[ऋषि-मूर्धन्वान् आङ्गिरस । देवता- सूर्य-वैश्वानर अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9762
हविष्पान्तमजरं स्वर्विदि दिविस्पृश्याहुतं जुष्टमग्नौ ।
तस्य भर्मणे भुवनाय देवा धर्मणे कं स्वधया पप्रथन्त॥1॥
सूर्यदेव सुस्वादु सोमरस सेवनीय स्वीकार करो ।
हे अग्निदेव हम हवि देते हैं खलिहान-धान हर बार भरो॥1॥
9763
गीर्णं भुवनं तमसापगूळ्हमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ ।
तस्य देवा:पृथिवी द्यौरुतापोSरणयन्नोषधीःसख्ये अस्य॥2॥
पृथ्वी तम से आच्छादित थी फिर जग ने आकार लिया ।
अग्निदेव ने तब इस जग को एक नया उपहार दिया॥2॥
9764
देवेभिर्न्विषितो यज्ञियेभिरग्निं स्तोषाण्यजरं बृहन्तम् ।
यो भानुना पृथिवीं द्यामुतेमामाततान रोदसी अन्तरिक्षम्॥3॥
देव सदैव सृजन करते हैं वे जीव - जगत के पोषक हैं ।
यज्ञ - देवता अविनाशी हैं तेज - पुञ्ज वे ही रक्षक हैं॥3॥
9765
यो होतासीत्प्रथमो देवजुष्टो यं समाञ्जन्नाज्येना वृणाना:।
स पतत्रीत्वरं स्था जगद्यच्छ्वात्रमग्निरकृणोज्जातवेदा:॥4॥
शुभ - विचार शुभ - शुभ भावों से यज्ञ - अर्चना जब होती है ।
परिणाम सभी सुखकर होते हैं अभीष्ट-सिध्दि तब होती है॥4॥
9766
यज्जातवेदो भुवनस्य मूर्धन्नतिष्ठो अग्ने सह रोचनेन ।
तं त्वाहेम मतिभिर्गीर्भिरुक्थैःस यज्ञियो अभवो रोदसिप्रा:॥5॥
हे अग्निदेव हे अविनाशी तुम वरद-हस्त हम पर रखना ।
मन - वाणी की ओज बढाना बुध्दि प्रखर करते रहना॥5॥
9767
मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्निस्ततः सूर्यो जायते प्रातरुद्यन् ।
मायामू तु यज्ञियानामेतामपो यत्तूर्णिश्चरति प्रजानन्॥6॥
अग्नि-देवता रात्रि-काल में मस्तक पर निवास करता है ।
प्रातः सूर्य--रूप में खिलता फिर नभ में स्थिर रहता है॥6॥
9768
दृशेन्यो यो महिना समिध्दोSरोचत दिवियोनिर्विबभावा ।
तस्मिन्नग्नौ सूक्तवाकेन देवा हविर्विश्व आजुहवुस्तनूपा:॥7॥
अग्नि - देवता दर्शनीय हैं आलोक - वान तेजस्वी हैं ।
विद्वत् - जन हवि अर्पित करते वे अविनाशी ओजस्वी हैं॥7॥
9769
सूक्तवाकं प्रथममादिदग्निमादिध्दविरजनयन्त देवा: ।
स एषा यज्ञो अभवत्तनूपास्तं द्यौर्वेद तं पृथिवी तमापः॥8॥
वाक् - रूप में सूक्त बने हैं इनकी अद्भुत महिमा है।
उच्चारण से बल बढता है ज्ञान-गम्य इसकी गरिमा है॥8॥
9770
यं देवासोSजनयन्ताग्निं यस्मिन्नाजुहवुर्भुवनानि विश्वा।
सो अर्चिषा पृथिवीं द्यामुतेमामृजूयमानो अतपन्महित्वा॥9॥
हे अग्निदेव आलोक-प्रदाता जिससे जग में जीवन जगता है।
पावक - पावन से पृथ्वी पर प्राणी पग-पग पर पलता है ॥9॥
9771
स्तोमेन हि दिवि देवासो अग्निमजीजनञ्छक्तिभी रोदसिप्राम्।
तमू अकृण्वन् त्रेधा भुवे कं स ओषधीः पचति विश्वरूपा ॥10॥
सर्व व्याप्त हैं अग्नि - देवता वनस्पतियॉं देते अनुकूल ।
औषधियॉं हैं भॉंति - भॉंति की सुखकर जीवन का है मूल॥10॥
9772
यदेदेनमदधुर्यज्ञियासो दिवि देवा: सूर्यमादितेयम् ।
यदा चरिष्णू मिथुनावभूतामादित्प्रापश्यनन्भुवनानि विश्वा॥11॥
जीव-जगत की इस रचना में पावक का है पावन - धाम ।
इस जगती के पालक हैं वे हमको देते हैं धन-धान ॥11॥
9773
विश्वस्मा अग्निं भुवनाय देवा वैश्वानरं केतुमह्नामकृण्वन्।
आ यस्ततानोषसो विभातीरपो ऊर्णोति तमो अर्चिषा यन्॥12॥
अग्नि - देवता तमस मिटाते ज्ञान - आलोक बढाते हैं ।
जग का कल्याण वही करते हैं गन्तव्य वही दिखलाते हैं॥12॥
9774
वैश्वानरं कवयो यज्ञियासोSग्निं देवा अजनयन्नजुर्यम् ।
नक्षत्रं प्रत्नममिनच्चरिष्णु यक्षस्याध्यक्षं तविषं बृहन्तम्॥13॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं अति - अद्भुत है उनका रूप ।
नभ में नित स्थिर रहते हैं दर्शनीय दिखते अनूप॥13॥
9775
वैश्वानरं विश्वहा दीदिवासं मन्त्रैरग्निं कविमच्छा वदामः ।
यो महिम्ना परिबभूवोर्वी उतावस्तादुत देवः परस्तात्॥14॥
हे अग्निदेव तुम ही प्रणम्य हो जग को आलोकित करते हो ।
तुमसे ही चूल्हा जलता है भोजन में स्वाद तुम्हीं भरते हो॥14॥
9776
द्वे स्त्रुती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् ।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च॥15॥
पितर हमारे देव सदृश हैं वे हैं धरती के भगवान ।
श्रुतियों ने भी यही कहा है मातु - पिता हैं देव- समान॥15॥
9777
द्वे समीची बिभृतश्चरन्तं शीर्षतो जातं मनसा विमृष्टम् ।
स प्रत्यङ्विश्वा भुवनानि तस्थावप्रयुच्छन्तरणिर्भ्राजमानः॥16॥
अग्निदेव की गरिमा अद्भुत इस प्रसंग को सभी जानते ।
देदीप्यमान हैं अग्निदेवता उनकी महिमा सभी मानते॥16॥
9778
यत्रा वदेते अवरः परश्च यज्ञन्योः कतरो नौ वि वेद ।
आ शेकुरित्सधमादं सखायो नक्षन्त यज्ञं क इदं वि वोचत्॥17॥
पावक - पवन परस्पर पाते हम दोनों हैं एक समान ।
हम दोनों का दायित्व बराबर यह है हम दोनों को भान॥17॥
9779
कत्यग्नयः कति सूर्यासः कत्युषासः कत्यु स्विदापः ।
नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम्॥18॥
मेरी विनम्र जिज्ञासा यह है पावक के हैं कितने प्रकार ।
प्रश्न नहीं है यह स्पर्धा का उत्सुकता का है यह विचार॥18॥
9780
यावन्मात्रमुषसो न प्रतीकं सुपर्ण्यो 3वसते मातरिश्वः ।
तावद्दधात्युप यज्ञमायन्ब्राह्मणो होतुरवरो निषीदन् ॥19॥
स्थूल - रूप में अग्नि - देव के तीन भेद पाये जाते हैं ।
जठरानल बडवानल और दावानल ये कहलाते हैं ॥19॥
9762
हविष्पान्तमजरं स्वर्विदि दिविस्पृश्याहुतं जुष्टमग्नौ ।
तस्य भर्मणे भुवनाय देवा धर्मणे कं स्वधया पप्रथन्त॥1॥
सूर्यदेव सुस्वादु सोमरस सेवनीय स्वीकार करो ।
हे अग्निदेव हम हवि देते हैं खलिहान-धान हर बार भरो॥1॥
9763
गीर्णं भुवनं तमसापगूळ्हमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ ।
तस्य देवा:पृथिवी द्यौरुतापोSरणयन्नोषधीःसख्ये अस्य॥2॥
पृथ्वी तम से आच्छादित थी फिर जग ने आकार लिया ।
अग्निदेव ने तब इस जग को एक नया उपहार दिया॥2॥
9764
देवेभिर्न्विषितो यज्ञियेभिरग्निं स्तोषाण्यजरं बृहन्तम् ।
यो भानुना पृथिवीं द्यामुतेमामाततान रोदसी अन्तरिक्षम्॥3॥
देव सदैव सृजन करते हैं वे जीव - जगत के पोषक हैं ।
यज्ञ - देवता अविनाशी हैं तेज - पुञ्ज वे ही रक्षक हैं॥3॥
9765
यो होतासीत्प्रथमो देवजुष्टो यं समाञ्जन्नाज्येना वृणाना:।
स पतत्रीत्वरं स्था जगद्यच्छ्वात्रमग्निरकृणोज्जातवेदा:॥4॥
शुभ - विचार शुभ - शुभ भावों से यज्ञ - अर्चना जब होती है ।
परिणाम सभी सुखकर होते हैं अभीष्ट-सिध्दि तब होती है॥4॥
9766
यज्जातवेदो भुवनस्य मूर्धन्नतिष्ठो अग्ने सह रोचनेन ।
तं त्वाहेम मतिभिर्गीर्भिरुक्थैःस यज्ञियो अभवो रोदसिप्रा:॥5॥
हे अग्निदेव हे अविनाशी तुम वरद-हस्त हम पर रखना ।
मन - वाणी की ओज बढाना बुध्दि प्रखर करते रहना॥5॥
9767
मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्निस्ततः सूर्यो जायते प्रातरुद्यन् ।
मायामू तु यज्ञियानामेतामपो यत्तूर्णिश्चरति प्रजानन्॥6॥
अग्नि-देवता रात्रि-काल में मस्तक पर निवास करता है ।
प्रातः सूर्य--रूप में खिलता फिर नभ में स्थिर रहता है॥6॥
9768
दृशेन्यो यो महिना समिध्दोSरोचत दिवियोनिर्विबभावा ।
तस्मिन्नग्नौ सूक्तवाकेन देवा हविर्विश्व आजुहवुस्तनूपा:॥7॥
अग्नि - देवता दर्शनीय हैं आलोक - वान तेजस्वी हैं ।
विद्वत् - जन हवि अर्पित करते वे अविनाशी ओजस्वी हैं॥7॥
9769
सूक्तवाकं प्रथममादिदग्निमादिध्दविरजनयन्त देवा: ।
स एषा यज्ञो अभवत्तनूपास्तं द्यौर्वेद तं पृथिवी तमापः॥8॥
वाक् - रूप में सूक्त बने हैं इनकी अद्भुत महिमा है।
उच्चारण से बल बढता है ज्ञान-गम्य इसकी गरिमा है॥8॥
9770
यं देवासोSजनयन्ताग्निं यस्मिन्नाजुहवुर्भुवनानि विश्वा।
सो अर्चिषा पृथिवीं द्यामुतेमामृजूयमानो अतपन्महित्वा॥9॥
हे अग्निदेव आलोक-प्रदाता जिससे जग में जीवन जगता है।
पावक - पावन से पृथ्वी पर प्राणी पग-पग पर पलता है ॥9॥
9771
स्तोमेन हि दिवि देवासो अग्निमजीजनञ्छक्तिभी रोदसिप्राम्।
तमू अकृण्वन् त्रेधा भुवे कं स ओषधीः पचति विश्वरूपा ॥10॥
सर्व व्याप्त हैं अग्नि - देवता वनस्पतियॉं देते अनुकूल ।
औषधियॉं हैं भॉंति - भॉंति की सुखकर जीवन का है मूल॥10॥
9772
यदेदेनमदधुर्यज्ञियासो दिवि देवा: सूर्यमादितेयम् ।
यदा चरिष्णू मिथुनावभूतामादित्प्रापश्यनन्भुवनानि विश्वा॥11॥
जीव-जगत की इस रचना में पावक का है पावन - धाम ।
इस जगती के पालक हैं वे हमको देते हैं धन-धान ॥11॥
9773
विश्वस्मा अग्निं भुवनाय देवा वैश्वानरं केतुमह्नामकृण्वन्।
आ यस्ततानोषसो विभातीरपो ऊर्णोति तमो अर्चिषा यन्॥12॥
अग्नि - देवता तमस मिटाते ज्ञान - आलोक बढाते हैं ।
जग का कल्याण वही करते हैं गन्तव्य वही दिखलाते हैं॥12॥
9774
वैश्वानरं कवयो यज्ञियासोSग्निं देवा अजनयन्नजुर्यम् ।
नक्षत्रं प्रत्नममिनच्चरिष्णु यक्षस्याध्यक्षं तविषं बृहन्तम्॥13॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं अति - अद्भुत है उनका रूप ।
नभ में नित स्थिर रहते हैं दर्शनीय दिखते अनूप॥13॥
9775
वैश्वानरं विश्वहा दीदिवासं मन्त्रैरग्निं कविमच्छा वदामः ।
यो महिम्ना परिबभूवोर्वी उतावस्तादुत देवः परस्तात्॥14॥
हे अग्निदेव तुम ही प्रणम्य हो जग को आलोकित करते हो ।
तुमसे ही चूल्हा जलता है भोजन में स्वाद तुम्हीं भरते हो॥14॥
9776
द्वे स्त्रुती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् ।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च॥15॥
पितर हमारे देव सदृश हैं वे हैं धरती के भगवान ।
श्रुतियों ने भी यही कहा है मातु - पिता हैं देव- समान॥15॥
9777
द्वे समीची बिभृतश्चरन्तं शीर्षतो जातं मनसा विमृष्टम् ।
स प्रत्यङ्विश्वा भुवनानि तस्थावप्रयुच्छन्तरणिर्भ्राजमानः॥16॥
अग्निदेव की गरिमा अद्भुत इस प्रसंग को सभी जानते ।
देदीप्यमान हैं अग्निदेवता उनकी महिमा सभी मानते॥16॥
9778
यत्रा वदेते अवरः परश्च यज्ञन्योः कतरो नौ वि वेद ।
आ शेकुरित्सधमादं सखायो नक्षन्त यज्ञं क इदं वि वोचत्॥17॥
पावक - पवन परस्पर पाते हम दोनों हैं एक समान ।
हम दोनों का दायित्व बराबर यह है हम दोनों को भान॥17॥
9779
कत्यग्नयः कति सूर्यासः कत्युषासः कत्यु स्विदापः ।
नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम्॥18॥
मेरी विनम्र जिज्ञासा यह है पावक के हैं कितने प्रकार ।
प्रश्न नहीं है यह स्पर्धा का उत्सुकता का है यह विचार॥18॥
9780
यावन्मात्रमुषसो न प्रतीकं सुपर्ण्यो 3वसते मातरिश्वः ।
तावद्दधात्युप यज्ञमायन्ब्राह्मणो होतुरवरो निषीदन् ॥19॥
स्थूल - रूप में अग्नि - देव के तीन भेद पाये जाते हैं ।
जठरानल बडवानल और दावानल ये कहलाते हैं ॥19॥
अग्निदेव के विषय में रोचक तथ्य सुन्दर दोहों में...संस्कृत तो अपने बस की नहीं...
ReplyDeleteधरा और अग्नि का सुक्त मे अनोखा संयोग
ReplyDeleteबहुत सुंदर बोध देती ऋचाएं..
ReplyDeleteहे अग्निदेव हे अविनाशी तुम वरद-हस्त हम पर रखना ।
मन - वाणी की ओज बढाना बुध्दि प्रखर करते रहना॥5॥