Friday, 27 December 2013

सूक्त - 79

[ऋषि- अग्नि वैश्वानर । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9625
अपश्यमस्य   महतो  महित्वममर्त्यस्य   मर्त्यासु  विक्षु ।
नाना  हनू  विभृते  सं  भरेते असिन्वती बप्सती भूर्यत्तः॥1॥

स्वयं-प्रकाश  तुम्हीं  हो  प्रभु-वर  सबको देते हो धन-धान ।
जग को आलोकित करते हो तुम ही तो हो दया-निधान॥1॥

9626
गुहा  शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि ।
अत्राण्यस्मै पड्भि:सं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु॥2॥

नभ  ही  विशाल  मस्तक  है  तेरा  सोम - सूर्य  हैं  तेरे  नैन ।
जठर - रूप   में   भीतर   बैठे  भोजन - हेतु  सदा  बेचैन ॥2॥

9627
प्र   मातुः  प्रतरं  गुह्यमिच्छन्कुमारो   न  वीरुधः  सर्पदुर्वीः ।
ससं न पक्वमविदच्छुचन्तं रिरिह्वांसं रिप उपस्थे अन्तः॥3॥

शिशु  की  भॉति  धरा  पर  चलते तरु की जड तक जाते हो ।
हे पावक भोजन की खोज में जो मिल जाता वह खाते हो॥3॥

9628
तद्वामृतं  रोदसी  प्र  ब्रवीमि  जायमानो  मातरा  गर्भो  अत्ति ।
नाहं  देवस्य  मर्त्यश्चिकेताग्निरङ्ग  विचेता: स प्रचेता: ॥4॥ 

अग्नि-देवता अति अद्भुत  हैं  और  हम   तो अबोध-प्राणी हैं ।
ज्ञातव्य वही है पावन-पावक विविध-विधा के वे ज्ञानी हैं॥4॥

9629
यो  अस्मा  अन्नं  तृष्वा3  दधात्याज्यैर्घृतैर्जुहोति  पुष्यति ।
तस्मै सहस्त्रमक्षभिर्वि चक्षेSग्ने विश्वतःप्रत्यङ्ङसि त्वम्॥5॥

हे अग्नि-देव  तुम आ जाओ हम हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
तुम  अनुकूल  सदा रहना हम तुमसे प्यार बहुत करते  हैं॥5॥

9630
किं  देवेषु  त्यज  एनश्चकर्थाग्ने  पृच्छामि  नु  त्वामविद्वान् ।
अक्रीळन् क्रीळन्हरिरत्तवेSदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिवासिः॥6॥

अग्नि - देवता  क्रोध - रहित  हैं  वे  सबकी  रक्षा  करते  हैं ।
कचरा - मैल  जला  देते  हैं स्वस्थ - नीरोग हमें रखते हैं ॥6॥

9631
विषूचो अश्वान्युयुजे  वनेजा ऋजीतिभी  रशनाभिर्गृभीतान् ।
चक्षदे मित्रो  वसुभिः सुजातः समानृधे  पर्वभिर्वावृधानः ॥7॥

दावानल  बन  वन  में  फैला  वही  हैं  सागर  में  बडवानल ।
सर्वत्र समाया शान्त-रूप में मानव- तन में है जठरानल ॥7॥
    

1 comment:

  1. दावानल बन वन में फैला वही हैं सागर में बडवानल ।
    सर्वत्र समाया शान्त-रूप में मानव- तन में है जठरानल ॥7॥

    तीनों अनलों को नमन

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