Sunday, 1 December 2013

सूक्त - 104

[ऋषि- अष्टक वैश्वामित्र । देवता-इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

10001
असावि सोमः पुरुहूत तुभ्यं हरिभ्यां यज्ञमुप याहि तूयम्।
तुभ्यं गिरो विप्रवीरा इयाना दधन्विर इन्द्र पिबा सुतस्य॥1॥

हे  सूर्य - देव  स्तुति  करते  हैं  हम  करते  हैं तेरा आवाहन ।
प्रभु हम सभी प्रतीक्षा-रत हैं सोम - पान कर लो  भगवन॥1॥

10002
अप्सु  धूतस्य  हरिवः पिबेह  नृभिः सुतस्य  जठरं  पृणस्व।
मिमिक्षुर्यमद्रय इन्द्र  तुभ्यं तेभिर्वर्धस्व  मदमुक्थवाहः ॥2॥

प्रभु  तुम  सोम - पान  कर  लो  हम  यही  निवेदन करते हैं ।
धन - धान  सदा  देते  रहना हम ध्यान तेरा  ही धरते हैं ॥2॥

10003
प्रोग्रां पीतिं वृष्ण इयर्मि स सत्यां प्रयै सुतस्य हर्यश्व तुभ्यम्।
इन्द्र धेनाभिरिह मादयस्व धीभिर्विश्वाभिःशच्या गृणानः॥3॥

तुम  ही  सुख  देते  हो  भगवन  हम  जानते  हैं तुम आओगे ।
तुम्हें सोम अर्पित करते  हैं  तुम  ज्ञान की बात बताओगे॥3॥

10004
ऊती  शचीवस्तव  वीर्येण   वयो  दधाना   उशिज   ऋतज्ञा: ।
प्रजावदिन्द्र  मनुषो   दुरोणे   तस्थुर्गृणन्तः  सधमाद्यासः ॥4॥

अन्न - धान   हमको   देना   प्रभु   समझदार  सन्तति  देना ।
आनन्द-मग्न हो जीव यहॉं पर अपना आत्मीय बना लेना॥4॥

10005
प्रणीतिभिष्टे   हर्यश्च   सुष्टोः  ससुषुम्नस्य  पुरुरुचो  जनासः ।
मंहिष्ठामूतिं वितिरे दधाना: स्तोतार इन्द्र तव सूनृताभिः ॥5॥

अद्भुत  छवि  है  बल  अपार  है  तुम यश-वैभव के स्वामी हो ।
धन-वैभव हमको देना प्रभु शुभ -चिन्तन के अनुगामी हो॥5॥

10006
उप  ब्रह्माणि  हरिवो  हरिभ्यां  सोमस्य  याहि पीतये सुतस्य ।
इन्द्र त्वा यज्ञःक्षममाणमानड् दाश्वॉं अस्यध्वरस्य प्रकेतः॥6॥

तुम तेज-पुञ्ज हो क्षमाशील हो तुम हो सब विषयों के ज्ञाता ।
सोम तुम्हें अच्छा लगता है तुम हो अक्षय- फल के दाता ॥6॥

10007
सहस्त्रवाजमभिमातिषाहं     सुतेरणं    मघवानं     सुवृक्तिम् ।
उप भूषन्ति गिरो अप्रतीतमिन्द्रं नमस्या जरितुः पनन्त॥7॥

तुम असीम-बल के अधिपति हो हमको भी  दे  दो  चारों बल ।
अन्याय-संग तुम ही लडते हो हमें भी देना शुभ-शुभ फल॥7॥

10008
सप्तापो देवीः सुरणा अमृक्ता याभिः सिन्धुमतर इन्द्र  पूर्भित् ।
नवतिं स्त्रोत्या नव च स्त्रवन्तीर्देवेभ्यो गातुं मनुषे च विन्दः॥8॥

हविष्यान्न   तुम   ही   देते   हो  दुष्ट - दलन  तुम   करते  हो ।
गन्तव्य हमारा हमें प्राप्त हो इसका ध्यान तुम्हीं रखते हो ॥8॥

10009
अपो      महीरभिशस्तेरमुञ्चोSजागरास्वधि     देव     एकः ।
इन्द्र यास्त्वं  वृत्रतूर्ये चकर्थ ताभिर्विश्वायुस्तन्वं  पुपुष्या:॥9॥

मेघ  हमें  जल  दे  देता  है  इस  जगती  के  तुम  पालक हो ।
तुम सबके जीवन-दाता हो तुम जागरूक अभिभावक हो ॥9॥

10010
वीरेण्यः   क्रतुरिन्द्रः   सुशस्तिरुतापि   धेना   पुरुहूतमीट्टे ।
आदर्यद्वृत्रमकृणोदु  लोकं  ससाहे शक्रः पृतना  अभिष्टिः॥10॥

कर्म-योग  का  पाठ -पढाता   रवि करता नहीं कभी आराम ।
वेद-ऋचा महिमा गाती है अनगिन हैं  रवि  के आयाम ॥10॥

10011
शुनं   हुवेम   मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे   नृतमं    वाजसातौ ।
शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सञ्जितं धनानाम्॥11॥

आदित्य-देव का ध्यान धरें हम सूर्य-देव का आवाहन है ।
आलोक-वान है वह परमात्मा वह अनुष्ठान का साधन है॥11॥ 

                 

2 comments:

  1. यथायोग्य सब, अर्पित सबको,
    शान्त, सुवासित, कर दो जग को।

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  2. आदित्य-देव का ध्यान धरें हम सूर्य-देव का आवाहन है ।
    आलोक-वान है वह परमात्मा वह अनुष्ठान का साधन है॥11॥
    बहुत भाव भरी प्रार्थना...

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