Saturday, 7 December 2013

सूक्त - 98

[ऋषि- देवापि आर्ष्टिषेण । देवता- देवगण । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9928
बृहस्पते  प्रति  मे  देवतामिहि  मित्रो वा यद्वरुणो वासि पूषा ।
आदित्यैर्वा यद्वसुभिर्मरुत्वान्त्स पर्जन्यं शन्तनवे वृषाय॥1॥

वर्षा  का  जल  अति - आवश्यक है बरसात हेतु हो अनुष्ठान ।
सभी देव - गण  करें  मंत्रणा जल-वर्षा हेतु सभी दें ध्यान॥1॥

9929
आ  देवो  दूतो  अजिरश्चिकित्वान्त्वद्देवापे  अभि मामगच्छत्।
प्रतीचीनःप्रति मामा ववृत्स्व दधामि ते द्युमतिं वाचमासन्॥2॥

हे  देव  बृहस्पति  तुम  आ जाओ तुम ज्ञानी तुम ही वरेण्य हो ।
सब विचार तज-कर ही आना तुम श्रेयस तुम ही प्रणम्य हो॥2॥

9930
अस्मे धेहि द्युमतिं वाचमासन् बृहस्पते अनमीवामिषिराम् ।
यया वृष्टिं शन्तनवे वनाव दिवो द्रप्सो मधुमॉं आ विवेश॥3॥

वरदान हमें दो हे वाक्देवी जिससे प्राञ्जल- पय - प्रवाह हो ।
जल - वृष्टि  धरा- पर हो जाए जग झूमे जीने की राह हो ॥3॥

9931
आ  नो  द्रप्सा  मधुमन्तो  विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्त्रम् ।
नि  षीद  होत्रमृतुथा  यजस्व  देवान्देवापे  हविषा  सपर्य ॥4॥

मधुर - वृष्टि  उपलब्ध  हमें  हो  प्रचुर-अन्न और शाक  मिले ।
हम सब मिल कर यह सोचें जिससे कि हर्ष का कमल खिले॥4॥

9932
आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिरर्निषीदन् देवापिर्देवसुमतिं  चिकित्वान् ।
स  उत्तरस्मादधरं  समुद्रमपो  दिव्या  असृजद्वर्ष्या  अभि ॥5॥

हे  परम-मित्र  हे  परमेश्वर  तुम  वरद - वरुण  को  ले  आओ ।
अन्तरिक्ष के अम्बुधि से पृथ्वी पयोधि की प्यास बुझाओ॥5॥

9933
अस्मिन्त्समुद्रे अध्युत्तरस्मिन्नापो देवेभिर्निवृता अ अतिष्ठन्।
ता अद्रवन्नार्ष्टिसषेणेन सृष्टा देवापिना प्रेषिता मृक्षिणीषु ॥6॥

पृथ्वी - पयोधि  पर  परमेश्वर  ने  फैलाया  है  अद्भुत-वितान ।
पर पृथ्वी पर पर्जन्य पधारे पृथ्वी ने किया पावन-पय-पान॥6॥

9934
यद्देवापिः  शन्तनवे  पुरोहिता  होत्राय  वृतः  कृपयन्नदीधेत् ।
देवश्रुतं  वृष्टिवनिं  रराणो   बृहस्पतिर्वाचमस्मा  अयच्छत् ॥7॥

गंभीर- भाव  से  देव - बृहस्पति  वृष्टि - हेतु  उपक्रम  करते  हैं ।
मेघों  को  वे  प्रेरित  करते  हैं  जल-वर्षक  मंत्रों को पढते हैं ॥7॥

9935
यं  त्वा  देवापिः  शुशुचानो  अग्न  आर्ष्टिषेणो  मनुष्य: समीधे ।
विश्वेभिर्देवैरनुमद्यमानः   प्र   पर्जन्यमीरया   वृष्टिमन्तम्  ॥8॥

हे  अग्नि - देव  हम  पावन - मन  से स्तवन तुम्हारा करते हैं ।
परम - पूजनीय  देवों  से  वर्षा  - निमित्त  आग्रह  करते  हैं ॥8॥

9936
त्वां   पूर्व   ऋषयो   गीर्भिरायन्त्वामध्वरेषु   पुरुहूत   विश्वे ।
सहस्त्राण्यधिरथान्यस्मे   आ   नो   यज्ञं  रोहिदश्वोप याहि ॥9॥

हे  अग्नि - देव  आवाहन  है  शीघ्रातिशीघ्र  प्रभु  आ  जाओ ।
जल - वर्षा  का  दान  हमें दो इस जगती का ताप मिटाओ ॥9॥

9937
एतान्यग्ने   नवतिर्नव   त्वे   आहुतान्यदधिरथा   सहस्त्रा ।
तेभिर्वर्धस्व  तन्व:  शूर पूर्वीर्दिवो नो वृष्टिमिषितो रिरीहि॥10॥

हे  पावक - पावन  आ  जाओ  करते  हैं  हम  सब  आवाहन । 
दिव्य-लोक से जल बरसाओ ग्रहण करो प्रभु हविष्यान्न ॥10॥

9938
एतान्यग्ने  नवति  सहस्त्रा सं प्र यच्छ वृष्ण इन्द्राय भागम् ।
विद्वान्पथ ऋतुशो देवयानानप्यौलानं दिवि  देवेषु  धेहि॥11॥

परमेश्वर  को  प्रणाम  करते  हैं  वेद - ऋचाओं  को  पढते  हैं ।
हवि-भोग  सभी को देते हैं जल-दान करो प्रभु  कहते  हैं॥11॥

9939
अग्ने  बाधस्य  वि  मृधो  वि  दुर्गहापामीवामप रक्षांसि सेध ।
अस्मात्समुद्राद् बृहतो दिवो नोSपां भूमानमुप नःसृजेह॥12॥

अग्नि  हमारे  परम-हितैषी  तन  को  सदा  स्वस्थ रखते हैं ।
अंतरिक्ष  से  इस  धरती  को जल का दान वही करते हैं ॥12॥                 

3 comments:

  1. प्रशंसनीय अभियान -सुन्दर अनुवाद

    ReplyDelete
  2. हे अग्नि - देव आवाहन है शीघ्रातिशीघ्र प्रभु आ जाओ ।
    जल - वर्षा का दान हमें दो इस जगती का ताप मिटाओ ॥9॥
    अग्नि देव को शत शत नमन !

    ReplyDelete