[ऋषि--जरत्कर्ण ऐरावत । देवता- पाषाण । छन्द- जगती ।]
9601
आ व ऋञ्जस ऊर्जां व्युष्टिष्विन्द्रं मरुतो रोदसी अनक्तन ।
उभे यथा नो अहनी सचाभुवा सदःसदो वरिवस्यात उद्भिदा॥1॥
ऊषा - काल के आने पर हम प्रसन्नता से भर जाते हैं ।
पृथ्वी पर दिवा-रात्रि होती है हम विविध अन्न-धन पाते हैं ॥1॥
9602
तदु श्रेष्ठं सवनं सुनोतनात्यो न हस्तयतो अद्रिः सोतरि ।
विदध्द्य1र्यो अभिभूति पौंस्यं महो राये चित्तरुते यदवर्तः॥2॥
हे पत्थर तुम सोम बनाओ कूट - पीस कर हमें पिलाओ ।
सोम-पान से बल मिलता है शत्रु-विजय की युक्ति सिखाओ॥2॥
9603
तदिध्द्यस्य सवनं विवेरपो यथा पुरा मनवे गातुमश्रेत् ।
गोअर्णसि त्वाष्ट्रे अश्वनिर्णिजि प्रेमध्वरेष्वध्वरॉं अशिश्रयुः ॥3॥
ऐसा कर्म करे हर कोई जिसमें हम सबका हित हो ।
हिंसा भरा भाव हम त्यागें पर-हित से प्राणी परिचित हो॥3॥
9604
अप हत रक्षसो भङ्गुरावतः स्कभायत निरृतिं सेधतामतिम् ।
आ नो रयिं सर्ववीरं सुनोतन देवाव्यं भरत श्लोकमद्रयः ॥4॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है तुम ही रक्षा करना भगवन ।
सुख - वैभव भी तुम ही देना तुम ही दे देना यश और धन ॥4॥
9605
दिवश्चिदा वोSमवत्तरेभ्यो विभ्वना चिदाश्वपस्तरेभ्यः ।
वायोश्चिदा सोमरभस्तरेभ्योSग्नेश्चिदर्च पितुकृत्तरेभ्यः ॥5॥
यदि तेजस्वी तुमको बनना हो सत्कर्म सदा करते रहना ।
हर कार्य कुशलता से ही करना मन में संतोष सदा रखना ॥5॥
9606
भुरन्तु नो यशसःसोत्वन्धसो ग्रावाणो वाचा दिविता दिवित्मता।
नरो यत्र दुहते काम्यं मध्वाघोषयन्तो अभितो मिथस्तुरः॥6॥
वेद - ऋचा का उच्चारण हो सब करते रहें सोम का पान ।
हे पत्थर तुम बनो सहायक हम दिव्य-कर्म से बनें महान ॥6॥
9607
सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो निरस्य रसं गविषो दुहन्ति ते ।
दुहन्त्यूधरुपसेचनाय कं नरो हव्या न मर्जयन्त आसभिः ॥7॥
देह - रूप इस रथ में स्थित ऋतम्भरा ही है सोम - पान ।
प्रसाद प्राप्त कर सब करते हैं समवेत-स्वरों में साम-गान ॥7॥
9608
एते नरः स्वपसो अभूतन य इन्द्राय सुनुथ सोममद्रयः ।
वामंवामं वो दिव्याय धाम्ने वसुवसु वः पार्थिवाय सुन्वते ॥8॥
लालित्य ज़रूरी है जीवन में पर-हित हो हम सबका ध्येय ।
वसुधा एक कुटुम्ब मात्र है सबका हित हो अपना श्रेय ॥8॥
9601
आ व ऋञ्जस ऊर्जां व्युष्टिष्विन्द्रं मरुतो रोदसी अनक्तन ।
उभे यथा नो अहनी सचाभुवा सदःसदो वरिवस्यात उद्भिदा॥1॥
ऊषा - काल के आने पर हम प्रसन्नता से भर जाते हैं ।
पृथ्वी पर दिवा-रात्रि होती है हम विविध अन्न-धन पाते हैं ॥1॥
9602
तदु श्रेष्ठं सवनं सुनोतनात्यो न हस्तयतो अद्रिः सोतरि ।
विदध्द्य1र्यो अभिभूति पौंस्यं महो राये चित्तरुते यदवर्तः॥2॥
हे पत्थर तुम सोम बनाओ कूट - पीस कर हमें पिलाओ ।
सोम-पान से बल मिलता है शत्रु-विजय की युक्ति सिखाओ॥2॥
9603
तदिध्द्यस्य सवनं विवेरपो यथा पुरा मनवे गातुमश्रेत् ।
गोअर्णसि त्वाष्ट्रे अश्वनिर्णिजि प्रेमध्वरेष्वध्वरॉं अशिश्रयुः ॥3॥
ऐसा कर्म करे हर कोई जिसमें हम सबका हित हो ।
हिंसा भरा भाव हम त्यागें पर-हित से प्राणी परिचित हो॥3॥
9604
अप हत रक्षसो भङ्गुरावतः स्कभायत निरृतिं सेधतामतिम् ।
आ नो रयिं सर्ववीरं सुनोतन देवाव्यं भरत श्लोकमद्रयः ॥4॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है तुम ही रक्षा करना भगवन ।
सुख - वैभव भी तुम ही देना तुम ही दे देना यश और धन ॥4॥
9605
दिवश्चिदा वोSमवत्तरेभ्यो विभ्वना चिदाश्वपस्तरेभ्यः ।
वायोश्चिदा सोमरभस्तरेभ्योSग्नेश्चिदर्च पितुकृत्तरेभ्यः ॥5॥
यदि तेजस्वी तुमको बनना हो सत्कर्म सदा करते रहना ।
हर कार्य कुशलता से ही करना मन में संतोष सदा रखना ॥5॥
9606
भुरन्तु नो यशसःसोत्वन्धसो ग्रावाणो वाचा दिविता दिवित्मता।
नरो यत्र दुहते काम्यं मध्वाघोषयन्तो अभितो मिथस्तुरः॥6॥
वेद - ऋचा का उच्चारण हो सब करते रहें सोम का पान ।
हे पत्थर तुम बनो सहायक हम दिव्य-कर्म से बनें महान ॥6॥
9607
सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो निरस्य रसं गविषो दुहन्ति ते ।
दुहन्त्यूधरुपसेचनाय कं नरो हव्या न मर्जयन्त आसभिः ॥7॥
देह - रूप इस रथ में स्थित ऋतम्भरा ही है सोम - पान ।
प्रसाद प्राप्त कर सब करते हैं समवेत-स्वरों में साम-गान ॥7॥
9608
एते नरः स्वपसो अभूतन य इन्द्राय सुनुथ सोममद्रयः ।
वामंवामं वो दिव्याय धाम्ने वसुवसु वः पार्थिवाय सुन्वते ॥8॥
लालित्य ज़रूरी है जीवन में पर-हित हो हम सबका ध्येय ।
वसुधा एक कुटुम्ब मात्र है सबका हित हो अपना श्रेय ॥8॥
परहित सरिस धर्म नहिं भाई...आदर्श सूक्त...
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