Wednesday, 4 December 2013

सूक्त - 101

 [ऋषि- बुध सौम्य । देवता-विश्वेदेवा । छन्द--त्रिष्टुप् - -गायत्री - बृहती ।]

9964
उद्बुध्यध्वं समनसः सखायः समग्निमिन्ध्वं बहवः सनीळा:।
दधिक्रामग्निमुषसं च देवीमिन्द्रावतोSवसे नि  ह्वये  वः ॥1॥

हे  मित्र  उठो  जागो  और सोचो एकाग्र - चित्त  होकर जानो ।
होकर  अनेक  भी  सँग चलो जीवन-रहस्य को  पहचानो॥1॥

9965
मन्द्रा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वं नावमरित्रपरणीं कृणुध्वम् ।
इष्कृणुध्वमायुधारं कृणुध्वं प्राञ्चं यज्ञं ग्र णयता सखायः॥2॥

श्रेष्ठ - कर्म तुम करो निरंतर शुभ - शुभ चिंतन का मंत्र पढो ।
प्रगति- नाव  में  चप्पू लेकर ज्ञान - मार्ग  में  सतत बढो।॥2॥

9966
युनक्त  सीरा  वि  युगा  तनुध्वं  कृते  योनौ  वपतेह  बीजम् ।
गिरा च श्रुष्टिःसभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यःपक्वमेयात्॥3॥

खेत  जोत - कर  बीज  की  बोनी  करो अन्न फिर उपजेगा ।
कृषि - वैज्ञानिक  की  सलाह लो खेत अन्न फिर उगलेगा॥3॥

9967
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् ।
धीरा                देवेषु               सुम्नया    ॥4॥

श्रम - शील मनुज खेती करता है पेट सभी का वह भरता है ।
रुचि-अनुसार यहॉं हर मानव विविध कर्म में रत रहता है॥4॥

9968
निराहावान्कृणोतन      सं      वरत्रा      दधातन ।
सिञ्चामहा अवतमुद्रिणं वयं सुषेकमनुपक्षितम् ॥5॥

पशु- जल की भी करो व्यवस्था जल हो न कभी खेत से दूर ।
वर्षा के जल का सञ्चय कर लो खेत को पानी दो भरपूर॥5॥

9969
इष्कृताहावमवतं सुवरत्रं सुषेचनम् । उद्रिणं सिञ्चे अक्षितम्॥6॥

पीने के पानी का प्रबन्ध हो खेत में हो अपना नल-कूप ।
खेत - किनारे हो अपना घर आती रहे सुनहरी धूप ॥6॥

9970
प्रीणीताश्वान्हितं  जयाथ  स्वस्तिवाहं  रथमित्कृणुध्वम् ।
द्रोणाहावमवतमश्मचक्रमंसत्रकोशं  सिञ्चता नृपाणम्॥7॥

पशुओं  को भी बढिया चारा दो उनका हो सुन्दर  नामकरण।
गो-माता गो-रस दे देती है आनन्द भरा हो हर एक क्षण॥7॥

9971
व्रजं  कृणुध्वं स हि वो नृपाणो  वर्म सीव्यध्वं बहुला पृथूनि ।
पुरःकृणुध्वमायसीरधृष्टा मा वःसुस्त्रोच्चमसो दृंहता तम्॥8॥

भॉंति-भॉंति की गो-शाला हो जहॉं सुख-कर गायें पलती हों ।
"बछडों को मेरा दूध मिले" जो बिन बोले यह कहती हों ॥8॥

9972
आ वो धियःयज्ञियां वर्त ऊतये देवा देवीं यजतां यज्ञियामिह।
सा  नो  दुहीयद्यवसेव  गत्वी सहस्त्रधारा पयसा मही गौः ॥9॥

यज्ञ - रूप  हो  जीवन  अपना  हे  प्रभु  तुम  ऐसी मति दे दो ।
त्याग - सहित उपभोग करें तुम मुझको यह चिंतन  दे दो॥9॥

9973
आ तू  षिञ्च हरिमीं द्रोरुपस्थे वाशीभिस्तक्षताश्मन्मयीभिः।
परि  ष्वजध्वं  दश  कक्ष्याभिरुभे धुरौ प्रति वह्निं युनक्त ॥10॥

सबका कर्तव्य विभाजित है हम सब अपना दायित्व निभायें।
सबके  सुख - दुख का चिंतन हो एक-दूजे के काम आयें॥10॥

9974
उभे   धुरौ   वह्निरापिब्दमानोSन्तर्योनेव   चरति    द्विजानिः ।
वनस्पतिं वन आस्थापयध्वं नि षू दधिध्वमखनन्त उत्सम्॥11॥

सत्कर्म   ही   मेरा   ईश्वर   है   यह  सबसे  बडा  देवता  है ।
हम इसकी महिमा को समझें यह सबसे बडी सरलता है ॥11॥

9975
कपृन्नरः   कपृथमुद्दधातन   चोदयत   खुदत   वाजसातये ।
निष्टिग्रयःयःपुत्रमा च्यावयोतय इन्द्रं सबाध इह सोमपीतये॥12॥

हे  कर्म-शील  हे मनुज-देव  तुम  सूर्य-देव  की  करो प्रार्थना ।
सुख-शान्ति वही देंगे तुमको यह वेद-ऋचा का है कहना॥12॥        
          

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