Friday, 6 December 2013

सूक्त - 99

[ऋषि-वम्र वैखानस । ।देवता-इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9940
कं  नश्चित्रमिषण्यसि  चिकित्वान्पृथुग्मानं वाश्रं वावृधध्यै।
कत्तस्य   दातु  शवसो  व्युष्टौ  तक्षद्वज्रं  वृत्रतुरमपिन्वत् ॥1॥

हे   परमेश्वर  हे  वैभव - शाली  मनो - कामना  पूरी  करना ।
मेघों  से  समुचित  जल  देना धान से सबका  घर भरना॥1॥

9941
स  हि  द्युता  विद्युता  वेति  साम  पृथुं योनिमसुरत्वा ससाद ।
स सनीळेभिःप्रसहानो अस्य भ्रातुर्न ऋते सप्तथस्य माया:॥2॥

मेघ-मरुत का सँग अनूठा इनसे धरती को जल मिलता है ।
अन्न-उपजता भॉंति-भॉंति का मनउपवन सबका खिलता है॥2॥

9942
स  वाजं  यातापदुष्पदा  यन्त्स्वर्षाता  परि  षदत्सनिष्यन् ।
अनर्वा यच्छतदुरस्य वेदो घ्नञ्छिश्नददेवॉं अभि वर्पसा भूत्॥3॥

सत्पथ  पर  चलता  हुआ मनुज ही ज्ञान - वान  बन  पाता  है ।
सबका हित करने वाले को सुख- मय जीवन मिल जाता है ॥3॥

9943
स  यह्वयो3Sवनीर्गोष्वर्वा  जुहोति  प्रधन्यासु  सस्त्रिः ।
अपादो यत्र युज्यासोSरथा द्रोण्यश्वास ईरते घृतं वा:॥4॥

वर्षा  का  जल  खेतों  पर  गिरता  अधिक  अन्न  उपजाता  है ।
विविध किस्म के अन्न सब्ज़ियॉं हर-जीव पेट-भर खाता है॥4॥

9944
स  रुद्रेभिरशस्तवार  ऋभ्वा  हित्वी  गयमारेअवद्य  आगात् ।
वम्रस्य मन्ये मिथुना विवव्री अन्नमभीत्यारोदयन्मुषायन्॥5॥

पवन - देव  की  महिमा  भारी  अवगुण  उडा - उडा  ले  जाते ।
सज्जन  को महिमा - मण्डित कर वे सबको नीरोग बनाते ॥5॥

9945
स   इद्दासं   तुवीरवं   पतिर्दन्षळक्षं   त्रिशीर्षाणं   दमन्यत् ।
अस्य त्रितो  न्वोजसा  वृधानो विपा वराहमयोअग्रया हन्॥6॥

पवन - देव  मेघों  से  मिल - कर  पृथ्वी  पर जल बरसाते हैं ।
अति  समर्थ  हैं  पवन - देवता  वे सबकी प्यास बुझाते हैं ॥6॥

9946
स  द्रुह्वणे  मनुष  ऊर्ध्वसान  आ  साविषदर्शसानाय  शरुम् ।
स  नृतमो  नहुषोSस्मत्सुजातः पुरोSभिनदर्हन्दस्युहत्ये॥7॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक है हे इन्द्र - देव तुम रक्षा करना ।
पूजनीय  हो  तुम्हीं  हमारे  तुम सभी अपेक्षा पूरी करना ॥7॥

9947
सो  अभ्रियो  न  यवस  उदन्यन्क्षयाय गातुं विदन्नो अस्मे ।
उप  यत्सीददिन्दुं  शरीरैः  श्येनोSयोपाष्टिर्हन्ति  दस्यून् ॥8॥

काले - बादल  जैसे  जल देकर धरती का आलिंगन करते हैं ।
वैसे ही राजा प्रजा-जनों को घर हेतु ज़मीन दिया करते हैं॥8॥

9948
स  व्राधतः शवसानेभिरस्य  कुत्साय  शुष्णं  कृपणे  परादात् ।
अयं कविमनयच्छस्यमानमत्कं यो अस्य सनितोत नृणाम्॥9॥

पावन  -पवन - प्रबल है अतिशय रिपु-दल को दूर फेंक देता है ।
अग्नि - देव को चँवर -डुलाता आत्मीय-मान अपना लेता है॥9॥

9949
अयं   दशस्यन्नर्येभिरस्य   दस्मो   देवेभिर्वरुणो   न   मायी ।
अयं    कनीन    ऋतुपा    अवेद्यमिमीताररुं    यश्चतुष्पात्॥10॥

प्राण- पवन  सबको  सुख  देता  वह  सबका  है  जीवन - दाता ।
आदित्य-पवन की महिमा भारी ये दोनों हैं भाग्य-विधाता॥10॥

9950
अस्य स्तोमेभिरौशिज ऋ ऋजिश्वा व्रज दरयद्वृवृषभेण पिप्रोः ।
सुत्वा यद्यजतो दीदयद्गीः द्गीः पुर इयानो अभि वर्पसा भूत्॥11॥

ज्ञान - वान  बनता  जब  मानव  बढ  जाता  है  उसका  मान ।
आत्म - शक्ति बढ जाती उसकी देह-मुक्ति का होता भान ॥11॥

9951
एवा  महो  असुर  वक्षथाय  वम्रकः   पड्भिरुप   सर्पदिन्द्रम् ।
स इयानःकरति स्वस्तिमस्मा इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभा:॥12॥

हे  परमेश्वर  हे  बलशाली  कैसे  हो  प्रभु - जी  आत्म - बोध ।
आत्म- ज्ञान यदि हो जाए तो सत्संग से कर सकते हैं शोध॥12॥            
   
       

 

2 comments:

  1. सरल भावानुवाद

    ReplyDelete
  2. सत्पथ पर चलता हुआ मनुज ही ज्ञान - वान बन पाता है ।
    सबका हित करने वाले को सुख- मय जीवन मिल जाता है ॥3॥

    सुंदर संदेश...

    ReplyDelete