[ऋषि- विश्वकर्मा भौवन । देवता- विश्वकर्मा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9646
चक्षुषः पिता मनसा हि धीरो घृतमेने अजनन्नम्नमाने ।
यदेदन्ता अददृहन्त पूर्व आदिद् द्यावापृथिवी अप्रथेताम्॥1॥
पूर्व समय में जब पृथ्वी और द्यावा का विस्तार हुआ था ।
आलोक लिए आदित्य आ गए दिग्दर्शन भी तभी हुआ था॥1॥
9647
विश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता परमोत संदृक् ।
तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन्पर एकमाहुः॥2॥
विश्वकर्मा हैं सृजन - देव जग - रचना का श्रेय उन्हें है ।
वे महाप्रतापी अद्वितीय हैं अपने अभीष्ट का ध्येय विदित है॥2॥
9648
यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यो देवानां नामधा एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या॥3॥
परमेश्वर जीवन - दाता है वह ही पालन-पोषण करता है ।
एक ही है पर विविध नाम से वह हम सबका दुख हरता है॥3॥
9649
त आयजन्त द्रविणं समस्मा ऋषयः पूर्वे जरितारो न भूना ।
असूर्ते सूर्ते रजसि निषत्ते ये भूतानि समकृण्वन्निमानि ॥4॥
अंतरिक्ष में वह रहता है उसने ही की है जग-रचना ।
पञ्च-भूत भी हमें दिया है सब पा-कर मौन हुई रसना ॥4॥
9650
परो दिवा पर एना पृथिव्या परो देवेभिरसुरैर्यदस्ति ।
कं स्विद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवा: समपश्यन्त विश्वे॥5॥
वह प्रभु मेरे भीतर बैठा है आकाश-अवनि से वह है दूर ।
वह सुर-असुरों से भी परे है पर कण-कण में वह है ज़रूर॥5॥
9651
तमिद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवा: समगच्छन्त विश्वे ।
अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः॥6॥
हिरण्य- गर्भ में छिपा हुआ वह सभी शक्तियों का आश्रय है ।
चर-अचर नियंता-मात्र वही है उसी परम का यह परिचय है॥6॥
9652
न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति॥7॥
परमेश्वर की इस प्रबभुता को कौन भला कह - सुन सकता है ।
सबसे परे है वह परमात्मा पर सबके भीतर वह रहता है॥7॥
9646
चक्षुषः पिता मनसा हि धीरो घृतमेने अजनन्नम्नमाने ।
यदेदन्ता अददृहन्त पूर्व आदिद् द्यावापृथिवी अप्रथेताम्॥1॥
पूर्व समय में जब पृथ्वी और द्यावा का विस्तार हुआ था ।
आलोक लिए आदित्य आ गए दिग्दर्शन भी तभी हुआ था॥1॥
9647
विश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता परमोत संदृक् ।
तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन्पर एकमाहुः॥2॥
विश्वकर्मा हैं सृजन - देव जग - रचना का श्रेय उन्हें है ।
वे महाप्रतापी अद्वितीय हैं अपने अभीष्ट का ध्येय विदित है॥2॥
9648
यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यो देवानां नामधा एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या॥3॥
परमेश्वर जीवन - दाता है वह ही पालन-पोषण करता है ।
एक ही है पर विविध नाम से वह हम सबका दुख हरता है॥3॥
9649
त आयजन्त द्रविणं समस्मा ऋषयः पूर्वे जरितारो न भूना ।
असूर्ते सूर्ते रजसि निषत्ते ये भूतानि समकृण्वन्निमानि ॥4॥
अंतरिक्ष में वह रहता है उसने ही की है जग-रचना ।
पञ्च-भूत भी हमें दिया है सब पा-कर मौन हुई रसना ॥4॥
9650
परो दिवा पर एना पृथिव्या परो देवेभिरसुरैर्यदस्ति ।
कं स्विद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवा: समपश्यन्त विश्वे॥5॥
वह प्रभु मेरे भीतर बैठा है आकाश-अवनि से वह है दूर ।
वह सुर-असुरों से भी परे है पर कण-कण में वह है ज़रूर॥5॥
9651
तमिद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवा: समगच्छन्त विश्वे ।
अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः॥6॥
हिरण्य- गर्भ में छिपा हुआ वह सभी शक्तियों का आश्रय है ।
चर-अचर नियंता-मात्र वही है उसी परम का यह परिचय है॥6॥
9652
न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति॥7॥
परमेश्वर की इस प्रबभुता को कौन भला कह - सुन सकता है ।
सबसे परे है वह परमात्मा पर सबके भीतर वह रहता है॥7॥
वार्तालाप की शैली में निहित ज्ञान।
ReplyDeleteपरमेश्वर की इस प्रबभुता को कौन भला कह - सुन सकता है ।
ReplyDeleteसबसे परे है वह परमात्मा पर सबके भीतर वह रहता है॥7॥
प्रभु का प्रभुता का बखान नहीं किया जा सकता
आलोक लिए आदित्य आ गए दिग्दर्शन भी तभी हुआ था
ReplyDeleteवाह !!
सृजनहार को कोटिश: प्रणाम...
ReplyDelete