Monday, 2 December 2013

सूक्त - 103

[ऋषि- अप्रतिरथ ऐन्द्र । देवता- इन्द्र-बृहस्पति-अप्पा देवी-मरुद्-गण। छन्द- त्रिष्टुप-अनुष्टुप ।

9988
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीननाम् ।
सङ्क्रन्दनोSनिमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्साकमिन्द्रः॥1॥

सज्जन  को  तुम्हीं  सुरक्षा   देते   दुष्टों   का   करते   हो  संहार ।
राग - द्वेष  से  परे  हो प्रभु - वर  जग  में  आते  हो  बारम्बार॥1॥

9989
सङ्क्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना।
तदिन्द्रेण  जयत  तत्सहध्वं  युधो    नर   इषुहस्तेन  वृष्णा॥2॥

सत्कर्म  हेतु  तत्पर  रहते  हो  अविचल  होकर  भी  लडते  हो ।
नीति-निपुण हो फिर भी प्रभु असुरों से युध्द तुम्हीं करते हो॥2॥

9990
स  इषुहस्तैः स  निषङ्गिभिर्वशी  संस्त्रष्टा  स  युध इन्द्रो गणेन ।
संसृष्टजित्सोमपा   बाहुशर्ध्यु1  ग्रधन्वा   प्रतिहिताभिरस्ता ॥3॥

हे  इन्द्र - देव   तुम  युध्द-वीर  हो रिपु-दमन सदा करते रहना ।
कुशल  धनुर्धारी  भी  तुम  हो  मन - भर  सोम-पान  करना ॥3॥

9991
बृहस्पते     परि     दीया    रथेन     रक्षोहामित्रॉं     अपबाधमानः ।
प्रभञ्जन्त्सेना:प्रमृणो युधा जयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम्॥4॥

असुर - निवारण  तुम  करते  हो  तुम   हो  सबके  पालन -  हार ।
सबकी   रक्षा   तुम   करते   हो   विजयी   होते  हो  बारम्बार ॥4॥

9992
बलविज्ञाय   स्थविरः   प्रवीरः   सहस्वान्वाजी   सहवान   उग्रः ।
अभिवीरो अभिसत्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमा  तिष्ठ  गोवित्॥5॥

चारों -  बल   है   पास   तुम्हारे   हे    महावीर    हे     बलशाली ।
रहो प्रतिष्ठित विजयी- रथ पर अद्भुत है यह विजय - प्रणाली ॥5॥

9993
गोत्रभिदं   गोविदं   वज्रबाहुं   जयन्तमज्म   प्रमृणन्तमोजसा ।
इमं  सजाता  अनु  वीरयध्वमिन्द्रं सखायो अनु सं रभध्वम् ॥6॥

हे  इन्द्र - देव  हे  गो - पालक  हमको  पावन - पथ  दिखलाओ ।
तुम   ही  एक  सहारा  हो  प्रभु  जीवन  का  उद्देश्य  बताओ ॥6॥

9994
अभि  गोत्राणि  सहसा  गाहमानोSदयो  वीरः  शतमन्युरिन्द्रः ।
दुश्च्यवनःपृतनासषाळययुध्यो3Sस्माकं सेना अवतु प्र युत्सु॥7॥

हे  अविचल  हे  अद्वितीय   प्रभु   तुम   सबकी   रक्षा   करना ।
दुष्ट-दमन अति आवश्यक है सज्जन का सदा  ध्यान रखना॥7॥

9995
इन्द्र   आसां   नेता   बृहस्पतिर्दक्षिणा  यज्ञः  पुर   एतु  सोमः ।
देवसेनानामभिभञ्जतीनां  जयन्तीनां   मरुतो  यन्त्वग्रम् ॥8॥

देव - बृहस्पति   सबसे   आगे   हर  जगह  उपस्थित  रहते  हैं ।
मति  की  महिमा सभी मानते मति-अनुसार कर्म-करते हैं ॥8॥

9996
इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य  राज्ञ  आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम् ।
महामनसां  भुवनच्यवानां  घोषो  देवानां जयतामुदस्थात् ॥9॥

आदित्य - अम्बु  और अनिल - देव ये तीनों सँग-सँग रहते हैं  ।
अति  विशाल  है  मन  इनका जय - घोष के साथ ठहरते हैं ॥9॥

9997
उध्दर्षय   मघवन्नायुधान्युत्सत्वनां   मामकानां    मनांसि ।
उद्वृवृत्रहन्वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतां यन्तु  घोषा:॥10॥

कर्म - योग  का  पथ  दिखलाओ  प्रभु प्रेरक-पन्थ प्रदान करो ।
इस  जीवन  में  आनन्द समाए सबकी विपदा तुम्हीं हरो॥10॥

9998
अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु।
अस्माकं वीरा उत्तरे बभवन्त्वस्मॉं उ देवा अवता हवेषु ॥11॥

सदा  सुरक्षा  देना  प्रभु - वर  इस  रण  में विजय हमारी हो ।
सबका प्रभु कल्याण सदा हो असत पर सत ही भारी हो ॥11॥

9999
अमीषं     चित्तं     प्रतिलोभयन्ती    गृहाणाङ्गान्यप्वे    परेहि ।
अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम्॥12॥

असुर - वृत्ति   से   दूर   रहें   हम  हे  प्रभु  तुम   ही  हमें  बचाना ।
मन से तमस मिटाना प्रभुवर और फिर प्रकाश तक ले जाना॥12॥

10000
प्रेता  जयता  नर  इन्द्रो  वः  शर्म  यच्छतु ।
उग्रा वः सन्तु बाहवोSनाधृष्या यथासथ॥13॥

आनंदित हो हम सबका मन सबको सुख-शान्ति प्रदान करो ।
हे  प्रभु हमें समर्थ बनाओ यश - वैभव का भण्डार  भरो ॥13॥     


    

    

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