Monday, 30 December 2013

सूक्त - 76

[ऋषि--जरत्कर्ण ऐरावत । देवता- पाषाण । छन्द- जगती ।]

9601
आ  व  ऋञ्जस  ऊर्जां  व्युष्टिष्विन्द्रं  मरुतो  रोदसी  अनक्तन ।
उभे यथा नो अहनी सचाभुवा सदःसदो वरिवस्यात उद्भिदा॥1॥

ऊषा - काल  के  आने  पर  हम  प्रसन्नता  से  भर  जाते  हैं ।
पृथ्वी पर दिवा-रात्रि होती है हम विविध अन्न-धन पाते हैं ॥1॥

9602
तदु  श्रेष्ठं  सवनं  सुनोतनात्यो  न  हस्तयतो  अद्रिः  सोतरि ।
विदध्द्य1र्यो  अभिभूति  पौंस्यं  महो  राये  चित्तरुते  यदवर्तः॥2॥

हे  पत्थर  तुम  सोम  बनाओ  कूट - पीस  कर  हमें  पिलाओ ।
सोम-पान  से  बल मिलता है शत्रु-विजय की युक्ति सिखाओ॥2॥

9603
तदिध्द्यस्य   सवनं   विवेरपो   यथा   पुरा   मनवे   गातुमश्रेत् ।
गोअर्णसि  त्वाष्ट्रे  अश्वनिर्णिजि प्रेमध्वरेष्वध्वरॉं अशिश्रयुः ॥3॥

ऐसा   कर्म   करे   हर   कोई   जिसमें   हम   सबका   हित   हो ।
हिंसा  भरा  भाव  हम  त्यागें  पर-हित से प्राणी परिचित हो॥3॥

9604
अप  हत  रक्षसो भङ्गुरावतः स्कभायत निरृतिं सेधतामतिम् ।
आ  नो  रयिं  सर्ववीरं  सुनोतन  देवाव्यं  भरत श्लोकमद्रयः ॥4॥

दुष्ट - दमन  अति  आवश्यक  है  तुम  ही  रक्षा करना भगवन ।
सुख - वैभव  भी  तुम ही देना तुम ही दे देना यश और धन ॥4॥

9605
दिवश्चिदा     वोSमवत्तरेभ्यो     विभ्वना     चिदाश्वपस्तरेभ्यः ।
वायोश्चिदा   सोमरभस्तरेभ्योSग्नेश्चिदर्च    पितुकृत्तरेभ्यः ॥5॥

 यदि  तेजस्वी  तुमको  बनना  हो  सत्कर्म  सदा करते रहना ।
हर  कार्य  कुशलता से ही करना मन में संतोष सदा रखना ॥5॥

9606
भुरन्तु नो यशसःसोत्वन्धसो ग्रावाणो वाचा दिविता दिवित्मता।
नरो यत्र  दुहते  काम्यं  मध्वाघोषयन्तो अभितो  मिथस्तुरः॥6॥

वेद - ऋचा  का  उच्चारण  हो  सब  करते  रहें  सोम  का  पान ।
हे  पत्थर  तुम  बनो सहायक हम दिव्य-कर्म से बनें महान ॥6॥

9607
सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो निरस्य रसं गविषो दुहन्ति ते ।
दुहन्त्यूधरुपसेचनाय कं  नरो हव्या न मर्जयन्त आसभिः ॥7॥

देह - रूप  इस  रथ  में  स्थित  ऋतम्भरा  ही   है  सोम - पान ।
प्रसाद  प्राप्त  कर  सब करते हैं समवेत-स्वरों में साम-गान ॥7॥

9608
एते   नरः  स्वपसो  अभूतन  य   इन्द्राय  सुनुथ  सोममद्रयः ।
वामंवामं  वो दिव्याय धाम्ने वसुवसु वः पार्थिवाय सुन्वते ॥8॥

लालित्य  ज़रूरी  है  जीवन  में  पर-हित हो हम सबका ध्येय ।
वसुधा  एक  कुटुम्ब  मात्र  है  सबका  हित  हो अपना श्रेय ॥8॥     

1 comment:

  1. परहित सरिस धर्म नहिं भाई...आदर्श सूक्त...

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