[ऋषि- शार्यात मानव । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती ।]
9830
यज्ञस्य यो रथ्यं विश्पतिं विशां होतारमक्तोरतिथिं विभावसुम्।
शोचञ्छुष्कासु हरिणीषु जर्भुरद्वृषा केतुर्यजतो द्यामशायत॥1॥
हे अग्नि - देव पावक - पावन तुम सबकी रक्षा करते हो ।
पुनीत-यज्ञ के ध्वज-स्वरूप गगन में शयन तुम्हीं करते हो॥1॥
9831
इममञ्जस्पामुभये अकृण्वत धर्माणमग्निं विदथस्य साधनम्।
अक्तुं न य यह्वमुषसः पुरोहितं तनूनपातमरुषस्य निंसते॥2॥
तुम सर्वोपरि तुम संरक्षक तुम्हीं धर्म - धारण करते हो ।
तुम ही पडिण्त तुम्ही पुरोधा सूर्य - देव सम तुम लगते हो॥2॥
9832
बळस्य नीथा वि पणेश्च मन्महे वया अस्य प्रहुता आसुरत्तवे ।
यदा घोरासो अमृतत्वमाशतादिज्जनस्य दैव्यस्य कचर्किरन्॥3॥
हवि-भोग ग्रहण करना प्रभु-वर हम यही निवेदन करते हैं ।
जब अग्नि प्रज्वलित होती है तब आहुति अर्पित करते हैं ॥3॥
9833
ऋतस्य हि प्रसितिर्द्यौररुरु व्यचो नमो मह्य1रमतिः पनीयसी ।
इन्द्रो मित्रो वरुणः सं चिकित्रिरेथो भगः सविता पूतदक्षतः॥4॥
यज्ञ - अग्नि को सभी देवता सादर सदा नमन करते हैं ।
उन्हें प्रेम से सब निहारते परम -प्रिय - पूज्य समझते हैं॥4॥
9834
प्र रुद्रेण ययिना यन्ति सिन्धवस्तिरो महीमरमतिं दधन्विरे ।
येभिः परिज्मा प प्रियन्नुरु ज्रयो वि रोरुवज्जठरे विश्वमुक्षते॥5॥
वेग - वती सरिता बहती है जन - जन की प्यास बुझाती है ।
घन नभ में निनाद करते हैं धरती की तपन मिट जाती है ॥5॥
9835
क्राणा रुद्रा मरुतो विश्वकृष्टयो दिवः श्येनासो असुरस्य नीळयः।
तेभिश्चष्टे वरुणो मित्रो अर्यमेन्द्रो देवेभिरर्वशेभिरर्वशः ॥॥6॥
पञ्चभूत ये सभी शक्तियॉं सबकी रक्षा में जुट जाती हैं ।
संघ - शक्ति में अद्भुत बल है पर - सेवा में सुख पाती हैं॥6॥
9836
इन्द्रे भुजं शशमानास आशत सूरो दृशीके वृषणश्च पौंष्ये ।
प्र ये न्वस्यार्हणा ततक्षिरे युजं वज्रं नृषदनेषु कारवः ॥7॥
इन्द्र - देव देते संरक्षण दृष्टि - शक्ति सूरज देते हैं ।
ये सबको बल - वैभव देते स्नेह - सहित अपना लेते हैं ॥7॥
9837
सूरश्चिदा हरितो अस्य रीरमदिन्द्रादा कश्चिद्भयते तवीयसः ।
भीमस्य वृष्णो जठरादबभिश्वसो दिवेदिवे सहुरिःस्तन्नबाधितः॥8॥
सूर्य - देव सबको सुख देते जन - जन को प्रसन्न करते हैं ।
आलोक और ऊष्मा देते हैं कर्म - योग पथ पर चलते हैं ॥8॥
9838
स्तोमं वो अद्य रुद्राय शिक्वसे क्षयद्वीराय नमसा दिदिष्टन ।
येभिःशिवःस्ववॉं एवयावभिर्दिवःसिषक्ति स्वयशा निकामभिः॥9॥
यदि मन में संकल्प उठे तो मानव सुख से जी सकता है ।
परमेश्वर मेरे अपना है हर मन से वही जुडा रहता है ॥9॥
9839
ते हि प्रजाया अभरन्त वि श्रवो बृहस्पतिरर्वृषभः सोमजामयः।
यज्ञैरथर्वा प्रथमो वि धारयद्देवा दक्षैर्भृगवः सं चिकित्रिरे ॥10॥
अन्न - धान देकर उस प्रभु ने हम सब पर उपकार किया है ।
सदा अनुग्रह करना प्रभु जी तुमने हमें कृतार्थ किया है ॥10॥
9840
तेहि द्यावापृथिवी भूरिरेतसा नराशंसश्चतुरङ्गो यमोSदिति: ।
देवस्त्वष्टा द्रविणोदा ऋभुक्षणः प्र रोदसी मरुतो विष्णुरर्हिरे॥11॥
यह जीवन भी महायज्ञ है हे प्रभु आमंत्रित करते हैं ।
विधि - विधान से पूर्णाहुति हो यही प्रार्थना हम करते हैं॥11॥
9841
उत स्य न उशिजामुर्विया कविरहिः शृणोतु बुध्न्यो3 हवीमनि।
सूर्यामासा विचरन्ता दिविक्षिता धिया शमीनहुषी अस्य बोधतम्॥12॥
हे अग्नि - देव पावक - पावन यह पूजा प्रभु स्वीकार करो ।
हे सूर्य-सोम सादर प्रणाम है जन-जन का तुम दुख हरो ॥12॥
9842
प्र नः पूषा चरथं विश्वदेव्योSपां नपादवतु वायुरिष्टये ।
आत्मानं वस्यो अभि वातमर्चत तदश्विना सुहवा यामनि श्रुतम्॥13॥
हे वरुण-देव प्रभु हे पूषा सुख-साधन का तुम रखना ध्यान ।
हे पवन - देव तुम रक्षा करना देते रहना अन्न - धान ॥13॥
9843
विशामासामभयानामधिक्षितं गीर्भिरु स्वयशसं गृणीमसि ।
ग्नाभिर्विश्वाभिरदितिमनर्वणमक्तोर्युवानं नृमणा अधा पतिम्॥14॥
मेरे मन में तुम्हीं बसे हो यश- कीर्ति तुम्हीं दे जाते हो ।
हे सूर्य-सोम सादर प्रणम्य हो तुम सुख का पाठ पढाते हो ॥14॥
9844
रेभदत्र जनुषा पूर्वो अंङ्गिरा ग्रावाण ऊर्ध्वा अभि चक्षुरध्वरम् ।
येभिर्विहाया अभवद्विचक्षणः पाथः सुमेकं स्वधितिर्वनन्वति॥15॥
कर्तव्य-कर्म के इस पथ पर प्रभु साथ-साथ चलते रहना ।
पॉंव कहीं थक जायें तो प्रभु हाथ पकड कर ले चलना ॥15॥
9830
यज्ञस्य यो रथ्यं विश्पतिं विशां होतारमक्तोरतिथिं विभावसुम्।
शोचञ्छुष्कासु हरिणीषु जर्भुरद्वृषा केतुर्यजतो द्यामशायत॥1॥
हे अग्नि - देव पावक - पावन तुम सबकी रक्षा करते हो ।
पुनीत-यज्ञ के ध्वज-स्वरूप गगन में शयन तुम्हीं करते हो॥1॥
9831
इममञ्जस्पामुभये अकृण्वत धर्माणमग्निं विदथस्य साधनम्।
अक्तुं न य यह्वमुषसः पुरोहितं तनूनपातमरुषस्य निंसते॥2॥
तुम सर्वोपरि तुम संरक्षक तुम्हीं धर्म - धारण करते हो ।
तुम ही पडिण्त तुम्ही पुरोधा सूर्य - देव सम तुम लगते हो॥2॥
9832
बळस्य नीथा वि पणेश्च मन्महे वया अस्य प्रहुता आसुरत्तवे ।
यदा घोरासो अमृतत्वमाशतादिज्जनस्य दैव्यस्य कचर्किरन्॥3॥
हवि-भोग ग्रहण करना प्रभु-वर हम यही निवेदन करते हैं ।
जब अग्नि प्रज्वलित होती है तब आहुति अर्पित करते हैं ॥3॥
9833
ऋतस्य हि प्रसितिर्द्यौररुरु व्यचो नमो मह्य1रमतिः पनीयसी ।
इन्द्रो मित्रो वरुणः सं चिकित्रिरेथो भगः सविता पूतदक्षतः॥4॥
यज्ञ - अग्नि को सभी देवता सादर सदा नमन करते हैं ।
उन्हें प्रेम से सब निहारते परम -प्रिय - पूज्य समझते हैं॥4॥
9834
प्र रुद्रेण ययिना यन्ति सिन्धवस्तिरो महीमरमतिं दधन्विरे ।
येभिः परिज्मा प प्रियन्नुरु ज्रयो वि रोरुवज्जठरे विश्वमुक्षते॥5॥
वेग - वती सरिता बहती है जन - जन की प्यास बुझाती है ।
घन नभ में निनाद करते हैं धरती की तपन मिट जाती है ॥5॥
9835
क्राणा रुद्रा मरुतो विश्वकृष्टयो दिवः श्येनासो असुरस्य नीळयः।
तेभिश्चष्टे वरुणो मित्रो अर्यमेन्द्रो देवेभिरर्वशेभिरर्वशः ॥॥6॥
पञ्चभूत ये सभी शक्तियॉं सबकी रक्षा में जुट जाती हैं ।
संघ - शक्ति में अद्भुत बल है पर - सेवा में सुख पाती हैं॥6॥
9836
इन्द्रे भुजं शशमानास आशत सूरो दृशीके वृषणश्च पौंष्ये ।
प्र ये न्वस्यार्हणा ततक्षिरे युजं वज्रं नृषदनेषु कारवः ॥7॥
इन्द्र - देव देते संरक्षण दृष्टि - शक्ति सूरज देते हैं ।
ये सबको बल - वैभव देते स्नेह - सहित अपना लेते हैं ॥7॥
9837
सूरश्चिदा हरितो अस्य रीरमदिन्द्रादा कश्चिद्भयते तवीयसः ।
भीमस्य वृष्णो जठरादबभिश्वसो दिवेदिवे सहुरिःस्तन्नबाधितः॥8॥
सूर्य - देव सबको सुख देते जन - जन को प्रसन्न करते हैं ।
आलोक और ऊष्मा देते हैं कर्म - योग पथ पर चलते हैं ॥8॥
9838
स्तोमं वो अद्य रुद्राय शिक्वसे क्षयद्वीराय नमसा दिदिष्टन ।
येभिःशिवःस्ववॉं एवयावभिर्दिवःसिषक्ति स्वयशा निकामभिः॥9॥
यदि मन में संकल्प उठे तो मानव सुख से जी सकता है ।
परमेश्वर मेरे अपना है हर मन से वही जुडा रहता है ॥9॥
9839
ते हि प्रजाया अभरन्त वि श्रवो बृहस्पतिरर्वृषभः सोमजामयः।
यज्ञैरथर्वा प्रथमो वि धारयद्देवा दक्षैर्भृगवः सं चिकित्रिरे ॥10॥
अन्न - धान देकर उस प्रभु ने हम सब पर उपकार किया है ।
सदा अनुग्रह करना प्रभु जी तुमने हमें कृतार्थ किया है ॥10॥
9840
तेहि द्यावापृथिवी भूरिरेतसा नराशंसश्चतुरङ्गो यमोSदिति: ।
देवस्त्वष्टा द्रविणोदा ऋभुक्षणः प्र रोदसी मरुतो विष्णुरर्हिरे॥11॥
यह जीवन भी महायज्ञ है हे प्रभु आमंत्रित करते हैं ।
विधि - विधान से पूर्णाहुति हो यही प्रार्थना हम करते हैं॥11॥
9841
उत स्य न उशिजामुर्विया कविरहिः शृणोतु बुध्न्यो3 हवीमनि।
सूर्यामासा विचरन्ता दिविक्षिता धिया शमीनहुषी अस्य बोधतम्॥12॥
हे अग्नि - देव पावक - पावन यह पूजा प्रभु स्वीकार करो ।
हे सूर्य-सोम सादर प्रणाम है जन-जन का तुम दुख हरो ॥12॥
9842
प्र नः पूषा चरथं विश्वदेव्योSपां नपादवतु वायुरिष्टये ।
आत्मानं वस्यो अभि वातमर्चत तदश्विना सुहवा यामनि श्रुतम्॥13॥
हे वरुण-देव प्रभु हे पूषा सुख-साधन का तुम रखना ध्यान ।
हे पवन - देव तुम रक्षा करना देते रहना अन्न - धान ॥13॥
9843
विशामासामभयानामधिक्षितं गीर्भिरु स्वयशसं गृणीमसि ।
ग्नाभिर्विश्वाभिरदितिमनर्वणमक्तोर्युवानं नृमणा अधा पतिम्॥14॥
मेरे मन में तुम्हीं बसे हो यश- कीर्ति तुम्हीं दे जाते हो ।
हे सूर्य-सोम सादर प्रणम्य हो तुम सुख का पाठ पढाते हो ॥14॥
9844
रेभदत्र जनुषा पूर्वो अंङ्गिरा ग्रावाण ऊर्ध्वा अभि चक्षुरध्वरम् ।
येभिर्विहाया अभवद्विचक्षणः पाथः सुमेकं स्वधितिर्वनन्वति॥15॥
कर्तव्य-कर्म के इस पथ पर प्रभु साथ-साथ चलते रहना ।
पॉंव कहीं थक जायें तो प्रभु हाथ पकड कर ले चलना ॥15॥
कर्तव्य-कर्म के इस पथ पर प्रभु साथ-साथ चलते रहना ।
ReplyDeleteपॉंव कहीं थक जायें तो प्रभु हाथ पकड कर ले चलना ॥15॥
बहुत सुंदर प्रार्थना..
महायग्य की तरह तरह ये ज्ञान बिखेरता ब्लॉग है ....
ReplyDeleteसुन्दर अर्थपूर्ण सूक्त हैं ...
कर्म प्रवृत्त रहने का उदाहरण सूर्य के अतिरिक्त और कहाँ मिल सकता है?
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