Monday, 9 December 2013

सूक्त - 96

[ऋषि- सर्वहरि ऐन्द्र । देवता- हरि । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]

9892
प्र ते महे विदथे शंसिषं हरी प्र ते वन्वे वनुषो हर्यतं मदम्।
घृतं न यो हरिभिश्चारु सेचत आ त्वा विशन्तु हरिवर्पसं गिरः॥1॥

आदित्य-देव में आकर्षण है वे सुख-सन्तोष सभी देते हैं ।
वे धरती की प्यास बुझाते रवि-किरणों से ऊष्मा देते हैं॥1॥

9893
हरिं हि योनिमभि ये समस्वरन्हिन्वन्तो हरी दिव्यं यथा सदः।
आ यं पृणन्ति हरिभिरर्न धेनव इन्द्राय शूषं हरिवन्तमर्चत॥2॥

प्राण - ज्योति   हैं   सूर्य - देवता  वे  सबकी   रक्षा   करते   हैं ।
सूर्य - देव  सबके  प्रणम्य हैं हम उन्हें सोम अर्पित करते हैं॥2॥

9894
सो अस्य वज्रो हरितो य आयसो हरिर्निकामो हरिरा गभस्त्यो:।
द्युम्नी सुशिप्रो हरिमन्युसायक इ इंद्रे नि रूपा हरिता मिमिक्षिरे॥3॥

हे  सूर्य - देव  हे  तेजस्वी  तुम  जगती  का  तमस  मिटाओ ।
सभी बलों के केन्द्र तुम्हीं हो हमको सतरंगी धनुष दिखाओ॥3॥

9895
दिवि  न  केतुरधि  धायि  हर्यतो  विव्यचद्वज्रो  हरितो  न रंह्या ।
तुददहिं हरिशिप्रो य आयसः सहस्त्रशोका अ अभवध्दरिम्भरः॥4॥

हे   इन्द्र -  देव   तुम  रक्षा  करना  दुष्टों  से  तुम   हमें   बचाना ।
सुख - संतोष  सभी  को देना तुम सोम - पान करके ही जाना ॥4॥

9896
त्वंत्वमहर्यथा  उपस्तुतः  पूर्वेभिरिन्द्र  हरिकेश  यज्वभिः ।
त्वं हर्यसि तव विश्वमुक्थ्य1मसामि राधो हरिजात हर्यतम्॥5॥

अनुपम  है  आदित्य  हमारा  इनको  करते  हैं  सभी  प्रणाम ।
हवि - भोग  प्रेम  से  ले  लेते  हैं अनगिन हैं इनके आयाम ॥5॥

9897
ता वज्रिणं मन्दिनं स्तोम्यं मद इन्द्रं रथे  वहतो  हर्यता हरी ।
पुरूण्यस्मै सवनानि हर्यत इन्द्राय  सोमा  हरयो  दधन्विरे॥6॥

सूरज   सबके  सुख  के  स्वामी  सभी  देखते   उनकी   राह ।
कब कौन कहॉ क्या-क्या करता सूरज ही  है सबका गवाह॥6॥

9898
अरं  कामाय  हरयो  दधन्विरे  स्थिराय हिन्वन्हरयो हरी तुरा ।
अर्वद्भिर्यो हरिभिर्जोषमीयते सो अस्य कामं हरिवन्तमानशे॥7॥

रवि - रश्मियॉं  बिखर  जाती  हैं  उनमें  अद्भुत  क्षमता होती है ।
वह  ऊष्मा - आलोक  बॉंटती  उसके  मन में ममता होती है॥7॥

9899
हरिष्मशारुर्हरिकेश   आयसस्तुरस्पेये   यो   हरिपा   अवर्धत ।
अर्वद्भिर्यो हरिभिर्वाजिनीवसुरति विश्वा  दुरिता  पारिषध्दरी॥8॥

शीघ्र - वेग - गामी - रवि - किरणें  करती  रहती  हैं जल-पान ।
अन्न - धान  उनसे  मिलता है प्रतिदिन देतीं आरोग्य-दान॥8॥

9900
स्त्रुवेव यस्य हरिणी विपेततु: :शिप्रे वाजाय हरिणी दविध्वतः।
प्र यत्कृते चमसे मर्मृजध्दरी पीत्वा मदस्य हर्यतस्यान्धसः॥9॥

परमेश्वर   की  इस  दुनियॉं  में  सूर्य - चन्द्र  करते  रखवाली । 
मात्र  कर्म  है  हाथ  हमारे  कर्म - योग  ही  है  बल - शाली ॥9॥

9901
उत स्म सद्य हर्यतस्य पस्त्यो3 रत्यो न वाजं हरिवॉं अचिक्रदत्।
मही चिध्दि धिषणाहर्यदोजसा बृहद्वयो दधिषे हर्यतश्चिदा ॥10॥

आलोक - ऊर्जा  सूरज  देते  हैं  जिससे  अन्न - धान  हम पाते ।
अतुत्य सभी का है यह सूरज हम सब उनकी महिमा गाते॥10॥

9902
आ रोदसी हर्यमाणो महित्वा नव्यंनव्यं हर्यसि मन्म नु प्रियम् ।
प्र    पस्त्यमसुर    हर्यतं    गोराविष्कृधि    हरये    सूर्याय ॥11॥

आदित्य - देव  की  छवि  अद्भुत  है  वे  हैं  सुन्दरता  की  खान ।
निशि-दिन  हमें  सुरक्षा  देते  उनकी  महिमा  का हो गान ॥11॥

9903
आ  त्वा  हर्यन्तं  प्रयुजो  जनानां  रथे  वहन्तु  हरिशिप्रमिन्द्र ।
पिबा यथा प्रतिभृतस्य मध्वो हर्यन्यज्ञं सधमादे दशोणिम्॥12॥

रवि - रश्मियॉ  हमें  छू  जातीं  तन-मन  को  प्रेरित  करती  हैं ।
धीरे - धीरे  हवि - रस  पीतीं  हँसती - मुस्काती   रहती  हैं ॥12॥

9904
अपा:   पूर्वेषां   हरिवः  सुतानामथो   इदं   सवनं   केवलं   ते ।
ममध्दि सोमं मधुमन्तमिन्द्र सत्रा  वृषञ्जठर  आ  वृषस्व॥13॥

रसादान  और  रस  प्रदान  से  सुबह - शाम  होती  रहती  है ।
सूर्य  सोम - रस  पीते  नभ  में  सोमानिल-सुगंधि बहती है ॥13॥     
            

3 comments:

  1. शीघ्र - वेग - गामी - रवि - किरणें करती रहती हैं जल-पान ।
    अन्न - धान उनसे मिलता है प्रतिदिन देतीं आरोग्य-दान॥8॥

    बहुत सुंदर..अद्भुत !

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  2. प्राप्त सारे संसाधनों के लिये प्रस्तुत कृतज्ञता।

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