[ऋषि- देवापि आर्ष्टिषेण । देवता- देवगण । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9928
बृहस्पते प्रति मे देवतामिहि मित्रो वा यद्वरुणो वासि पूषा ।
आदित्यैर्वा यद्वसुभिर्मरुत्वान्त्स पर्जन्यं शन्तनवे वृषाय॥1॥
वर्षा का जल अति - आवश्यक है बरसात हेतु हो अनुष्ठान ।
सभी देव - गण करें मंत्रणा जल-वर्षा हेतु सभी दें ध्यान॥1॥
9929
आ देवो दूतो अजिरश्चिकित्वान्त्वद्देवापे अभि मामगच्छत्।
प्रतीचीनःप्रति मामा ववृत्स्व दधामि ते द्युमतिं वाचमासन्॥2॥
हे देव बृहस्पति तुम आ जाओ तुम ज्ञानी तुम ही वरेण्य हो ।
सब विचार तज-कर ही आना तुम श्रेयस तुम ही प्रणम्य हो॥2॥
9930
अस्मे धेहि द्युमतिं वाचमासन् बृहस्पते अनमीवामिषिराम् ।
यया वृष्टिं शन्तनवे वनाव दिवो द्रप्सो मधुमॉं आ विवेश॥3॥
वरदान हमें दो हे वाक्देवी जिससे प्राञ्जल- पय - प्रवाह हो ।
जल - वृष्टि धरा- पर हो जाए जग झूमे जीने की राह हो ॥3॥
9931
आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्त्रम् ।
नि षीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान्देवापे हविषा सपर्य ॥4॥
मधुर - वृष्टि उपलब्ध हमें हो प्रचुर-अन्न और शाक मिले ।
हम सब मिल कर यह सोचें जिससे कि हर्ष का कमल खिले॥4॥
9932
आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिरर्निषीदन् देवापिर्देवसुमतिं चिकित्वान् ।
स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ॥5॥
हे परम-मित्र हे परमेश्वर तुम वरद - वरुण को ले आओ ।
अन्तरिक्ष के अम्बुधि से पृथ्वी पयोधि की प्यास बुझाओ॥5॥
9933
अस्मिन्त्समुद्रे अध्युत्तरस्मिन्नापो देवेभिर्निवृता अ अतिष्ठन्।
ता अद्रवन्नार्ष्टिसषेणेन सृष्टा देवापिना प्रेषिता मृक्षिणीषु ॥6॥
पृथ्वी - पयोधि पर परमेश्वर ने फैलाया है अद्भुत-वितान ।
पर पृथ्वी पर पर्जन्य पधारे पृथ्वी ने किया पावन-पय-पान॥6॥
9934
यद्देवापिः शन्तनवे पुरोहिता होत्राय वृतः कृपयन्नदीधेत् ।
देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणो बृहस्पतिर्वाचमस्मा अयच्छत् ॥7॥
गंभीर- भाव से देव - बृहस्पति वृष्टि - हेतु उपक्रम करते हैं ।
मेघों को वे प्रेरित करते हैं जल-वर्षक मंत्रों को पढते हैं ॥7॥
9935
यं त्वा देवापिः शुशुचानो अग्न आर्ष्टिषेणो मनुष्य: समीधे ।
विश्वेभिर्देवैरनुमद्यमानः प्र पर्जन्यमीरया वृष्टिमन्तम् ॥8॥
हे अग्नि - देव हम पावन - मन से स्तवन तुम्हारा करते हैं ।
परम - पूजनीय देवों से वर्षा - निमित्त आग्रह करते हैं ॥8॥
9936
त्वां पूर्व ऋषयो गीर्भिरायन्त्वामध्वरेषु पुरुहूत विश्वे ।
सहस्त्राण्यधिरथान्यस्मे आ नो यज्ञं रोहिदश्वोप याहि ॥9॥
हे अग्नि - देव आवाहन है शीघ्रातिशीघ्र प्रभु आ जाओ ।
जल - वर्षा का दान हमें दो इस जगती का ताप मिटाओ ॥9॥
9937
एतान्यग्ने नवतिर्नव त्वे आहुतान्यदधिरथा सहस्त्रा ।
तेभिर्वर्धस्व तन्व: शूर पूर्वीर्दिवो नो वृष्टिमिषितो रिरीहि॥10॥
हे पावक - पावन आ जाओ करते हैं हम सब आवाहन ।
दिव्य-लोक से जल बरसाओ ग्रहण करो प्रभु हविष्यान्न ॥10॥
9938
एतान्यग्ने नवति सहस्त्रा सं प्र यच्छ वृष्ण इन्द्राय भागम् ।
विद्वान्पथ ऋतुशो देवयानानप्यौलानं दिवि देवेषु धेहि॥11॥
परमेश्वर को प्रणाम करते हैं वेद - ऋचाओं को पढते हैं ।
हवि-भोग सभी को देते हैं जल-दान करो प्रभु कहते हैं॥11॥
9939
अग्ने बाधस्य वि मृधो वि दुर्गहापामीवामप रक्षांसि सेध ।
अस्मात्समुद्राद् बृहतो दिवो नोSपां भूमानमुप नःसृजेह॥12॥
अग्नि हमारे परम-हितैषी तन को सदा स्वस्थ रखते हैं ।
अंतरिक्ष से इस धरती को जल का दान वही करते हैं ॥12॥
9928
बृहस्पते प्रति मे देवतामिहि मित्रो वा यद्वरुणो वासि पूषा ।
आदित्यैर्वा यद्वसुभिर्मरुत्वान्त्स पर्जन्यं शन्तनवे वृषाय॥1॥
वर्षा का जल अति - आवश्यक है बरसात हेतु हो अनुष्ठान ।
सभी देव - गण करें मंत्रणा जल-वर्षा हेतु सभी दें ध्यान॥1॥
9929
आ देवो दूतो अजिरश्चिकित्वान्त्वद्देवापे अभि मामगच्छत्।
प्रतीचीनःप्रति मामा ववृत्स्व दधामि ते द्युमतिं वाचमासन्॥2॥
हे देव बृहस्पति तुम आ जाओ तुम ज्ञानी तुम ही वरेण्य हो ।
सब विचार तज-कर ही आना तुम श्रेयस तुम ही प्रणम्य हो॥2॥
9930
अस्मे धेहि द्युमतिं वाचमासन् बृहस्पते अनमीवामिषिराम् ।
यया वृष्टिं शन्तनवे वनाव दिवो द्रप्सो मधुमॉं आ विवेश॥3॥
वरदान हमें दो हे वाक्देवी जिससे प्राञ्जल- पय - प्रवाह हो ।
जल - वृष्टि धरा- पर हो जाए जग झूमे जीने की राह हो ॥3॥
9931
आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्त्रम् ।
नि षीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान्देवापे हविषा सपर्य ॥4॥
मधुर - वृष्टि उपलब्ध हमें हो प्रचुर-अन्न और शाक मिले ।
हम सब मिल कर यह सोचें जिससे कि हर्ष का कमल खिले॥4॥
9932
आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिरर्निषीदन् देवापिर्देवसुमतिं चिकित्वान् ।
स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ॥5॥
हे परम-मित्र हे परमेश्वर तुम वरद - वरुण को ले आओ ।
अन्तरिक्ष के अम्बुधि से पृथ्वी पयोधि की प्यास बुझाओ॥5॥
9933
अस्मिन्त्समुद्रे अध्युत्तरस्मिन्नापो देवेभिर्निवृता अ अतिष्ठन्।
ता अद्रवन्नार्ष्टिसषेणेन सृष्टा देवापिना प्रेषिता मृक्षिणीषु ॥6॥
पृथ्वी - पयोधि पर परमेश्वर ने फैलाया है अद्भुत-वितान ।
पर पृथ्वी पर पर्जन्य पधारे पृथ्वी ने किया पावन-पय-पान॥6॥
9934
यद्देवापिः शन्तनवे पुरोहिता होत्राय वृतः कृपयन्नदीधेत् ।
देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणो बृहस्पतिर्वाचमस्मा अयच्छत् ॥7॥
गंभीर- भाव से देव - बृहस्पति वृष्टि - हेतु उपक्रम करते हैं ।
मेघों को वे प्रेरित करते हैं जल-वर्षक मंत्रों को पढते हैं ॥7॥
9935
यं त्वा देवापिः शुशुचानो अग्न आर्ष्टिषेणो मनुष्य: समीधे ।
विश्वेभिर्देवैरनुमद्यमानः प्र पर्जन्यमीरया वृष्टिमन्तम् ॥8॥
हे अग्नि - देव हम पावन - मन से स्तवन तुम्हारा करते हैं ।
परम - पूजनीय देवों से वर्षा - निमित्त आग्रह करते हैं ॥8॥
9936
त्वां पूर्व ऋषयो गीर्भिरायन्त्वामध्वरेषु पुरुहूत विश्वे ।
सहस्त्राण्यधिरथान्यस्मे आ नो यज्ञं रोहिदश्वोप याहि ॥9॥
हे अग्नि - देव आवाहन है शीघ्रातिशीघ्र प्रभु आ जाओ ।
जल - वर्षा का दान हमें दो इस जगती का ताप मिटाओ ॥9॥
9937
एतान्यग्ने नवतिर्नव त्वे आहुतान्यदधिरथा सहस्त्रा ।
तेभिर्वर्धस्व तन्व: शूर पूर्वीर्दिवो नो वृष्टिमिषितो रिरीहि॥10॥
हे पावक - पावन आ जाओ करते हैं हम सब आवाहन ।
दिव्य-लोक से जल बरसाओ ग्रहण करो प्रभु हविष्यान्न ॥10॥
9938
एतान्यग्ने नवति सहस्त्रा सं प्र यच्छ वृष्ण इन्द्राय भागम् ।
विद्वान्पथ ऋतुशो देवयानानप्यौलानं दिवि देवेषु धेहि॥11॥
परमेश्वर को प्रणाम करते हैं वेद - ऋचाओं को पढते हैं ।
हवि-भोग सभी को देते हैं जल-दान करो प्रभु कहते हैं॥11॥
9939
अग्ने बाधस्य वि मृधो वि दुर्गहापामीवामप रक्षांसि सेध ।
अस्मात्समुद्राद् बृहतो दिवो नोSपां भूमानमुप नःसृजेह॥12॥
अग्नि हमारे परम-हितैषी तन को सदा स्वस्थ रखते हैं ।
अंतरिक्ष से इस धरती को जल का दान वही करते हैं ॥12॥
प्रशंसनीय अभियान -सुन्दर अनुवाद
ReplyDeleteहे अग्नि - देव आवाहन है शीघ्रातिशीघ्र प्रभु आ जाओ ।
ReplyDeleteजल - वर्षा का दान हमें दो इस जगती का ताप मिटाओ ॥9॥
अग्नि देव को शत शत नमन !
सुन्दर समन्वय भाव
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