Thursday, 26 December 2013

सूक्त - 80

[ऋषि- अग्नि वैश्वानर । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9632
अग्निः सप्तिं वाजंभर ददात्यग्निर्वीरं श्रुत्यं कर्मनिःष्ठाम् ।
अग्नी रोदसी वि चरत्समञ्जन्नग्निर्नारीं वीरकुक्षिं पुरन्धिम्॥1॥

पावन-पावक-प्रवाह-पूर्ण है वह  ही  देते  हैं  धन-धान ।
वह सुशील सन्तति देते हैं वह ही देते हैं प्राण-अपान ॥1॥

9633
अग्नेरप्नसःसमिदस्तु भद्राग्निर्मही रोदसी आ विवेश ।
अग्निरेकं चोदयत्समत्स्वग्निर्वृत्राणि दयते पुरूणि॥2॥

सर्वत्र व्याप्त हैं अग्निदेवता रिपु-दल से रक्षा करते हैं ।
आत्मीय-सहायक और सखा हैं जीवन की बाधायें हरते हैं॥2॥

9634
अग्निर्ह  त्यं जरतः कर्णमावाग्निरद्भयो  निरदहज्जरूथम् ।
अग्निरत्रिं  घर्म उरुष्यदन्तरग्निर्नृमेधं प्रजयासृजत्सम्॥3॥

वे  तन-मन  की  रक्षा  करते  हैं वाणी में सम्प्रेषण भरते हैं ।
अन्न - धान  वे  ही  देते  हैं  वे  हम  सबका दुख हरते हैं॥3॥

9635
अग्निर्दाद्  द्रविणं  वीरपेशा  अग्निरृषिं  यः  सहस्त्रा  सनोति 
अग्निर्दिवि  हव्यमा  ततानाग्नेर्धामानि  विभृता  पुरुत्रा॥4॥

जलती आग ही पावक-मुख है उससे हवि-भोग ग्रहण करते हैं।
यह हवि-बल कण-कण में भरता सब यह सुख अनुभव करते हैं॥4॥

9636
अग्निमुक्थैरृषयो  वि  ह्वयन्तेSग्निं  नरो  यामनि  बाधितासः ।
अग्निं वयो अन्तरिक्षे पतन्तोSग्निः सहस्त्रा परि याति गोनाम्॥5॥

पूजनीय  है  पावन - पावक  प्रेम  से  प्रभु - पर  पतियाते  हैं ।
जल के माध्यम से वे नभ जाते मेघ वाक्-सँग बतियाते हैं॥5॥

9637
अग्निं विश ईळते मानुषीर्या अग्निं मनुषो नहुषो वि जाता: ।
अग्निर्गान्धर्वीं पथ्यामृतस्याग्नेर्गव्यूतिर्घृत आ निषत्ता।॥6॥

अग्नि - देवता  अति - अद्भुत  हैं  ज्ञानी-जन  पूजन करते हैं ।
आओ  अग्नि - देव  को  जानें  वे  यश-धन  देते  रहते हैं ॥6॥

9638
अग्नये  ब्रह्म  ऋभवस्ततक्षुरग्निं  महामवोचामा  सुवृक्तिम् ।
अग्ने  प्राव  जरितारं  यविष्ठाग्ने  महि द्रविणमा यजस्व ॥7॥

अग्नि - देव  हैं  पूज्य हमारे आओ हम उनकी महिमा गायें ।
हे  प्रभु  सबकी  रक्षा  करना  हम  तेरे  और निकट आयें ॥7॥   
       

2 comments:

  1. वे तन-मन की रक्षा करते हैं वाणी में सम्प्रेषण भरते हैं ।
    अन्न - धान वे ही देते हैं वे हम सबका दुख हरते हैं॥3॥
    पंच तत्वों से ही सारा संसार बना है..

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  2. अनल की प्रखरता और महत्ता का दर्शन

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