Tuesday, 17 December 2013

सूक्त - 88

[ऋषि-मूर्धन्वान् आङ्गिरस । देवता- सूर्य-वैश्वानर अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9762
हविष्पान्तमजरं   स्वर्विदि   दिविस्पृश्याहुतं   जुष्टमग्नौ ।
तस्य  भर्मणे भुवनाय देवा धर्मणे कं स्वधया पप्रथन्त॥1॥

सूर्यदेव   सुस्वादु   सोमरस   सेवनीय   स्वीकार   करो ।
हे अग्निदेव हम हवि देते हैं खलिहान-धान हर बार भरो॥1॥

9763
गीर्णं   भुवनं   तमसापगूळ्हमाविः  स्वरभवज्जाते  अग्नौ ।
तस्य देवा:पृथिवी द्यौरुतापोSरणयन्नोषधीःसख्ये अस्य॥2॥

पृथ्वी  तम  से  आच्छादित  थी फिर जग ने आकार लिया ।
अग्निदेव  ने  तब  इस  जग  को एक नया उपहार दिया॥2॥

9764
देवेभिर्न्विषितो  यज्ञियेभिरग्निं  स्तोषाण्यजरं  बृहन्तम् ।
यो भानुना पृथिवीं द्यामुतेमामाततान रोदसी अन्तरिक्षम्॥3॥

देव  सदैव  सृजन  करते  हैं  वे  जीव - जगत के पोषक हैं ।
यज्ञ - देवता  अविनाशी  हैं  तेज - पुञ्ज वे ही रक्षक हैं॥3॥

9765
यो होतासीत्प्रथमो देवजुष्टो यं समाञ्जन्नाज्येना वृणाना:।
स पतत्रीत्वरं स्था जगद्यच्छ्वात्रमग्निरकृणोज्जातवेदा:॥4॥

शुभ - विचार शुभ - शुभ भावों से यज्ञ - अर्चना जब होती है ।
परिणाम सभी सुखकर होते हैं अभीष्ट-सिध्दि तब होती है॥4॥

9766
यज्जातवेदो  भुवनस्य  मूर्धन्नतिष्ठो  अग्ने  सह  रोचनेन ।
तं त्वाहेम मतिभिर्गीर्भिरुक्थैःस यज्ञियो अभवो रोदसिप्रा:॥5॥

हे अग्निदेव हे अविनाशी तुम वरद-हस्त हम पर रखना ।
मन - वाणी की ओज बढाना बुध्दि प्रखर करते रहना॥5॥

9767
मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्निस्ततः सूर्यो जायते प्रातरुद्यन् ।
मायामू तु यज्ञियानामेतामपो यत्तूर्णिश्चरति प्रजानन्॥6॥

अग्नि-देवता रात्रि-काल में मस्तक पर निवास करता है ।
प्रातः सूर्य--रूप में खिलता फिर नभ में स्थिर रहता है॥6॥

9768
दृशेन्यो यो महिना समिध्दोSरोचत दिवियोनिर्विबभावा ।
तस्मिन्नग्नौ सूक्तवाकेन देवा हविर्विश्व आजुहवुस्तनूपा:॥7॥

अग्नि - देवता  दर्शनीय  हैं  आलोक - वान  तेजस्वी  हैं ।
विद्वत् - जन हवि अर्पित करते वे अविनाशी ओजस्वी हैं॥7॥

9769
सूक्तवाकं प्रथममादिदग्निमादिध्दविरजनयन्त देवा: ।
स एषा यज्ञो अभवत्तनूपास्तं द्यौर्वेद तं पृथिवी तमापः॥8॥

वाक् - रूप  में  सूक्त  बने  हैं  इनकी  अद्भुत  महिमा  है।
उच्चारण से बल बढता है ज्ञान-गम्य इसकी गरिमा है॥8॥

9770
यं देवासोSजनयन्ताग्निं यस्मिन्नाजुहवुर्भुवनानि विश्वा।
सो अर्चिषा पृथिवीं द्यामुतेमामृजूयमानो अतपन्महित्वा॥9॥

हे अग्निदेव आलोक-प्रदाता जिससे जग में जीवन जगता है।
पावक - पावन से पृथ्वी पर प्राणी पग-पग पर पलता है ॥9॥

9771
स्तोमेन हि दिवि देवासो अग्निमजीजनञ्छक्तिभी रोदसिप्राम्।
तमू अकृण्वन् त्रेधा भुवे कं  स ओषधीः पचति विश्वरूपा ॥10॥

सर्व  व्याप्त  हैं  अग्नि - देवता  वनस्पतियॉं  देते  अनुकूल ।
औषधियॉं हैं भॉंति - भॉंति की सुखकर जीवन का है मूल॥10॥

9772
यदेदेनमदधुर्यज्ञियासो     दिवि     देवा:     सूर्यमादितेयम् ।
यदा चरिष्णू मिथुनावभूतामादित्प्रापश्यनन्भुवनानि विश्वा॥11॥

जीव-जगत की इस रचना में पावक का है पावन - धाम ।
इस जगती के पालक हैं वे हमको देते हैं धन-धान ॥11॥

9773
विश्वस्मा अग्निं भुवनाय देवा वैश्वानरं केतुमह्नामकृण्वन्।
आ यस्ततानोषसो विभातीरपो ऊर्णोति तमो अर्चिषा यन्॥12॥

अग्नि - देवता  तमस  मिटाते  ज्ञान - आलोक  बढाते  हैं ।
जग का कल्याण वही करते  हैं गन्तव्य वही दिखलाते हैं॥12॥

9774
वैश्वानरं कवयो यज्ञियासोSग्निं देवा अजनयन्नजुर्यम् ।
नक्षत्रं प्रत्नममिनच्चरिष्णु यक्षस्याध्यक्षं तविषं बृहन्तम्॥13॥

अग्नि - देव  अति  तेजस्वी  हैं  अति - अद्भुत है उनका रूप ।
नभ  में  नित  स्थिर  रहते  हैं  दर्शनीय  दिखते  अनूप॥13॥

9775
वैश्वानरं  विश्वहा  दीदिवासं  मन्त्रैरग्निं  कविमच्छा  वदामः ।
यो  महिम्ना  परिबभूवोर्वी  उतावस्तादुत  देवः परस्तात्॥14॥

हे  अग्निदेव तुम ही प्रणम्य हो जग को आलोकित करते हो ।
तुमसे ही चूल्हा जलता है भोजन में स्वाद तुम्हीं भरते हो॥14॥

9776
द्वे   स्त्रुती   अशृणवं   पितृणामहं   देवानामुत   मर्त्यानाम् ।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च॥15॥

पितर   हमारे  देव  सदृश  हैं  वे  हैं   धरती   के   भगवान ।
श्रुतियों ने भी यही कहा है मातु - पिता  हैं  देव- समान॥15॥

9777
द्वे  समीची  बिभृतश्चरन्तं  शीर्षतो  जातं  मनसा  विमृष्टम् ।
स प्रत्यङ्विश्वा भुवनानि तस्थावप्रयुच्छन्तरणिर्भ्राजमानः॥16॥

अग्निदेव की गरिमा अद्भुत इस प्रसंग को सभी जानते ।
देदीप्यमान हैं अग्निदेवता उनकी महिमा सभी मानते॥16॥

9778
यत्रा  वदेते  अवरः  परश्च  यज्ञन्योः  कतरो  नौ  वि  वेद ।
आ शेकुरित्सधमादं सखायो नक्षन्त यज्ञं क इदं वि वोचत्॥17॥

पावक - पवन  परस्पर  पाते  हम  दोनों  हैं  एक  समान ।
हम दोनों का दायित्व बराबर यह है हम दोनों को भान॥17॥

9779
कत्यग्नयः  कति  सूर्यासः  कत्युषासः  कत्यु  स्विदापः ।
नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम्॥18॥

मेरी  विनम्र  जिज्ञासा  यह  है  पावक के हैं कितने प्रकार ।
प्रश्न नहीं है यह स्पर्धा का उत्सुकता का है यह विचार॥18॥

9780
यावन्मात्रमुषसो  न  प्रतीकं  सुपर्ण्यो 3वसते  मातरिश्वः ।
तावद्दधात्युप  यज्ञमायन्ब्राह्मणो होतुरवरो निषीदन् ॥19॥

स्थूल - रूप  में  अग्नि - देव  के  तीन  भेद  पाये  जाते हैं ।
जठरानल  बडवानल और  दावानल  ये  कहलाते  हैं ॥19॥  
        


       
      

3 comments:

  1. अग्निदेव के विषय में रोचक तथ्य सुन्दर दोहों में...संस्कृत तो अपने बस की नहीं...

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  2. धरा और अग्नि का सुक्त मे अनोखा संयोग

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  3. बहुत सुंदर बोध देती ऋचाएं..
    हे अग्निदेव हे अविनाशी तुम वरद-हस्त हम पर रखना ।
    मन - वाणी की ओज बढाना बुध्दि प्रखर करते रहना॥5॥

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