[ऋषि- सूर्या-सावित्री । देवता- सोम । छन्द- अनुष्टुप् ।]
9667
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः ।
ऋतेनादि त्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः॥1॥
परमेश्वर के नीति - नियम से ही यह धरती टिकी हुई है ।
आकाश वहीं है अपनी जगह नियम से ही जगती चल रही है॥1॥
9668
सोमेनादित्या बलिनः सोमेन पृथिवी मही ।
अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः॥2॥
आदित्य-देव आलोक-वान हैं सोम अन्न-धन के दाता हैं ।
शस्य-श्यामला यह धरती है सोम-देव बल के दाता हैं॥2॥
9669
सोमं मन्यते पपिवान्यत्संपिंषन्त्योषधिम् ।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥3॥
सोमलतादि वनस्पतियों की ओखद को जब पीसा जाता है ।
सोम उसी रस को कहते हैं अब यह दुर्लभ माना जाता है॥3॥
9670
आच्छद्विधानैर्गुपितो बार्हतैः सोम रक्षितः ।
ग्राव्णामिच्छृण्वन्तिष्ठसि न ते अश्नाति पार्थिवः॥4॥
अग्नि-सोम धरती के रक्षक सोम के रक्षक अग्नि-देव है ।
रक्षित होने के कारण ही सोम हमें उपलब्ध नहीं है॥4॥
9671
यत्त्वा देव प्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः ।
वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः॥5॥
सोम नाम की इस औषधि को रुचि से सभी ग्रहण करते हैं ।
सोम है रक्षित पवन-देव से वे प्रेम से रखवाली करते हैं॥5॥
9672
रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्॥6॥
रवि - तनया ऊषा के विवाह में रैभी ऋचा सखी थी उसकी ।
सेविका-ऋचा थी नाराशंसी मंत्रों से बनी थी साडी जिसकी॥6॥
9673
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अ अभ्यञ्जनम् ।
द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥7॥
रवि-तनया जब ससुराल गई शुभ-चिन्तन परिधान पहनकर।
नयन ही ऊषा का काजल था वसुधा ही थी उसके जेवर॥7॥
9674
स्तोमा आसन्प्रतिधयः कुरीरं छन्द ओपशः ।
सूर्याया अश्विना वराग्निरासीत्पुरोगवः॥8॥
स्तवन ही रथ-चक्र-दण्ड थे कुरीर छन्द का अन्तः भाग ।
अश्विनीकुमार ऊषा के पति थे अग्नि-दूत थे अग्रिम-भाग॥8॥
9675
सोमो वधूयुरर्भवदश्विनास्तामुभा वरा ।
सूर्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविताददात्॥9॥
अश्विनीकुमार ऊषा दोनों ही एक-दूजे पर थे अनुरक्त ।
ऊषा को सोम भी चाहते थे पर अश्विनीकुमार ही थे उपयुक्त॥9॥
9676
मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीदुत च्छादः ।
शुक्रावनङ्वाहावास्तां यदयात्सूर्या ग्रहम्॥10॥
ऊषा ससुराल गई तब उसका मन ही रथ का वाहन था ।
सूर्य-सोम रथ के वाहक थे नभ रथ का सुन्दर वितान था॥10॥
9677
ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावितः ।
श्रोत्रं ते चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः॥11॥
श्रवण ही मन-रथ के पहिए थे ऋक्-साम-गान प्राञ्जल पहरा था।
रथ का पावन - पथ अन्तरिक्ष जो स्वर्णिम और रुपहला था॥11॥
9678
शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहतः ।
अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम्॥12॥
विदा - समय रथ के दो पहिए दीख रहे थे अति उज्ज्वल ।
पवनदेव उस रथ की धुरी थे मन-रथ सुन्दर था दुग्ध-धवल॥12॥
9679
सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत् ।
अघासु ह्न्यन्ते गावोSर्जुन्यो: पर्युह्यते॥13॥
पिता सूर्य ने निज पुत्री को धन-धान से किया मालामाल ।
मघा में गो-धन दान किया फाल्गुनी में फिर भेजा ससुराल॥13॥
9680
यदश्विना पृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण वहतुं सूर्याया: ।
विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रःपितराववृणीत पूषा॥14॥
हे अश्विनीकुमार ऊषा से तुमने विवाह -प्रस्ताव किया था ।
सब देवों का वरद-हस्त था सुत-पूषा ने स्वीकार किया था॥14॥
9681
यदयातं शुभस्पती वरेयं सूर्यामुप ।
क्वैकं चक्रं वामासीत्क्व देष्ट्राय तस्थथुः॥15॥
हे अश्विनीकुमार जिस समय ऊषा - वरण के हेतु गए थे ।
उस समय तुम्हारा ध्यान कहॉ था प्रेम-गली में तुम खोए थे॥15॥
9682
द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः ।
अथैकं चक्रं यद्गुहा तदध्दातय इद्विदुः॥16॥
हे सूर्यदेव ज्ञानी परिचित हैं कर्म-योग से रथ चलता है ।
ऋतु-अनुरूप वेग है उसका गोपनीय है पर कहता है॥16॥
9683
सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च ।
ये भूतस्य प्रचेतस इदं तेभ्योSकरं नमः॥17॥
सूर्य सभी के शुभ-चितक हैं सबका कल्याण वही करते हैं ।
सूर्य-देव सर्वदा स्तुत्य हैं हम सब उन्हें नमन करते हैं॥17॥
9684
पूर्वापरं चरतो माययैतो शिशू क्रीळन्तौ परि याति अध्वरम् ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः॥18॥
सूर्य- चन्द्र आलोक - प्रदाता हँसते ही रहते हैं हरदम ।
कर्म-योग का पाठ-पढाते उन्हें नमन करते हैं हम॥18॥
9685
नवोनवो भवति जायमानोSह्नां केतुरुषसामेत्यगग्रम्।
भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन्प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायुः॥19॥
चन्द्रदेव प्रतिदिन नवीन हैं हम भी प्रतिदिन रहें नवीन ।
बिसराकर आगत-अतीत को वर्तमान में ही हो जायें लीन॥19॥
9686
सुकिंशुकं शल्मलीं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम् ।
आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व॥20॥
शाल्मली-पलाश-तरु से निर्मित स्वर्णिम-रथ-पर होकर सवार।
रवि-तनया तुम पति-गृह जाओ जहॉ प्रेम-मय हो घर-द्वार॥20॥
9687
उदीर्ष्वातः पतिवती ह्ये3षा विश्वावसु नमसा गीर्भिरीळे ।
अन्यामिच्छ पितृषदं व्यक्तां स ते भागो जनुषा तस्य विध्दि॥21॥
ऊषा का पाणिग्रहण हुआ और रवि - तनया ससुराल गई ।
सब लोग वहॉ से विदा हुए दायित्व निभाने और कई॥21॥
9688
उदीर्ष्वातो विश्वावसो नमसेळामहे त्वा ।
अन्यामिच्छ प्रफर्व्यं1 सं जायां पत्या सृज॥22॥
हे पण्डित जी आप विदा हों हम बारम्बार नमन करते हैं ।
विधि-विधान से ब्याह हुआ हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं॥22॥
9689
अनृक्षरा ऋजवः सन्तु पन्था येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्।
समर्यमा सं भगो नो निनीयात्सं जास्पत्यं सुयममस्तु देवा:॥23॥
मार्ग तुम्हारा सरल-सहज हो जीवन सुन्दर हो सुखकर हो ।
तुम दोनों सदा सुखी रहना मन में सब सुख सब रस हो॥23॥
9690
प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेवः।
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेSरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि॥24॥
वरुण-पाश से मुक्त रहो तुम पति-कुल का सदा बढाओ मान ।
अब अपना दायित्व निभाओ तुम हो सूरज की सन्तान॥24॥
9691
प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबध्दाममुतस्करम् ।
यथेयममिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रा सुभगासति॥25॥
पितृ-गृह से तुम्हें अलग करते हैं ससुराल ही है तेरा परिवार ।
धीर-वीर सन्तति पाओ पति का घर हो सुख का आगार॥25॥
9692
पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन ।
गृहान्गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि॥26॥
हे पूषा माता को सादर लाओ अश्विनीकुमार निज रथ में बिठाओ।
निज-भवन हेतु प्रस्थान करो पति होने का कर्तव्य निभाओ॥26॥
9693
इह प्रियं प्रजया ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि।
एना पत्या तन्वं1सं सृजस्वाधा जिव्री विदथमा व व्दाथः॥27॥
सुख-सन्तति ससुराल में पाओ अपनों के प्रति कर्तव्य निभाओ।
पति के सँग अद्वैत रहो तुम सबके हित में समय बिताओ॥27॥
9694
नीललोहितं भवति कृत्यासक्तिर्व्यज्यते ।
एधन्ते अस्या ज्ञातयः पतिर्बन्धेषु बध्यते॥28॥
वधू जब रजस्वला होती है आसक्ति अचानक बढती है ।
परिवार बडा हो जाता है भव-बन्धन की कडी जुडती है॥28॥
9695
परा देहि शामुल्यं ब्रह्मभ्यो वि भजा वसु ।
कृत्यैषा पद्वती भूत्व्या जाया विशते पतिम्॥29॥
तन - मन को सदा स्वच्छ रखें पर-हित के हेतु विचार करें ।
निज - कुटुम्ब का ध्यान रखें पति-सँग परस्पर बात करें॥29॥
9696
अश्रीरा तनूर्भवति रुशती पापयामुया ।
पतिर्यद्वध्वो3 वाससा स्वमङ्गमभिधित्सते॥॥30॥
पति-पत्नी दोनों स्वस्थ रहें नीरोग रहे दोनों का तन-मन ।
परस्पर--पूरक हैं ये दोनों सुख-दुख बॉटें कर लें चिन्तन॥30॥
9697
ये वध्वश्चन्द्रं वहतुं यक्ष्मा यन्ति जनादनु ।
पुनस्तान्यज्ञिया देवा नयन्तु यत आगता:॥31॥
पत्नी का सदा ध्यान रखें वह स्वस्थ रहे और सुखी रहे ।
ससुराल में बहू प्रसन्न रहे वह दुख से ग्रस्त कभी न रहे॥31॥
9698
मा विदन्परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती ।
सुगेभिरर्दुर्गमतीतामप द्रान्त्वरातयः॥32॥
रोग - रूप रिपु- दल से सबको बच-कर दूर ही रहना है ।
हवा-बदलने हेतु भ्रमण हो पर सदा स्वस्थ ही रहना है॥32॥
9699
सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत ।
सौभाग्यमस्यै दत्त्वायाथास्तं वि परेतन॥33॥
नई बहू शुभ की सूचक है सबसे पाती है आशीर्वाद ।
लक्ष्मी-समान वह खुद होती है करती है सुखकर सम्वाद॥33॥
9700
तृष्टमेतत्कटुकमेतदपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे ।
सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात्स इद्वाधूयमर्हति॥॥34॥
बहूरानी सँग जिस घर में कोई अत्याचार कभी करता है ।
वह निंदनीय है और त्याज्य कटुवचन यदि कोई कहता है॥34॥
9701
आशसनं विशसनमथो अधिविकर्तनम् ।
सूर्याया:पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति॥35॥
मलिन-मुख दिखती है रवि-तनया किसने उसका अपमान किया।
परिधान भी उसका फटा हुआ है किसने ऐसा अपराध किया॥35॥
9702
गृभ्णानि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः ।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवा:॥36॥
मैं पति हूँ तुम मेरी पत्नी आदर-अभिवादन करता हूँ ।
मुझे छोडकर कहीं न जाना अनुरोध यही मैं करता हूँ॥36॥
9703
तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या3 वपन्ति ।
या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ॥37॥
हे प्रभु तुम शुभ-चिन्तन देना प्रजनन का पावन प्रवाह हो ।
बीज गर्भ में धारण करने की अभिलाषा का शुभ-विचार हो॥37॥
9704
तुभ्यमग्रे पर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह ।
पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह॥38॥
हे अग्नि-देव आशीष उसे दें वह माता बन कर्तव्य निभाये ।
सुख-सन्तति उसे प्रदान करें निज-कुटुम्ब सम्पूर्ण बनाये॥38॥
9705
पुनः पत्नीमग्निरदादायुषा सह वर्चसा ।
दीर्घायुरस्या यः पतिर्जीवाति शरदः शतम्॥39॥
भगवान अग्नि ने पति-पत्नी को अनगिन-आशीर्वाद दिया है ।
चिर--जीवी हों सुख-स्वरूप हों हम पर यह उपकार किया है॥39॥
9706
सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः ।
तृतीयो अनिष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा:॥40॥
हे ऊषा सोम की पत्नी हो तुम अब अपने कुटुम्ब में मिल जाओ ।
तुम दोनों पति-पत्नी मिलकर अब अपना कर्तव्य निभाओ॥40॥
9707
सोमो ददद् गन्धर्वाय गन्धर्वो दददग्नये ।
रयिं च पुत्रॉश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम्॥41॥
कन्या शान्त - सोम होती है धीरे - धीरे विकसित होती है ।
जब वह जवान हो जाती है तब उसकी शादी होती है॥41॥
9708
इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।
क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे॥42॥
हे वर- वधू साथ में रहना सबके सुख का साधन बनना ।
तुम कर्तव्य - धर्म का पालन जीवन-भर करते रहना॥42॥
9709
आ नः प्रजां जनयतु प्रजापतिराजरसाय समनक्त्वर्यमा ।
अदुर्मङ्गलीः पतिलोकमा विश शं भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥43॥
हे प्रभु हमें सुसन्तति देना हम साथ रहें घर हो जँगल हो ।
सब-कुछ शुभ-शुभ हो जीवन में पूरे कुटुम्ब का मंगल हो॥43॥
9710
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येदधि शिवा पशुभ्यः सुमना: सुवर्चा: ।
वीरसूरर्देवकामा स्योना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥44॥
हे बहू तुम सदा सुखी रहना तुम सबको अपना-पन देना ।
सबके हित का चिन्तन कर ससुराल को तुम अपना लेना॥44॥
9711
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु ।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि॥45॥
परमेश्वर यश - वैभव देना बँधा रहे पूरा परिवार ।
प्राञ्जल-प्रेम-प्रवाह यहॉ हो अन्न-धान का हो भण्डार॥45॥
9712
सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवां भव ।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु॥46॥
हे बहू तुम्हीं गृह-स्वामिनी हो सबका रखना समुचित ध्यान ।
सास-ननद-देवर सबको तुम मधुर-वचन का देना दान ॥46॥
9713
समञ्जन्तु विश्वे देवा: समापो हृदयानि नौ ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥47॥
तुम एक-दूसरे के पूरक हो पावन-पथ पर चलो परस्पर ।
भोजन-शयन और अर्चन भी साथ-साथ करना जीवन-भर॥47॥
9667
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः ।
ऋतेनादि त्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः॥1॥
परमेश्वर के नीति - नियम से ही यह धरती टिकी हुई है ।
आकाश वहीं है अपनी जगह नियम से ही जगती चल रही है॥1॥
9668
सोमेनादित्या बलिनः सोमेन पृथिवी मही ।
अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः॥2॥
आदित्य-देव आलोक-वान हैं सोम अन्न-धन के दाता हैं ।
शस्य-श्यामला यह धरती है सोम-देव बल के दाता हैं॥2॥
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सोमं मन्यते पपिवान्यत्संपिंषन्त्योषधिम् ।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥3॥
सोमलतादि वनस्पतियों की ओखद को जब पीसा जाता है ।
सोम उसी रस को कहते हैं अब यह दुर्लभ माना जाता है॥3॥
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आच्छद्विधानैर्गुपितो बार्हतैः सोम रक्षितः ।
ग्राव्णामिच्छृण्वन्तिष्ठसि न ते अश्नाति पार्थिवः॥4॥
अग्नि-सोम धरती के रक्षक सोम के रक्षक अग्नि-देव है ।
रक्षित होने के कारण ही सोम हमें उपलब्ध नहीं है॥4॥
9671
यत्त्वा देव प्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः ।
वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः॥5॥
सोम नाम की इस औषधि को रुचि से सभी ग्रहण करते हैं ।
सोम है रक्षित पवन-देव से वे प्रेम से रखवाली करते हैं॥5॥
9672
रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्॥6॥
रवि - तनया ऊषा के विवाह में रैभी ऋचा सखी थी उसकी ।
सेविका-ऋचा थी नाराशंसी मंत्रों से बनी थी साडी जिसकी॥6॥
9673
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अ अभ्यञ्जनम् ।
द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥7॥
रवि-तनया जब ससुराल गई शुभ-चिन्तन परिधान पहनकर।
नयन ही ऊषा का काजल था वसुधा ही थी उसके जेवर॥7॥
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स्तोमा आसन्प्रतिधयः कुरीरं छन्द ओपशः ।
सूर्याया अश्विना वराग्निरासीत्पुरोगवः॥8॥
स्तवन ही रथ-चक्र-दण्ड थे कुरीर छन्द का अन्तः भाग ।
अश्विनीकुमार ऊषा के पति थे अग्नि-दूत थे अग्रिम-भाग॥8॥
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सोमो वधूयुरर्भवदश्विनास्तामुभा वरा ।
सूर्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविताददात्॥9॥
अश्विनीकुमार ऊषा दोनों ही एक-दूजे पर थे अनुरक्त ।
ऊषा को सोम भी चाहते थे पर अश्विनीकुमार ही थे उपयुक्त॥9॥
9676
मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीदुत च्छादः ।
शुक्रावनङ्वाहावास्तां यदयात्सूर्या ग्रहम्॥10॥
ऊषा ससुराल गई तब उसका मन ही रथ का वाहन था ।
सूर्य-सोम रथ के वाहक थे नभ रथ का सुन्दर वितान था॥10॥
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ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावितः ।
श्रोत्रं ते चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः॥11॥
श्रवण ही मन-रथ के पहिए थे ऋक्-साम-गान प्राञ्जल पहरा था।
रथ का पावन - पथ अन्तरिक्ष जो स्वर्णिम और रुपहला था॥11॥
9678
शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहतः ।
अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम्॥12॥
विदा - समय रथ के दो पहिए दीख रहे थे अति उज्ज्वल ।
पवनदेव उस रथ की धुरी थे मन-रथ सुन्दर था दुग्ध-धवल॥12॥
9679
सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत् ।
अघासु ह्न्यन्ते गावोSर्जुन्यो: पर्युह्यते॥13॥
पिता सूर्य ने निज पुत्री को धन-धान से किया मालामाल ।
मघा में गो-धन दान किया फाल्गुनी में फिर भेजा ससुराल॥13॥
9680
यदश्विना पृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण वहतुं सूर्याया: ।
विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रःपितराववृणीत पूषा॥14॥
हे अश्विनीकुमार ऊषा से तुमने विवाह -प्रस्ताव किया था ।
सब देवों का वरद-हस्त था सुत-पूषा ने स्वीकार किया था॥14॥
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यदयातं शुभस्पती वरेयं सूर्यामुप ।
क्वैकं चक्रं वामासीत्क्व देष्ट्राय तस्थथुः॥15॥
हे अश्विनीकुमार जिस समय ऊषा - वरण के हेतु गए थे ।
उस समय तुम्हारा ध्यान कहॉ था प्रेम-गली में तुम खोए थे॥15॥
9682
द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः ।
अथैकं चक्रं यद्गुहा तदध्दातय इद्विदुः॥16॥
हे सूर्यदेव ज्ञानी परिचित हैं कर्म-योग से रथ चलता है ।
ऋतु-अनुरूप वेग है उसका गोपनीय है पर कहता है॥16॥
9683
सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च ।
ये भूतस्य प्रचेतस इदं तेभ्योSकरं नमः॥17॥
सूर्य सभी के शुभ-चितक हैं सबका कल्याण वही करते हैं ।
सूर्य-देव सर्वदा स्तुत्य हैं हम सब उन्हें नमन करते हैं॥17॥
9684
पूर्वापरं चरतो माययैतो शिशू क्रीळन्तौ परि याति अध्वरम् ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः॥18॥
सूर्य- चन्द्र आलोक - प्रदाता हँसते ही रहते हैं हरदम ।
कर्म-योग का पाठ-पढाते उन्हें नमन करते हैं हम॥18॥
9685
नवोनवो भवति जायमानोSह्नां केतुरुषसामेत्यगग्रम्।
भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन्प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायुः॥19॥
चन्द्रदेव प्रतिदिन नवीन हैं हम भी प्रतिदिन रहें नवीन ।
बिसराकर आगत-अतीत को वर्तमान में ही हो जायें लीन॥19॥
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सुकिंशुकं शल्मलीं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम् ।
आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व॥20॥
शाल्मली-पलाश-तरु से निर्मित स्वर्णिम-रथ-पर होकर सवार।
रवि-तनया तुम पति-गृह जाओ जहॉ प्रेम-मय हो घर-द्वार॥20॥
9687
उदीर्ष्वातः पतिवती ह्ये3षा विश्वावसु नमसा गीर्भिरीळे ।
अन्यामिच्छ पितृषदं व्यक्तां स ते भागो जनुषा तस्य विध्दि॥21॥
ऊषा का पाणिग्रहण हुआ और रवि - तनया ससुराल गई ।
सब लोग वहॉ से विदा हुए दायित्व निभाने और कई॥21॥
9688
उदीर्ष्वातो विश्वावसो नमसेळामहे त्वा ।
अन्यामिच्छ प्रफर्व्यं1 सं जायां पत्या सृज॥22॥
हे पण्डित जी आप विदा हों हम बारम्बार नमन करते हैं ।
विधि-विधान से ब्याह हुआ हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं॥22॥
9689
अनृक्षरा ऋजवः सन्तु पन्था येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्।
समर्यमा सं भगो नो निनीयात्सं जास्पत्यं सुयममस्तु देवा:॥23॥
मार्ग तुम्हारा सरल-सहज हो जीवन सुन्दर हो सुखकर हो ।
तुम दोनों सदा सुखी रहना मन में सब सुख सब रस हो॥23॥
9690
प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेवः।
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेSरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि॥24॥
वरुण-पाश से मुक्त रहो तुम पति-कुल का सदा बढाओ मान ।
अब अपना दायित्व निभाओ तुम हो सूरज की सन्तान॥24॥
9691
प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबध्दाममुतस्करम् ।
यथेयममिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रा सुभगासति॥25॥
पितृ-गृह से तुम्हें अलग करते हैं ससुराल ही है तेरा परिवार ।
धीर-वीर सन्तति पाओ पति का घर हो सुख का आगार॥25॥
9692
पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन ।
गृहान्गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि॥26॥
हे पूषा माता को सादर लाओ अश्विनीकुमार निज रथ में बिठाओ।
निज-भवन हेतु प्रस्थान करो पति होने का कर्तव्य निभाओ॥26॥
9693
इह प्रियं प्रजया ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि।
एना पत्या तन्वं1सं सृजस्वाधा जिव्री विदथमा व व्दाथः॥27॥
सुख-सन्तति ससुराल में पाओ अपनों के प्रति कर्तव्य निभाओ।
पति के सँग अद्वैत रहो तुम सबके हित में समय बिताओ॥27॥
9694
नीललोहितं भवति कृत्यासक्तिर्व्यज्यते ।
एधन्ते अस्या ज्ञातयः पतिर्बन्धेषु बध्यते॥28॥
वधू जब रजस्वला होती है आसक्ति अचानक बढती है ।
परिवार बडा हो जाता है भव-बन्धन की कडी जुडती है॥28॥
9695
परा देहि शामुल्यं ब्रह्मभ्यो वि भजा वसु ।
कृत्यैषा पद्वती भूत्व्या जाया विशते पतिम्॥29॥
तन - मन को सदा स्वच्छ रखें पर-हित के हेतु विचार करें ।
निज - कुटुम्ब का ध्यान रखें पति-सँग परस्पर बात करें॥29॥
9696
अश्रीरा तनूर्भवति रुशती पापयामुया ।
पतिर्यद्वध्वो3 वाससा स्वमङ्गमभिधित्सते॥॥30॥
पति-पत्नी दोनों स्वस्थ रहें नीरोग रहे दोनों का तन-मन ।
परस्पर--पूरक हैं ये दोनों सुख-दुख बॉटें कर लें चिन्तन॥30॥
9697
ये वध्वश्चन्द्रं वहतुं यक्ष्मा यन्ति जनादनु ।
पुनस्तान्यज्ञिया देवा नयन्तु यत आगता:॥31॥
पत्नी का सदा ध्यान रखें वह स्वस्थ रहे और सुखी रहे ।
ससुराल में बहू प्रसन्न रहे वह दुख से ग्रस्त कभी न रहे॥31॥
9698
मा विदन्परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती ।
सुगेभिरर्दुर्गमतीतामप द्रान्त्वरातयः॥32॥
रोग - रूप रिपु- दल से सबको बच-कर दूर ही रहना है ।
हवा-बदलने हेतु भ्रमण हो पर सदा स्वस्थ ही रहना है॥32॥
9699
सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत ।
सौभाग्यमस्यै दत्त्वायाथास्तं वि परेतन॥33॥
नई बहू शुभ की सूचक है सबसे पाती है आशीर्वाद ।
लक्ष्मी-समान वह खुद होती है करती है सुखकर सम्वाद॥33॥
9700
तृष्टमेतत्कटुकमेतदपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे ।
सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात्स इद्वाधूयमर्हति॥॥34॥
बहूरानी सँग जिस घर में कोई अत्याचार कभी करता है ।
वह निंदनीय है और त्याज्य कटुवचन यदि कोई कहता है॥34॥
9701
आशसनं विशसनमथो अधिविकर्तनम् ।
सूर्याया:पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति॥35॥
मलिन-मुख दिखती है रवि-तनया किसने उसका अपमान किया।
परिधान भी उसका फटा हुआ है किसने ऐसा अपराध किया॥35॥
9702
गृभ्णानि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः ।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवा:॥36॥
मैं पति हूँ तुम मेरी पत्नी आदर-अभिवादन करता हूँ ।
मुझे छोडकर कहीं न जाना अनुरोध यही मैं करता हूँ॥36॥
9703
तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या3 वपन्ति ।
या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ॥37॥
हे प्रभु तुम शुभ-चिन्तन देना प्रजनन का पावन प्रवाह हो ।
बीज गर्भ में धारण करने की अभिलाषा का शुभ-विचार हो॥37॥
9704
तुभ्यमग्रे पर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह ।
पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह॥38॥
हे अग्नि-देव आशीष उसे दें वह माता बन कर्तव्य निभाये ।
सुख-सन्तति उसे प्रदान करें निज-कुटुम्ब सम्पूर्ण बनाये॥38॥
9705
पुनः पत्नीमग्निरदादायुषा सह वर्चसा ।
दीर्घायुरस्या यः पतिर्जीवाति शरदः शतम्॥39॥
भगवान अग्नि ने पति-पत्नी को अनगिन-आशीर्वाद दिया है ।
चिर--जीवी हों सुख-स्वरूप हों हम पर यह उपकार किया है॥39॥
9706
सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः ।
तृतीयो अनिष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा:॥40॥
हे ऊषा सोम की पत्नी हो तुम अब अपने कुटुम्ब में मिल जाओ ।
तुम दोनों पति-पत्नी मिलकर अब अपना कर्तव्य निभाओ॥40॥
9707
सोमो ददद् गन्धर्वाय गन्धर्वो दददग्नये ।
रयिं च पुत्रॉश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम्॥41॥
कन्या शान्त - सोम होती है धीरे - धीरे विकसित होती है ।
जब वह जवान हो जाती है तब उसकी शादी होती है॥41॥
9708
इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।
क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे॥42॥
हे वर- वधू साथ में रहना सबके सुख का साधन बनना ।
तुम कर्तव्य - धर्म का पालन जीवन-भर करते रहना॥42॥
9709
आ नः प्रजां जनयतु प्रजापतिराजरसाय समनक्त्वर्यमा ।
अदुर्मङ्गलीः पतिलोकमा विश शं भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥43॥
हे प्रभु हमें सुसन्तति देना हम साथ रहें घर हो जँगल हो ।
सब-कुछ शुभ-शुभ हो जीवन में पूरे कुटुम्ब का मंगल हो॥43॥
9710
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येदधि शिवा पशुभ्यः सुमना: सुवर्चा: ।
वीरसूरर्देवकामा स्योना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥44॥
हे बहू तुम सदा सुखी रहना तुम सबको अपना-पन देना ।
सबके हित का चिन्तन कर ससुराल को तुम अपना लेना॥44॥
9711
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु ।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि॥45॥
परमेश्वर यश - वैभव देना बँधा रहे पूरा परिवार ।
प्राञ्जल-प्रेम-प्रवाह यहॉ हो अन्न-धान का हो भण्डार॥45॥
9712
सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवां भव ।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु॥46॥
हे बहू तुम्हीं गृह-स्वामिनी हो सबका रखना समुचित ध्यान ।
सास-ननद-देवर सबको तुम मधुर-वचन का देना दान ॥46॥
9713
समञ्जन्तु विश्वे देवा: समापो हृदयानि नौ ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥47॥
तुम एक-दूसरे के पूरक हो पावन-पथ पर चलो परस्पर ।
भोजन-शयन और अर्चन भी साथ-साथ करना जीवन-भर॥47॥
प्रकृति के दर्शन कराती अद्भुत , जीवनसंदेश देती सूक्त
ReplyDeleteआपका यह अनुवाद संग्रहणीय है, साहित्य की अनमोल निधि है।
ReplyDeleteजीवनसंदेश देती सुंदर अभिव्यक्ति ...!
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RECENT POST -: हम पंछी थे एक डाल के.
जीवन के लिए सुंदर संदेश देतीं पंक्तियाँ...बहुत बहुत आभार !
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