Sunday 8 December 2013

सूक्त - 97

[ऋषि- भिषक आथर्वण । देवता- ओषधि । छन्द- अनुष्टुप् ।]

9905
या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा ।
मनै नु बभ्रूणामहं शतं धामानि सप्त च॥1॥

वसंत शरद और पावस ऋतु में गुणकारी औषधियॉं मिलती हैं।
वैद्य  इन्हें  पहचानते  हैं  ये  औषधियॉं  जीवन-दायिनी  हैं ॥1॥

9906
शतं वो अम्ब धामानि सहस्त्रमुत वो रुह: ।
अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत॥2॥

इन  मातृ-सदृश औषधियों  के  विविध-रूप  हैं विविध नाम हैं ।
इनका उपयोग चमत्कारी है विविध पात्रता विविध धाम हैं॥2॥

9907
ओषधीः   प्रतिमोदध्वं    पुष्पवतीः    प्रसूवरीः ।
 अश्वाइव स सजित्वरीर्वीरुधः पारयिषष्ण्वः॥3॥ 

पल्लव- पुष्प  और  फल  वाली  रोगी  को  स्वस्थ  बनाती है ।
लता - युक्त औषधि उत्तम है वह बीमारी जड से  भगाती है॥3॥

9908
ओषधीरिति   मातरस्तद्वो   देवीरुप   ब्रुवे । 
सनेयमश्वं गां वास आत्मानं तव पूरुष॥4॥ 

औषधि  मातृ-सदृश  होती  है  विविध  गुणों  से  है  भर-पूर ।
इन्द्रिय - नस - नाडी  में  जाकर  रोग  भगाती  मीलों  दूर॥4॥ 

9909
अश्वत्थे  वो  निषदनं  पर्णे वो वसतिष्कृता ।
गोभाज इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्॥5॥

पीपल - पलाश  पर  रहने  वाली  औषधि  अत्युत्तम  होती  है ।
सञ्जीवनी-सदृश वह औषधि तन-मन विकार को धोती है॥5॥ 

9910
यत्रौषधीः समग्मत   राजानः समिताविव ।
विप्रः स उच्यते भिषग्रक्षोहामीवचातनः॥6॥

औषधि  का  ज्ञाता  महापुरुष  है  वह  सबका  रोग भगाता है ।
पर- पीडा  वह  हर  लेता  है  रोग  भगा- कर  ही जाता है ।॥6॥

9911
अश्वावतीं  सोमावतीमूर्जयन्तीमुदोजसम् ।
आवित्सि सर्वा ओषधीरस्मा अरिष्टतातये॥7॥

अश्व - सोम  और  ऊर्ज  उदोजस  ये  अद्भुत  औषधियॉं   हैं ।
इनका  उपयोग  चमत्कारी  है  ये  खुशियों की लडियॉं हैं ॥7॥

9912
उच्छुष्मा ओषधीनां  गावो  गोष्ठादिवेरते ।
धनं सनिष्यन्तीनामात्मानं तव पूरुष॥8॥

यज्ञ में  यदि  औषधि  समिधायें  आहुतियों में डाली जाती हैं ।
इनका अद्भुत प्रभाव होता है ये जन-जन का रोग भगाती हैं॥8॥

9913
इष्कृतिर्नाम   वो   माताथो   यूयं   निष्कृतीः ।
सीरा: पतत्रिणीः स्थन यदामयति निष्कृथ॥9॥

रोग  न  हो  इसकी  चेष्टा  हो  स्वस्थ  रहें   यह   चिन्तन  हो ।
पावन - पवन और पानी हो भोजन पर भी उचित मनन हो॥9॥

9914
अति  विश्वा:  परिष्ठा:  स्तेनइव  व्रजमुक्रमुः ।
ओषधीः प्राचुच्यवुर्यत्किं च तन्वो3 रपः॥10॥

औषधि  हित - कारी  होती  है  वह  रोग  से  हमें  बचाती  है ।
तन  का  दोष  वही  हरती  है  तन-मन  स्वस्थ बनाती है॥10॥ 

9915
यदिमा       वाजयन्नहमोषधीर्हस्त       आदधे ।
आत्मा यक्ष्मस्य नश्यति पुरा जीवगृभो यथा॥11॥

असाध्य  रोग  से  वही  बचाती  नव  ऊष्मा-ऊर्जा  भरती  है ।
आसन्न - मृत्यु  को  दूर भगाती पुनर्नवा वह  करती  है॥11॥

9916
यस्यौषधीः      प्रसर्पथाङ्गमङ्गं      परुष्परुः ।
ततो यक्ष्मं वि बाधध्व उग्रो मध्यमशीरिव॥12॥

यह  औषधि  मानव  के  भीतर  पोर - पोर  में  घुस  जाती है ।
बीमारी  तन  का  यह  हरती  है  जड  से  रोग  भगाती है॥12॥ 

9917
साकं   यक्ष्म   प्र   पत   चाषेण   किकिदीविना ।
साकं वातस्य ध्राज्या साकं नश्य निहाकया॥13॥ 

असाध्य - रोग द्रुत - गति से भागो पवन-वेग से करो प्रयाण ।
वापस कभी नहीं आना तुम तुम्हें मिला  है औषधि-बाण॥13॥ 

9918 
अन्या वो अन्यामवत्वन्यान्यस्या उपावत ।
ता: सर्वा: संविदाना इदं मे प्रावता वचः॥14॥

औषधियों  की  बढे  शक्तियॉं  क्षमता-प्रताप और  बढे प्रभाव ।
परस्पर-पूरक  बनी  रहें  वे सहकार-सरलता का हो भाव॥14॥

9919
या: फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता  नो  मुञ्चन्त्वंहसः ॥15॥

औषधि  हेतु  सुषेण  चाहिए  जो  इनकी  गरिमा  को  जाने ।
हर औषधि के गुण-स्वभाव को पहले परखे फिर पहचाने॥15॥

9920
मुञ्चन्तु        मा       शपथ्या3दथो       वरुण्यादुत।
अथो यमस्य पड्बीशात्सर्वस्माद्देवकिल्बिषात्॥16॥

औषधियॉं  आहार -  दोष  से  जलोदर  से  हमें  बचाती  हैं ।
वात - रोग  वे  ही हरती हैं तन - मन से सबल बनाती हैं॥16॥

9921
अवपतन्तीरवदन्दिव          ओषधयस्परि ।
यं जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः॥17॥

अद्भुत  है  यह  मित्र  हमारी  नव - जीवन  यह  ही  देती  है ।
औषधि - आश्वासन  देती  है  मौत से  हमें  बचा  लेती है॥17॥

9922
या ओषधीः सोमराज्ञीर्बह्वी: शतविचक्षणा: ।
तासां त्वमस्युत्तमारं  कामाय शं  हृदे ॥18॥

सोम  है औषधियों  का  स्वामी  औषधियॉं  रोग  भगाती  हैं ।
श्रेष्ठ  गुणों  की  वे  निधान  हैं तन को स्वस्थ बनाती  हैं ॥18॥

9923
या ओषधीः सोमराज्ञीर्विष्ठिता: पृथिवीमनु ।
बृहस्पतिप्रसूता अस्यै सं  दत्त  वीर्यम् ॥19॥

वे  सञ्जीवनी  औषधियॉं  हैं  जो  सोम  से सीधे रस पाती हैं ।
वे अत्युत्तम औषधियॉ हैं मन  में  सन्तुलन  बनाती  हैं ॥19॥

9924
मा वो रिषत्खनिता यस्मै चाहं  खनामि वः ।
द्विपच्चतुष्पदस्माकं सर्वमस्त्वनातुरम्॥20॥

पर - हित  हेतु  पनपती है वह सुखकर जीवन सबको देती है ।
शत्रु - मित्र सबके काम आती वह सबका दुख हर लेती है॥20॥

9925
याश्चेदमुपशृण्वन्ति    याश्च    दूरं    परागता: ।
सर्वा: सङ्गत्य वीरुधोSस्यै सं दत्त वीर्यम्॥21॥

हे  औषधि  सदा  अनुग्रह  करना  मानवता  की रक्षा करना ।
कर-बध्द प्रार्थना हम करते हैं तेज-ओज तुम देते रहना॥21॥

9926
ओषधयः    सं    वदन्ते    सोमेन    सह   राज्ञा ।
यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तंराजन् पारयामसि॥22॥

सोम से कहती हैं औषधियॉं हम सबको रोग-मुक्त करते हैं ।
यह सोच सभी के काम आयें हम अपनी रक्षा करते हैं॥22॥

9927
त्वमुत्तमास्योषधे        तव         वृक्षा         उपस्तयः।
उपस्तिरस्तु सो3Sस्माकं यो अस्मॉं अभिदासति॥23॥

हे  औषधि  तुम  ही  प्रणम्य  हो  सभी  वृक्ष हैं अनुज तुम्हारे ।
तुम सदा हमारी रक्षा करना थक-कर आए हैं द्वार तुम्हारे॥23॥ 
   
       

          

4 comments:

  1. jiwan aur wanaspati ke anyonyashrit sambandhon ko yojy karati saarthak post ****** subh sandhya sang pranam swikaren

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  2. औषधि मातृ-सदृश होती है विविध गुणों से है भर-पूर ।
    इन्द्रिय - नस - नाडी में जाकर रोग भगाती मीलों दूर॥4॥

    आज लोग इन जड़ी-बूटियों के प्रति पुन जागृत हो रहे हैं

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  3. प्रकृति साधती मानवता को।

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