[ऋषि- अग्नि वैश्वानर । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9625
अपश्यमस्य महतो महित्वममर्त्यस्य मर्त्यासु विक्षु ।
नाना हनू विभृते सं भरेते असिन्वती बप्सती भूर्यत्तः॥1॥
स्वयं-प्रकाश तुम्हीं हो प्रभु-वर सबको देते हो धन-धान ।
जग को आलोकित करते हो तुम ही तो हो दया-निधान॥1॥
9626
गुहा शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि ।
अत्राण्यस्मै पड्भि:सं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु॥2॥
नभ ही विशाल मस्तक है तेरा सोम - सूर्य हैं तेरे नैन ।
जठर - रूप में भीतर बैठे भोजन - हेतु सदा बेचैन ॥2॥
9627
प्र मातुः प्रतरं गुह्यमिच्छन्कुमारो न वीरुधः सर्पदुर्वीः ।
ससं न पक्वमविदच्छुचन्तं रिरिह्वांसं रिप उपस्थे अन्तः॥3॥
शिशु की भॉति धरा पर चलते तरु की जड तक जाते हो ।
हे पावक भोजन की खोज में जो मिल जाता वह खाते हो॥3॥
9628
तद्वामृतं रोदसी प्र ब्रवीमि जायमानो मातरा गर्भो अत्ति ।
नाहं देवस्य मर्त्यश्चिकेताग्निरङ्ग विचेता: स प्रचेता: ॥4॥
अग्नि-देवता अति अद्भुत हैं और हम तो अबोध-प्राणी हैं ।
ज्ञातव्य वही है पावन-पावक विविध-विधा के वे ज्ञानी हैं॥4॥
9629
यो अस्मा अन्नं तृष्वा3 दधात्याज्यैर्घृतैर्जुहोति पुष्यति ।
तस्मै सहस्त्रमक्षभिर्वि चक्षेSग्ने विश्वतःप्रत्यङ्ङसि त्वम्॥5॥
हे अग्नि-देव तुम आ जाओ हम हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
तुम अनुकूल सदा रहना हम तुमसे प्यार बहुत करते हैं॥5॥
9630
किं देवेषु त्यज एनश्चकर्थाग्ने पृच्छामि नु त्वामविद्वान् ।
अक्रीळन् क्रीळन्हरिरत्तवेSदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिवासिः॥6॥
अग्नि - देवता क्रोध - रहित हैं वे सबकी रक्षा करते हैं ।
कचरा - मैल जला देते हैं स्वस्थ - नीरोग हमें रखते हैं ॥6॥
9631
विषूचो अश्वान्युयुजे वनेजा ऋजीतिभी रशनाभिर्गृभीतान् ।
चक्षदे मित्रो वसुभिः सुजातः समानृधे पर्वभिर्वावृधानः ॥7॥
दावानल बन वन में फैला वही हैं सागर में बडवानल ।
सर्वत्र समाया शान्त-रूप में मानव- तन में है जठरानल ॥7॥
9625
अपश्यमस्य महतो महित्वममर्त्यस्य मर्त्यासु विक्षु ।
नाना हनू विभृते सं भरेते असिन्वती बप्सती भूर्यत्तः॥1॥
स्वयं-प्रकाश तुम्हीं हो प्रभु-वर सबको देते हो धन-धान ।
जग को आलोकित करते हो तुम ही तो हो दया-निधान॥1॥
9626
गुहा शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि ।
अत्राण्यस्मै पड्भि:सं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु॥2॥
नभ ही विशाल मस्तक है तेरा सोम - सूर्य हैं तेरे नैन ।
जठर - रूप में भीतर बैठे भोजन - हेतु सदा बेचैन ॥2॥
9627
प्र मातुः प्रतरं गुह्यमिच्छन्कुमारो न वीरुधः सर्पदुर्वीः ।
ससं न पक्वमविदच्छुचन्तं रिरिह्वांसं रिप उपस्थे अन्तः॥3॥
शिशु की भॉति धरा पर चलते तरु की जड तक जाते हो ।
हे पावक भोजन की खोज में जो मिल जाता वह खाते हो॥3॥
9628
तद्वामृतं रोदसी प्र ब्रवीमि जायमानो मातरा गर्भो अत्ति ।
नाहं देवस्य मर्त्यश्चिकेताग्निरङ्ग विचेता: स प्रचेता: ॥4॥
अग्नि-देवता अति अद्भुत हैं और हम तो अबोध-प्राणी हैं ।
ज्ञातव्य वही है पावन-पावक विविध-विधा के वे ज्ञानी हैं॥4॥
9629
यो अस्मा अन्नं तृष्वा3 दधात्याज्यैर्घृतैर्जुहोति पुष्यति ।
तस्मै सहस्त्रमक्षभिर्वि चक्षेSग्ने विश्वतःप्रत्यङ्ङसि त्वम्॥5॥
हे अग्नि-देव तुम आ जाओ हम हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
तुम अनुकूल सदा रहना हम तुमसे प्यार बहुत करते हैं॥5॥
9630
किं देवेषु त्यज एनश्चकर्थाग्ने पृच्छामि नु त्वामविद्वान् ।
अक्रीळन् क्रीळन्हरिरत्तवेSदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिवासिः॥6॥
अग्नि - देवता क्रोध - रहित हैं वे सबकी रक्षा करते हैं ।
कचरा - मैल जला देते हैं स्वस्थ - नीरोग हमें रखते हैं ॥6॥
9631
विषूचो अश्वान्युयुजे वनेजा ऋजीतिभी रशनाभिर्गृभीतान् ।
चक्षदे मित्रो वसुभिः सुजातः समानृधे पर्वभिर्वावृधानः ॥7॥
दावानल बन वन में फैला वही हैं सागर में बडवानल ।
सर्वत्र समाया शान्त-रूप में मानव- तन में है जठरानल ॥7॥
दावानल बन वन में फैला वही हैं सागर में बडवानल ।
ReplyDeleteसर्वत्र समाया शान्त-रूप में मानव- तन में है जठरानल ॥7॥
तीनों अनलों को नमन