Sunday, 15 December 2013

सूक्त - 90

[ऋषि- नारायण । देवता- पुरुष । छन्द- अनुष्टुप् -  -त्रिष्टुप् ।]

9799
सहस्त्रसशीर्षा   पुरुषः   शस्त्राक्षः   सहस्त्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥1॥

अति विराट  है  वह परमेश्वर हजार चरण व हजार नयन ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा उस विराट को करें नमन॥1॥

9800
पुरुष   एवेदं   सर्वं   यद्भूतं   यच्च  भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥

पृथ्वी प्रकृति - पुरुष प्रेरित है वह विराट सब ओर समाया ।
वही मोक्ष का भी है स्वामी वह सच्चिदानन्द मुस्काया॥2॥

9801
एतावानस्य     महिमातो     ज्यायॉंश्च     पूरुषः ।
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥

उसी  पुरुष  की  महिमा  भारी  पर परमेश्वर है अति महान ।
जीव-जगत के उस स्वामी की सागर करता गौरव-गान॥3॥

9802
त्रिपादूर्ध्व  उदैत्पुरुषः  पादोSस्येहाभवत्पुनः।
ततो विप्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥

वह  परमेश्वर  अविनाशी  है  वह  ही  चेतन  वही  अचेतन ।
अन्न ग्रहण करते हैं चेतन तरु - लता ही तो हैं अचेतन ॥4॥

9803
तस्माद्विराळजायत    विराजो    अधिपूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥

सूक्ष्म - जगत  की  रचना  का  आधार  वही  है  परमात्मा ।
भूमि-पिण्ड फिर प्राणी प्रकटे अद्भुत होगा वह परमात्मा॥5॥

9804
यत्पुरुषेण        हविषा        देवा       यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरध्दविः॥6॥

हमने उसी विराट-पुरुष की नेति-नेति कह-कर व्याख्या की ।
ऋतुयें  भी  उसकी   साक्षी हैं जिसने हविषा अर्पित की है॥6॥

9805
तं  यज्ञं  बर्हिषि  प्रौक्षन्पुरुषं  जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥7॥

देवताओं और ऋषियों  ने  फिर  परमेश्वर  से  प्रेरित  होकर ।
दिव्य-शक्तियॉं विश्व-सृजन के हेतु पधारी पावन भू - पर ॥7॥

9806
तस्माद्यग़ज्ञात्सर्वहुतः   सम्भृतं    पृषदाज्यम् ।
पशून्तॉंश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये॥8॥

विधि ने विविध विधाओं में फिर भॉंति - भॉंति की रचना की ।
जग-पोषण के सार-तत्व की अन्न और जल की रचना की॥8॥

9807
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत   ऋचः  सामानि   जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥9॥

जगत  योजना  के  अंतर्गत  चार - वेद  फिर  हुए  उपस्थित ।
ऋक्  यजु  साम  अथर्व  पधारे  क्रमशः होते रहे वे प्रस्तुत॥9॥

9808
तस्मादश्वा     अजायन्त     ये     के     चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः॥10॥

जग - निमित्त  पशु - धन  आए  गोमाता  आई  देने  गोरस ।
तरह-तरह के पशु-धन आए जीवन में बरस गया सब रस॥10॥

9809
यत्पुरुषं     व्यदधुः     कतिधा     व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥11॥

ज्ञानी - जन  उस  परमेश्वर  की  उत्तम  व्याख्या  करते   हैं ।
जन -सामान्य सुना करते हैं महा-पुरुष आख्या कहते हैं॥11॥

9810
ब्राह्मणोSस्य  मुखमासीद्  बाहू  राजन्यः  कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥12॥

पथ पर पहुँचा पथिक पुरातन श्रम  का  होता रहा विभाजन ।
गुण-धर्म बना फिर मापदण्ड उस अनुरूप हुआ संपादन॥12॥

9811
चन्द्रमा  मनसो  जातश्चक्षोः  सूर्यो  अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निसश्च प्राणाद्वायुरजायत॥13॥

मन - सोम  नयन - सूरज  से  और  प्राण  से  मिला  पवन ।
मुख से पावक-प्रकट हो गया महक उठा जीवन-उपवन॥13॥

9812
नाभ्या   आसीदन्तररिक्षं   शीर्ष्णो   द्यौः  समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकॉं अकल्पयन्॥14॥

नाभि - प्रदेश है अन्तरिक्ष का मस्तक द्युलोक का द्योतक है ।
चरण भूमि का है प्रतीक और कर्ण दिशा- परिचायक है॥14॥

9813
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृता: ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम्॥15॥

अति - निष्ठा  से  बुना  गया  था  इस जगती का ताना-बाना ।
देश-काल और परिस्थिति में शुभ चिंतन का था पैमाना॥15॥

9814
यज्ञेन  यज्ञमयजन्त  देवास्तानि  धर्माणि  प्रथमान्यासन्  ।
ते ह नाकं महिमानःसचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा:॥16॥

दिव्य - शक्तियॉं विविध - विधा में करती रहती हैं संयोजन ।
आस्था-श्रध्दा जब जुडती है पूरा होता है तभी प्रयोजन॥16॥ 


     

 
 

3 comments:

  1. सूक्तों से परमात्मा के विराट और सूक्ष्म रूप का दर्शन

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  2. अति - निष्ठा से बुना गया था इस जगती का ताना-बाना ।
    देश-काल और परिस्थिति में शुभ चिंतन का था पैमाना॥15॥
    आज तो और भी आवश्यकता है इस शुभ चिन्तन की..आभार !

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  3. सुन्दर अनुवाद, प्रथम शब्दों का, प्रथम उद्गारों का।

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