[ऋषि- सिन्धुक्षित् प्रैयमेध । देवता-नदियॉं । छन्द- जगती ।]
9592
प्र सु व आपो महिमानमुत्तमं काऊर्वोचाति सदने विवस्वतः ।
प्र सप्तसप्त त्रेधा हि चक्रमुः प्र सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा॥1॥
जल - देव प्राण की प्यास बुझाना तेरी अद्भुत महिमा है ।
सरिता सागर-सँग मिल जाती सागर की सर्वाधिक गरिमा है॥1॥
9593
प्र तेSरदद्वरुणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजॉं अभ्यद्रवस्त्वम् ।
भूम्या अधि प्रवता यासि सानुना यदेषामग्रं जगतामिरज्यसि॥2॥
प्रबल वेग वाली सरिता तो बहते - बहते कल-कल कहती है ।
फसल बचा-कर यह बहती है बहुधा पर्वत से निकलती है ॥2॥
9594
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्मममुदियर्ति भानुना ।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो न रोरुवत्॥3॥
तीव्र - वेग वाली सरितायें भारी वर्षा सम रव करती हैं ।
लहरों से रवि - रश्मि खेलती अनुपम छटा बिखरती है ॥3॥
9595
अभि त्वा सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वा नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनकक्षसि॥4॥
जैसे माता शिशु से मिलती छोटी नदियॉ इनसे मिलती हैं ।
यह सबको साथ लिए चलती है तट-तोडती निकलती है ॥4॥
9596
इमं मे गंङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया॥5॥
गँगा यमुना सरस्वती सतलुज रावी चिनाब झेलम ।
सोहान वितस्ता व्यास नदी तुम्हें नमन करते हैं हम ॥5॥
9597
तृष्टामया प्रथमं यातवे सजू: सुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।
त्वं सिन्धो कुभया गोमतीं क्रमुं मेहल्वा सरथं याभिरीयसे ॥6॥
हे सरिते सिन्धु सलिल भर-भर तुम सबको बॉटती फिरती हो ।
चञ्चल-शरारती सखियों सँग तुम हँसती हुई निरखती हो ॥6॥
9598
ऋजीत्येनी रुशती महित्वा परि ज्रयांसि भरते रजांसि ।
अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव दर्शता ॥7॥
सिन्धु - नदी में प्रबल - वेग है स्त्री-समान सुन्दर-सौम्या है ।
सबकी प्यास बुझाती फिरती कल-कल बहती यह पूज्या है॥7॥
9599
स्वश्वा सिन्धुः सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती ।
ऊर्णावती युवतिः सीलमायत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्॥8॥
हे सरिते तुम नित - नवीन हो सुख-सौभाग्य तुम्हीं देती हो ।
हर प्राणी की तृषा मिटाती सबको तुम अपना लेती हो ॥8॥
9600
सुखं रथं युयुजे सिन्धुरश्विनं तेन वाजं सनिषदस्मिन्नाजजौ ।
महान्ह्यस्य महिमा पनस्यतेSदब्धस्य स्वयशसो विरप्शिनः॥9॥
सरिता पृथ्वी की प्यास बुझाती वनस्पतियों से भर देती है ।
नदियॉ जननी सम होती हैं सब-सुत-शावक को सेती हैं ॥9॥
9592
प्र सु व आपो महिमानमुत्तमं काऊर्वोचाति सदने विवस्वतः ।
प्र सप्तसप्त त्रेधा हि चक्रमुः प्र सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा॥1॥
जल - देव प्राण की प्यास बुझाना तेरी अद्भुत महिमा है ।
सरिता सागर-सँग मिल जाती सागर की सर्वाधिक गरिमा है॥1॥
9593
प्र तेSरदद्वरुणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजॉं अभ्यद्रवस्त्वम् ।
भूम्या अधि प्रवता यासि सानुना यदेषामग्रं जगतामिरज्यसि॥2॥
प्रबल वेग वाली सरिता तो बहते - बहते कल-कल कहती है ।
फसल बचा-कर यह बहती है बहुधा पर्वत से निकलती है ॥2॥
9594
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्मममुदियर्ति भानुना ।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो न रोरुवत्॥3॥
तीव्र - वेग वाली सरितायें भारी वर्षा सम रव करती हैं ।
लहरों से रवि - रश्मि खेलती अनुपम छटा बिखरती है ॥3॥
9595
अभि त्वा सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वा नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनकक्षसि॥4॥
जैसे माता शिशु से मिलती छोटी नदियॉ इनसे मिलती हैं ।
यह सबको साथ लिए चलती है तट-तोडती निकलती है ॥4॥
9596
इमं मे गंङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया॥5॥
गँगा यमुना सरस्वती सतलुज रावी चिनाब झेलम ।
सोहान वितस्ता व्यास नदी तुम्हें नमन करते हैं हम ॥5॥
9597
तृष्टामया प्रथमं यातवे सजू: सुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।
त्वं सिन्धो कुभया गोमतीं क्रमुं मेहल्वा सरथं याभिरीयसे ॥6॥
हे सरिते सिन्धु सलिल भर-भर तुम सबको बॉटती फिरती हो ।
चञ्चल-शरारती सखियों सँग तुम हँसती हुई निरखती हो ॥6॥
9598
ऋजीत्येनी रुशती महित्वा परि ज्रयांसि भरते रजांसि ।
अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव दर्शता ॥7॥
सिन्धु - नदी में प्रबल - वेग है स्त्री-समान सुन्दर-सौम्या है ।
सबकी प्यास बुझाती फिरती कल-कल बहती यह पूज्या है॥7॥
9599
स्वश्वा सिन्धुः सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती ।
ऊर्णावती युवतिः सीलमायत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्॥8॥
हे सरिते तुम नित - नवीन हो सुख-सौभाग्य तुम्हीं देती हो ।
हर प्राणी की तृषा मिटाती सबको तुम अपना लेती हो ॥8॥
9600
सुखं रथं युयुजे सिन्धुरश्विनं तेन वाजं सनिषदस्मिन्नाजजौ ।
महान्ह्यस्य महिमा पनस्यतेSदब्धस्य स्वयशसो विरप्शिनः॥9॥
सरिता पृथ्वी की प्यास बुझाती वनस्पतियों से भर देती है ।
नदियॉ जननी सम होती हैं सब-सुत-शावक को सेती हैं ॥9॥
प्रबल वेग वाली सरिता तो बहते - बहते कल-कल कहती है ।
ReplyDeleteफसल बचा-कर यह बहती है बहुधा पर्वत से निकलती है ॥2॥
नदियों को माँ कहकर बुलाती इस सभ्यता को नमन