[ऋषि- अग्नि वैश्वानर । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9632
अग्निः सप्तिं वाजंभर ददात्यग्निर्वीरं श्रुत्यं कर्मनिःष्ठाम् ।
अग्नी रोदसी वि चरत्समञ्जन्नग्निर्नारीं वीरकुक्षिं पुरन्धिम्॥1॥
पावन-पावक-प्रवाह-पूर्ण है वह ही देते हैं धन-धान ।
वह सुशील सन्तति देते हैं वह ही देते हैं प्राण-अपान ॥1॥
9633
अग्नेरप्नसःसमिदस्तु भद्राग्निर्मही रोदसी आ विवेश ।
अग्निरेकं चोदयत्समत्स्वग्निर्वृत्राणि दयते पुरूणि॥2॥
सर्वत्र व्याप्त हैं अग्निदेवता रिपु-दल से रक्षा करते हैं ।
आत्मीय-सहायक और सखा हैं जीवन की बाधायें हरते हैं॥2॥
9634
अग्निर्ह त्यं जरतः कर्णमावाग्निरद्भयो निरदहज्जरूथम् ।
अग्निरत्रिं घर्म उरुष्यदन्तरग्निर्नृमेधं प्रजयासृजत्सम्॥3॥
वे तन-मन की रक्षा करते हैं वाणी में सम्प्रेषण भरते हैं ।
अन्न - धान वे ही देते हैं वे हम सबका दुख हरते हैं॥3॥
9635
अग्निर्दाद् द्रविणं वीरपेशा अग्निरृषिं यः सहस्त्रा सनोति
अग्निर्दिवि हव्यमा ततानाग्नेर्धामानि विभृता पुरुत्रा॥4॥
जलती आग ही पावक-मुख है उससे हवि-भोग ग्रहण करते हैं।
यह हवि-बल कण-कण में भरता सब यह सुख अनुभव करते हैं॥4॥
9636
अग्निमुक्थैरृषयो वि ह्वयन्तेSग्निं नरो यामनि बाधितासः ।
अग्निं वयो अन्तरिक्षे पतन्तोSग्निः सहस्त्रा परि याति गोनाम्॥5॥
पूजनीय है पावन - पावक प्रेम से प्रभु - पर पतियाते हैं ।
जल के माध्यम से वे नभ जाते मेघ वाक्-सँग बतियाते हैं॥5॥
9637
अग्निं विश ईळते मानुषीर्या अग्निं मनुषो नहुषो वि जाता: ।
अग्निर्गान्धर्वीं पथ्यामृतस्याग्नेर्गव्यूतिर्घृत आ निषत्ता।॥6॥
अग्नि - देवता अति - अद्भुत हैं ज्ञानी-जन पूजन करते हैं ।
आओ अग्नि - देव को जानें वे यश-धन देते रहते हैं ॥6॥
9638
अग्नये ब्रह्म ऋभवस्ततक्षुरग्निं महामवोचामा सुवृक्तिम् ।
अग्ने प्राव जरितारं यविष्ठाग्ने महि द्रविणमा यजस्व ॥7॥
अग्नि - देव हैं पूज्य हमारे आओ हम उनकी महिमा गायें ।
हे प्रभु सबकी रक्षा करना हम तेरे और निकट आयें ॥7॥
9632
अग्निः सप्तिं वाजंभर ददात्यग्निर्वीरं श्रुत्यं कर्मनिःष्ठाम् ।
अग्नी रोदसी वि चरत्समञ्जन्नग्निर्नारीं वीरकुक्षिं पुरन्धिम्॥1॥
पावन-पावक-प्रवाह-पूर्ण है वह ही देते हैं धन-धान ।
वह सुशील सन्तति देते हैं वह ही देते हैं प्राण-अपान ॥1॥
9633
अग्नेरप्नसःसमिदस्तु भद्राग्निर्मही रोदसी आ विवेश ।
अग्निरेकं चोदयत्समत्स्वग्निर्वृत्राणि दयते पुरूणि॥2॥
सर्वत्र व्याप्त हैं अग्निदेवता रिपु-दल से रक्षा करते हैं ।
आत्मीय-सहायक और सखा हैं जीवन की बाधायें हरते हैं॥2॥
9634
अग्निर्ह त्यं जरतः कर्णमावाग्निरद्भयो निरदहज्जरूथम् ।
अग्निरत्रिं घर्म उरुष्यदन्तरग्निर्नृमेधं प्रजयासृजत्सम्॥3॥
वे तन-मन की रक्षा करते हैं वाणी में सम्प्रेषण भरते हैं ।
अन्न - धान वे ही देते हैं वे हम सबका दुख हरते हैं॥3॥
9635
अग्निर्दाद् द्रविणं वीरपेशा अग्निरृषिं यः सहस्त्रा सनोति
अग्निर्दिवि हव्यमा ततानाग्नेर्धामानि विभृता पुरुत्रा॥4॥
जलती आग ही पावक-मुख है उससे हवि-भोग ग्रहण करते हैं।
यह हवि-बल कण-कण में भरता सब यह सुख अनुभव करते हैं॥4॥
9636
अग्निमुक्थैरृषयो वि ह्वयन्तेSग्निं नरो यामनि बाधितासः ।
अग्निं वयो अन्तरिक्षे पतन्तोSग्निः सहस्त्रा परि याति गोनाम्॥5॥
पूजनीय है पावन - पावक प्रेम से प्रभु - पर पतियाते हैं ।
जल के माध्यम से वे नभ जाते मेघ वाक्-सँग बतियाते हैं॥5॥
9637
अग्निं विश ईळते मानुषीर्या अग्निं मनुषो नहुषो वि जाता: ।
अग्निर्गान्धर्वीं पथ्यामृतस्याग्नेर्गव्यूतिर्घृत आ निषत्ता।॥6॥
अग्नि - देवता अति - अद्भुत हैं ज्ञानी-जन पूजन करते हैं ।
आओ अग्नि - देव को जानें वे यश-धन देते रहते हैं ॥6॥
9638
अग्नये ब्रह्म ऋभवस्ततक्षुरग्निं महामवोचामा सुवृक्तिम् ।
अग्ने प्राव जरितारं यविष्ठाग्ने महि द्रविणमा यजस्व ॥7॥
अग्नि - देव हैं पूज्य हमारे आओ हम उनकी महिमा गायें ।
हे प्रभु सबकी रक्षा करना हम तेरे और निकट आयें ॥7॥
वे तन-मन की रक्षा करते हैं वाणी में सम्प्रेषण भरते हैं ।
ReplyDeleteअन्न - धान वे ही देते हैं वे हम सबका दुख हरते हैं॥3॥
पंच तत्वों से ही सारा संसार बना है..
अनल की प्रखरता और महत्ता का दर्शन
ReplyDelete