[ऋषि- पुरुरवा ऐळ - उर्वशी । देवता- पुरुरवा ऐळ - उर्वशी । छन्द-त्रिष्टुप्।]
9874
हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु।
न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन्॥1॥
हे देवी तनिक ठहर जाओ हम दोनों का मिलन जरूरी है ।
हमने अपनी-अपनी बात रखी इंसान में कुछ कमजोरी है॥1॥
9875
किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
पुरुरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वातइवाहमस्मि ॥2॥
इस शब्द - जाल से होगा क्या हम पुनः पृथक हो जायेंगे ।
हे पुरु तुम अपने घर जाओ हम फिर से एक न हो पायेंगे ॥2॥
9876
इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषा: शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥3॥
हे उर्वशी बहुत व्याकुल हूँ तुम बिन मेरा मन नहीं लगता ।
मेरे तरकश में तीर नहीं है रण मैं कभी जीत नहीं सकता॥3॥
9877
सा वसु दधती श्वशुराय वय उषो यदि वष्टय्न्तिगृहात् ।
अस्तं ननक्षे यस्मिञ्वाकन्दिवा नक्तं श्नथिता वैतसेन ॥4॥
सही समय पर यदि मैं आती सुख - वैभव मैं पा सकती थी ।
अपने घर में चैन से रहती बरसों प्रेम से जी सकती थी ॥4॥
9878
त्रिः स्म माह्नः श्नथयो वैतसेनोत स्म मेSव्यत्यै पृणासि ।
पुरुरवोSनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्व1स्तदासीः॥5॥
तुमने बन्धन के नियम बनाए उससे मुझे बॉधना चाहा ।
मेरे मन पर मेरा हक़ है फिर भी मैंने तुम्हें सराहा ॥5॥
9879
या सुजूर्णिः श्रेणिः सुम्नआपिर्ह्नदेचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्युः ।
ता अञ्जयोSरुणयो न सस्त्रुःश्रिये गावो न धेनवोSनवन्त॥6॥
तुम बिन उजड गई है दुनियॉं जीवन में लालित्य नहीं है ।
स्पर्श प्रेम का कहॉं से पाऊँ बुझता दिया हूँ तेल नहीं है ॥6॥
9880
समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नदद्य1:स्वगूर्ता:।
महे यत्त्वा पुरुरवो रणायावर्धयन्दस्युहत्याय देवा: ॥7॥
हे पुरु तुम पुनीत आत्मा हो देव - शक्ति का हो वरदान ।
तुम में अतुलित बल है भगवन तुम हो देवों का सम्मान ॥7॥
9881
सचा यदासु जहतीष्वत्कमममानुषीषु मानुषो निषेवे ।
अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसत्रथस्पृशो नाश्वा:॥8॥
निज स्वरूप को भूल मनुज जब देह-मात्र बन-कर जीता है ।
मृग-मरीचिका में मर जाता सुख - सपना रहता रीता है ॥8॥
9882
यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभिः क्रतुभिर्न पृङङ्क्ते।
ता आतयो न तन्वःशुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीळयो दन्दशाना:॥9॥
स्वर्ग - सुन्दरी के संग में जब पुरु का होता है सम्वाद ।
सुन्दरियॉं तब हरिण हो गईं पुरु को हुआ अधिक अवसाद ॥9॥
9883
विद्युन्न या पतन्ती दविद्योद्भरन्ती मे अप्या काम्यानि ।
जनिष्टो अपो नर्य: सुजातः प्रोर्वशी तिरत दीर्घमायुः ॥10॥
ऊर्ध्व - लोक से उर्वशी आई अद्भुत था उसका अनुराग ।
सम्पूर्ण कामना पूर्ण हुई और भूल गया था मैं विराग ॥10॥
9884
जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरुरवो म ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणो:किमभुग्वदासि॥11॥
पुरु मैं मॉं बनने वाली थी पर तुम दूर नहीं रह पाये ।
सँग-सँग हम रहे निरन्तर तुम मेरी बात समझ नहीं पाये ॥11॥
9885
कदा सृनुः पितरं जात इच्छाच्चक्रन्नाश्रु वर्तयद्विजानन् ।
को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्नि: श्वशुरेषु दीदयत्॥12॥
पता नहीं कब पिता बनूँगा दोषी हूँ तेरी बात सुनूँगा ।
भारी गलती हुई है मुझसे अब अफसोस भी मैं ही करूँगा ॥12॥
9886
प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्ये शिवायै।
प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यस्तं नहि मूर माप:॥13॥
हे पुरु तुम आसक्ति त्याग दो अब सब कुछ शुभ-शुभ होगा।
तुम जो चाहोगे वह मैं दूँगी हम दोनों का हित ही होगा॥13॥
9887
सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ ।
अधा शयीत निरृतेरुपस्थेSधैनं वृका रभसानो अद्युः॥14॥
हे ऊर्वी अब तुम्हीं बताओ मैं तुमसे दूर नहीं रह सकता ।
बिना प्रेम के जी नहीं सकता बिन तेरे अब रह नहीं सकता॥14॥
9888
पुरुरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्।
न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता॥15॥
हे पुरु तुम्हें कुछ नहीं होगा तुम मुझ पर विश्वास करो ।
जो सोचोगे वही मिलेगा मन में कुछ तो धीर धरो॥15॥
9889
यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्रीः शरदश्चतस्त्रः ।
घृतस्य स्तोकं सकृदह्न आश्नां तादेवेदं तातृपाणा चरामि॥16॥
चार वर्ष हम रहे साथ में परस्पर हम सन्तुष्ट रहे ।
हर सुख-दुख को सँग-सँग भोगे अपने मन की बात कहे॥16॥
9890
अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः।
उप त्वा रातिःसुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे॥17॥
हे अन्तरिक्ष की आभा-मण्डल तेरे बिन मैं रह नहीं सकता ।
सँग-सँग हमको रहना है तुमसे अलग मैं जी नहीं सकता॥17॥
9891
इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः ।
प्रजा ते देवान्हविषा यजाति स्वर्ग उ त्वमपि मादयासे॥18॥
हे पुरु मेरी बात सुनो तुम जीवन को बन्धन न मानो ।
त्याग-सँग उपभोग भी होगा सुख-रहस्य जानो-पहचानो॥18॥
9874
हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु।
न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन्॥1॥
हे देवी तनिक ठहर जाओ हम दोनों का मिलन जरूरी है ।
हमने अपनी-अपनी बात रखी इंसान में कुछ कमजोरी है॥1॥
9875
किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
पुरुरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वातइवाहमस्मि ॥2॥
इस शब्द - जाल से होगा क्या हम पुनः पृथक हो जायेंगे ।
हे पुरु तुम अपने घर जाओ हम फिर से एक न हो पायेंगे ॥2॥
9876
इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषा: शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥3॥
हे उर्वशी बहुत व्याकुल हूँ तुम बिन मेरा मन नहीं लगता ।
मेरे तरकश में तीर नहीं है रण मैं कभी जीत नहीं सकता॥3॥
9877
सा वसु दधती श्वशुराय वय उषो यदि वष्टय्न्तिगृहात् ।
अस्तं ननक्षे यस्मिञ्वाकन्दिवा नक्तं श्नथिता वैतसेन ॥4॥
सही समय पर यदि मैं आती सुख - वैभव मैं पा सकती थी ।
अपने घर में चैन से रहती बरसों प्रेम से जी सकती थी ॥4॥
9878
त्रिः स्म माह्नः श्नथयो वैतसेनोत स्म मेSव्यत्यै पृणासि ।
पुरुरवोSनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्व1स्तदासीः॥5॥
तुमने बन्धन के नियम बनाए उससे मुझे बॉधना चाहा ।
मेरे मन पर मेरा हक़ है फिर भी मैंने तुम्हें सराहा ॥5॥
9879
या सुजूर्णिः श्रेणिः सुम्नआपिर्ह्नदेचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्युः ।
ता अञ्जयोSरुणयो न सस्त्रुःश्रिये गावो न धेनवोSनवन्त॥6॥
तुम बिन उजड गई है दुनियॉं जीवन में लालित्य नहीं है ।
स्पर्श प्रेम का कहॉं से पाऊँ बुझता दिया हूँ तेल नहीं है ॥6॥
9880
समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नदद्य1:स्वगूर्ता:।
महे यत्त्वा पुरुरवो रणायावर्धयन्दस्युहत्याय देवा: ॥7॥
हे पुरु तुम पुनीत आत्मा हो देव - शक्ति का हो वरदान ।
तुम में अतुलित बल है भगवन तुम हो देवों का सम्मान ॥7॥
9881
सचा यदासु जहतीष्वत्कमममानुषीषु मानुषो निषेवे ।
अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसत्रथस्पृशो नाश्वा:॥8॥
निज स्वरूप को भूल मनुज जब देह-मात्र बन-कर जीता है ।
मृग-मरीचिका में मर जाता सुख - सपना रहता रीता है ॥8॥
9882
यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभिः क्रतुभिर्न पृङङ्क्ते।
ता आतयो न तन्वःशुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीळयो दन्दशाना:॥9॥
स्वर्ग - सुन्दरी के संग में जब पुरु का होता है सम्वाद ।
सुन्दरियॉं तब हरिण हो गईं पुरु को हुआ अधिक अवसाद ॥9॥
9883
विद्युन्न या पतन्ती दविद्योद्भरन्ती मे अप्या काम्यानि ।
जनिष्टो अपो नर्य: सुजातः प्रोर्वशी तिरत दीर्घमायुः ॥10॥
ऊर्ध्व - लोक से उर्वशी आई अद्भुत था उसका अनुराग ।
सम्पूर्ण कामना पूर्ण हुई और भूल गया था मैं विराग ॥10॥
9884
जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरुरवो म ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणो:किमभुग्वदासि॥11॥
पुरु मैं मॉं बनने वाली थी पर तुम दूर नहीं रह पाये ।
सँग-सँग हम रहे निरन्तर तुम मेरी बात समझ नहीं पाये ॥11॥
9885
कदा सृनुः पितरं जात इच्छाच्चक्रन्नाश्रु वर्तयद्विजानन् ।
को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्नि: श्वशुरेषु दीदयत्॥12॥
पता नहीं कब पिता बनूँगा दोषी हूँ तेरी बात सुनूँगा ।
भारी गलती हुई है मुझसे अब अफसोस भी मैं ही करूँगा ॥12॥
9886
प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्ये शिवायै।
प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यस्तं नहि मूर माप:॥13॥
हे पुरु तुम आसक्ति त्याग दो अब सब कुछ शुभ-शुभ होगा।
तुम जो चाहोगे वह मैं दूँगी हम दोनों का हित ही होगा॥13॥
9887
सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ ।
अधा शयीत निरृतेरुपस्थेSधैनं वृका रभसानो अद्युः॥14॥
हे ऊर्वी अब तुम्हीं बताओ मैं तुमसे दूर नहीं रह सकता ।
बिना प्रेम के जी नहीं सकता बिन तेरे अब रह नहीं सकता॥14॥
9888
पुरुरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्।
न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता॥15॥
हे पुरु तुम्हें कुछ नहीं होगा तुम मुझ पर विश्वास करो ।
जो सोचोगे वही मिलेगा मन में कुछ तो धीर धरो॥15॥
9889
यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्रीः शरदश्चतस्त्रः ।
घृतस्य स्तोकं सकृदह्न आश्नां तादेवेदं तातृपाणा चरामि॥16॥
चार वर्ष हम रहे साथ में परस्पर हम सन्तुष्ट रहे ।
हर सुख-दुख को सँग-सँग भोगे अपने मन की बात कहे॥16॥
9890
अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः।
उप त्वा रातिःसुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे॥17॥
हे अन्तरिक्ष की आभा-मण्डल तेरे बिन मैं रह नहीं सकता ।
सँग-सँग हमको रहना है तुमसे अलग मैं जी नहीं सकता॥17॥
9891
इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः ।
प्रजा ते देवान्हविषा यजाति स्वर्ग उ त्वमपि मादयासे॥18॥
हे पुरु मेरी बात सुनो तुम जीवन को बन्धन न मानो ।
त्याग-सँग उपभोग भी होगा सुख-रहस्य जानो-पहचानो॥18॥
प्रकृति ने रची आकर्षण की मात्रा।
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