[ऋषि- बुध सौम्य । देवता-विश्वेदेवा । छन्द--त्रिष्टुप् - -गायत्री - बृहती ।]
9964
उद्बुध्यध्वं समनसः सखायः समग्निमिन्ध्वं बहवः सनीळा:।
दधिक्रामग्निमुषसं च देवीमिन्द्रावतोSवसे नि ह्वये वः ॥1॥
हे मित्र उठो जागो और सोचो एकाग्र - चित्त होकर जानो ।
होकर अनेक भी सँग चलो जीवन-रहस्य को पहचानो॥1॥
9965
मन्द्रा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वं नावमरित्रपरणीं कृणुध्वम् ।
इष्कृणुध्वमायुधारं कृणुध्वं प्राञ्चं यज्ञं ग्र णयता सखायः॥2॥
श्रेष्ठ - कर्म तुम करो निरंतर शुभ - शुभ चिंतन का मंत्र पढो ।
प्रगति- नाव में चप्पू लेकर ज्ञान - मार्ग में सतत बढो।॥2॥
9966
युनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं कृते योनौ वपतेह बीजम् ।
गिरा च श्रुष्टिःसभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यःपक्वमेयात्॥3॥
खेत जोत - कर बीज की बोनी करो अन्न फिर उपजेगा ।
कृषि - वैज्ञानिक की सलाह लो खेत अन्न फिर उगलेगा॥3॥
9967
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् ।
धीरा देवेषु सुम्नया ॥4॥
श्रम - शील मनुज खेती करता है पेट सभी का वह भरता है ।
रुचि-अनुसार यहॉं हर मानव विविध कर्म में रत रहता है॥4॥
9968
निराहावान्कृणोतन सं वरत्रा दधातन ।
सिञ्चामहा अवतमुद्रिणं वयं सुषेकमनुपक्षितम् ॥5॥
पशु- जल की भी करो व्यवस्था जल हो न कभी खेत से दूर ।
वर्षा के जल का सञ्चय कर लो खेत को पानी दो भरपूर॥5॥
9969
इष्कृताहावमवतं सुवरत्रं सुषेचनम् । उद्रिणं सिञ्चे अक्षितम्॥6॥
पीने के पानी का प्रबन्ध हो खेत में हो अपना नल-कूप ।
खेत - किनारे हो अपना घर आती रहे सुनहरी धूप ॥6॥
9970
प्रीणीताश्वान्हितं जयाथ स्वस्तिवाहं रथमित्कृणुध्वम् ।
द्रोणाहावमवतमश्मचक्रमंसत्रकोशं सिञ्चता नृपाणम्॥7॥
पशुओं को भी बढिया चारा दो उनका हो सुन्दर नामकरण।
गो-माता गो-रस दे देती है आनन्द भरा हो हर एक क्षण॥7॥
9971
व्रजं कृणुध्वं स हि वो नृपाणो वर्म सीव्यध्वं बहुला पृथूनि ।
पुरःकृणुध्वमायसीरधृष्टा मा वःसुस्त्रोच्चमसो दृंहता तम्॥8॥
भॉंति-भॉंति की गो-शाला हो जहॉं सुख-कर गायें पलती हों ।
"बछडों को मेरा दूध मिले" जो बिन बोले यह कहती हों ॥8॥
9972
आ वो धियःयज्ञियां वर्त ऊतये देवा देवीं यजतां यज्ञियामिह।
सा नो दुहीयद्यवसेव गत्वी सहस्त्रधारा पयसा मही गौः ॥9॥
यज्ञ - रूप हो जीवन अपना हे प्रभु तुम ऐसी मति दे दो ।
त्याग - सहित उपभोग करें तुम मुझको यह चिंतन दे दो॥9॥
9973
आ तू षिञ्च हरिमीं द्रोरुपस्थे वाशीभिस्तक्षताश्मन्मयीभिः।
परि ष्वजध्वं दश कक्ष्याभिरुभे धुरौ प्रति वह्निं युनक्त ॥10॥
सबका कर्तव्य विभाजित है हम सब अपना दायित्व निभायें।
सबके सुख - दुख का चिंतन हो एक-दूजे के काम आयें॥10॥
9974
उभे धुरौ वह्निरापिब्दमानोSन्तर्योनेव चरति द्विजानिः ।
वनस्पतिं वन आस्थापयध्वं नि षू दधिध्वमखनन्त उत्सम्॥11॥
सत्कर्म ही मेरा ईश्वर है यह सबसे बडा देवता है ।
हम इसकी महिमा को समझें यह सबसे बडी सरलता है ॥11॥
9975
कपृन्नरः कपृथमुद्दधातन चोदयत खुदत वाजसातये ।
निष्टिग्रयःयःपुत्रमा च्यावयोतय इन्द्रं सबाध इह सोमपीतये॥12॥
हे कर्म-शील हे मनुज-देव तुम सूर्य-देव की करो प्रार्थना ।
सुख-शान्ति वही देंगे तुमको यह वेद-ऋचा का है कहना॥12॥
9964
उद्बुध्यध्वं समनसः सखायः समग्निमिन्ध्वं बहवः सनीळा:।
दधिक्रामग्निमुषसं च देवीमिन्द्रावतोSवसे नि ह्वये वः ॥1॥
हे मित्र उठो जागो और सोचो एकाग्र - चित्त होकर जानो ।
होकर अनेक भी सँग चलो जीवन-रहस्य को पहचानो॥1॥
9965
मन्द्रा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वं नावमरित्रपरणीं कृणुध्वम् ।
इष्कृणुध्वमायुधारं कृणुध्वं प्राञ्चं यज्ञं ग्र णयता सखायः॥2॥
श्रेष्ठ - कर्म तुम करो निरंतर शुभ - शुभ चिंतन का मंत्र पढो ।
प्रगति- नाव में चप्पू लेकर ज्ञान - मार्ग में सतत बढो।॥2॥
9966
युनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं कृते योनौ वपतेह बीजम् ।
गिरा च श्रुष्टिःसभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यःपक्वमेयात्॥3॥
खेत जोत - कर बीज की बोनी करो अन्न फिर उपजेगा ।
कृषि - वैज्ञानिक की सलाह लो खेत अन्न फिर उगलेगा॥3॥
9967
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् ।
धीरा देवेषु सुम्नया ॥4॥
श्रम - शील मनुज खेती करता है पेट सभी का वह भरता है ।
रुचि-अनुसार यहॉं हर मानव विविध कर्म में रत रहता है॥4॥
9968
निराहावान्कृणोतन सं वरत्रा दधातन ।
सिञ्चामहा अवतमुद्रिणं वयं सुषेकमनुपक्षितम् ॥5॥
पशु- जल की भी करो व्यवस्था जल हो न कभी खेत से दूर ।
वर्षा के जल का सञ्चय कर लो खेत को पानी दो भरपूर॥5॥
9969
इष्कृताहावमवतं सुवरत्रं सुषेचनम् । उद्रिणं सिञ्चे अक्षितम्॥6॥
पीने के पानी का प्रबन्ध हो खेत में हो अपना नल-कूप ।
खेत - किनारे हो अपना घर आती रहे सुनहरी धूप ॥6॥
9970
प्रीणीताश्वान्हितं जयाथ स्वस्तिवाहं रथमित्कृणुध्वम् ।
द्रोणाहावमवतमश्मचक्रमंसत्रकोशं सिञ्चता नृपाणम्॥7॥
पशुओं को भी बढिया चारा दो उनका हो सुन्दर नामकरण।
गो-माता गो-रस दे देती है आनन्द भरा हो हर एक क्षण॥7॥
9971
व्रजं कृणुध्वं स हि वो नृपाणो वर्म सीव्यध्वं बहुला पृथूनि ।
पुरःकृणुध्वमायसीरधृष्टा मा वःसुस्त्रोच्चमसो दृंहता तम्॥8॥
भॉंति-भॉंति की गो-शाला हो जहॉं सुख-कर गायें पलती हों ।
"बछडों को मेरा दूध मिले" जो बिन बोले यह कहती हों ॥8॥
9972
आ वो धियःयज्ञियां वर्त ऊतये देवा देवीं यजतां यज्ञियामिह।
सा नो दुहीयद्यवसेव गत्वी सहस्त्रधारा पयसा मही गौः ॥9॥
यज्ञ - रूप हो जीवन अपना हे प्रभु तुम ऐसी मति दे दो ।
त्याग - सहित उपभोग करें तुम मुझको यह चिंतन दे दो॥9॥
9973
आ तू षिञ्च हरिमीं द्रोरुपस्थे वाशीभिस्तक्षताश्मन्मयीभिः।
परि ष्वजध्वं दश कक्ष्याभिरुभे धुरौ प्रति वह्निं युनक्त ॥10॥
सबका कर्तव्य विभाजित है हम सब अपना दायित्व निभायें।
सबके सुख - दुख का चिंतन हो एक-दूजे के काम आयें॥10॥
9974
उभे धुरौ वह्निरापिब्दमानोSन्तर्योनेव चरति द्विजानिः ।
वनस्पतिं वन आस्थापयध्वं नि षू दधिध्वमखनन्त उत्सम्॥11॥
सत्कर्म ही मेरा ईश्वर है यह सबसे बडा देवता है ।
हम इसकी महिमा को समझें यह सबसे बडी सरलता है ॥11॥
9975
कपृन्नरः कपृथमुद्दधातन चोदयत खुदत वाजसातये ।
निष्टिग्रयःयःपुत्रमा च्यावयोतय इन्द्रं सबाध इह सोमपीतये॥12॥
हे कर्म-शील हे मनुज-देव तुम सूर्य-देव की करो प्रार्थना ।
सुख-शान्ति वही देंगे तुमको यह वेद-ऋचा का है कहना॥12॥
सादर नमन !!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर अनुवाद
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