Wednesday, 25 December 2013

सूक्त- 81

[ऋषि-विश्वकर्मा भौवन । देवता- विश्वकर्मा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9639
य  इमा  विश्वा  भुवनानि  जुह्वदृषिर्होता  न्यसीदत् पिता नः ।
स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदवरॉ आ  विवेश॥1॥

सृजन  हेतु  वह  परमेश्वर  ही  विश्वकर्मा  का  रूप  धरता  है ।
पूषा बनता पोषण के लिए उत्पत्ति-विलय वह ही करता है॥1॥

9640
किं     स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं     कतमत्स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा वि द्यामौरर्णोन्महिना विश्वचक्षा:॥2॥

इस जगती का आश्रय क्या है  यह  उत्पन्न  हुआ  है  कैसे ।
जग का आश्रय परमात्मा है जग-रचना में समर्थ है जैसे॥2॥

9641
विश्वतश्चक्षुरुत  विश्वतोमुखो  विश्वतोबाहुरुत  विश्वतस्पात् ।
सं  बाहुभ्यां  धमति  सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव  एकः॥3॥

प्रभु सहस्त्र-सामर्थ्य-युक्त  है  वह  नेह-पुञ्ज है  नित्य-नीक ।
निराधार है जग की रचना सम्यक-सुन्दर-संसार-सटीक॥3॥

9642
किं  स्विद्वनं  क उ स वृक्ष आस  यतो  द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन्॥4॥

अपने मन से यह पूछो तुम प्रभु ने क्या-क्या तुम्हें दिया है ।
कैसे वसुधा का सृजन हुआ किस प्रकार से सृजन किया है॥4॥

9643
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा।
शिक्षा सखिभ्यो हविषि स्वधावःस्वयं यजस्व तन्वं वृधानः॥5॥

हे  सृजन - देव  हे  परमेश्वर  तुम  सबके  पालक-पोषक  हो ।
तुम  ही  मेरे  परम-मित्र  हो  तुम  ही  सबके विश्लेषक हो॥5॥

9644
विश्वकर्मन् हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथवीमुत द्याम् ।
मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु॥6॥

पूजा  में  तुम्हीं  पधारो  प्रभुवर  दुष्टों  से  तुम  हमें बचाओ ।
तुम हमको यश-वैभव दे दो मेरे मन-मति में बस जाओ॥6॥

9645
वाचस्पतिं  विश्वकर्माणमूतये  मनोजुवं  वाजे  अद्या  हुवेम ।
स  नो  विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा॥7॥

हे  परमेश्वर  आवाहन  है  तुम  सतत  हमारी  रक्षा  करना ।
तुम निधान हो ज्ञान कर्म के मन में ज्ञान-पिपासा भरना॥7॥          
  

3 comments:

  1. अपने मन से यह पूछो तुम प्रभु ने क्या-क्या तुम्हें दिया है ।
    कैसे वसुधा का सृजन हुआ किस प्रकार से सृजन किया है॥4॥
    खुद में झांकें तब ही सब जवाब मिलते हैं..

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  2. चलता रहे यह मानस कारवां -निश्चय ही एक स्तुत्य कार्य

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  3. सार्थक अभिव्यक्ति दोहों के माध्यम से...

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