[ऋषि- अर्बुद काद्रवेय - सर्प । देवता- पाषाण । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]
9860
प्रैते वदन्तु प्र वयं वदाम ग्रावभ्यो वाचं वदता वदद्भ्यः।
यदद्रयःपर्वता:साकमाशवःश्लोकं घोषं भरथेन्द्राय सोमिनः॥1॥
पाषाण की हम पूजा करते हैं कण-कण में क्योंकि कान्हा है ।
पत्थर भी बातें करते हैं हम सब ने ही यह माना है ॥1॥
9861
एते वदन्ति शतवत्सहस्त्रवदभि क्रन्दन्ति हरितेभिरासभिः।
विष्ट्वी ग्रावाणःसुकृतःसुकृत्यया होतुश्चित्पूर्वे हविरद्यमाशत॥2॥
पाषाण हजारों मुख वाला है वह ही हवि-भोग बनाता है ।
हविष्यान्न को सबसे पहले पत्थर - पर कूटा जाता है ॥2॥
9862
एते वदन्त्यविदन्नना मधु न्यूङ्खयन्ते अधि पक्व आमिषि।
वृक्षस्य शाखामरुणस्य बप्सतस्ते सूर्भवा वृषभा:प्रेमराविषुः॥3॥
वृषभ सदृश ही स्वर है इसका अपना भाव प्रकट करता है ।
सोम इसके सहयोग से बनता वह सुख - सम्प्रेषित करता है॥3॥
9863
बृहद्वदन्ति मदिरेण मन्दिनेन्द्रं क्रोशन्तोSविदन्नना मधु ।
संरभ्या धीरा:स्वसृभिरनर्तिषुराघोषयन्तःपृथिवीमुपब्दिभिः॥4॥
पहले सोम यही चखता है फिर देवताओं को मिलता है ।
इसकी शब्द - गर्जना अद्भुत यह झूमता - थिरकता है॥4॥
9864
सुपर्णा वाचमक्रतोप द्यव्याखरे कृष्णा इषिरा अनर्तिषु: ।
न्य1ङ्नि यन्त्युपरस्य निष्कृतं पुरु रेतो दधिरे सूर्यश्वितः॥5॥
यह पंछी सम कलरव करता गोचर में कृष्ण-हरिण लगता है।
विविध - राग- रागिनी गाता गति पाकर नर्तन करता है ॥5॥
9865
उग्राइव प्रवहन्तः समायमुः साकं युक्ता वृषणो बिभ्रतो धुरः ।
यच्छ्वसन्तो जग्रसाना अराविषुः शृण्व एषां प्रोथथो अर्वतामिव॥6॥
रथ को घोडे धारण करते पाषाण यज्ञ धारण करता है ।
सोम-ग्रहण जब यह करता है अश्व-सदृश वह स्वर लगता है॥6॥
9866
दशावनिभ्यो दशकक्ष्येभ्यो दशयोक्त्रेभ्यो दशयोजनेभ्यः ।
दशाभीशुभ्यो अर्चताजरेभ्यो दश धुरो दश युक्ता वहद्भ्यः॥7॥
आओ पाषाण की महिमा गायें मंदिर की परिक्रमा कर आयें ।
मन - मंदिर में उसे बिठायें आओ पूजा के पुष्प चढायें ॥7॥
9867
ते अद्रयो दशयन्त्रास आशवस्तेषामाधानं पर्येति हर्यतम्।
त ऊ सुतस्य सोम्यस्यान्धर्सोSशोःपीयूषं प्रथमस्य भेजिरे॥8॥
ये अँगुलियों का कहा मानते जल्दी से सभी काम निपटाते ।
आलस्य कभी नहीं करते हैं सभी कार्य में झट जुट जाते ॥8॥
9868
ते सोमादो हरी इन्द्रस्य निंसतेंSशुं दुहन्तो अध्यासते गवि ।
तेभिर्दुग्धं पपिवान्त्सोम्यं मध्विन्द्रो वर्धते प्रथते वृषायते॥9॥
पाषाण बडा ही बलशाली है यह भी सोम - पान करता है ।
पाषाण-देव की बात निराली मानव इनकी पूजा करता है॥9॥
9869
वृषा वो अंशुर्न किला रिषाथनेळावन्तः सदमित्स्थनाशिता:।
रैवत्येव महसा चारवःस्थन यस्य ग्रावाणो अजुषध्वमध्वरम्॥10॥
पाषाण निराश नहीं होता है वह हम सबका ही प्रेरक है ।
ईश्वर बन-कर राह दिखाता वह ही सच्चा उपदेशक है॥10॥
9870
तृदिला अतृदिलासो अद्रयोSश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः।
अनातुरा अजरा:स्थामविष्णव:सुपीवसो अतृषिता अतृष्णजः॥11॥
तृष्णा तुम्हें छू नहीं सकती हे पत्थर तुम अच्छे लगते हो ।
स्पृहा कभी पास आ नहीं सकती आशा के ऑंचल में रहते हो॥11॥
9871
ध्रुवा एव वः पितरो युगेयुगे क्षेमकामासः सदसो न युञ्जते ।
अ अजुर्यासो हरिषाचो हरिद्रव आ द्यां रवेण पृथिवीमशुश्रवुः॥12॥
बहुधा पाषाण अचल रहता है पलायन कभी नहीं करता है ।
अपना कोई स्वार्थ नहीं है पर-हित का सदा ध्यान रखता है॥12॥
9872
तदिद्वदन्त्यद्रयो विमोचने यामन्नञ्जस्पाइव घेदुपब्दिभिः।
वपन्तो बीजमिव धान्याकृतःपृञ्वन्ति सोमं न मिनन्ति बप्सतः॥13॥
मन्दिर में मूरत बन-कर भी वह कभी नहीं करता अभिमान।
आता है औरों के काम पत्थर तो है गुण का निधान ॥13॥
9873
सुते अध्वरे अधि वाचमक्रता क्रीलयो न मातरं तुदन्तः ।
वि षू मुञ्चा सुषुवुषो मनीषां वि वर्तन्तामद्रयश्चायमाना:॥14॥
कर्म - योग में जो ध्वनि होती वह ही है उसका देश-गान ।
प्रजातंत्र के मन्दिर में भी दिखता है उसका स्वाभिमान ॥14॥
9860
प्रैते वदन्तु प्र वयं वदाम ग्रावभ्यो वाचं वदता वदद्भ्यः।
यदद्रयःपर्वता:साकमाशवःश्लोकं घोषं भरथेन्द्राय सोमिनः॥1॥
पाषाण की हम पूजा करते हैं कण-कण में क्योंकि कान्हा है ।
पत्थर भी बातें करते हैं हम सब ने ही यह माना है ॥1॥
9861
एते वदन्ति शतवत्सहस्त्रवदभि क्रन्दन्ति हरितेभिरासभिः।
विष्ट्वी ग्रावाणःसुकृतःसुकृत्यया होतुश्चित्पूर्वे हविरद्यमाशत॥2॥
पाषाण हजारों मुख वाला है वह ही हवि-भोग बनाता है ।
हविष्यान्न को सबसे पहले पत्थर - पर कूटा जाता है ॥2॥
9862
एते वदन्त्यविदन्नना मधु न्यूङ्खयन्ते अधि पक्व आमिषि।
वृक्षस्य शाखामरुणस्य बप्सतस्ते सूर्भवा वृषभा:प्रेमराविषुः॥3॥
वृषभ सदृश ही स्वर है इसका अपना भाव प्रकट करता है ।
सोम इसके सहयोग से बनता वह सुख - सम्प्रेषित करता है॥3॥
9863
बृहद्वदन्ति मदिरेण मन्दिनेन्द्रं क्रोशन्तोSविदन्नना मधु ।
संरभ्या धीरा:स्वसृभिरनर्तिषुराघोषयन्तःपृथिवीमुपब्दिभिः॥4॥
पहले सोम यही चखता है फिर देवताओं को मिलता है ।
इसकी शब्द - गर्जना अद्भुत यह झूमता - थिरकता है॥4॥
9864
सुपर्णा वाचमक्रतोप द्यव्याखरे कृष्णा इषिरा अनर्तिषु: ।
न्य1ङ्नि यन्त्युपरस्य निष्कृतं पुरु रेतो दधिरे सूर्यश्वितः॥5॥
यह पंछी सम कलरव करता गोचर में कृष्ण-हरिण लगता है।
विविध - राग- रागिनी गाता गति पाकर नर्तन करता है ॥5॥
9865
उग्राइव प्रवहन्तः समायमुः साकं युक्ता वृषणो बिभ्रतो धुरः ।
यच्छ्वसन्तो जग्रसाना अराविषुः शृण्व एषां प्रोथथो अर्वतामिव॥6॥
रथ को घोडे धारण करते पाषाण यज्ञ धारण करता है ।
सोम-ग्रहण जब यह करता है अश्व-सदृश वह स्वर लगता है॥6॥
9866
दशावनिभ्यो दशकक्ष्येभ्यो दशयोक्त्रेभ्यो दशयोजनेभ्यः ।
दशाभीशुभ्यो अर्चताजरेभ्यो दश धुरो दश युक्ता वहद्भ्यः॥7॥
आओ पाषाण की महिमा गायें मंदिर की परिक्रमा कर आयें ।
मन - मंदिर में उसे बिठायें आओ पूजा के पुष्प चढायें ॥7॥
9867
ते अद्रयो दशयन्त्रास आशवस्तेषामाधानं पर्येति हर्यतम्।
त ऊ सुतस्य सोम्यस्यान्धर्सोSशोःपीयूषं प्रथमस्य भेजिरे॥8॥
ये अँगुलियों का कहा मानते जल्दी से सभी काम निपटाते ।
आलस्य कभी नहीं करते हैं सभी कार्य में झट जुट जाते ॥8॥
9868
ते सोमादो हरी इन्द्रस्य निंसतेंSशुं दुहन्तो अध्यासते गवि ।
तेभिर्दुग्धं पपिवान्त्सोम्यं मध्विन्द्रो वर्धते प्रथते वृषायते॥9॥
पाषाण बडा ही बलशाली है यह भी सोम - पान करता है ।
पाषाण-देव की बात निराली मानव इनकी पूजा करता है॥9॥
9869
वृषा वो अंशुर्न किला रिषाथनेळावन्तः सदमित्स्थनाशिता:।
रैवत्येव महसा चारवःस्थन यस्य ग्रावाणो अजुषध्वमध्वरम्॥10॥
पाषाण निराश नहीं होता है वह हम सबका ही प्रेरक है ।
ईश्वर बन-कर राह दिखाता वह ही सच्चा उपदेशक है॥10॥
9870
तृदिला अतृदिलासो अद्रयोSश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः।
अनातुरा अजरा:स्थामविष्णव:सुपीवसो अतृषिता अतृष्णजः॥11॥
तृष्णा तुम्हें छू नहीं सकती हे पत्थर तुम अच्छे लगते हो ।
स्पृहा कभी पास आ नहीं सकती आशा के ऑंचल में रहते हो॥11॥
9871
ध्रुवा एव वः पितरो युगेयुगे क्षेमकामासः सदसो न युञ्जते ।
अ अजुर्यासो हरिषाचो हरिद्रव आ द्यां रवेण पृथिवीमशुश्रवुः॥12॥
बहुधा पाषाण अचल रहता है पलायन कभी नहीं करता है ।
अपना कोई स्वार्थ नहीं है पर-हित का सदा ध्यान रखता है॥12॥
9872
तदिद्वदन्त्यद्रयो विमोचने यामन्नञ्जस्पाइव घेदुपब्दिभिः।
वपन्तो बीजमिव धान्याकृतःपृञ्वन्ति सोमं न मिनन्ति बप्सतः॥13॥
मन्दिर में मूरत बन-कर भी वह कभी नहीं करता अभिमान।
आता है औरों के काम पत्थर तो है गुण का निधान ॥13॥
9873
सुते अध्वरे अधि वाचमक्रता क्रीलयो न मातरं तुदन्तः ।
वि षू मुञ्चा सुषुवुषो मनीषां वि वर्तन्तामद्रयश्चायमाना:॥14॥
कर्म - योग में जो ध्वनि होती वह ही है उसका देश-गान ।
प्रजातंत्र के मन्दिर में भी दिखता है उसका स्वाभिमान ॥14॥
पाषाण हजारों मुख वाला है वह ही हवि-भोग बनाता है ।
ReplyDeleteहविष्यान्न को सबसे पहले पत्थर - पर कूटा जाता है ॥2॥
जड़ में भी छिपा है चेतन..
रोचक वचन, सुन्दर अनुवाद..
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