[ऋषि- नारायण । देवता- पुरुष । छन्द- अनुष्टुप् - -त्रिष्टुप् ।]
9799
सहस्त्रसशीर्षा पुरुषः शस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥1॥
अति विराट है वह परमेश्वर हजार चरण व हजार नयन ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा उस विराट को करें नमन॥1॥
9800
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥
पृथ्वी प्रकृति - पुरुष प्रेरित है वह विराट सब ओर समाया ।
वही मोक्ष का भी है स्वामी वह सच्चिदानन्द मुस्काया॥2॥
9801
एतावानस्य महिमातो ज्यायॉंश्च पूरुषः ।
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥
उसी पुरुष की महिमा भारी पर परमेश्वर है अति महान ।
जीव-जगत के उस स्वामी की सागर करता गौरव-गान॥3॥
9802
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोSस्येहाभवत्पुनः।
ततो विप्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥
वह परमेश्वर अविनाशी है वह ही चेतन वही अचेतन ।
अन्न ग्रहण करते हैं चेतन तरु - लता ही तो हैं अचेतन ॥4॥
9803
तस्माद्विराळजायत विराजो अधिपूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
सूक्ष्म - जगत की रचना का आधार वही है परमात्मा ।
भूमि-पिण्ड फिर प्राणी प्रकटे अद्भुत होगा वह परमात्मा॥5॥
9804
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरध्दविः॥6॥
हमने उसी विराट-पुरुष की नेति-नेति कह-कर व्याख्या की ।
ऋतुयें भी उसकी साक्षी हैं जिसने हविषा अर्पित की है॥6॥
9805
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥7॥
देवताओं और ऋषियों ने फिर परमेश्वर से प्रेरित होकर ।
दिव्य-शक्तियॉं विश्व-सृजन के हेतु पधारी पावन भू - पर ॥7॥
9806
तस्माद्यग़ज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून्तॉंश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये॥8॥
विधि ने विविध विधाओं में फिर भॉंति - भॉंति की रचना की ।
जग-पोषण के सार-तत्व की अन्न और जल की रचना की॥8॥
9807
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥9॥
जगत योजना के अंतर्गत चार - वेद फिर हुए उपस्थित ।
ऋक् यजु साम अथर्व पधारे क्रमशः होते रहे वे प्रस्तुत॥9॥
9808
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः॥10॥
जग - निमित्त पशु - धन आए गोमाता आई देने गोरस ।
तरह-तरह के पशु-धन आए जीवन में बरस गया सब रस॥10॥
9809
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥11॥
ज्ञानी - जन उस परमेश्वर की उत्तम व्याख्या करते हैं ।
जन -सामान्य सुना करते हैं महा-पुरुष आख्या कहते हैं॥11॥
9810
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥12॥
पथ पर पहुँचा पथिक पुरातन श्रम का होता रहा विभाजन ।
गुण-धर्म बना फिर मापदण्ड उस अनुरूप हुआ संपादन॥12॥
9811
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निसश्च प्राणाद्वायुरजायत॥13॥
मन - सोम नयन - सूरज से और प्राण से मिला पवन ।
मुख से पावक-प्रकट हो गया महक उठा जीवन-उपवन॥13॥
9812
नाभ्या आसीदन्तररिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकॉं अकल्पयन्॥14॥
नाभि - प्रदेश है अन्तरिक्ष का मस्तक द्युलोक का द्योतक है ।
चरण भूमि का है प्रतीक और कर्ण दिशा- परिचायक है॥14॥
9813
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृता: ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम्॥15॥
अति - निष्ठा से बुना गया था इस जगती का ताना-बाना ।
देश-काल और परिस्थिति में शुभ चिंतन का था पैमाना॥15॥
9814
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानःसचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा:॥16॥
दिव्य - शक्तियॉं विविध - विधा में करती रहती हैं संयोजन ।
आस्था-श्रध्दा जब जुडती है पूरा होता है तभी प्रयोजन॥16॥
9799
सहस्त्रसशीर्षा पुरुषः शस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥1॥
अति विराट है वह परमेश्वर हजार चरण व हजार नयन ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा उस विराट को करें नमन॥1॥
9800
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥
पृथ्वी प्रकृति - पुरुष प्रेरित है वह विराट सब ओर समाया ।
वही मोक्ष का भी है स्वामी वह सच्चिदानन्द मुस्काया॥2॥
9801
एतावानस्य महिमातो ज्यायॉंश्च पूरुषः ।
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥
उसी पुरुष की महिमा भारी पर परमेश्वर है अति महान ।
जीव-जगत के उस स्वामी की सागर करता गौरव-गान॥3॥
9802
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोSस्येहाभवत्पुनः।
ततो विप्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥
वह परमेश्वर अविनाशी है वह ही चेतन वही अचेतन ।
अन्न ग्रहण करते हैं चेतन तरु - लता ही तो हैं अचेतन ॥4॥
9803
तस्माद्विराळजायत विराजो अधिपूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
सूक्ष्म - जगत की रचना का आधार वही है परमात्मा ।
भूमि-पिण्ड फिर प्राणी प्रकटे अद्भुत होगा वह परमात्मा॥5॥
9804
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरध्दविः॥6॥
हमने उसी विराट-पुरुष की नेति-नेति कह-कर व्याख्या की ।
ऋतुयें भी उसकी साक्षी हैं जिसने हविषा अर्पित की है॥6॥
9805
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥7॥
देवताओं और ऋषियों ने फिर परमेश्वर से प्रेरित होकर ।
दिव्य-शक्तियॉं विश्व-सृजन के हेतु पधारी पावन भू - पर ॥7॥
9806
तस्माद्यग़ज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून्तॉंश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये॥8॥
विधि ने विविध विधाओं में फिर भॉंति - भॉंति की रचना की ।
जग-पोषण के सार-तत्व की अन्न और जल की रचना की॥8॥
9807
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥9॥
जगत योजना के अंतर्गत चार - वेद फिर हुए उपस्थित ।
ऋक् यजु साम अथर्व पधारे क्रमशः होते रहे वे प्रस्तुत॥9॥
9808
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः॥10॥
जग - निमित्त पशु - धन आए गोमाता आई देने गोरस ।
तरह-तरह के पशु-धन आए जीवन में बरस गया सब रस॥10॥
9809
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥11॥
ज्ञानी - जन उस परमेश्वर की उत्तम व्याख्या करते हैं ।
जन -सामान्य सुना करते हैं महा-पुरुष आख्या कहते हैं॥11॥
9810
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥12॥
पथ पर पहुँचा पथिक पुरातन श्रम का होता रहा विभाजन ।
गुण-धर्म बना फिर मापदण्ड उस अनुरूप हुआ संपादन॥12॥
9811
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निसश्च प्राणाद्वायुरजायत॥13॥
मन - सोम नयन - सूरज से और प्राण से मिला पवन ।
मुख से पावक-प्रकट हो गया महक उठा जीवन-उपवन॥13॥
9812
नाभ्या आसीदन्तररिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकॉं अकल्पयन्॥14॥
नाभि - प्रदेश है अन्तरिक्ष का मस्तक द्युलोक का द्योतक है ।
चरण भूमि का है प्रतीक और कर्ण दिशा- परिचायक है॥14॥
9813
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृता: ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम्॥15॥
अति - निष्ठा से बुना गया था इस जगती का ताना-बाना ।
देश-काल और परिस्थिति में शुभ चिंतन का था पैमाना॥15॥
9814
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानःसचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा:॥16॥
दिव्य - शक्तियॉं विविध - विधा में करती रहती हैं संयोजन ।
आस्था-श्रध्दा जब जुडती है पूरा होता है तभी प्रयोजन॥16॥
सूक्तों से परमात्मा के विराट और सूक्ष्म रूप का दर्शन
ReplyDeleteअति - निष्ठा से बुना गया था इस जगती का ताना-बाना ।
ReplyDeleteदेश-काल और परिस्थिति में शुभ चिंतन का था पैमाना॥15॥
आज तो और भी आवश्यकता है इस शुभ चिन्तन की..आभार !
सुन्दर अनुवाद, प्रथम शब्दों का, प्रथम उद्गारों का।
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