[ऋषि-विश्वकर्मा भौवन । देवता- विश्वकर्मा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9639
य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिर्होता न्यसीदत् पिता नः ।
स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदवरॉ आ विवेश॥1॥
सृजन हेतु वह परमेश्वर ही विश्वकर्मा का रूप धरता है ।
पूषा बनता पोषण के लिए उत्पत्ति-विलय वह ही करता है॥1॥
9640
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा वि द्यामौरर्णोन्महिना विश्वचक्षा:॥2॥
इस जगती का आश्रय क्या है यह उत्पन्न हुआ है कैसे ।
जग का आश्रय परमात्मा है जग-रचना में समर्थ है जैसे॥2॥
9641
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः॥3॥
प्रभु सहस्त्र-सामर्थ्य-युक्त है वह नेह-पुञ्ज है नित्य-नीक ।
निराधार है जग की रचना सम्यक-सुन्दर-संसार-सटीक॥3॥
9642
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन्॥4॥
अपने मन से यह पूछो तुम प्रभु ने क्या-क्या तुम्हें दिया है ।
कैसे वसुधा का सृजन हुआ किस प्रकार से सृजन किया है॥4॥
9643
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा।
शिक्षा सखिभ्यो हविषि स्वधावःस्वयं यजस्व तन्वं वृधानः॥5॥
हे सृजन - देव हे परमेश्वर तुम सबके पालक-पोषक हो ।
तुम ही मेरे परम-मित्र हो तुम ही सबके विश्लेषक हो॥5॥
9644
विश्वकर्मन् हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथवीमुत द्याम् ।
मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु॥6॥
पूजा में तुम्हीं पधारो प्रभुवर दुष्टों से तुम हमें बचाओ ।
तुम हमको यश-वैभव दे दो मेरे मन-मति में बस जाओ॥6॥
9645
वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजे अद्या हुवेम ।
स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा॥7॥
हे परमेश्वर आवाहन है तुम सतत हमारी रक्षा करना ।
तुम निधान हो ज्ञान कर्म के मन में ज्ञान-पिपासा भरना॥7॥
9639
य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिर्होता न्यसीदत् पिता नः ।
स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदवरॉ आ विवेश॥1॥
सृजन हेतु वह परमेश्वर ही विश्वकर्मा का रूप धरता है ।
पूषा बनता पोषण के लिए उत्पत्ति-विलय वह ही करता है॥1॥
9640
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा वि द्यामौरर्णोन्महिना विश्वचक्षा:॥2॥
इस जगती का आश्रय क्या है यह उत्पन्न हुआ है कैसे ।
जग का आश्रय परमात्मा है जग-रचना में समर्थ है जैसे॥2॥
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विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः॥3॥
प्रभु सहस्त्र-सामर्थ्य-युक्त है वह नेह-पुञ्ज है नित्य-नीक ।
निराधार है जग की रचना सम्यक-सुन्दर-संसार-सटीक॥3॥
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किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन्॥4॥
अपने मन से यह पूछो तुम प्रभु ने क्या-क्या तुम्हें दिया है ।
कैसे वसुधा का सृजन हुआ किस प्रकार से सृजन किया है॥4॥
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या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा।
शिक्षा सखिभ्यो हविषि स्वधावःस्वयं यजस्व तन्वं वृधानः॥5॥
हे सृजन - देव हे परमेश्वर तुम सबके पालक-पोषक हो ।
तुम ही मेरे परम-मित्र हो तुम ही सबके विश्लेषक हो॥5॥
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विश्वकर्मन् हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथवीमुत द्याम् ।
मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु॥6॥
पूजा में तुम्हीं पधारो प्रभुवर दुष्टों से तुम हमें बचाओ ।
तुम हमको यश-वैभव दे दो मेरे मन-मति में बस जाओ॥6॥
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वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजे अद्या हुवेम ।
स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा॥7॥
हे परमेश्वर आवाहन है तुम सतत हमारी रक्षा करना ।
तुम निधान हो ज्ञान कर्म के मन में ज्ञान-पिपासा भरना॥7॥
अपने मन से यह पूछो तुम प्रभु ने क्या-क्या तुम्हें दिया है ।
ReplyDeleteकैसे वसुधा का सृजन हुआ किस प्रकार से सृजन किया है॥4॥
खुद में झांकें तब ही सब जवाब मिलते हैं..
चलता रहे यह मानस कारवां -निश्चय ही एक स्तुत्य कार्य
ReplyDeleteसार्थक अभिव्यक्ति दोहों के माध्यम से...
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