Tuesday, 10 December 2013

सूक्त - 95

[ऋषि- पुरुरवा ऐळ - उर्वशी । देवता- पुरुरवा ऐळ - उर्वशी । छन्द-त्रिष्टुप्।]

9874
हये  जाये  मनसा  तिष्ठ  घोरे  वचांसि  मिश्रा  कृणवावहै  नु।
न  नौ  मन्त्रा अनुदितास एते  मयस्करन्परतरे चनाहन्॥1॥

हे  देवी  तनिक  ठहर  जाओ  हम दोनों का मिलन जरूरी है ।
हमने अपनी-अपनी बात रखी इंसान में कुछ कमजोरी है॥1॥

9875
किमेता    वाचा   कृणवा   तवाहं   प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
पुरुरवः    पुनरस्तं   परेहि     दुरापना   वातइवाहमस्मि ॥2॥

इस  शब्द - जाल  से  होगा  क्या  हम पुनः पृथक हो जायेंगे ।
हे पुरु तुम अपने घर जाओ हम फिर से एक न हो पायेंगे ॥2॥

9876
इषुर्न    श्रिय    इषुधेरसना    गोषा:    शतसा    न    रंहिः ।
अवीरे क्रतौ  वि  दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥3॥

हे  उर्वशी  बहुत  व्याकुल  हूँ तुम बिन मेरा मन नहीं लगता ।
मेरे तरकश में तीर नहीं है रण मैं कभी जीत नहीं सकता॥3॥

9877
सा  वसु  दधती  श्वशुराय  वय  उषो  यदि  वष्टय्न्तिगृहात् ।
अस्तं  ननक्षे  यस्मिञ्वाकन्दिवा  नक्तं श्नथिता वैतसेन ॥4॥

सही समय पर यदि मैं आती सुख - वैभव मैं पा सकती थी ।
अपने घर में चैन से रहती बरसों  प्रेम से जी सकती थी ॥4॥ 

9878
त्रिः स्म माह्नः श्नथयो  वैतसेनोत  स्म  मेSव्यत्यै  पृणासि ।
पुरुरवोSनु  ते  केतमायं  राजा  मे  वीर तन्व1स्तदासीः॥5॥

तुमने  बन्धन  के  नियम बनाए उससे मुझे  बॉधना चाहा ।
मेरे  मन  पर  मेरा  हक़  है  फिर  भी  मैंने तुम्हें सराहा ॥5॥

9879
या  सुजूर्णिः  श्रेणिः  सुम्नआपिर्ह्नदेचक्षुर्न  ग्रन्थिनी चरण्युः ।
ता अञ्जयोSरुणयो न सस्त्रुःश्रिये गावो न धेनवोSनवन्त॥6॥

तुम  बिन  उजड  गई  है  दुनियॉं जीवन में लालित्य नहीं है ।
स्पर्श  प्रेम  का  कहॉं  से पाऊँ बुझता दिया हूँ तेल नहीं है ॥6॥

9880
समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना  उतेमवर्धन्नदद्य1:स्वगूर्ता:।
महे    यत्त्वा  पुरुरवो   रणायावर्धयन्दस्युहत्याय   देवा: ॥7॥

हे  पुरु  तुम  पुनीत  आत्मा  हो  देव - शक्ति  का  हो वरदान ।
तुम में अतुलित बल है भगवन तुम हो देवों का सम्मान ॥7॥

9881
सचा   यदासु   जहतीष्वत्कमममानुषीषु   मानुषो   निषेवे ।
अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसत्रथस्पृशो नाश्वा:॥8॥

निज स्वरूप  को भूल मनुज जब देह-मात्र बन-कर जीता है ।
मृग-मरीचिका में मर जाता सुख - सपना  रहता रीता है ॥8॥

9882
यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभिः क्रतुभिर्न पृङङ्क्ते।
ता आतयो न तन्वःशुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीळयो दन्दशाना:॥9॥

स्वर्ग -  सुन्दरी  के  संग में  जब  पुरु  का  होता  है  सम्वाद ।
सुन्दरियॉं तब हरिण हो गईं पुरु को हुआ अधिक अवसाद ॥9॥

9883
विद्युन्न  या  पतन्ती  दविद्योद्भरन्ती  मे   अप्या   काम्यानि ।
जनिष्टो  अपो   नर्य:  सुजातः  प्रोर्वशी  तिरत  दीर्घमायुः ॥10॥

ऊर्ध्व - लोक  से  उर्वशी  आई  अद्भुत  था  उसका  अनुराग ।
सम्पूर्ण  कामना  पूर्ण  हुई  और  भूल गया था मैं विराग ॥10॥

9884
जज्ञिष  इत्था  गोपीथ्याय  हि  दधाथ  तत्पुरुरवो  म  ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणो:किमभुग्वदासि॥11॥

पुरु  मैं  मॉं  बनने  वाली  थी  पर  तुम  दूर  नहीं  रह  पाये ।
सँग-सँग हम रहे निरन्तर तुम मेरी बात समझ नहीं पाये ॥11॥

9885
कदा  सृनुः  पितरं  जात  इच्छाच्चक्रन्नाश्रु  वर्तयद्विजानन् ।
को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्नि: श्वशुरेषु दीदयत्॥12॥

पता  नहीं  कब  पिता  बनूँगा  दोषी  हूँ  तेरी  बात  सुनूँगा ।
भारी गलती  हुई है मुझसे अब अफसोस भी मैं ही करूँगा ॥12॥

9886
प्रति  ब्रवाणि  वर्तयते  अश्रु   चक्रन्न  क्रन्ददाध्ये  शिवायै।
प्र  तत्ते  हिनवा  यत्ते  अस्मे  परेह्यस्तं  नहि  मूर  माप:॥13॥

हे पुरु तुम आसक्ति त्याग दो अब सब कुछ शुभ-शुभ होगा।
तुम जो चाहोगे वह मैं दूँगी हम दोनों का हित ही होगा॥13॥

9887
सुदेवो    अद्य    प्रपतेदनावृत्परावतं    परमां    गन्तवा   उ ।
अधा   शयीत   निरृतेरुपस्थेSधैनं  वृका  रभसानो  अद्युः॥14॥

हे  ऊर्वी  अब  तुम्हीं  बताओ  मैं  तुमसे  दूर  नहीं   रह  सकता ।
बिना प्रेम के जी नहीं सकता बिन तेरे अब रह नहीं सकता॥14॥ 

9888
पुरुरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्।
न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता॥15॥

हे  पुरु  तुम्हें  कुछ  नहीं  होगा  तुम  मुझ  पर  विश्वास  करो ।
जो  सोचोगे  वही  मिलेगा  मन  में   कुछ  तो  धीर  धरो॥15॥

9889
यद्विरूपाचरं       मर्त्येष्ववसं       रात्रीः       शरदश्चतस्त्रः ।
घृतस्य स्तोकं सकृदह्न आश्नां तादेवेदं तातृपाणा चरामि॥16॥

चार  वर्ष  हम  रहे  साथ  में  परस्पर  हम  सन्तुष्ट  रहे ।
हर सुख-दुख को सँग-सँग भोगे अपने मन की बात कहे॥16॥

9890
अन्तरिक्षप्रां   रजसो   विमानीमुप  शिक्षाम्युर्वशीं   वसिष्ठः।
उप त्वा रातिःसुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे॥17॥

हे अन्तरिक्ष की आभा-मण्डल तेरे बिन  मैं  रह  नहीं  सकता ।
सँग-सँग हमको रहना  है तुमसे अलग मैं जी नहीं सकता॥17॥ 

9891
इति    त्वा   देवा   इम  आहुरैळ  यथेमेतद्भवसि  मृत्युबन्धुः ।
प्रजा ते  देवान्हविषा  यजाति  स्वर्ग उ त्वमपि  मादयासे॥18॥ 

हे  पुरु  मेरी  बात  सुनो  तुम  जीवन  को  बन्धन  न  मानो ।
त्याग-सँग उपभोग भी होगा सुख-रहस्य जानो-पहचानो॥18॥                 

            
    

1 comment:

  1. प्रकृति ने रची आकर्षण की मात्रा।

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