[ऋषि- अरुण वैतहव्य । देवता- अग्नि । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]
9815
सं जागृवद्भिर्जरमाण इध्यते दमे दमूना इषयन्निळस्पदे ।
विश्वस्य होता हविषो वरेण्यो विभुर्विभावा सुषखा सखीयते॥1॥
हे अग्नि - देव हे परम - मित्र तुम अन्न-धान से घर भरना ।
आलोकवान तुम हो तेजस्वी हवि - भोग ग्रहण करते रहना॥1॥
9816
स दर्शतश्रीरतिथिर्गृहेगृहे वनेवने शिश्रिये तक्ववीरिव ।
जनञ्जनं जन्यो नाति मन्यते विश आ क्षेति विश्यो3विशंविशम्॥॥2॥
तुम ही विद्वान विभूतिवान हो सबसे मिलता है सम्मान ।
घर हो वन हो या आश्रम हो सब जगह पूज्य हो एक समान॥2॥
9817
सुदक्षो दक्षैः क्रतुनासि सुक्रतुरग्ने कविः काव्येनासि विश्ववित्।
वसुर्वसूनां क्षयसि त्वमेक इद् द्यावा च यानि पृथिवी च पुष्यतः॥3॥
तुम नचिकेता नीति-निपुण हो कर्तव्य--कर्म कमनीय-काव्य हो।
समर्थ सार सर्वज्ञ तुम्हीं हो अक्षय - अक्षत - अद्वितीय हो ॥3॥
9818
प्रजानन्नग्ने तव योनिमृत्वियमिळायास्पदे घृतवन्तमासदः ।
आ ते चिकित्र उषसामिवेतयोSरेपसः सूर्यस्येव रश्मयः ॥4॥
उषा - काल की प्रभा - गुलाबी रवि - रश्मियॉं सदृश चञ्चल हो ।
औषधियों की समिधा से ही देदीप्यमान आभा उज्ज्वल हो॥4॥
9819
तव श्रियो वर्ष्यस्येव विद्युतश्चित्राश्चिकित्र उषसां न केतवः ।
यदोषधीरभिसृष्टो वनानि च परि स्वयं चिनुषे अन्नमास्ये॥5॥
जब तुम हविष्यान्न लेते हो स्वयमेव पवन होता है पावन ।
प्राण - वायु तुम ही देते हो रहे सुरक्षित सबका तन - मन ॥5॥
9820
तमोषधीर्दधिरे गर्भमृत्वियं तमापो अग्निं जनयन्त मातरः ।
तमित्समानं वनिनश्च वीरुधोSन्तर्वतीश्च सुवते च विश्वहा॥6॥
अग्निदेव की महिमा भारी सब सुख देते ऋतु - अनुसार ।
वे ही सबके शुभ - चिन्तक हैं पग-पग पाया प्रेम - प्रभार ॥6॥
9821
वातोपधूत इषितो वशॉं अनु तृषु यदन्ना वेविषद्वितिष्ठसे ।
आ ते यतन्ते रथ्यो3यथा पृथक् शर्धांस्यग्ने अजराणि धक्षतः॥7॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं सूर्य - सदृश है उनका रूप ।
जठरानल से मानव - तन में अग्नि - देव का है स्वरूप ॥7॥
9822
मेघाकारं विदथस्य प्रसाधनमग्निं होतारं परिभूतमं मतिम् ।
तमिदर्भे हविष्या समानमित्तमिन्महे वृणते नान्यं त्वत्॥8॥
वे ऋतम्भरा - प्रज्ञा देते हैं रिपु - दल को करते हैं दूर ।
आओ हवि - भोग ग्रहण कर लो सुख देना सबको भरपूर॥8॥
9823
त्वामिदत्र वृणते त्वायवो होतारमग्ने विदथेषु वेधसः ।
यद्देवयन्तो दधति प्रयॉंसि ते हविष्मन्तो मनवो वृक्तबर्हिषः॥9॥
हे अग्नि - देव तुम ही वरेण्य हो हम आवाहन तेरा करते हैं ।
आहुतियॉं तुमको देते हैं बारम्बार नमन करते हैं ॥9॥
9824
तवाग्ने होत्रं तव पोत्रमृत्वियं तव नेष्ट्रं त्वमग्निदृतायतः ।
तव प्रशास्त्रं त्वमध्वरीयसि ब्रह्मा चासि गृहपतिश्च नो दमे॥10॥
यज्ञ - हवन में तुम ही भगवन सब दायित्व निभाते हो ।
विविध रूप में तुम ही प्रभु जी धर्म-कर्म सब सिखलाते हो॥10॥
9825
यस्तुभ्यमग्ने अमृताय मर्त्यः समिधा दाशदुत वा हविष्कृति।
तस्य होता भवसि यासि दूत्य1मुप ब्रूषे यजस्यध्वरीयसि॥11॥
सुधा-स्वरूप तुम्हीं हो भगवन तुम ही मातृ - सदृश सेते हो ।
यजमान रूप में हवि देते हो अग्नि - रूप में हवि लेते हो ॥11॥
9826
इमा अस्मै मतयो वाचो अस्मदॉं ऋचो गिरःसुष्टुतयःसमग्मत।
वसूयवो वसवे जातवेदसे वृध्दासु चिद्वर्धनो यासु चाकनत्॥12॥
अग्नि- देव के हेतु ऋचा का समवेत - स्वरों में होता गान ।
अग्नि- देव धन - वैभव देते अग्नि - देव देते धन - धान ॥12॥
9827
इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नः ।
भूया अन्तरा हृद्यस्य निस्पृशे जायेव पत्य उशती सुवासा:॥13॥
विविध विधा में भॉंति - भॉंति से वेद - मंत्र सब कोई गाओ ।
पावक-पावन पूजन स्वीकारो अग्निदेव मन में बस जाओ॥13॥
9828
यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशा मेषा अवसृष्टास आहुता:।
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदा मतिं जनये चारुमग्नये॥14॥
हवि - भोग ग्रहण करने वाले हे बुध्दि - श्रेष्ठ हे अग्नि - देव ।
सोमाहुति स्वीकार करो प्रभु मति पावन कर दो अग्निदेव॥14॥
9829
अहाव्यग्ने हविरास्ये ते स्त्रुचीव घृतं चम्वीव सोमः ।
वाजसनिं रयिमस्ये सुवीरं प्रशस्तं धेहि यशसं बृहन्तम्॥15॥
प्रज्वलित अग्नि ही तेरा मुख है हवि-भोग प्रेम से खा लेना ।
यश-वैभव प्रदान करना और अन्न - धान सबको देना ॥15॥
9815
सं जागृवद्भिर्जरमाण इध्यते दमे दमूना इषयन्निळस्पदे ।
विश्वस्य होता हविषो वरेण्यो विभुर्विभावा सुषखा सखीयते॥1॥
हे अग्नि - देव हे परम - मित्र तुम अन्न-धान से घर भरना ।
आलोकवान तुम हो तेजस्वी हवि - भोग ग्रहण करते रहना॥1॥
9816
स दर्शतश्रीरतिथिर्गृहेगृहे वनेवने शिश्रिये तक्ववीरिव ।
जनञ्जनं जन्यो नाति मन्यते विश आ क्षेति विश्यो3विशंविशम्॥॥2॥
तुम ही विद्वान विभूतिवान हो सबसे मिलता है सम्मान ।
घर हो वन हो या आश्रम हो सब जगह पूज्य हो एक समान॥2॥
9817
सुदक्षो दक्षैः क्रतुनासि सुक्रतुरग्ने कविः काव्येनासि विश्ववित्।
वसुर्वसूनां क्षयसि त्वमेक इद् द्यावा च यानि पृथिवी च पुष्यतः॥3॥
तुम नचिकेता नीति-निपुण हो कर्तव्य--कर्म कमनीय-काव्य हो।
समर्थ सार सर्वज्ञ तुम्हीं हो अक्षय - अक्षत - अद्वितीय हो ॥3॥
9818
प्रजानन्नग्ने तव योनिमृत्वियमिळायास्पदे घृतवन्तमासदः ।
आ ते चिकित्र उषसामिवेतयोSरेपसः सूर्यस्येव रश्मयः ॥4॥
उषा - काल की प्रभा - गुलाबी रवि - रश्मियॉं सदृश चञ्चल हो ।
औषधियों की समिधा से ही देदीप्यमान आभा उज्ज्वल हो॥4॥
9819
तव श्रियो वर्ष्यस्येव विद्युतश्चित्राश्चिकित्र उषसां न केतवः ।
यदोषधीरभिसृष्टो वनानि च परि स्वयं चिनुषे अन्नमास्ये॥5॥
जब तुम हविष्यान्न लेते हो स्वयमेव पवन होता है पावन ।
प्राण - वायु तुम ही देते हो रहे सुरक्षित सबका तन - मन ॥5॥
9820
तमोषधीर्दधिरे गर्भमृत्वियं तमापो अग्निं जनयन्त मातरः ।
तमित्समानं वनिनश्च वीरुधोSन्तर्वतीश्च सुवते च विश्वहा॥6॥
अग्निदेव की महिमा भारी सब सुख देते ऋतु - अनुसार ।
वे ही सबके शुभ - चिन्तक हैं पग-पग पाया प्रेम - प्रभार ॥6॥
9821
वातोपधूत इषितो वशॉं अनु तृषु यदन्ना वेविषद्वितिष्ठसे ।
आ ते यतन्ते रथ्यो3यथा पृथक् शर्धांस्यग्ने अजराणि धक्षतः॥7॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं सूर्य - सदृश है उनका रूप ।
जठरानल से मानव - तन में अग्नि - देव का है स्वरूप ॥7॥
9822
मेघाकारं विदथस्य प्रसाधनमग्निं होतारं परिभूतमं मतिम् ।
तमिदर्भे हविष्या समानमित्तमिन्महे वृणते नान्यं त्वत्॥8॥
वे ऋतम्भरा - प्रज्ञा देते हैं रिपु - दल को करते हैं दूर ।
आओ हवि - भोग ग्रहण कर लो सुख देना सबको भरपूर॥8॥
9823
त्वामिदत्र वृणते त्वायवो होतारमग्ने विदथेषु वेधसः ।
यद्देवयन्तो दधति प्रयॉंसि ते हविष्मन्तो मनवो वृक्तबर्हिषः॥9॥
हे अग्नि - देव तुम ही वरेण्य हो हम आवाहन तेरा करते हैं ।
आहुतियॉं तुमको देते हैं बारम्बार नमन करते हैं ॥9॥
9824
तवाग्ने होत्रं तव पोत्रमृत्वियं तव नेष्ट्रं त्वमग्निदृतायतः ।
तव प्रशास्त्रं त्वमध्वरीयसि ब्रह्मा चासि गृहपतिश्च नो दमे॥10॥
यज्ञ - हवन में तुम ही भगवन सब दायित्व निभाते हो ।
विविध रूप में तुम ही प्रभु जी धर्म-कर्म सब सिखलाते हो॥10॥
9825
यस्तुभ्यमग्ने अमृताय मर्त्यः समिधा दाशदुत वा हविष्कृति।
तस्य होता भवसि यासि दूत्य1मुप ब्रूषे यजस्यध्वरीयसि॥11॥
सुधा-स्वरूप तुम्हीं हो भगवन तुम ही मातृ - सदृश सेते हो ।
यजमान रूप में हवि देते हो अग्नि - रूप में हवि लेते हो ॥11॥
9826
इमा अस्मै मतयो वाचो अस्मदॉं ऋचो गिरःसुष्टुतयःसमग्मत।
वसूयवो वसवे जातवेदसे वृध्दासु चिद्वर्धनो यासु चाकनत्॥12॥
अग्नि- देव के हेतु ऋचा का समवेत - स्वरों में होता गान ।
अग्नि- देव धन - वैभव देते अग्नि - देव देते धन - धान ॥12॥
9827
इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नः ।
भूया अन्तरा हृद्यस्य निस्पृशे जायेव पत्य उशती सुवासा:॥13॥
विविध विधा में भॉंति - भॉंति से वेद - मंत्र सब कोई गाओ ।
पावक-पावन पूजन स्वीकारो अग्निदेव मन में बस जाओ॥13॥
9828
यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशा मेषा अवसृष्टास आहुता:।
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदा मतिं जनये चारुमग्नये॥14॥
हवि - भोग ग्रहण करने वाले हे बुध्दि - श्रेष्ठ हे अग्नि - देव ।
सोमाहुति स्वीकार करो प्रभु मति पावन कर दो अग्निदेव॥14॥
9829
अहाव्यग्ने हविरास्ये ते स्त्रुचीव घृतं चम्वीव सोमः ।
वाजसनिं रयिमस्ये सुवीरं प्रशस्तं धेहि यशसं बृहन्तम्॥15॥
प्रज्वलित अग्नि ही तेरा मुख है हवि-भोग प्रेम से खा लेना ।
यश-वैभव प्रदान करना और अन्न - धान सबको देना ॥15॥
विविध विधा में भॉंति - भॉंति से वेद - मंत्र सब कोई गाओ ।
ReplyDeleteपावक-पावन पूजन स्वीकारो अग्निदेव मन में बस जाओ॥13॥
अग्नि देव को नमन...आपकी लेखनी की धारा अविरल बहती रहे...
सारगर्भित...गागर में सागर...
ReplyDeleteसुन्दर अनुवाद..
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