[ऋषि- देवश्रवा यामायन । देवता- पूषा-सरस्वती । छन्द- त्रिष्टुप्-बृहती-अनुष्टुप्।]
8947
त्वष्टा दुहित्रे वहतुं कृणोतीतीदं विश्वं भुवनं समेति ।
यमस्य माता पर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश॥1॥
आदित्य - देव आलोक - प्रदाता अॅधकार को करते दूर ।
जगती निज दायित्व निभाता ऊर्जा मिलती है भरपूर ॥1॥
8948
अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः कृत्वी सवर्णामददुर्विवस्वते ।
उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु द्वा मिथुना सरण्यूः ॥2॥
ऊषा - किरण आती धरती पर करती आशा का सञ्चार ।
कर्म - योग का पाठ पढाती सन्ध्या दे जाती अभिसार॥2॥
8949
पूषा त्वेतश्च्यावयतु प्र विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य गोपा: ।
स त्वैतेभ्यः परि ददत्पितृभ्योSग्निर्देवेभ्यःसुविदत्रियेभ्यः॥3॥
परमेश्वर है पिता हमारा हम सबकी रक्षा करता है ।
वह शुभचिन्तक सदा हमारा सबकी पीडा वह हरता है॥3॥
8950
आयुर्विश्वायुः परि पासति त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात् ।
यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु॥4॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा शुभ-चिन्तक है सखा हमारा ।
वही सुरक्षा देता हमको वह ही तो है सगा हमारा ॥4॥
8951
पूषेमा आशा अनु वेद सर्वा: सो अस्मॉ अ अभयतमेन नेषत् ।
स्वस्तिदा आघृणिः सर्ववीरोSप्रयुच्छन्पुर एतु प्रजानन् ॥5॥
हे दिशा हमें तुम अभय-दान दो हम भी निज दायित्व निभायें।
नहीं किसी का भय हो हमको हम भी प्रभु - प्रसाद को पायें॥5॥
8952
प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्या: ।
उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन्॥6॥
कण - कण में है वह परमेश्वर हर प्राणी में वही समाया ।
श्रुति भी नेति-नेति कहती है अद्भुत है उस प्रभु की माया॥6॥
8953
सरस्वतीं देवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने ।
सरस्वतीं सुकृतो अह्वयन्त सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥7॥
ऋषि - गण वाक् मध्यमा द्वारा हवि-भोग अग्नि को देते हैं ।
वे यश - वैभव प्रदान करते हैं रोग - शोक हर लेते हैं ॥7॥
8954
सरस्वति या सरथं ययाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती ।
आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयस्वानमीवा इष आ धेह्यस्मे॥8॥
सरस्वती सादर प्रणम्य हो वाक् - वैभव का दे दो दान ।
जग हो शुभ-चिन्तन का मंदिर सत्कर्मों का हो अभियान॥8॥
8955
सरस्वती यां पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणा: ।
सहस्त्रार्घममिळो अत्र भागं रायस्पोषं यजमानेषु धेहि ॥9॥
मॉ सरस्वती को ज्ञानी-जन हवि-भोग समर्पित करते हैं ।
माता हमको यश-वैभव देना बारम्बार नमन करते हैं ॥9॥
8956
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु ।
विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि॥10॥
माता समान पोषक जल-धारा सबकी प्यास बुझाती है ।
शुध्द-पवित्र बना देती है शुचिता - कथा सुनाती है ॥10॥
8957
द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमॉ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः ।
समानं योनिमनु सञ्चरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्रा:॥11॥
सुधा - सदृश यह सोम-सुन्दरी इस जगती में विद्यमान है ।
अब अन्वेषण आवश्यक है यक्ष-प्रश्न यह अभिज्ञान है ॥11॥
8958
यस्ते द्रप्सःस्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्।
अध्वर्योर्वा परि वा यःपवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम्॥12॥
सोम - तत्व सर्वत्र व्याप्त है पवन - सदृश है चारों ओर ।
इसे जानना आवश्यक है व्याकुल है यह मन का मोर ॥12॥
8959
यस्ते द्रप्सः स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्त्रुचा ।
अयं देवो बृहस्पतिः सं तं सिञ्चतु राधसे ॥13॥
सोम है क्या हम कैसे जानें सोम-लता का हो परि-शोध ।
ज्ञानी वैद्य करें अन्वेषण निज दायित्वों का हो बोध ॥13॥
8960
पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं वचः ।
अपां पयस्वदित्पयस्तेन मा सह शुन्धत॥14॥
औषधि मातृ - सदृश होती है उसकी महिमा को हम जानें ।
अनगिन आयाम औषधि के हम इस अमृत को पहचानें॥14॥
8947
त्वष्टा दुहित्रे वहतुं कृणोतीतीदं विश्वं भुवनं समेति ।
यमस्य माता पर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश॥1॥
आदित्य - देव आलोक - प्रदाता अॅधकार को करते दूर ।
जगती निज दायित्व निभाता ऊर्जा मिलती है भरपूर ॥1॥
8948
अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः कृत्वी सवर्णामददुर्विवस्वते ।
उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु द्वा मिथुना सरण्यूः ॥2॥
ऊषा - किरण आती धरती पर करती आशा का सञ्चार ।
कर्म - योग का पाठ पढाती सन्ध्या दे जाती अभिसार॥2॥
8949
पूषा त्वेतश्च्यावयतु प्र विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य गोपा: ।
स त्वैतेभ्यः परि ददत्पितृभ्योSग्निर्देवेभ्यःसुविदत्रियेभ्यः॥3॥
परमेश्वर है पिता हमारा हम सबकी रक्षा करता है ।
वह शुभचिन्तक सदा हमारा सबकी पीडा वह हरता है॥3॥
8950
आयुर्विश्वायुः परि पासति त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात् ।
यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु॥4॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा शुभ-चिन्तक है सखा हमारा ।
वही सुरक्षा देता हमको वह ही तो है सगा हमारा ॥4॥
8951
पूषेमा आशा अनु वेद सर्वा: सो अस्मॉ अ अभयतमेन नेषत् ।
स्वस्तिदा आघृणिः सर्ववीरोSप्रयुच्छन्पुर एतु प्रजानन् ॥5॥
हे दिशा हमें तुम अभय-दान दो हम भी निज दायित्व निभायें।
नहीं किसी का भय हो हमको हम भी प्रभु - प्रसाद को पायें॥5॥
8952
प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्या: ।
उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन्॥6॥
कण - कण में है वह परमेश्वर हर प्राणी में वही समाया ।
श्रुति भी नेति-नेति कहती है अद्भुत है उस प्रभु की माया॥6॥
8953
सरस्वतीं देवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने ।
सरस्वतीं सुकृतो अह्वयन्त सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥7॥
ऋषि - गण वाक् मध्यमा द्वारा हवि-भोग अग्नि को देते हैं ।
वे यश - वैभव प्रदान करते हैं रोग - शोक हर लेते हैं ॥7॥
8954
सरस्वति या सरथं ययाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती ।
आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयस्वानमीवा इष आ धेह्यस्मे॥8॥
सरस्वती सादर प्रणम्य हो वाक् - वैभव का दे दो दान ।
जग हो शुभ-चिन्तन का मंदिर सत्कर्मों का हो अभियान॥8॥
8955
सरस्वती यां पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणा: ।
सहस्त्रार्घममिळो अत्र भागं रायस्पोषं यजमानेषु धेहि ॥9॥
मॉ सरस्वती को ज्ञानी-जन हवि-भोग समर्पित करते हैं ।
माता हमको यश-वैभव देना बारम्बार नमन करते हैं ॥9॥
8956
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु ।
विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि॥10॥
माता समान पोषक जल-धारा सबकी प्यास बुझाती है ।
शुध्द-पवित्र बना देती है शुचिता - कथा सुनाती है ॥10॥
8957
द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमॉ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः ।
समानं योनिमनु सञ्चरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्रा:॥11॥
सुधा - सदृश यह सोम-सुन्दरी इस जगती में विद्यमान है ।
अब अन्वेषण आवश्यक है यक्ष-प्रश्न यह अभिज्ञान है ॥11॥
8958
यस्ते द्रप्सःस्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्।
अध्वर्योर्वा परि वा यःपवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम्॥12॥
सोम - तत्व सर्वत्र व्याप्त है पवन - सदृश है चारों ओर ।
इसे जानना आवश्यक है व्याकुल है यह मन का मोर ॥12॥
8959
यस्ते द्रप्सः स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्त्रुचा ।
अयं देवो बृहस्पतिः सं तं सिञ्चतु राधसे ॥13॥
सोम है क्या हम कैसे जानें सोम-लता का हो परि-शोध ।
ज्ञानी वैद्य करें अन्वेषण निज दायित्वों का हो बोध ॥13॥
8960
पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं वचः ।
अपां पयस्वदित्पयस्तेन मा सह शुन्धत॥14॥
औषधि मातृ - सदृश होती है उसकी महिमा को हम जानें ।
अनगिन आयाम औषधि के हम इस अमृत को पहचानें॥14॥