[ऋषि- स्यूमरश्मि भार्गव । देवता- मरुद्गण । छन्द- त्रिष्टुप् - जगती ।]
9609
अभ्रपुषो न वाचा प्रुषा वसु हविष्मन्तो न यज्ञा विजानुषः ।
सुमारुतं न ब्रह्माणमर्हसे गणमस्तोष्येषां न शोभसे ॥1॥
वेदज्ञ-सदृश हैं सभी मरुद्गण रिमझिम-फुहार सम भाते हैं ।
वाणी का आभूषण देते हैं अन्न - धान देकर जाते हैं ॥1॥
9610
श्रिये मर्यासो अर्ञ्जींरकृण्वत सुमारुतं न पूर्वीरति क्षपः ।
दिवस्पुत्रास एता न येतिर आदित्यासस्ते अक्रा न वावृधुः॥2॥
ये सुख-साधन हमको देते हैं कोई प्रतिकार नहीं कर सकता ।
गति-शील स्वतः ही हो जाते हैं छोटे हैं पर है अद्भुत क्षमता॥2॥
9611
प्र ये दिवः पृथिव्या न बर्हणा त्मना रिरिच्रे अभ्रान्न सूर्यः ।
पाजस्वन्तो न वीरा:पनस्यवो रिशादसो न मर्या अभिद्यवः॥3॥
अति - समर्थ हैं यही मरुद्गण ये अद्वितीय बल - शाली हैं ।
दुष्टों का दमन वही करते हैं यश-शाली वैभव-शाली हैं ॥3॥
9612
युष्माकं बुध्ने अपां न यामनि विथुर्यति न मही श्रथर्यति ।
विश्वप्सुरर्यज्ञो अर्वागयं सु वःप्रयस्वन्तो न सत्राच आ गत॥4॥
जब जल-प्रवाह सम बढते हैं तब पृथ्वी प्रसन्न हो जाती है ।
जन-जन को हवि-भोग बॉटते और संघ-शक्ति मुस्काती है॥4॥
9613
यूयं धूर्षु प्रयुजो न रश्मिभिर्ज्योतिष्मन्तो न भासा व्युष्टिषु ।
श्येनासो न स्वयशसो रिशादसःप्रवासो न प्रसितासःपरिप्रुषः॥5॥
सूरज-समान तुम सब तेजस्वी दौंरी-फंदाय सम चलते हो ।
सोच सतत सुखकर रखते हो पथिक-समान भ्रमण करते हो॥5॥
9614
प्र यद्वहध्वे मरुतः पराकाद्यूयं महः संवरणस्य वस्वः ।
विदानासो वसवो राध्यस्याराच्चिद् द्वेषः सनुतर्युयोत॥6॥
अत्यन्त दूर से नभ से भू-पर मरुत जब आकस्मिक आते हैं।
तब श्रेष्ठ अन्न-फल-शाक हेतु रिमझिम फुहार बरसाते हैं।॥6॥
9615
य उदृचि यज्ञे अध्वरेष्ठा मरुद्भ्यो न मानुषो ददाशत् ।
रेवत्स वयो दधते सुवीरं स देवानामपि गोपीथे अस्तु॥7॥
अनुष्ठान के बाद मनुज भी मरुत - सदृश ही देते दान ।
लंबी - उमर वही पाते हैं वह ही पाते हैं धन - धान ॥7॥
9616
ते हि यज्ञेषु यज्ञियास ऊमा आदित्येन नाम्ना शम्भविष्ठा: ।
ते नोSवन्तु रथतूर्मनीषां महश्च यामन्नध्वरे चकाना: ॥8॥
हे प्रभु रक्षा करो हमारी मन-मति की बढ जाए महिमा ।
जल्दी मत जाओ रुको तनिक मैं भी तो पा लूँ तेरी गरिमा॥8॥
9609
अभ्रपुषो न वाचा प्रुषा वसु हविष्मन्तो न यज्ञा विजानुषः ।
सुमारुतं न ब्रह्माणमर्हसे गणमस्तोष्येषां न शोभसे ॥1॥
वेदज्ञ-सदृश हैं सभी मरुद्गण रिमझिम-फुहार सम भाते हैं ।
वाणी का आभूषण देते हैं अन्न - धान देकर जाते हैं ॥1॥
9610
श्रिये मर्यासो अर्ञ्जींरकृण्वत सुमारुतं न पूर्वीरति क्षपः ।
दिवस्पुत्रास एता न येतिर आदित्यासस्ते अक्रा न वावृधुः॥2॥
ये सुख-साधन हमको देते हैं कोई प्रतिकार नहीं कर सकता ।
गति-शील स्वतः ही हो जाते हैं छोटे हैं पर है अद्भुत क्षमता॥2॥
9611
प्र ये दिवः पृथिव्या न बर्हणा त्मना रिरिच्रे अभ्रान्न सूर्यः ।
पाजस्वन्तो न वीरा:पनस्यवो रिशादसो न मर्या अभिद्यवः॥3॥
अति - समर्थ हैं यही मरुद्गण ये अद्वितीय बल - शाली हैं ।
दुष्टों का दमन वही करते हैं यश-शाली वैभव-शाली हैं ॥3॥
9612
युष्माकं बुध्ने अपां न यामनि विथुर्यति न मही श्रथर्यति ।
विश्वप्सुरर्यज्ञो अर्वागयं सु वःप्रयस्वन्तो न सत्राच आ गत॥4॥
जब जल-प्रवाह सम बढते हैं तब पृथ्वी प्रसन्न हो जाती है ।
जन-जन को हवि-भोग बॉटते और संघ-शक्ति मुस्काती है॥4॥
9613
यूयं धूर्षु प्रयुजो न रश्मिभिर्ज्योतिष्मन्तो न भासा व्युष्टिषु ।
श्येनासो न स्वयशसो रिशादसःप्रवासो न प्रसितासःपरिप्रुषः॥5॥
सूरज-समान तुम सब तेजस्वी दौंरी-फंदाय सम चलते हो ।
सोच सतत सुखकर रखते हो पथिक-समान भ्रमण करते हो॥5॥
9614
प्र यद्वहध्वे मरुतः पराकाद्यूयं महः संवरणस्य वस्वः ।
विदानासो वसवो राध्यस्याराच्चिद् द्वेषः सनुतर्युयोत॥6॥
अत्यन्त दूर से नभ से भू-पर मरुत जब आकस्मिक आते हैं।
तब श्रेष्ठ अन्न-फल-शाक हेतु रिमझिम फुहार बरसाते हैं।॥6॥
9615
य उदृचि यज्ञे अध्वरेष्ठा मरुद्भ्यो न मानुषो ददाशत् ।
रेवत्स वयो दधते सुवीरं स देवानामपि गोपीथे अस्तु॥7॥
अनुष्ठान के बाद मनुज भी मरुत - सदृश ही देते दान ।
लंबी - उमर वही पाते हैं वह ही पाते हैं धन - धान ॥7॥
9616
ते हि यज्ञेषु यज्ञियास ऊमा आदित्येन नाम्ना शम्भविष्ठा: ।
ते नोSवन्तु रथतूर्मनीषां महश्च यामन्नध्वरे चकाना: ॥8॥
हे प्रभु रक्षा करो हमारी मन-मति की बढ जाए महिमा ।
जल्दी मत जाओ रुको तनिक मैं भी तो पा लूँ तेरी गरिमा॥8॥
ज्ञान सागर के मोती...
ReplyDeleteअति - समर्थ हैं यही मरुद्गण ये अद्वितीय बल - शाली हैं ।
ReplyDeleteदुष्टों का दमन वही करते हैं यश-शाली वैभव-शाली हैं ॥3॥
हमें भी बल और शक्ति का वरदान मिले...