[ऋषि- अष्टक वैश्वामित्र । देवता-इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
10001
असावि सोमः पुरुहूत तुभ्यं हरिभ्यां यज्ञमुप याहि तूयम्।
तुभ्यं गिरो विप्रवीरा इयाना दधन्विर इन्द्र पिबा सुतस्य॥1॥
हे सूर्य - देव स्तुति करते हैं हम करते हैं तेरा आवाहन ।
प्रभु हम सभी प्रतीक्षा-रत हैं सोम - पान कर लो भगवन॥1॥
10002
अप्सु धूतस्य हरिवः पिबेह नृभिः सुतस्य जठरं पृणस्व।
मिमिक्षुर्यमद्रय इन्द्र तुभ्यं तेभिर्वर्धस्व मदमुक्थवाहः ॥2॥
प्रभु तुम सोम - पान कर लो हम यही निवेदन करते हैं ।
धन - धान सदा देते रहना हम ध्यान तेरा ही धरते हैं ॥2॥
10003
प्रोग्रां पीतिं वृष्ण इयर्मि स सत्यां प्रयै सुतस्य हर्यश्व तुभ्यम्।
इन्द्र धेनाभिरिह मादयस्व धीभिर्विश्वाभिःशच्या गृणानः॥3॥
तुम ही सुख देते हो भगवन हम जानते हैं तुम आओगे ।
तुम्हें सोम अर्पित करते हैं तुम ज्ञान की बात बताओगे॥3॥
10004
ऊती शचीवस्तव वीर्येण वयो दधाना उशिज ऋतज्ञा: ।
प्रजावदिन्द्र मनुषो दुरोणे तस्थुर्गृणन्तः सधमाद्यासः ॥4॥
अन्न - धान हमको देना प्रभु समझदार सन्तति देना ।
आनन्द-मग्न हो जीव यहॉं पर अपना आत्मीय बना लेना॥4॥
10005
प्रणीतिभिष्टे हर्यश्च सुष्टोः ससुषुम्नस्य पुरुरुचो जनासः ।
मंहिष्ठामूतिं वितिरे दधाना: स्तोतार इन्द्र तव सूनृताभिः ॥5॥
अद्भुत छवि है बल अपार है तुम यश-वैभव के स्वामी हो ।
धन-वैभव हमको देना प्रभु शुभ -चिन्तन के अनुगामी हो॥5॥
10006
उप ब्रह्माणि हरिवो हरिभ्यां सोमस्य याहि पीतये सुतस्य ।
इन्द्र त्वा यज्ञःक्षममाणमानड् दाश्वॉं अस्यध्वरस्य प्रकेतः॥6॥
तुम तेज-पुञ्ज हो क्षमाशील हो तुम हो सब विषयों के ज्ञाता ।
सोम तुम्हें अच्छा लगता है तुम हो अक्षय- फल के दाता ॥6॥
10007
सहस्त्रवाजमभिमातिषाहं सुतेरणं मघवानं सुवृक्तिम् ।
उप भूषन्ति गिरो अप्रतीतमिन्द्रं नमस्या जरितुः पनन्त॥7॥
तुम असीम-बल के अधिपति हो हमको भी दे दो चारों बल ।
अन्याय-संग तुम ही लडते हो हमें भी देना शुभ-शुभ फल॥7॥
10008
सप्तापो देवीः सुरणा अमृक्ता याभिः सिन्धुमतर इन्द्र पूर्भित् ।
नवतिं स्त्रोत्या नव च स्त्रवन्तीर्देवेभ्यो गातुं मनुषे च विन्दः॥8॥
हविष्यान्न तुम ही देते हो दुष्ट - दलन तुम करते हो ।
गन्तव्य हमारा हमें प्राप्त हो इसका ध्यान तुम्हीं रखते हो ॥8॥
10009
अपो महीरभिशस्तेरमुञ्चोSजागरास्वधि देव एकः ।
इन्द्र यास्त्वं वृत्रतूर्ये चकर्थ ताभिर्विश्वायुस्तन्वं पुपुष्या:॥9॥
मेघ हमें जल दे देता है इस जगती के तुम पालक हो ।
तुम सबके जीवन-दाता हो तुम जागरूक अभिभावक हो ॥9॥
10010
वीरेण्यः क्रतुरिन्द्रः सुशस्तिरुतापि धेना पुरुहूतमीट्टे ।
आदर्यद्वृत्रमकृणोदु लोकं ससाहे शक्रः पृतना अभिष्टिः॥10॥
कर्म-योग का पाठ -पढाता रवि करता नहीं कभी आराम ।
वेद-ऋचा महिमा गाती है अनगिन हैं रवि के आयाम ॥10॥
10011
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ ।
शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सञ्जितं धनानाम्॥11॥
आदित्य-देव का ध्यान धरें हम सूर्य-देव का आवाहन है ।
आलोक-वान है वह परमात्मा वह अनुष्ठान का साधन है॥11॥
10001
असावि सोमः पुरुहूत तुभ्यं हरिभ्यां यज्ञमुप याहि तूयम्।
तुभ्यं गिरो विप्रवीरा इयाना दधन्विर इन्द्र पिबा सुतस्य॥1॥
हे सूर्य - देव स्तुति करते हैं हम करते हैं तेरा आवाहन ।
प्रभु हम सभी प्रतीक्षा-रत हैं सोम - पान कर लो भगवन॥1॥
10002
अप्सु धूतस्य हरिवः पिबेह नृभिः सुतस्य जठरं पृणस्व।
मिमिक्षुर्यमद्रय इन्द्र तुभ्यं तेभिर्वर्धस्व मदमुक्थवाहः ॥2॥
प्रभु तुम सोम - पान कर लो हम यही निवेदन करते हैं ।
धन - धान सदा देते रहना हम ध्यान तेरा ही धरते हैं ॥2॥
10003
प्रोग्रां पीतिं वृष्ण इयर्मि स सत्यां प्रयै सुतस्य हर्यश्व तुभ्यम्।
इन्द्र धेनाभिरिह मादयस्व धीभिर्विश्वाभिःशच्या गृणानः॥3॥
तुम ही सुख देते हो भगवन हम जानते हैं तुम आओगे ।
तुम्हें सोम अर्पित करते हैं तुम ज्ञान की बात बताओगे॥3॥
10004
ऊती शचीवस्तव वीर्येण वयो दधाना उशिज ऋतज्ञा: ।
प्रजावदिन्द्र मनुषो दुरोणे तस्थुर्गृणन्तः सधमाद्यासः ॥4॥
अन्न - धान हमको देना प्रभु समझदार सन्तति देना ।
आनन्द-मग्न हो जीव यहॉं पर अपना आत्मीय बना लेना॥4॥
10005
प्रणीतिभिष्टे हर्यश्च सुष्टोः ससुषुम्नस्य पुरुरुचो जनासः ।
मंहिष्ठामूतिं वितिरे दधाना: स्तोतार इन्द्र तव सूनृताभिः ॥5॥
अद्भुत छवि है बल अपार है तुम यश-वैभव के स्वामी हो ।
धन-वैभव हमको देना प्रभु शुभ -चिन्तन के अनुगामी हो॥5॥
10006
उप ब्रह्माणि हरिवो हरिभ्यां सोमस्य याहि पीतये सुतस्य ।
इन्द्र त्वा यज्ञःक्षममाणमानड् दाश्वॉं अस्यध्वरस्य प्रकेतः॥6॥
तुम तेज-पुञ्ज हो क्षमाशील हो तुम हो सब विषयों के ज्ञाता ।
सोम तुम्हें अच्छा लगता है तुम हो अक्षय- फल के दाता ॥6॥
10007
सहस्त्रवाजमभिमातिषाहं सुतेरणं मघवानं सुवृक्तिम् ।
उप भूषन्ति गिरो अप्रतीतमिन्द्रं नमस्या जरितुः पनन्त॥7॥
तुम असीम-बल के अधिपति हो हमको भी दे दो चारों बल ।
अन्याय-संग तुम ही लडते हो हमें भी देना शुभ-शुभ फल॥7॥
10008
सप्तापो देवीः सुरणा अमृक्ता याभिः सिन्धुमतर इन्द्र पूर्भित् ।
नवतिं स्त्रोत्या नव च स्त्रवन्तीर्देवेभ्यो गातुं मनुषे च विन्दः॥8॥
हविष्यान्न तुम ही देते हो दुष्ट - दलन तुम करते हो ।
गन्तव्य हमारा हमें प्राप्त हो इसका ध्यान तुम्हीं रखते हो ॥8॥
10009
अपो महीरभिशस्तेरमुञ्चोSजागरास्वधि देव एकः ।
इन्द्र यास्त्वं वृत्रतूर्ये चकर्थ ताभिर्विश्वायुस्तन्वं पुपुष्या:॥9॥
मेघ हमें जल दे देता है इस जगती के तुम पालक हो ।
तुम सबके जीवन-दाता हो तुम जागरूक अभिभावक हो ॥9॥
10010
वीरेण्यः क्रतुरिन्द्रः सुशस्तिरुतापि धेना पुरुहूतमीट्टे ।
आदर्यद्वृत्रमकृणोदु लोकं ससाहे शक्रः पृतना अभिष्टिः॥10॥
कर्म-योग का पाठ -पढाता रवि करता नहीं कभी आराम ।
वेद-ऋचा महिमा गाती है अनगिन हैं रवि के आयाम ॥10॥
10011
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ ।
शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सञ्जितं धनानाम्॥11॥
आदित्य-देव का ध्यान धरें हम सूर्य-देव का आवाहन है ।
आलोक-वान है वह परमात्मा वह अनुष्ठान का साधन है॥11॥
यथायोग्य सब, अर्पित सबको,
ReplyDeleteशान्त, सुवासित, कर दो जग को।
आदित्य-देव का ध्यान धरें हम सूर्य-देव का आवाहन है ।
ReplyDeleteआलोक-वान है वह परमात्मा वह अनुष्ठान का साधन है॥11॥
बहुत भाव भरी प्रार्थना...