महिमा  है ।
सरिता सागर-सँग मिल जाती सागर की सर्वाधिक गरिमा है॥1॥

9593
प्र  तेSरदद्वरुणो  यातवे  पथः सिन्धो  यद्वाजॉं  अभ्यद्रवस्त्वम् ।
भूम्या अधि प्रवता यासि सानुना यदेषामग्रं जगतामिरज्यसि॥2॥

प्रबल  वेग  वाली  सरिता  तो  बहते - बहते  कल-कल  कहती  है ।
फसल  बचा-कर  यह  बहती  है  बहुधा  पर्वत से निकलती है ॥2॥

9594
दिवि  स्वनो  यतते  भूम्योपर्यनन्तं  शुष्मममुदियर्ति   भानुना ।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो न रोरुवत्॥3॥

तीव्र -  वेग   वाली   सरितायें   भारी   वर्षा   सम   रव  करती  हैं ।
लहरों  से  रवि - रश्मि  खेलती  अनुपम   छटा  बिखरती   है ॥3॥

9595
अभि त्वा सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वा नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनकक्षसि॥4॥

जैसे  माता  शिशु  से  मिलती  छोटी  नदियॉ  इनसे  मिलती  हैं ।
यह  सबको  साथ  लिए  चलती  है  तट-तोडती निकलती  है ॥4॥

9596
इमं मे गंङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।
असिक्न्या  मरुद्वृधे  वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया॥5॥

गँगा   यमुना   सरस्वती   सतलुज   रावी   चिनाब   झेलम ।
सोहान  वितस्ता  व्यास  नदी  तुम्हें  नमन करते हैं हम ॥5॥

9597
तृष्टामया   प्रथमं  यातवे  सजू:  सुसर्त्वा  रसया  श्वेत्या  त्या ।
त्वं सिन्धो कुभया गोमतीं क्रमुं मेहल्वा सरथं याभिरीयसे ॥6॥

हे सरिते सिन्धु सलिल भर-भर तुम सबको बॉटती फिरती हो ।
चञ्चल-शरारती सखियों सँग तुम हँसती हुई निरखती हो ॥6॥

9598
ऋजीत्येनी   रुशती   महित्वा   परि  ज्रयांसि  भरते  रजांसि ।
अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव  दर्शता ॥7॥

सिन्धु - नदी  में  प्रबल - वेग  है स्त्री-समान सुन्दर-सौम्या है ।
सबकी प्यास बुझाती फिरती कल-कल बहती यह पूज्या है॥7॥

9599
स्वश्वा  सिन्धुः सुरथा  सुवासा  हिरण्ययी  सुकृता वाजिनीवती ।
ऊर्णावती युवतिः सीलमायत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्॥8॥

हे  सरिते  तुम  नित - नवीन  हो  सुख-सौभाग्य तुम्हीं देती हो ।
हर  प्राणी  की  तृषा  मिटाती  सबको  तुम  अपना  लेती हो ॥8॥

9600
सुखं रथं युयुजे सिन्धुरश्विनं तेन वाजं सनिषदस्मिन्नाजजौ ।
महान्ह्यस्य महिमा पनस्यतेSदब्धस्य स्वयशसो विरप्शिनः॥9॥

सरिता  पृथ्वी  की  प्यास  बुझाती  वनस्पतियों  से  भर  देती है ।
नदियॉ  जननी  सम  होती  हैं  सब-सुत-शावक  को  सेती  हैं ॥9॥

          
  

Monday, 30 December 2013

सूक्त - 76

[ऋषि--जरत्कर्ण ऐरावत । देवता- पाषाण । छन्द- जगती ।]

9601
आ  व  ऋञ्जस  ऊर्जां  व्युष्टिष्विन्द्रं  मरुतो  रोदसी  अनक्तन ।
उभे यथा नो अहनी सचाभुवा सदःसदो वरिवस्यात उद्भिदा॥1॥

ऊषा - काल  के  आने  पर  हम  प्रसन्नता  से  भर  जाते  हैं ।
पृथ्वी पर दिवा-रात्रि होती है हम विविध अन्न-धन पाते हैं ॥1॥

9602
तदु  श्रेष्ठं  सवनं  सुनोतनात्यो  न  हस्तयतो  अद्रिः  सोतरि ।
विदध्द्य1र्यो  अभिभूति  पौंस्यं  महो  राये  चित्तरुते  यदवर्तः॥2॥

हे  पत्थर  तुम  सोम  बनाओ  कूट - पीस  कर  हमें  पिलाओ ।
सोम-पान  से  बल मिलता है शत्रु-विजय की युक्ति सिखाओ॥2॥

9603
तदिध्द्यस्य   सवनं   विवेरपो   यथा   पुरा   मनवे   गातुमश्रेत् ।
गोअर्णसि  त्वाष्ट्रे  अश्वनिर्णिजि प्रेमध्वरेष्वध्वरॉं अशिश्रयुः ॥3॥

ऐसा   कर्म   करे   हर   कोई   जिसमें   हम   सबका   हित   हो ।
हिंसा  भरा  भाव  हम  त्यागें  पर-हित से प्राणी परिचित हो॥3॥

9604
अप  हत  रक्षसो भङ्गुरावतः स्कभायत निरृतिं सेधतामतिम् ।
आ  नो  रयिं  सर्ववीरं  सुनोतन  देवाव्यं  भरत श्लोकमद्रयः ॥4॥

दुष्ट - दमन  अति  आवश्यक  है  तुम  ही  रक्षा करना भगवन ।
सुख - वैभव  भी  तुम ही देना तुम ही दे देना यश और धन ॥4॥

9605
दिवश्चिदा     वोSमवत्तरेभ्यो     विभ्वना     चिदाश्वपस्तरेभ्यः ।
वायोश्चिदा   सोमरभस्तरेभ्योSग्नेश्चिदर्च    पितुकृत्तरेभ्यः ॥5॥

 यदि  तेजस्वी  तुमको  बनना  हो  सत्कर्म  सदा करते रहना ।
हर  कार्य  कुशलता से ही करना मन में संतोष सदा रखना ॥5॥

9606
भुरन्तु नो यशसःसोत्वन्धसो ग्रावाणो वाचा दिविता दिवित्मता।
नरो यत्र  दुहते  काम्यं  मध्वाघोषयन्तो अभितो  मिथस्तुरः॥6॥

वेद - ऋचा  का  उच्चारण  हो  सब  करते  रहें  सोम  का  पान ।
हे  पत्थर  तुम  बनो सहायक हम दिव्य-कर्म से बनें महान ॥6॥

9607
सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो निरस्य रसं गविषो दुहन्ति ते ।
दुहन्त्यूधरुपसेचनाय कं  नरो हव्या न मर्जयन्त आसभिः ॥7॥

देह - रूप  इस  रथ  में  स्थित  ऋतम्भरा  ही   है  सोम - पान ।
प्रसाद  प्राप्त  कर  सब करते हैं समवेत-स्वरों में साम-गान ॥7॥

9608
एते   नरः  स्वपसो  अभूतन  य   इन्द्राय  सुनुथ  सोममद्रयः ।
वामंवामं  वो दिव्याय धाम्ने वसुवसु वः पार्थिवाय सुन्वते ॥8॥

लालित्य  ज़रूरी  है  जीवन  में  पर-हित हो हम सबका ध्येय ।
वसुधा  एक  कुटुम्ब  मात्र  है  सबका  हित  हो अपना श्रेय ॥8॥     

Sunday, 29 December 2013

सूक्त - 77

[ऋषि- स्यूमरश्मि भार्गव । देवता- मरुद्गण । छन्द- त्रिष्टुप् - जगती ।]

9609
अभ्रपुषो न वाचा प्रुषा वसु हविष्मन्तो न यज्ञा विजानुषः ।
सुमारुतं  न  ब्रह्माणमर्हसे  गणमस्तोष्येषां  न शोभसे ॥1॥

वेदज्ञ-सदृश हैं सभी मरुद्गण रिमझिम-फुहार सम भाते हैं ।
वाणी का आभूषण देते हैं अन्न - धान  देकर  जाते  हैं ॥1॥

9610
श्रिये  मर्यासो  अर्ञ्जींरकृण्वत  सुमारुतं  न पूर्वीरति क्षपः ।
दिवस्पुत्रास एता न येतिर आदित्यासस्ते अक्रा न वावृधुः॥2॥

ये सुख-साधन हमको देते हैं कोई प्रतिकार नहीं कर सकता ।
गति-शील स्वतः ही हो जाते हैं छोटे हैं पर है अद्भुत क्षमता॥2॥

9611
प्र  ये  दिवः पृथिव्या  न  बर्हणा त्मना रिरिच्रे  अभ्रान्न सूर्यः ।
पाजस्वन्तो न वीरा:पनस्यवो रिशादसो न मर्या अभिद्यवः॥3॥

अति - समर्थ  हैं  यही  मरुद्गण  ये  अद्वितीय  बल - शाली  हैं ।
दुष्टों  का  दमन  वही  करते  हैं  यश-शाली वैभव-शाली हैं ॥3॥

9612
युष्माकं  बुध्ने अपां  न यामनि  विथुर्यति  न  मही श्रथर्यति ।
विश्वप्सुरर्यज्ञो अर्वागयं सु वःप्रयस्वन्तो न सत्राच आ गत॥4॥

जब  जल-प्रवाह  सम  बढते  हैं तब पृथ्वी प्रसन्न हो जाती है ।
जन-जन को हवि-भोग बॉटते और संघ-शक्ति मुस्काती है॥4॥

9613
यूयं  धूर्षु  प्रयुजो  न  रश्मिभिर्ज्योतिष्मन्तो न भासा व्युष्टिषु ।
श्येनासो न स्वयशसो रिशादसःप्रवासो न प्रसितासःपरिप्रुषः॥5॥

सूरज-समान  तुम  सब  तेजस्वी  दौंरी-फंदाय  सम  चलते हो ।
सोच सतत सुखकर रखते हो पथिक-समान भ्रमण करते हो॥5॥

9614
प्र   यद्वहध्वे   मरुतः   पराकाद्यूयं   महः  संवरणस्य   वस्वः ।
विदानासो   वसवो  राध्यस्याराच्चिद्  द्वेषः   सनुतर्युयोत॥6॥

अत्यन्त दूर से नभ से भू-पर मरुत जब आकस्मिक आते हैं।
तब श्रेष्ठ अन्न-फल-शाक हेतु रिमझिम फुहार बरसाते हैं।॥6॥

9615
य   उदृचि   यज्ञे   अध्वरेष्ठा   मरुद्भ्यो  न  मानुषो  ददाशत् ।
रेवत्स  वयो  दधते  सुवीरं  स  देवानामपि  गोपीथे अस्तु॥7॥

अनुष्ठान  के  बाद  मनुज  भी  मरुत - सदृश   ही   देते  दान ।
लंबी - उमर  वही   पाते   हैं  वह  ही  पाते  हैं  धन - धान ॥7॥

9616
ते  हि  यज्ञेषु यज्ञियास ऊमा आदित्येन नाम्ना शम्भविष्ठा: ।
ते  नोSवन्तु  रथतूर्मनीषां  महश्च  यामन्नध्वरे चकाना: ॥8॥

हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी  मन-मति  की  बढ  जाए  महिमा ।
जल्दी मत जाओ रुको तनिक मैं भी तो पा लूँ तेरी गरिमा॥8॥     

 
  

Saturday, 28 December 2013

सूक्त - 78

[ऋषि- स्यूमरश्मि भार्गव । देवता- मरुद्गण । छन्द- त्रिष्टुप् -जगती ।]

9617
विप्रासो न मन्मभिः स्वाध्यो देवाव्यो3 न यज्ञैः स्वप्नसः ।
राजानो  न चित्रा: सुसन्दृशः क्षितीनां न मर्या अरेपसः ॥1॥

हे मारुत-मनन-शील-मेधावी तुम शुभ-कर्म सदा करते हो ।
हम सब तुम पर ही आश्रित हैं तुम मेरे अपने लगते हो ॥1॥

9618
अग्निर्न ये भ्राजसा रुक्मवक्षसो वातासो न स्वयुजःसद्यऊतयः।
प्रज्ञातारो न ज्येष्ठा: सुनीतयः सुशर्माणो न सोमा ऋतं यते ॥2॥

तुम  अग्नि - देव  सम  तेजस्वी  हो  चरैवेति है ध्येय तुम्हारा ।
तुम्हें कोई रोक नहीं सकता प्राञ्जल-प्रवाह है सबको प्यारा॥2॥

9619
वातासो  न  ये  धुनयो  जिगत्नवोSग्नीनां न जिह्वा विरोकिणः ।
वर्मण्वन्तो न योधा: शिमीवन्तः पितृणां न शंसा: सुरातयः॥3॥

पावन-पवन के प्रबल वेग पर प्रकम्पित होते  हैं  सब रिपु-दल ।
पूजनीय  हैं  पवन - देवता  हैं  धी र- वीर  अत्यन्त  सबल ॥3॥

9620
रथानां न ये1राह सनाभयो जिगीवांसो न शूरा अभिद्यवः ।
वरेयवो न मर्या घृतप्रुषोSभिस्वर्तारो अर्कं न  न्सुष्टुभः॥4॥

पवन - देवता  शूर - वीर  हैं  वे  ही  रथ - चक्र  थामते  हैं ।
आत्मीय  हमारे  मृदुभाषी  हैं  वे वेद-ऋचा उचारते हैं ॥4॥

9621
अश्वासो न ये ज्येष्ठास आशवो दिधिषवो न रथ्यः सुदानवः ।
आपो न निम्नैररुदभिर्जिगत्नवो विश्वरूपा अङ्गिरसो न सामभिः॥5॥

पवन--देव में अद्भुत-गति है हर ओर प्रवाहित हो सकते हैं ।
वे यश-वैभव के स्वामी हैं वे साम-ऋचा गाया करते हैं ॥5॥

9622
ग्रावाणो न सूरयः सिन्धुमातर आदर्दिरासो अद्रयो न विश्वहा ।
शिशूला न क्रीळयःसुमातरो महाग्रामो न यामन्नुत त्विषा॥6॥

जननी   सदृश   प्रेम   है  उनका  वे  दुष्टों  से  हमें  बचाते  हैं ।
जल-प्रवाह  भी  वही  बनाते  पथ-पर  चलना सिखलाते हैं ॥6॥

9623
उषसां न केतवोSध्वरश्रियः शुभंयवो नाञ्जिभिर्व्यश्वितन् ।
सिन्धवो न ययियो भ्राजदृष्ट्यः परावतो न योजनानि ममिरे॥7॥

ऊषा - किरण - सम  यज्ञ - भाव  है  वे  सबका मँगल करते हैं ।
सरिता-सदृश-सुखद-साधक हैं पथिक-समान सदा चलते हैं॥7॥

9624
सुभागान्नो देवा: कृणुता सुरत्नानस्मान्त्स्तोतृन्मरुतो वावृधाना: ।
अधि स्तोत्रस्य सख्यस्य गात सनाध्दि वो रत्नधेयानि सन्ति॥8॥

गति  से   बढते  हुए  मरुद्गण  हम  सबको  देते  हैं  धन - धान ।
वे  भाव-बोध  से  हमें  जानते  वे  हैं  सचमुच  कृपा-निधान॥8॥        

Friday, 27 December 2013

सूक्त - 79

[ऋषि- अग्नि वैश्वानर । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9625
अपश्यमस्य   महतो  महित्वममर्त्यस्य   मर्त्यासु  विक्षु ।
नाना  हनू  विभृते  सं  भरेते असिन्वती बप्सती भूर्यत्तः॥1॥

स्वयं-प्रकाश  तुम्हीं  हो  प्रभु-वर  सबको देते हो धन-धान ।
जग को आलोकित करते हो तुम ही तो हो दया-निधान॥1॥

9626
गुहा  शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि ।
अत्राण्यस्मै पड्भि:सं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु॥2॥

नभ  ही  विशाल  मस्तक  है  तेरा  सोम - सूर्य  हैं  तेरे  नैन ।
जठर - रूप   में   भीतर   बैठे  भोजन - हेतु  सदा  बेचैन ॥2॥

9627
प्र   मातुः  प्रतरं  गुह्यमिच्छन्कुमारो   न  वीरुधः  सर्पदुर्वीः ।
ससं न पक्वमविदच्छुचन्तं रिरिह्वांसं रिप उपस्थे अन्तः॥3॥

शिशु  की  भॉति  धरा  पर  चलते तरु की जड तक जाते हो ।
हे पावक भोजन की खोज में जो मिल जाता वह खाते हो॥3॥

9628
तद्वामृतं  रोदसी  प्र  ब्रवीमि  जायमानो  मातरा  गर्भो  अत्ति ।
नाहं  देवस्य  मर्त्यश्चिकेताग्निरङ्ग  विचेता: स प्रचेता: ॥4॥ 

अग्नि-देवता अति अद्भुत  हैं  और  हम   तो अबोध-प्राणी हैं ।
ज्ञातव्य वही है पावन-पावक विविध-विधा के वे ज्ञानी हैं॥4॥

9629
यो  अस्मा  अन्नं  तृष्वा3  दधात्याज्यैर्घृतैर्जुहोति  पुष्यति ।
तस्मै सहस्त्रमक्षभिर्वि चक्षेSग्ने विश्वतःप्रत्यङ्ङसि त्वम्॥5॥

हे अग्नि-देव  तुम आ जाओ हम हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
तुम  अनुकूल  सदा रहना हम तुमसे प्यार बहुत करते  हैं॥5॥

9630
किं  देवेषु  त्यज  एनश्चकर्थाग्ने  पृच्छामि  नु  त्वामविद्वान् ।
अक्रीळन् क्रीळन्हरिरत्तवेSदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिवासिः॥6॥

अग्नि - देवता  क्रोध - रहित  हैं  वे  सबकी  रक्षा  करते  हैं ।
कचरा - मैल  जला  देते  हैं स्वस्थ - नीरोग हमें रखते हैं ॥6॥

9631
विषूचो अश्वान्युयुजे  वनेजा ऋजीतिभी  रशनाभिर्गृभीतान् ।
चक्षदे मित्रो  वसुभिः सुजातः समानृधे  पर्वभिर्वावृधानः ॥7॥

दावानल  बन  वन  में  फैला  वही  हैं  सागर  में  बडवानल ।
सर्वत्र समाया शान्त-रूप में मानव- तन में है जठरानल ॥7॥
    

Thursday, 26 December 2013

सूक्त - 80

[ऋषि- अग्नि वैश्वानर । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9632
अग्निः सप्तिं वाजंभर ददात्यग्निर्वीरं श्रुत्यं कर्मनिःष्ठाम् ।
अग्नी रोदसी वि चरत्समञ्जन्नग्निर्नारीं वीरकुक्षिं पुरन्धिम्॥1॥

पावन-पावक-प्रवाह-पूर्ण है वह  ही  देते  हैं  धन-धान ।
वह सुशील सन्तति देते हैं वह ही देते हैं प्राण-अपान ॥1॥

9633
अग्नेरप्नसःसमिदस्तु भद्राग्निर्मही रोदसी आ विवेश ।
अग्निरेकं चोदयत्समत्स्वग्निर्वृत्राणि दयते पुरूणि॥2॥

सर्वत्र व्याप्त हैं अग्निदेवता रिपु-दल से रक्षा करते हैं ।
आत्मीय-सहायक और सखा हैं जीवन की बाधायें हरते हैं॥2॥

9634
अग्निर्ह  त्यं जरतः कर्णमावाग्निरद्भयो  निरदहज्जरूथम् ।
अग्निरत्रिं  घर्म उरुष्यदन्तरग्निर्नृमेधं प्रजयासृजत्सम्॥3॥

वे  तन-मन  की  रक्षा  करते  हैं वाणी में सम्प्रेषण भरते हैं ।
अन्न - धान  वे  ही  देते  हैं  वे  हम  सबका दुख हरते हैं॥3॥

9635
अग्निर्दाद्  द्रविणं  वीरपेशा  अग्निरृषिं  यः  सहस्त्रा  सनोति 
अग्निर्दिवि  हव्यमा  ततानाग्नेर्धामानि  विभृता  पुरुत्रा॥4॥

जलती आग ही पावक-मुख है उससे हवि-भोग ग्रहण करते हैं।
यह हवि-बल कण-कण में भरता सब यह सुख अनुभव करते हैं॥4॥

9636
अग्निमुक्थैरृषयो  वि  ह्वयन्तेSग्निं  नरो  यामनि  बाधितासः ।
अग्निं वयो अन्तरिक्षे पतन्तोSग्निः सहस्त्रा परि याति गोनाम्॥5॥

पूजनीय  है  पावन - पावक  प्रेम  से  प्रभु - पर  पतियाते  हैं ।
जल के माध्यम से वे नभ जाते मेघ वाक्-सँग बतियाते हैं॥5॥

9637
अग्निं विश ईळते मानुषीर्या अग्निं मनुषो नहुषो वि जाता: ।
अग्निर्गान्धर्वीं पथ्यामृतस्याग्नेर्गव्यूतिर्घृत आ निषत्ता।॥6॥

अग्नि - देवता  अति - अद्भुत  हैं  ज्ञानी-जन  पूजन करते हैं ।
आओ  अग्नि - देव  को  जानें  वे  यश-धन  देते  रहते हैं ॥6॥

9638
अग्नये  ब्रह्म  ऋभवस्ततक्षुरग्निं  महामवोचामा  सुवृक्तिम् ।
अग्ने  प्राव  जरितारं  यविष्ठाग्ने  महि द्रविणमा यजस्व ॥7॥

अग्नि - देव  हैं  पूज्य हमारे आओ हम उनकी महिमा गायें ।
हे  प्रभु  सबकी  रक्षा  करना  हम  तेरे  और निकट आयें ॥7॥   
       

Wednesday, 25 December 2013

सूक्त- 81

[ऋषि-विश्वकर्मा भौवन । देवता- विश्वकर्मा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9639
य  इमा  विश्वा  भुवनानि  जुह्वदृषिर्होता  न्यसीदत् पिता नः ।
स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदवरॉ आ  विवेश॥1॥

सृजन  हेतु  वह  परमेश्वर  ही  विश्वकर्मा  का  रूप  धरता  है ।
पूषा बनता पोषण के लिए उत्पत्ति-विलय वह ही करता है॥1॥

9640
किं     स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं     कतमत्स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा वि द्यामौरर्णोन्महिना विश्वचक्षा:॥2॥

इस जगती का आश्रय क्या है  यह  उत्पन्न  हुआ  है  कैसे ।
जग का आश्रय परमात्मा है जग-रचना में समर्थ है जैसे॥2॥

9641
विश्वतश्चक्षुरुत  विश्वतोमुखो  विश्वतोबाहुरुत  विश्वतस्पात् ।
सं  बाहुभ्यां  धमति  सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव  एकः॥3॥

प्रभु सहस्त्र-सामर्थ्य-युक्त  है  वह  नेह-पुञ्ज है  नित्य-नीक ।
निराधार है जग की रचना सम्यक-सुन्दर-संसार-सटीक॥3॥

9642
किं  स्विद्वनं  क उ स वृक्ष आस  यतो  द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन्॥4॥

अपने मन से यह पूछो तुम प्रभु ने क्या-क्या तुम्हें दिया है ।
कैसे वसुधा का सृजन हुआ किस प्रकार से सृजन किया है॥4॥

9643
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा।
शिक्षा सखिभ्यो हविषि स्वधावःस्वयं यजस्व तन्वं वृधानः॥5॥

हे  सृजन - देव  हे  परमेश्वर  तुम  सबके  पालक-पोषक  हो ।
तुम  ही  मेरे  परम-मित्र  हो  तुम  ही  सबके विश्लेषक हो॥5॥

9644
विश्वकर्मन् हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथवीमुत द्याम् ।
मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु॥6॥

पूजा  में  तुम्हीं  पधारो  प्रभुवर  दुष्टों  से  तुम  हमें बचाओ ।
तुम हमको यश-वैभव दे दो मेरे मन-मति में बस जाओ॥6॥

9645
वाचस्पतिं  विश्वकर्माणमूतये  मनोजुवं  वाजे  अद्या  हुवेम ।
स  नो  विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा॥7॥

हे  परमेश्वर  आवाहन  है  तुम  सतत  हमारी  रक्षा  करना ।
तुम निधान हो ज्ञान कर्म के मन में ज्ञान-पिपासा भरना॥7॥          
  

Tuesday, 24 December 2013

सूक्त- 82

[ऋषि- विश्वकर्मा भौवन । देवता- विश्वकर्मा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9646
चक्षुषः पिता  मनसा  हि  धीरो  घृतमेने  अजनन्नम्नमाने ।
यदेदन्ता अददृहन्त  पूर्व आदिद्  द्यावापृथिवी अप्रथेताम्॥1॥

पूर्व  समय  में  जब  पृथ्वी  और  द्यावा  का विस्तार  हुआ था ।
आलोक लिए आदित्य आ गए दिग्दर्शन भी तभी हुआ था॥1॥

9647
विश्वकर्मा  विमना  आद्विहाया  धाता विधाता परमोत संदृक् ।
तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन्पर एकमाहुः॥2॥

विश्वकर्मा  हैं  सृजन - देव  जग - रचना  का  श्रेय  उन्हें  है ।
वे महाप्रतापी अद्वितीय हैं अपने अभीष्ट का ध्येय विदित है॥2॥

9648
यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यो  देवानां  नामधा  एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या॥3॥

परमेश्वर जीवन - दाता  है  वह  ही  पालन-पोषण  करता  है ।
एक ही है पर विविध नाम से वह हम सबका दुख हरता है॥3॥

9649
त आयजन्त  द्रविणं समस्मा ऋषयः पूर्वे जरितारो न भूना ।
असूर्ते सूर्ते रजसि निषत्ते ये भूतानि समकृण्वन्निमानि ॥4॥

अंतरिक्ष  में  वह  रहता  है  उसने  ही  की  है  जग-रचना ।
पञ्च-भूत  भी  हमें  दिया है सब पा-कर मौन हुई रसना ॥4॥

9650
परो  दिवा  पर  एना  पृथिव्या  परो  देवेभिरसुरैर्यदस्ति ।
कं स्विद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवा: समपश्यन्त विश्वे॥5॥

वह  प्रभु  मेरे  भीतर  बैठा है आकाश-अवनि से वह है दूर ।
वह सुर-असुरों से भी परे है पर कण-कण में वह है ज़रूर॥5॥

9651
तमिद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवा: समगच्छन्त विश्वे ।
अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः॥6॥

हिरण्य- गर्भ  में  छिपा हुआ वह सभी शक्तियों का आश्रय है ।
चर-अचर नियंता-मात्र वही है उसी परम का यह परिचय है॥6॥

9652
न   तं   विदाथ   य   इमा   जजानान्यद्युष्माकमन्तरं   बभूव ।
नीहारेण   प्रावृता   जल्प्या   चासुतृप    उक्थशासश्चरन्ति॥7॥

परमेश्वर की  इस प्रबभुता को कौन भला कह - सुन सकता है ।
सबसे परे  है  वह  परमात्मा पर सबके  भीतर वह रहता है॥7॥    
 

Monday, 23 December 2013

सूक्त - 83

[ऋषि-मन्यु तापस । देवता- मन्यु । छन्द- -त्रिष्टुप्-जगती ।]

9653
यस्ते मन्योSविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक्।
साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता॥1॥

हे  मन्यु  वज्र-सम तीक्ष्ण-तीर हो तुम  समर्थ  हो वैभवशाली ।
हम  भी  समर्थ बन जायें प्रभुवर करो अनुग्रह  हे बलशाली॥1॥

9654
मन्युरिन्द्रो   मन्युरेवास   देवो   मन्युर्होता  वरुणो  जातवेदा: ।
मन्युं विश ईळते मानुषीर्या:पाहि नो मन्यो तपसा सजोषा:॥2॥

तुम वरुण अग्नि और इन्द्र-देव हो तुम हम सबकी रक्षा करना।
परम-पूज्य  तुम  ही प्रणम्य हो तुम हम सबका दुख हरना ॥2॥

9655
अभीहि  मन्यो  तवसस्तवीयान्तपसा  युजा  वि  जहि  शत्रून् ।
अमित्रहा   वृत्रहा   दस्युहा  च  विश्वा  वसून्या  भरा त्वं नः॥3॥

प्रभु  तेरा  आवाहन  करते  हैं  पूजन  और  अर्चन  करते  हैं ।
दुष्टों  से  तुम  हमें  बचाना  अनुरोध  यही  तुमसे  करते  हैं॥3॥

9656
त्वं  हि  मन्यो अभिभूत्योजा: स्वयम्भूर्भामो  अभिमातिषाहः।
विश्वचर्षणिः  सहुरिः  सहावानस्मास्वोजः  पृतनासु   धेहि॥4॥

हे  सेनापति आगे  बढ  जाओ  विजय-पताका  तुम फहराओ ।
तुम अतुलित बल के स्वामी हो तुम मेरा भी ओज बढाओ॥4॥

9657
अभागः सन्नप  परेतो अस्मि  तव  क्रत्वा  तविषस्य  प्रचेतः।
तं  त्वा  मन्यो  अक्रतुर्जिहीळाहं  स्वा  तनूर्बलदेयाय मेहि॥5॥

तुम  धीर-वीर और  ज्ञानी  हो  मुझको  अपने  सँग  में ले लो ।
चरैवेति  है  लक्ष्य  तुम्हारा  कर्म-योग  की  ओर  ले  चलो॥5॥

9658
अयं    ते   अस्म्युप   मेह्यर्वाङ्   प्रतीचीनः  सहुरे  विश्वधायः ।
मन्यो वज्रिन्नभि मामा ववृत्स्व हनाव दस्यूँरुत बोध्यापेः॥6॥

तुम  अनुकूल  मुझे  लगते  हो  मुझको  अपना मित्र बना लो ।
सान्निध्य तुम्हारा मुझको प्रिय है एक बार मुझको अपना लो॥6॥

9659
अभि  प्रेहि  दक्षिणतो  भवा  मेSधा  वृत्राणि  जङ्घनाव  भूरि ।
जुहोमि  ते  धरुणं  मध्वो  अग्रमुभा  उपांशु  प्रथमा  पिबाव॥7॥

हे  मन्यु-देव  हे  परम-मित्र  आओ  हवि-भोग ग्रहण  कर  लो ।
हम  प्रेम  से  तुम्हें  बुलाते हैं तुम आकर सोम-पान कर लो॥7॥    
   

सूक्त - 84

[ऋषि- मन्यु तापस । देवता- मन्यु । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]

9660
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षणामासो धृषिता मरुत्वः।
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपा:॥1॥

शौर्य - पूर्ण  हैं  मन्यु - देवता  वे  सेना  को  प्रेरित  करते  हैं ।
शान्ति  हेतु  है  शस्त्र  ज़रूरी  वे  हमें  सुरक्षित  रखते  हैं॥1॥

9661
अग्निदेव मन्यो त्विषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि।
हत्वाय शत्रून्वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व॥2॥

हे  रण - नायक  आवाहन  है  शौर्य  बढाता  साथ  तुम्हारा ।
दुष्ट - दमन  अति  आवश्यक  है  तभी सुरक्षित है जग सारा॥2॥

9662
सहस्व मन्यो अभिमातिमस्मे रुजन्मृणन्प्रमृणन्  प्रेहि शत्रून्।
उग्र  ते  पाजो  नन्वा  रुरुध्रे  वशी  वशं  नयस एकज त्वम् ॥3॥

हे  मन्यु - देव  हे  अद्वितीय तुम  धीरज  कभी  नहीं  खोते  हो ।
तुम  क्रोध -रहित होकर लडते हो इसीलिए विजयी होते हो ॥3॥

9663
एको  बहूनामसि  मन्यवीळितो  विशंविशं  युधये  सं शिशाधि ।
अकृत्तरुक्त्वया   युजा   द्युमन्तं   घोषं   विजयाय   कृण्महे ॥4॥

परम - पूज्य  हो  तुम  प्रणम्य हो अस्त्र-शस्त्र अपने सँग धर लो।
परम-मित्र हो तुम्हीं हमारे अपनी विजय सुनिश्चित  कर लो॥4॥

9664
विजेषकृदिन्द्रइवानवब्रवो3स्माकं    मन्यो    अधिपा    भवेह ।
प्रियं  ते  नाम  सहुरे  गृणीमसि विद्या तमुत्सं यत आबभूथ॥5॥

हे मन्यु-देव तुम इन्द्र सदृश हो तुम अधिपति हो मितभाषी हो।
हम  प्रेम  से  तुम्हें  बुलाते  हैं  तुम बलशाली अविनाशी हो ॥5॥

9665
आभूत्या  सहजा  वज्र  सायक  सहो  बबिभर्ष्यभिभूत  उत्तरम् ।
क्रत्वा  नो  मन्यो  सह  मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूत संसृजि ॥6॥

अद्भुत - अनुपम  रूप  तुम्हारा  सरलता  की  तुम  मूरत  हो ।
वीरोचित - औदार्य - युक्त  हो  और  तुम बहुत खूबसूरत हो ॥6॥

9666
संसृष्टं  धनमुभयं  समाकृतमस्मभ्यं  दत्तां  वरुणश्च  मन्युः । 
भियं दधाना हृदयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम्॥7॥

वरणीय  मन्यु  सुख-वैभव  देना  निर्भय होकर जीवन जी लें ।
तेजस्विता  हमें  भी  दे  दो हम भी सुख का अमृत पी लें ।॥7॥     
 
  

Sunday, 22 December 2013

सूक्त - 85

[ऋषि- सूर्या-सावित्री । देवता- सोम । छन्द- अनुष्टुप् ।]

9667
सत्येनोत्तभिता    भूमिः    सूर्येणोत्तभिता    द्यौः ।
ऋतेनादि त्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः॥1॥

परमेश्वर  के  नीति - नियम  से  ही  यह  धरती  टिकी  हुई  है ।
आकाश वहीं है अपनी जगह नियम से ही जगती चल रही है॥1॥

9668
सोमेनादित्या बलिनः सोमेन पृथिवी मही ।
अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः॥2॥

आदित्य-देव आलोक-वान हैं सोम अन्न-धन के दाता हैं ।
शस्य-श्यामला यह धरती है सोम-देव बल के दाता हैं॥2॥

9669
सोमं मन्यते पपिवान्यत्संपिंषन्त्योषधिम् ।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥3॥

सोमलतादि वनस्पतियों की ओखद को जब पीसा जाता है ।
सोम उसी रस को कहते हैं अब यह दुर्लभ माना जाता है॥3॥

9670
आच्छद्विधानैर्गुपितो   बार्हतैः   सोम   रक्षितः ।
ग्राव्णामिच्छृण्वन्तिष्ठसि न ते अश्नाति पार्थिवः॥4॥

अग्नि-सोम  धरती  के रक्षक सोम  के रक्षक अग्नि-देव है ।
रक्षित  होने  के  कारण  ही सोम  हमें  उपलब्ध  नहीं  है॥4॥

9671
यत्त्वा  देव  प्रपिबन्ति  तत  आ  प्यायसे  पुनः ।
वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः॥5॥

सोम नाम की इस औषधि को रुचि से सभी ग्रहण करते हैं ।
सोम है रक्षित पवन-देव से वे प्रेम से रखवाली करते  हैं॥5॥

9672
रैभ्यासीदनुदेयी      नाराशंसी      न्योचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्॥6॥

रवि - तनया  ऊषा के विवाह में  रैभी  ऋचा सखी थी उसकी ।
सेविका-ऋचा थी नाराशंसी मंत्रों से बनी थी साडी जिसकी॥6॥

9673
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अ अभ्यञ्जनम् ।
द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥7॥

रवि-तनया जब ससुराल गई शुभ-चिन्तन परिधान पहनकर।
नयन  ही  ऊषा  का  काजल था वसुधा ही थी उसके जेवर॥7॥

9674
स्तोमा आसन्प्रतिधयः कुरीरं छन्द ओपशः ।
सूर्याया अश्विना वराग्निरासीत्पुरोगवः॥8॥

स्तवन  ही  रथ-चक्र-दण्ड  थे  कुरीर  छन्द  का अन्तः भाग ।
अश्विनीकुमार ऊषा के पति थे अग्नि-दूत थे अग्रिम-भाग॥8॥

9675
सोमो     वधूयुरर्भवदश्विनास्तामुभा     वरा ।
सूर्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविताददात्॥9॥

अश्विनीकुमार   ऊषा   दोनों   ही   एक-दूजे   पर  थे  अनुरक्त ।
ऊषा को सोम भी चाहते थे पर अश्विनीकुमार ही थे उपयुक्त॥9॥

9676
मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीदुत च्छादः ।
शुक्रावनङ्वाहावास्तां यदयात्सूर्या ग्रहम्॥10॥

ऊषा  ससुराल  गई  तब  उसका  मन  ही  रथ  का  वाहन था ।
सूर्य-सोम रथ के वाहक थे नभ रथ का सुन्दर वितान था॥10॥

9677
ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावितः ।
श्रोत्रं  ते  चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः॥11॥

श्रवण ही मन-रथ के पहिए थे ऋक्-साम-गान प्राञ्जल पहरा था।
रथ का पावन - पथ अन्तरिक्ष जो स्वर्णिम और रुपहला था॥11॥

9678
शुची  ते  चक्रे  यात्या  व्यानो  अक्ष आहतः ।
अनो  मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम्॥12॥

विदा - समय  रथ  के  दो  पहिए  दीख  रहे  थे  अति  उज्ज्वल ।
पवनदेव उस रथ की धुरी थे मन-रथ सुन्दर था दुग्ध-धवल॥12॥

9679
सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत् ।
अघासु  ह्न्यन्ते गावोSर्जुन्यो: पर्युह्यते॥13॥

पिता  सूर्य  ने  निज  पुत्री  को  धन-धान  से  किया मालामाल ।
मघा में गो-धन दान किया फाल्गुनी में फिर भेजा ससुराल॥13॥

9680
यदश्विना  पृच्छमानावयातं  त्रिचक्रेण  वहतुं  सूर्याया: ।
विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रःपितराववृणीत पूषा॥14॥

हे  अश्विनीकुमार  ऊषा  से  तुमने  विवाह -प्रस्ताव  किया  था ।
सब देवों का वरद-हस्त था सुत-पूषा ने स्वीकार किया था॥14॥

9681
यदयातं     शुभस्पती     वरेयं     सूर्यामुप ।
क्वैकं चक्रं वामासीत्क्व देष्ट्राय तस्थथुः॥15॥

हे  अश्विनीकुमार  जिस  समय  ऊषा - वरण  के  हेतु  गए  थे ।
उस समय तुम्हारा ध्यान कहॉ था प्रेम-गली में तुम खोए थे॥15॥

9682
द्वे  ते  चक्रे  सूर्ये  ब्रह्माण  ऋतुथा  विदुः ।
अथैकं चक्रं यद्गुहा तदध्दातय इद्विदुः॥16॥

हे  सूर्यदेव  ज्ञानी परिचित हैं कर्म-योग से रथ चलता है ।
ऋतु-अनुरूप वेग है उसका गोपनीय है पर कहता है॥16॥

9683
सूर्यायै   देवेभ्यो   मित्राय   वरुणाय   च ।
ये भूतस्य प्रचेतस इदं तेभ्योSकरं नमः॥17॥

सूर्य सभी के शुभ-चितक हैं सबका कल्याण वही करते हैं ।
सूर्य-देव सर्वदा स्तुत्य हैं हम सब उन्हें नमन करते हैं॥17॥

9684
पूर्वापरं चरतो माययैतो शिशू क्रीळन्तौ परि याति अध्वरम् ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः॥18॥

सूर्य- चन्द्र  आलोक - प्रदाता  हँसते  ही रहते हैं हरदम ।
कर्म-योग का पाठ-पढाते उन्हें नमन करते हैं  हम॥18॥

9685
नवोनवो   भवति   जायमानोSह्नां   केतुरुषसामेत्यगग्रम्।
भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन्प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायुः॥19॥

चन्द्रदेव  प्रतिदिन  नवीन  हैं  हम  भी  प्रतिदिन  रहें नवीन ।
बिसराकर आगत-अतीत को वर्तमान में ही हो जायें लीन॥19॥

9686
सुकिंशुकं शल्मलीं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम् ।
आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व॥20॥

शाल्मली-पलाश-तरु से निर्मित स्वर्णिम-रथ-पर होकर सवार।
रवि-तनया तुम पति-गृह जाओ जहॉ प्रेम-मय हो घर-द्वार॥20॥

9687
उदीर्ष्वातः  पतिवती  ह्ये3षा  विश्वावसु  नमसा  गीर्भिरीळे ।
अन्यामिच्छ पितृषदं व्यक्तां स ते भागो जनुषा तस्य विध्दि॥21॥

ऊषा का पाणिग्रहण हुआ और रवि - तनया ससुराल गई ।
सब लोग वहॉ से विदा हुए दायित्व निभाने और कई॥21॥

9688
उदीर्ष्वातो    विश्वावसो    नमसेळामहे    त्वा ।
अन्यामिच्छ प्रफर्व्यं1 सं जायां पत्या सृज॥22॥

हे  पण्डित  जी  आप  विदा  हों  हम  बारम्बार नमन करते हैं ।
विधि-विधान से ब्याह हुआ हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं॥22॥

9689
अनृक्षरा ऋजवः सन्तु पन्था येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्।
समर्यमा सं भगो नो निनीयात्सं जास्पत्यं सुयममस्तु देवा:॥23॥

मार्ग तुम्हारा सरल-सहज हो जीवन सुन्दर हो सुखकर हो ।
तुम दोनों सदा सुखी रहना मन में सब सुख सब रस हो॥23॥

9690
प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेवः।
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेSरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि॥24॥

वरुण-पाश से मुक्त रहो तुम पति-कुल का सदा बढाओ मान ।
अब अपना दायित्व निभाओ तुम हो सूरज की सन्तान॥24॥

9691 
प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबध्दाममुतस्करम् ।
यथेयममिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रा सुभगासति॥25॥

पितृ-गृह से तुम्हें अलग करते हैं ससुराल ही है तेरा परिवार ।
धीर-वीर सन्तति पाओ पति का घर हो सुख का आगार॥25॥

9692
पूषा  त्वेतो  नयतु  हस्तगृह्याश्विना  त्वा  प्र  वहतां  रथेन ।
गृहान्गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि॥26॥

हे पूषा माता को सादर लाओ अश्विनीकुमार निज रथ में बिठाओ।
निज-भवन हेतु प्रस्थान करो पति होने का कर्तव्य निभाओ॥26॥ 

9693
इह प्रियं प्रजया ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि।
एना पत्या तन्वं1सं सृजस्वाधा जिव्री विदथमा व व्दाथः॥27॥

सुख-सन्तति ससुराल में पाओ अपनों के प्रति कर्तव्य निभाओ।
पति  के सँग अद्वैत रहो तुम सबके हित में समय बिताओ॥27॥

9694
नीललोहितं    भवति    कृत्यासक्तिर्व्यज्यते ।
एधन्ते अस्या ज्ञातयः पतिर्बन्धेषु बध्यते॥28॥

वधू  जब  रजस्वला  होती  है  आसक्ति  अचानक  बढती  है ।
परिवार  बडा  हो  जाता  है  भव-बन्धन  की कडी जुडती है॥28॥

9695
परा  देहि  शामुल्यं  ब्रह्मभ्यो  वि  भजा  वसु ।
कृत्यैषा पद्वती भूत्व्या जाया विशते पतिम्॥29॥

तन - मन  को  सदा  स्वच्छ  रखें  पर-हित  के हेतु विचार करें ।
निज - कुटुम्ब  का ध्यान रखें  पति-सँग परस्पर बात करें॥29॥

9696
अश्रीरा     तनूर्भवति     रुशती     पापयामुया ।
पतिर्यद्वध्वो3 वाससा स्वमङ्गमभिधित्सते॥॥30॥

पति-पत्नी दोनों स्वस्थ रहें नीरोग रहे दोनों का तन-मन ।
परस्पर--पूरक हैं ये दोनों सुख-दुख बॉटें कर लें चिन्तन॥30॥

9697
ये  वध्वश्चन्द्रं  वहतुं  यक्ष्मा  यन्ति  जनादनु ।
पुनस्तान्यज्ञिया देवा नयन्तु यत आगता:॥31॥

पत्नी  का  सदा  ध्यान  रखें  वह  स्वस्थ  रहे  और सुखी रहे ।
ससुराल में बहू प्रसन्न रहे वह दुख से ग्रस्त कभी न रहे॥31॥

9698
मा विदन्परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती ।
सुगेभिरर्दुर्गमतीतामप     द्रान्त्वरातयः॥32॥

रोग - रूप  रिपु- दल  से  सबको  बच-कर  दूर  ही  रहना  है ।
हवा-बदलने हेतु भ्रमण हो पर सदा स्वस्थ  ही  रहना है॥32॥

9699
सुमङ्गलीरियं   वधूरिमां   समेत   पश्यत ।
सौभाग्यमस्यै दत्त्वायाथास्तं वि परेतन॥33॥

नई  बहू  शुभ  की  सूचक  है  सबसे  पाती  है  आशीर्वाद ।
लक्ष्मी-समान वह खुद होती है करती है सुखकर सम्वाद॥33॥

9700
तृष्टमेतत्कटुकमेतदपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे ।
सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात्स इद्वाधूयमर्हति॥॥34॥

बहूरानी  सँग  जिस  घर  में  कोई  अत्याचार  कभी करता है ।
वह निंदनीय है और त्याज्य कटुवचन यदि कोई कहता है॥34॥

9701
आशसनं      विशसनमथो      अधिविकर्तनम् ।
सूर्याया:पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति॥35॥

मलिन-मुख दिखती है रवि-तनया किसने उसका अपमान किया।
परिधान भी उसका फटा हुआ है किसने ऐसा अपराध किया॥35॥

9702
गृभ्णानि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः ।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवा:॥36॥

मैं  पति  हूँ  तुम  मेरी  पत्नी  आदर-अभिवादन  करता  हूँ ।
मुझे  छोडकर  कहीं  न  जाना  अनुरोध यही मैं करता हूँ॥36॥

9703
तां  पूषञ्छिवतमामेरयस्व  यस्यां  बीजं  मनुष्या3  वपन्ति ।
या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ॥37॥

हे  प्रभु  तुम  शुभ-चिन्तन  देना  प्रजनन  का  पावन  प्रवाह हो ।
बीज गर्भ में धारण करने की अभिलाषा का शुभ-विचार हो॥37॥

9704
तुभ्यमग्रे   पर्यवहन्त्सूर्यां   वहतुना   सह ।
पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह॥38॥

हे अग्नि-देव आशीष  उसे  दें वह  माता  बन  कर्तव्य निभाये ।
सुख-सन्तति उसे प्रदान करें निज-कुटुम्ब सम्पूर्ण बनाये॥38॥

9705
पुनः     पत्नीमग्निरदादायुषा     सह     वर्चसा ।
दीर्घायुरस्या यः पतिर्जीवाति शरदः शतम्॥39॥

भगवान अग्नि ने पति-पत्नी को अनगिन-आशीर्वाद दिया है ।
चिर--जीवी हों सुख-स्वरूप हों हम पर यह उपकार किया है॥39॥

9706
सोमः  प्रथमो  विविदे  गन्धर्वो  विविद  उत्तरः ।
तृतीयो अनिष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा:॥40॥

हे ऊषा सोम की पत्नी हो तुम अब अपने कुटुम्ब में मिल जाओ ।
तुम दोनों पति-पत्नी मिलकर अब अपना कर्तव्य निभाओ॥40॥

9707
सोमो  ददद्  गन्धर्वाय  गन्धर्वो दददग्नये ।
रयिं च पुत्रॉश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम्॥41॥

कन्या  शान्त - सोम  होती  है  धीरे - धीरे  विकसित  होती है ।
जब  वह  जवान  हो  जाती  है  तब  उसकी  शादी होती है॥41॥

9708
इहैव स्तं मा   वि   यौष्टं   विश्वमायुर्व्यश्नुतम्  ।
क्रीळन्तौ  पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ  स्वे   गृहे॥42॥

हे  वर- वधू  साथ  में  रहना  सबके  सुख  का  साधन  बनना ।
तुम  कर्तव्य - धर्म  का  पालन  जीवन-भर  करते  रहना॥42॥ 

9709
आ  नः प्रजां  जनयतु  प्रजापतिराजरसाय  समनक्त्वर्यमा ।
अदुर्मङ्गलीः पतिलोकमा विश शं भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥43॥

हे  प्रभु  हमें   सुसन्तति  देना  हम साथ रहें घर हो जँगल हो ।
सब-कुछ शुभ-शुभ हो जीवन में पूरे कुटुम्ब का मंगल हो॥43॥

9710
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येदधि   शिवा   पशुभ्यः  सुमना:  सुवर्चा: ।
वीरसूरर्देवकामा  स्योना  शं  नो  भव  द्विपदे  शं चतुष्पदे॥44॥

हे  बहू  तुम  सदा  सुखी  रहना  तुम  सबको अपना-पन देना ।
सबके हित का चिन्तन कर ससुराल को तुम अपना लेना॥44॥

9711
इमां  त्वमिन्द्र  मीढ्वः  सुपुत्रां  सुभगां  कृणु ।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि॥45॥

परमेश्वर    यश  -  वैभव    देना    बँधा    रहे    पूरा    परिवार ।
प्राञ्जल-प्रेम-प्रवाह  यहॉ  हो  अन्न-धान का  हो  भण्डार॥45॥

9712
सम्राज्ञी   श्वशुरे   भव   सम्राज्ञी   श्वश्रवां   भव ।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु॥46॥

हे बहू तुम्हीं गृह-स्वामिनी हो सबका रखना समुचित ध्यान ।
सास-ननद-देवर सबको तुम मधुर-वचन का देना दान ॥46॥

9713
समञ्जन्तु  विश्वे  देवा: समापो  हृदयानि नौ ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥47॥

तुम एक-दूसरे के पूरक हो पावन-पथ पर चलो परस्पर ।
भोजन-शयन और अर्चन भी साथ-साथ करना जीवन-भर॥47॥    

  
         
        

     

   
          


    

Thursday, 19 December 2013

सूक्त - 86

[ऋषि- इन्द्र- इन्द्राणी । देवता- इन्द्र । छन्द- पंक्ति ।]

9714
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥1॥

विविध रूप में विविध योनियॉं यहॉं जन्म लेती मरती है ।
परमेश्वर आनन्द रूप है जगती उसकी स्तुति करती है॥1॥

9715
परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥2॥

हे प्रभु तुम अत्यन्त निकट हो और तुम्हीं अत्यन्त दूर ।
पर परमेश्वर को पा सकते हैं अपना सगा है वह भरपूर॥2॥

9716
किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्व1र्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥3॥

अद्भुत  आकर्षण  है  अपना  वह  रखता  है  पूरा  ध्यान ।
वह यश वैभव का स्वामी है अत्यन्त सूक्ष्म उत्कृष्ट महान ॥3॥

9717
यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥4॥

हे  प्रभु  तुम्हीं  सुरक्षा  देना  मेरे  मन  की  तमस  मिटाना ।
तुम  ही  तो  मेरे  अपने  हो  अपने  आप से मुझे मिलाना॥4॥

9718
प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥5॥

यह मन अति चञ्चल है भगवन भोग-मार्ग की रखता चाह ।
पर तुम मेरे परम-मित्र हो ले चलना सतत सत्य की राह ॥5॥

9719
न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यममीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥6॥

प्रकृति संगिनी बने हमारी वह भी हमें प्यार करती है ।
उससे कुछ भी छिपा नहीं है सर्व-समर्थ यही धरती है॥6॥

9720
उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।
भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥7॥

यह निसर्ग जननी  है सबकी  सबका  पालन  करती  है ।
इसकी गोद हमें प्यारी है मन की व्यथा यही हरती है॥7॥

9721
किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥8॥

पूजनीय है प्रकृति संगिनी विविध-विधा से यह कहती है ।
परममित्र  है  वह  परमेश्वर  बारम्बार  कहा करती है ॥8॥

9722
अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥9॥

प्रकृति  ब्रह्म  पति - पत्नी  सम  हैं  परमेश्वर की हैं आधार ।
दोनों मिलकर रचना करते दोनों महान हैं रचना-कार॥9॥

9723
संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥10॥

सृष्टि विधात्री यही प्रकृति है इसीलिए है सबकी माता ।
जैसे परमेश्वर पिता हमारे वैसे ही प्रकृति हमारी माता॥10॥

9724
इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥11॥

सबसे सुखी इन्द्राणी ही है उनके पति हैं अजर-अमर ।
परमेश्वर पावन प्रणम्य है आनन्द-रूप प्रत्येक प्रहर॥11॥

9725
नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेररृते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥12॥

हे  परमेश्वर  प्रकृति  पावनी  बिना  मित्र  के मन नहीं रमता ।
जग की रचना अति विचित्र है कण-कण में ब्रह्म रमण करता॥12॥

9726
वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥13॥

हे वैभवशाली सुख-रजनी हर वस्तु यहॉ पर नश्वर है ।
परमपूज्य वह प्रभु प्रणम्य है केवल वही अनश्वर है ॥13॥ 

9727
उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥14॥

सुन्दर शरीर के साथ मनुज इस दुनियॉ में प्रवेश करता है ।
कर्म-मार्ग से सुख-दुख पाता फिर वह देह त्याग करता है॥14॥

9728
वृषभो न तिग्मशृङ्गोSन्तर्यूथेषु रोरुवत् ।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥15॥

जीव यहॉ सुख की इच्छा से मन इन्द्रिय के सँग चलता है ।
विविध विधा की रचना करता प्रेम-मार्ग पर वह बढता है॥15॥

9729
न सेशे यस्य रम्बतेSरन्तरा सक्थ्या3 कपृत् ।
सेदीशे यस्य रोमशं निशेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥16॥

मन इन्द्रिय बेकाबू चलते बन्धन स्वीकार नहीं करते ।
पर अँकुश तो आवश्यक है मन को ढील नहीं दे सकते ॥16॥

9730
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेSन्तरा सक्थ्या3 कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥17॥

समुचित सम्भोग नहीं होने पर वीर्य क्षरित हो जाता है ।
योनि-मार्ग से भीतर जाकर ही वीर्य बीज बन पाता है॥17॥

9731
अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥18॥

हे  परम-मित्र  हे  परमेश्वर ज्योति-गली  में  तुम  पहुँचाओ ।
आत्म-ज्ञान हमको समझाओ पास रहो तुम दूर न जाओ॥18॥

9732
अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोSभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥19॥

ज्ञान - कर्म  के  पथ  पर  चलकर  निज  स्वरूप को पहचानें ।
हम भी निर्बीज समाधि-समायें पावन आत्म-ज्ञान को जानें॥19॥

9733
धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेSस्तमेहि गृहॉं उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥20॥

देह जीर्ण जब हो जाता है प्रभु की शरण में वह जाता है ।
कालान्तर में वही जीव तब पुनः देह धरकर आता है॥20॥

9734
पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोSस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥21॥

पुनः देह पाकर इस जग में भोग-प्राप्ति में जुट जाता है ।
ज्ञान-मार्ग में जब जाता है तभी मोक्ष को वह पाता है॥21॥

9735
यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व1 स्य पुल्वघो मृगःकमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥22॥

हे  परमेश्वर  शरण  में  ले लो हम भी मोक्ष द्वार पर जायें ।
तुम चेतन आनन्द-रूप हो हम भी प्रभु आनन्द पथ पायें॥22॥

9736
पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥23॥

प्रकृति - पावनी जग - रचना में सप्रयास उपक्रम है करती ।
बिन-पीडा सृजन नहीं होता सार यही सम्प्रेषित करती ॥23॥     
              
  
       

Wednesday, 18 December 2013

सूक्त - 87

[ऋषि- पायु भारद्वाज । देवता- रक्षोहा अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् - अनुष्टुप् ।]

9737
रक्षोहणं वाजिनमा जिघर्मि मित्रं प्रथिष्ठमुप यामि शर्म ।
शिशानो अग्निःक्रतुभि:समिध्दःस नो दिवा स रिषःपातु नक्तम्॥1॥

हम सज्जन से मित्रता निभाते और दुष्ट के लिए काल हैं ।
हे अग्निदेव तुम रक्षा करना हम पथ के पावन-प्रवाल हैं॥1॥

9738
अयोदंष्ट्रो अर्चिषा  यातुधानानुप  स्पृश जातवेदः समिध्दः ।
आ जिह्वया मूरदेवान्रभस्व क्रव्यादो व्रक्त्व्यपि धत्स्वासन्॥2॥

हे  प्रभु  हमें  नीरोग  बनाओ  तन-मन  की  हर  पीडा हर लो ।
आरोग्य प्रदान करो हमको आत्मीय समझ कर अपना लो॥2॥

9739
उभोभयाविन्नुप   धेहि   दंष्ट्रा   हिंस्त्रः   शिशानोSवरं   परं  च ।
उतान्तरिक्षे परि याहि राजञ्जम्भैः सं धेह्यभि यातुधानान्॥3॥

विध्वंस  और  रचना  दोनों  ही  बडी  कुशलता  से  करते  हो ।
अन्तरिक्ष  में  तुम्हीं  चमकते  तुम  रोगों से रक्षा करते हो॥3॥

9740
यज्ञैरिषूः  संनममानो  अग्ने  वाचा  शल्यॉं  अशनिभिर्दिहानः ।
ताभिर्विध्य हृदये यातुधानान् प्रतीचो बाहून्प्रति भङ्ध्येषाम्॥4॥

सतत  सुरक्षा  तुम  देते  हो रिपु - दल  का  तुम  बल  हरते  हो ।
उत्तम  स्वास्थ्य  तुम्हीं  देते  हो  प्रेरक बन-कर बल भरते हो॥4॥

9741
अग्ने  त्वचं  यातुधानस्य  भिन्धि हिंस्त्राशनिर्हरसा  हन्त्वेनम् ।
प्र पर्वाणि जातवेदः शृणीहि क्रव्यात्क्रविष्णुर्वि चिनोतु वृक्णम्॥5॥

मनुज-देह में जठर-अग्नि बन तन को सदा स्वस्थ रखते हो ।
तन-रोगाणु-मुक्त करते हो आरोग्य प्रदान तुम्हीं करते हो॥5॥

9742
यत्रेदानीं  पश्यसि  जातवेदस्तिष्ठन्तमग्न  उत  वा  चरन्तम् ।
यद्वान्तरिक्षे पथिभिः पतन्तं तमस्ता विध्य शर्वा शिशानः॥6॥

जो भी अशुभ तुम्हें दिखता हो उसको शीघ्र भस्म कर देना ।
हम सबकी तुम रक्षा करना तुम शुभ का पोषण कर लेना॥6॥

9743
उतालब्धं   स्पृणुहि   जातवेद   आलेभानादृष्टिभिर्यातुधानात् ।
अग्ने पूर्वो नि जहि शोशुचान आमादःक्ष्विङ्कास्तमदन्त्वेनीः॥7॥

दुनियॉं  के  इस  महाजाल  से  हे  प्रभु  तुम  ही  हमें बचाना ।
अपने कुछ गुण हमें भी देना सदा सत्य पथ पर ले जाना॥7॥

9744
इह प्र ब्रूहि यतम: सो अग्ने यो यातुधानो य इदं कृणोति ।
तमा रभस्व समिधा यविष्ठ नृचक्षसश्चक्षुषे रन्धयैनम्॥8॥

विघ्न-विनाशक तुम हो प्रभु-वर सत्कर्मों का पाठ-पढाना।
मेरा  सब  अवगुण हर लेना असुरों से तुम हमें बचाना॥8॥

9745
तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा रक्ष यज्ञं प्राञ्चं वसुभ्यः प्र णय प्रचेतः।
हिंस्त्रं रक्षांस्यभि शोशुचानं मा त्वा दभन्यातुधाना नृचक्षः॥9॥

अन्न-धान हमको देना प्रभु सदा सुरक्षित तुम रखना ।
तुम असुरों के संहारक हो हम सबकी रक्षा करना ॥9॥

9746
नृचक्षा रक्षः परि पश्य विक्षु तस्य त्रीणि  प्रति  शृणीह्यग्रा।
तस्याग्ने पृष्टीर्हरसा शृणीहि त्रेधा मूलं यातुधानस्य वृश्च॥10॥

जगती  से  असुरत्व  मिटा  दो  सज्जन का प्रतिपाल करो ।
हे अग्नि-देव तुम समर्थ हो हवि-भोग मेरा स्वीकार करो॥10॥

9747
त्रिर्यातुधानं प्रसितिं त एत्वृतं यो अग्ने अनृतेन हन्ति ।
तमर्चिषा स्फूर्जयञ्जातवेद: समक्षमेनं गृणते नि वृङ्धि॥11॥

रोग - शोक  से  बचे  रहें  हम  ऐसी  युक्ति  हमें  बतलाओ ।
सत-पथ पर ही चलें निरंतर वही रीति हमको समझाओ॥11॥

9748
तदग्ने चक्षु: प्रति धेहि रेभे शफारुजं येन पश्यसि ययातुधानम् ।
अथर्ववज्ज्योतिषा   दैव्येन  सत्यं  धूर्वन्तमचितं  न्योष ॥12॥

असत  से  जहॉं  सत्य  कुम्हलाये  हे  प्रभु  तुम  ही रक्षा करना ।
शीघ्रातिशीघ्र तुम दंडित करना तुम सज्जन का दुख हरना॥12॥

9749
यदग्ने   अद्य   मिथुना   शपातो   यद्वाचस्तुष्टं   जनयन्त   रेभा: ।
मन्योर्मनसःशरव्या3 जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान्॥13॥

प्रतिवाद परस्पर करें पुरुष जब तुम्हीं उन्हें सत्पथ बतलाना ।
नीति- नेम की बात सिखाना जीवन की शैली समझाना ॥13॥

9750
परा शृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि ।
परार्चिषा मूरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचानः॥14॥

अरजकता यदि राज करेगी जनता निरीह पिस जाएगी ।
सिंहासन पर जब सज्जन बैठे तब ही जनता मुस्काएगी॥14॥

9751
पराद्य  देवा  वृजिनं  शृणन्तु  प्रत्यगेनं  शपथा  यन्तु  तृष्टा: ।
वाचास्तेनं शरव ऋच्छन्तु मर्मन्विश्वस्यैतु प्रसितिं यातुधानः॥15॥

दुष्ट - दमन  करते  रहना  प्रभु  सज्जन  को  सुख देते रहना ।
भटके मानुष को राह दिखाना तुम ही उसकी पीडा हरना ॥15॥

9752
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः ।
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च॥16॥

अकारण जो हिंसा करते हैं जो गो-धन की हत्या करते हैं ।
इन लोगों को दण्डित करना जो गाय को भूखी रखते हैं॥16॥

9753
संवत्सरीणं पय उस्त्रियायासस्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्षः।
पीयूषमग्ने यतमस्तितृप्सात्तं प्रयञ्चमर्चिषा विध्य मर्मन्॥17॥

हिंसक  को  गो - धन  मत  देना उसको शुभ-चंतन दे देना ।
तुम उसको सत्पथ दिखलाना और उसे भी अपना लेना॥17॥

9754
विषं गवां यातुधाना: पिबन्त्वा वृश्च्यन्तामदितये दुरेवा ।
परैनान्देवः सविता ददातु परा भागमोषधीनां जयन्ताम्॥18॥

कर्तव्य-कर्म क्या हो कैसा हो हे प्रभु हमें तुम्हीं समझाना ।
दुर्जन को दण्डित करना फिर सत्य-धर्म उसको बतलाना॥18॥

9755
सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिग्युः।
अनु दह सहमूरान्क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्याया:॥19॥

हे  अग्नि - देवता  हे  बलशाली सदाचार तुम ही सिखलाना ।
भूल से भी कोई भूल न हो अब तुम ही सन्मार्ग दिखाना॥19॥

9756
त्वं  नो  अग्ने  अधरादुदक्तात्त्वं  पश्चादुत  रक्षा  पुरस्तात् ।
प्रति ते ते अ अजरासस्तपिष्ठा अघशंसं शोशुचतो दहन्तु॥20॥

दशों - दिशा  से  हम रक्षित हों भगवन वरद - हस्त रखना ।
प्रभु पावक-पावन प्रणम्य हो मुझ पर सतत कृपा करना॥20॥

9757
पश्चात्पुरस्तादधरादुदक्तात्कविः काव्येन परि पाहि राजन्।
सखे सखायमजरो जरिम्णेSग्ने मर्तॉं अमर्त्यस्त्वं नः॥21॥

सम्पूर्ण  विश्व  की  रक्षा  करना  पृथ्वी  ही है मेरा परिवार ।
दीर्घ-आयु  देना  तुम  प्रभुवर  धरती  है  मेरा घर-बार॥21॥

9758
परि त्वाग्ने पुरं वयं विप्रं सहस्य धीमहि ।
धृषद्वर्णं दिवेदिवे हन्तारं भङ्गुरावताम्॥22॥

हे अग्नि-देव गुण के निधान हो शुभ-शुभ कर्मों का दो दान।
मेरे अवगुन ले लो भगवन करते हैं आज यही आह्वान॥22॥

9759
विषेण  भङ्गुरावतः  प्रति  ष्म  रक्षसो  दह ।
अग्ने तिग्मेन शोचिषा तपुरग्राभिरृष्टिभिः॥23॥

विध्वंसक असुरों को हे भगवन तुम दण्डित करते रहना ।
सज्जन की तुम रक्षा करना सदा-सदा पोषण करना॥23॥

9760
प्रत्यग्ने  मिथुना  दह  यातुधाना  किमीदिना ।
सं त्वा शिशामि जागृह्यदब्धं विप्र मन्मभिः॥24॥

नर- नारी  दोनों  समान  हैं आपस  का  मत-भेद भगायें ।
वे एक-दूजे के पूरक हैं मिल-जुल कर कर्तव्य निभायें॥24॥

9761
प्रत्यग्ने  हरसा  हरः शृणीहि  विश्वतः प्रति ।
यातुधानस्य रक्षसो बलं वि रुज वीर्यम्॥25॥

पर - पीडा  में  जो  रत  रहते  उनको  है  सत्पथ  पर  लाना ।
जीवन परहित हेतु मिला है यही सत्य सबको समझाना॥25॥              
                 

Tuesday, 17 December 2013

सूक्त - 88

[ऋषि-मूर्धन्वान् आङ्गिरस । देवता- सूर्य-वैश्वानर अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9762
हविष्पान्तमजरं   स्वर्विदि   दिविस्पृश्याहुतं   जुष्टमग्नौ ।
तस्य  भर्मणे भुवनाय देवा धर्मणे कं स्वधया पप्रथन्त॥1॥

सूर्यदेव   सुस्वादु   सोमरस   सेवनीय   स्वीकार   करो ।
हे अग्निदेव हम हवि देते हैं खलिहान-धान हर बार भरो॥1॥

9763
गीर्णं   भुवनं   तमसापगूळ्हमाविः  स्वरभवज्जाते  अग्नौ ।
तस्य देवा:पृथिवी द्यौरुतापोSरणयन्नोषधीःसख्ये अस्य॥2॥

पृथ्वी  तम  से  आच्छादित  थी फिर जग ने आकार लिया ।
अग्निदेव  ने  तब  इस  जग  को एक नया उपहार दिया॥2॥

9764
देवेभिर्न्विषितो  यज्ञियेभिरग्निं  स्तोषाण्यजरं  बृहन्तम् ।
यो भानुना पृथिवीं द्यामुतेमामाततान रोदसी अन्तरिक्षम्॥3॥

देव  सदैव  सृजन  करते  हैं  वे  जीव - जगत के पोषक हैं ।
यज्ञ - देवता  अविनाशी  हैं  तेज - पुञ्ज वे ही रक्षक हैं॥3॥

9765
यो होतासीत्प्रथमो देवजुष्टो यं समाञ्जन्नाज्येना वृणाना:।
स पतत्रीत्वरं स्था जगद्यच्छ्वात्रमग्निरकृणोज्जातवेदा:॥4॥

शुभ - विचार शुभ - शुभ भावों से यज्ञ - अर्चना जब होती है ।
परिणाम सभी सुखकर होते हैं अभीष्ट-सिध्दि तब होती है॥4॥

9766
यज्जातवेदो  भुवनस्य  मूर्धन्नतिष्ठो  अग्ने  सह  रोचनेन ।
तं त्वाहेम मतिभिर्गीर्भिरुक्थैःस यज्ञियो अभवो रोदसिप्रा:॥5॥

हे अग्निदेव हे अविनाशी तुम वरद-हस्त हम पर रखना ।
मन - वाणी की ओज बढाना बुध्दि प्रखर करते रहना॥5॥

9767
मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्निस्ततः सूर्यो जायते प्रातरुद्यन् ।
मायामू तु यज्ञियानामेतामपो यत्तूर्णिश्चरति प्रजानन्॥6॥

अग्नि-देवता रात्रि-काल में मस्तक पर निवास करता है ।
प्रातः सूर्य--रूप में खिलता फिर नभ में स्थिर रहता है॥6॥

9768
दृशेन्यो यो महिना समिध्दोSरोचत दिवियोनिर्विबभावा ।
तस्मिन्नग्नौ सूक्तवाकेन देवा हविर्विश्व आजुहवुस्तनूपा:॥7॥

अग्नि - देवता  दर्शनीय  हैं  आलोक - वान  तेजस्वी  हैं ।
विद्वत् - जन हवि अर्पित करते वे अविनाशी ओजस्वी हैं॥7॥

9769
सूक्तवाकं प्रथममादिदग्निमादिध्दविरजनयन्त देवा: ।
स एषा यज्ञो अभवत्तनूपास्तं द्यौर्वेद तं पृथिवी तमापः॥8॥

वाक् - रूप  में  सूक्त  बने  हैं  इनकी  अद्भुत  महिमा  है।
उच्चारण से बल बढता है ज्ञान-गम्य इसकी गरिमा है॥8॥

9770
यं देवासोSजनयन्ताग्निं यस्मिन्नाजुहवुर्भुवनानि विश्वा।
सो अर्चिषा पृथिवीं द्यामुतेमामृजूयमानो अतपन्महित्वा॥9॥

हे अग्निदेव आलोक-प्रदाता जिससे जग में जीवन जगता है।
पावक - पावन से पृथ्वी पर प्राणी पग-पग पर पलता है ॥9॥

9771
स्तोमेन हि दिवि देवासो अग्निमजीजनञ्छक्तिभी रोदसिप्राम्।
तमू अकृण्वन् त्रेधा भुवे कं  स ओषधीः पचति विश्वरूपा ॥10॥

सर्व  व्याप्त  हैं  अग्नि - देवता  वनस्पतियॉं  देते  अनुकूल ।
औषधियॉं हैं भॉंति - भॉंति की सुखकर जीवन का है मूल॥10॥

9772
यदेदेनमदधुर्यज्ञियासो     दिवि     देवा:     सूर्यमादितेयम् ।
यदा चरिष्णू मिथुनावभूतामादित्प्रापश्यनन्भुवनानि विश्वा॥11॥

जीव-जगत की इस रचना में पावक का है पावन - धाम ।
इस जगती के पालक हैं वे हमको देते हैं धन-धान ॥11॥

9773
विश्वस्मा अग्निं भुवनाय देवा वैश्वानरं केतुमह्नामकृण्वन्।
आ यस्ततानोषसो विभातीरपो ऊर्णोति तमो अर्चिषा यन्॥12॥

अग्नि - देवता  तमस  मिटाते  ज्ञान - आलोक  बढाते  हैं ।
जग का कल्याण वही करते  हैं गन्तव्य वही दिखलाते हैं॥12॥

9774
वैश्वानरं कवयो यज्ञियासोSग्निं देवा अजनयन्नजुर्यम् ।
नक्षत्रं प्रत्नममिनच्चरिष्णु यक्षस्याध्यक्षं तविषं बृहन्तम्॥13॥

अग्नि - देव  अति  तेजस्वी  हैं  अति - अद्भुत है उनका रूप ।
नभ  में  नित  स्थिर  रहते  हैं  दर्शनीय  दिखते  अनूप॥13॥

9775
वैश्वानरं  विश्वहा  दीदिवासं  मन्त्रैरग्निं  कविमच्छा  वदामः ।
यो  महिम्ना  परिबभूवोर्वी  उतावस्तादुत  देवः परस्तात्॥14॥

हे  अग्निदेव तुम ही प्रणम्य हो जग को आलोकित करते हो ।
तुमसे ही चूल्हा जलता है भोजन में स्वाद तुम्हीं भरते हो॥14॥

9776
द्वे   स्त्रुती   अशृणवं   पितृणामहं   देवानामुत   मर्त्यानाम् ।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च॥15॥

पितर   हमारे  देव  सदृश  हैं  वे  हैं   धरती   के   भगवान ।
श्रुतियों ने भी यही कहा है मातु - पिता  हैं  देव- समान॥15॥

9777
द्वे  समीची  बिभृतश्चरन्तं  शीर्षतो  जातं  मनसा  विमृष्टम् ।
स प्रत्यङ्विश्वा भुवनानि तस्थावप्रयुच्छन्तरणिर्भ्राजमानः॥16॥

अग्निदेव की गरिमा अद्भुत इस प्रसंग को सभी जानते ।
देदीप्यमान हैं अग्निदेवता उनकी महिमा सभी मानते॥16॥

9778
यत्रा  वदेते  अवरः  परश्च  यज्ञन्योः  कतरो  नौ  वि  वेद ।
आ शेकुरित्सधमादं सखायो नक्षन्त यज्ञं क इदं वि वोचत्॥17॥

पावक - पवन  परस्पर  पाते  हम  दोनों  हैं  एक  समान ।
हम दोनों का दायित्व बराबर यह है हम दोनों को भान॥17॥

9779
कत्यग्नयः  कति  सूर्यासः  कत्युषासः  कत्यु  स्विदापः ।
नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम्॥18॥

मेरी  विनम्र  जिज्ञासा  यह  है  पावक के हैं कितने प्रकार ।
प्रश्न नहीं है यह स्पर्धा का उत्सुकता का है यह विचार॥18॥

9780
यावन्मात्रमुषसो  न  प्रतीकं  सुपर्ण्यो 3वसते  मातरिश्वः ।
तावद्दधात्युप  यज्ञमायन्ब्राह्मणो होतुरवरो निषीदन् ॥19॥

स्थूल - रूप  में  अग्नि - देव  के  तीन  भेद  पाये  जाते हैं ।
जठरानल  बडवानल और  दावानल  ये  कहलाते  हैं ॥19॥