Friday, 28 February 2014

सूक्त - 17

[ऋषि- देवश्रवा यामायन । देवता- पूषा-सरस्वती । छन्द- त्रिष्टुप्-बृहती-अनुष्टुप्।]

8947
त्वष्टा   दुहित्रे   वहतुं   कृणोतीतीदं   विश्वं   भुवनं  समेति ।
यमस्य माता पर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश॥1॥

आदित्य - देव आलोक - प्रदाता  अ‍ॅधकार  को  करते  दूर ।
जगती निज दायित्व निभाता ऊर्जा मिलती है भरपूर ॥1॥

8948
अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः  कृत्वी  सवर्णामददुर्विवस्वते ।
उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु  द्वा  मिथुना  सरण्यूः ॥2॥

ऊषा - किरण आती  धरती  पर करती आशा का सञ्चार ।
कर्म - योग का पाठ पढाती सन्ध्या दे जाती अभिसार॥2॥

8949
पूषा   त्वेतश्च्यावयतु   प्र   विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य  गोपा: ।
स त्वैतेभ्यः परि ददत्पितृभ्योSग्निर्देवेभ्यःसुविदत्रियेभ्यः॥3॥

परमेश्वर  है  पिता  हमारा  हम  सबकी  रक्षा  करता   है ।
वह शुभचिन्तक सदा हमारा सबकी पीडा वह हरता है॥3॥

8950
आयुर्विश्वायुः परि पासति त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात् ।
यत्रासते  सुकृतो  यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु॥4॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  शुभ-चिन्तक है सखा हमारा ।
वही   सुरक्षा   देता   हमको   वह  ही  तो  है  सगा  हमारा ॥4॥

8951
पूषेमा आशा अनु  वेद सर्वा: सो अस्मॉ अ अभयतमेन नेषत् ।
स्वस्तिदा  आघृणिः सर्ववीरोSप्रयुच्छन्पुर  एतु  प्रजानन् ॥5॥

हे दिशा हमें तुम अभय-दान दो हम भी निज दायित्व निभायें।
नहीं किसी का भय हो हमको हम भी प्रभु - प्रसाद को पायें॥5॥

8952
प्रपथे  पथामजनिष्ट   पूषा   प्रपथे   दिवः  प्रपथे   पृथिव्या: ।
उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन्॥6॥

कण - कण  में  है  वह  परमेश्वर  हर  प्राणी में वही समाया ।
श्रुति भी नेति-नेति कहती है अद्भुत है उस प्रभु की माया॥6॥

8953
सरस्वतीं   देवयन्तो   हवन्ते   सरस्वतीमध्वरे   तायमाने ।
सरस्वतीं  सुकृतो  अह्वयन्त  सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥7॥

ऋषि - गण  वाक् मध्यमा द्वारा हवि-भोग अग्नि को देते हैं ।
वे  यश - वैभव  प्रदान  करते  हैं  रोग - शोक  हर लेते हैं ॥7॥

8954
सरस्वति  या  सरथं  ययाथ   स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती ।
आसद्यास्मिन्बर्हिषि  मादयस्वानमीवा  इष  आ धेह्यस्मे॥8॥

सरस्वती  सादर  प्रणम्य  हो  वाक् - वैभव  का  दे  दो  दान ।
जग हो शुभ-चिन्तन का मंदिर सत्कर्मों का हो अभियान॥8॥

8955
सरस्वती यां पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणा: ।
सहस्त्रार्घममिळो अत्र भागं रायस्पोषं यजमानेषु धेहि ॥9॥

मॉ सरस्वती को ज्ञानी-जन हवि-भोग समर्पित करते हैं ।
माता हमको यश-वैभव देना बारम्बार नमन करते हैं ॥9॥

8956
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु  घृतेन  नो घृतप्वः पुनन्तु ।
विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि॥10॥

माता  समान  पोषक  जल-धारा  सबकी  प्यास  बुझाती है ।
शुध्द-पवित्र  बना  देती  है  शुचिता - कथा  सुनाती  है ॥10॥

8957
द्रप्सश्चस्कन्द  प्रथमॉ अनु  द्यूनिमं  च  योनिमनु यश्च पूर्वः ।
समानं योनिमनु सञ्चरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्रा:॥11॥

सुधा - सदृश  यह  सोम-सुन्दरी इस जगती में विद्यमान है ।
अब अन्वेषण आवश्यक है यक्ष-प्रश्न यह अभिज्ञान  है ॥11॥

8958
यस्ते द्रप्सःस्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्।
अध्वर्योर्वा परि वा यःपवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम्॥12॥

सोम - तत्व  सर्वत्र  व्याप्त  है  पवन - सदृश  है चारों ओर ।
इसे जानना आवश्यक है व्याकुल है यह मन का मोर ॥12॥

8959
यस्ते द्रप्सः स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्त्रुचा ।
अयं   देवो  बृहस्पतिः  सं  तं  सिञ्चतु  राधसे ॥13॥

सोम है क्या हम  कैसे जानें सोम-लता का हो परि-शोध ।
ज्ञानी वैद्य करें अन्वेषण निज दायित्वों का हो बोध ॥13॥

8960
पयस्वतीरोषधयः     पयस्वन्मामकं     वचः ।
अपां पयस्वदित्पयस्तेन मा सह शुन्धत॥14॥

औषधि मातृ - सदृश  होती  है  उसकी महिमा को हम जानें ।
अनगिन आयाम औषधि के हम इस अमृत को पहचानें॥14॥  
       

Thursday, 27 February 2014

सूक्त - 18

[ऋषि- संकुसुक यामायन । देवता- मृत्यु । छन्द- त्रिष्टुप्-पंक्ति-जगती-अनुष्टुप्।]

8961
परं   मृत्यो  अनु   परेहि  पन्थां  यस्ते  स्व  इतरो  देवयानात् ।
चक्षुष्मते श्रृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान्॥1॥

हे  मृत्यु - देव  तुम  राह  बदल लो तुम ढूँढ लो कोई और गली ।
अनुरोध  आपसे  इतना  है  कुम्हलाए  न कोई कमल-कली॥1॥

8962
मृत्योः  पदं  योपयन्तो  यदैत  द्राघीय  आयुः  प्रतरं  दधाना: ।
आप्यायमाना:प्रजया धनेन शुध्दा:पूता भवतय यज्ञियासः॥2॥

जो  सत्कर्म  सदा  करता  है  उसका  भविष्य  भी उज्ज्वल है ।
शुभ कर्मों का फल भी शुभ है आज नहीं तो निश्चित कल है ॥2॥

8963
इमे   जीवा   वि   मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा   देवहूतिर्नो   अद्य ।
प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय द्राघीय आयुः प्रतरं दधाना:॥3॥

हे  प्रभु  दीर्घ - आयु  मिल  जाए  जग  में  हो सबका कल्याण ।
सुखकर जीवन जियें हम सभी जब तक है इस तन में प्राण॥3॥

8964
इमं  जीवेभ्यः  परिधिं  दधामि  मैषा  नु  गादपरो  अर्थमेतम् ।
शतं   जीवन्तु  शरदः  पुरूचीरनन्तर्मृत्युं  दधतां   पर्वतेन ॥4॥

अल्पायु  मृत्यु  से  तुम्हीं  बचाना  सतत  सुरक्षा  देते  रहना ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर वरद-हस्त तुम हम पर रखना॥4॥

8965
यथाहान्यनुपूर्वं  भवन्ति  यथ  ऋतव  ऋतुभिर्यन्ति  साधु ।
यथा  न  पूर्वमपरो  जहात्येवा  धातरायूंषि  कल्पयैषाम्॥5॥

एक-एक दिन क्रम से आता क्रम है आना और फिर जाना ।
हे मृत्यु-देव वृद्धों के रहते तुम बच्चों को न हाथ लगाना॥5॥

8966
आ   रोहतायुर्जरसं   वृणाना   अनुपूर्वं   यतमाना   यतिष्ठ ।
इह त्वष्टा सुजनिमा सजोषा दीर्घमायुःकरति जीवसे वः॥6॥

हे  प्रभु  पूर्ण - आयु  हम  पायें  चौथे - पन  का निर्वाह करें ।
रक्षा  करना  सदा  हमारी  गति- यति से हम धीर-धरें ॥6॥

8967
इमा  नारीरविधवा:  सुपत्नीराञ्जनेन  सर्पिषा सं विशन्तु ।
अनश्रवोSनमीवा: सुरत्ना आ रोहन्तु जनयो योनिमग्रे॥7॥

लालित्य लेप से ललनायें  भी आनन्द  बिछायें चारों ओर ।
दुख को भूत मान कर त्यागें आगे है चलो सुनहरा भोर॥7॥

8968
उदीर्ष्व   नार्यभि   जीवलोकं   गतासुमेतमुप   शेष   एहि ।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ॥8॥

जो  बीत  गया  उसको  भूलो  बढ  जाओ  आगे देखो आज ।
निज कर्तव्य निभाओ अब तो देख रहा है सकल समाज॥8॥

8969
धनुर्हस्तादाददानो   मृतस्यास्मे   क्षत्राय   वर्चसे   बलाय ।
अत्रैव त्वमिह वयं सुवीरा विश्वा: स्पृधो अभिमातीर्जयेम॥9॥

समुचित शक्ति हमें देना प्रभु हम  दायित्व निभायें अपना ।
हे  परमेश्वर  पूरा  करना  देखा  हमने जो सुन्दर सपना ॥9॥

8970
उप   सर्प   मातरं   भूमिमेतामुरुव्यचसं    पृथिवीं    सुशेवाम् ।
ऊर्णम्रदा युवतिर्दक्षिणावत एषा त्वा पातु निरृतेरुपस्थात्॥10॥

यह   धरती   माता  है  मेरी   मर  जाने   पर  देती  है   गोद ।
जननी जन्म-भूमि प्यारी है जीवन भर यहॉ मनाए मोद॥10॥

8971
उच्छ्वञ्चस्व पृथिवि मा नि बाधथा:सूपायनास्मै भव सूपवञ्चना।
माता पुत्रं यथा सिचाभ्येनं भूम ऊर्णेहि ॥11॥

पृथ्वी - माता  पीडा  हर  लो  दे  दो  मुझको  अपना ऑचल ।
गहरी नींद मुझे सोना है फिर से पाना है स्वर्णिम-कल ॥11॥

8972
उच्छ्वञ्चमाना पृथिवी सु तिष्ठतु सहस्त्रं मित उप हि श्रयन्ताम्।
ते गृहासो घृतश्चुतो भवन्तु विश्वाहास्मै शरणा: स स्न्त्वत्र॥12॥

निर्जीव  देह को तुम्हीं संभालो यह कार्य तुम्हीं कर सकती हो ।
मुझे  तुम्हारा  साथ  चाहिए  मेरा आश्रय  बन सकती हो ॥12॥

8973
उत्ते स्तभ्नामि पृथिवीं त्वत्परीमं लोगं निदधन्मो अहं रिषम्।
एतां स्थूणां पितरो धारयन्तु तेSत्रा यमः सादना ते मिनोतु॥13॥

हे जननी जन्म- भूमि मेरी निर्जीव-देह का तुम्हीं हो ठौर ।
तुम्हें कष्ट तो होगा पर अब इसका नहीं है कोई और ॥13॥

8974
प्रतीचीने   मामहनीष्वा:  पर्णमिवा   दधुः ।
प्रतीचीं जग्रभा वाचमश्वं रशनया यथा॥14॥

हे  परमेश्वर सद्-विद्या दो प्रति-दिन हो एक नया सवेरा ।
जीवन यह सार्थक हो जाए छँट जाए अज्ञान-अँधेरा॥14॥    
 

 

   

Wednesday, 26 February 2014

सूक्त -19

[ऋषि- मथित यामायन । देवता- गो- माता । छन्द- अनुष्टुप्- गायत्री ।]

8975
नि  वर्तध्वं  मानु गातास्मान्त्सिषक्त रेवतीः ।
अग्नीषोमा पुनर्वसू अस्मे धारयतं रयिम्॥1॥

हे गो - माता तुम लक्ष्मी हो घर को तुम सम्पन्न  बनाओ ।
सुधा-सदृश गो-रस तुम दे दो यश पाने का मंत्र बताओ॥1॥

8976
पुनरेना   नि   वर्तय   पुनरेना   न्या   कुरु ।
इन्द्र एणा नि यच्छत्वग्निरेना उपाजतु॥2॥

प्रतिदिन गो  मॉ  का दर्शन हो हरी - दूब हम नित्य खिलायें ।
गो-रस का सेवन करें निरन्तर गो-रस से हर रोग मिटायें॥2॥

8977
पुनरेता नि वर्तन्तामस्मिन्पुष्यन्तु गोपतौ ।
इहैवाग्ने  नि  धारयेह  तिष्ठतु  या  रयिः ॥3॥

गो - माता  की करें सुरक्षा नित्य समय पर दें जल - भोजन ।
सदा रहें वे स्वस्थ प्रफुल्लित यह जीवन बन जाए उपवन॥3॥

8978
यन्नियानं  न्ययनं संज्ञानं यत्परायणम् ।
आवर्तनं निवर्तनं यो गोपा अपि तं हुवे॥4॥

हे  गो - रक्षक  तुम  वरेण्य  हो गो-माता का रखते हो ध्यान ।
प्रतिदिन गो-माई गो-चर जाए कभी न टूटे यह अभियान॥4॥

8979
य  उदानड्   व्ययनं  य   उदानट्   परायणम् ।
आवर्तनम् निवर्तनमपि गोपा नि वर्तताम्॥5॥

गोपाल  रिझाते  गो - माता  को  सँग - सँग  उनके  रहते  हैं ।
वंशी  की  तान  सुनाते  हैं  वे  देख-भाल उनकी  करते  हैं॥5॥

8980
आ निवर्त नि वर्तय पुनर्न इन्द्र गा देहि ।
जीवाभिर्भुनजामहै ॥6॥

हे  प्रभु  गो - माता  रक्षित  हों  घर  में  आए  धन और धान ।
सुख - वैभव  की  प्राप्ति  हमें  हो  करते  रहें सदा गो-दान॥6॥

8981
परि   वो   विश्वतो   दध   ऊर्जा   घृतेन   पयसा ।
ये देवा: के च यज्ञियास्ते रय्या सं सृजन्तु नः॥7॥

प्रभु गो-रस अर्पित करते  हैं  तुम  देते रहना अन्न और धान।
गो - माता  यश - वैभव  देतीं गो-माता हैं अत्यन्त महान॥7॥

8982
आ   निवर्तनं    वर्तय    नि   निवर्तन   वर्तय ।
भूम्याश्चतस्त्रःप्रदिशस्ताभ्य एना नि वर्तय॥8॥

गो - मॉ  का  दर्शन  नित्य  करें  इनके  बछडे  हों  तंदरुस्त ।
इनका वध करना बँद करो गो-वध की सभी कडी हो ध्वस्त॥8॥         

Monday, 24 February 2014

सूक्त - 20

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- अग्नि । छन्द- गायत्री-एकपदा विराट्-अनुष्टुप्-विराट्--त्रिष्टुप्।] 

8983
भद्रं नो अपि वातय मनः ॥1॥

अग्नि - देव  अति  तेजस्वी  हैं  करते  हैं  सबका  कल्याण ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर जब तक है इस तन में प्राण॥1॥

8984
अग्निमीळे भुजां यवविष्ठं शासा मित्रं दुर्धरीतुम् ।
यस्य धर्मन्त्स्व1 रेनीः सपर्यन्ति मातुरूधः॥2॥

हे  अग्निदेव  तुम  आ  जाओ  ग्रहण  करो  लो  हविष्यान्न ।
तुम  हम  सबकी  रक्षा  करना  हमको भी देना धन-धान॥2॥

8985
यमासा कृपनीळं भासाकेतुं वर्धयन्ति । भ्राजते श्रेणिदन्॥3॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन को प्रभु आश्रय देना ।
तुम ही हम सबके रक्षक हो अपने-पन से अपना लेना ॥॥3॥

8986
अर्यो विशां गातुरेति प्र यदानड् दिवो अन्तान्।कविरभ्रं दीद्यानः॥4॥

हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो आओ ग्रहण करो हवि भोग ।
जग का कल्याण तुम्हीं करते हो यही कर्म है यही है योग॥4॥

8987
जुषध्दव्या मानुषस्योर्ध्वस्तस्थावृभ्वा यज्ञे।मिन्वन्त्सद्म पुर एति॥5॥

अग्नि - देव  हवि - भोग बॉटते  जग  को  देते  हैं  अनुदान ।
यह हवि-भोग महा-औषधि है यह है अद्भुत सुधा-समान॥5॥

8988
स हि क्षेमो हविर्यज्ञः श्रुष्टीदस्य गातुरेति।अग्निं देवा वाशीमन्तम्॥6॥

हे  अग्नि - देव  आवाहन  है   तुम  सब   देवों   के   सँग   आओ ।
सबको हवि-भोग खिलाओ भगवन फिर प्रसाद तुम भी पाओ॥6॥

8989
यज्ञासाहं दुव इषेSग्निं पूर्वस्य शेवस्य। अद्रेः सूनुमायुमाहुः॥7॥

पावन - पावक  पूजनीय  हो  रोग - शोक  सबका  हर  लेना ।
तुम हवि-भाग वहन करते हो सबको सुख-मय जीवन देना॥7॥

8990
नरो ये के चास्मदा वविश्वेत्ते वाम आ स्युः।अग्निं हविषा वर्धन्तः॥8॥

हे अग्नि - देव  यश - वैभव देना सुख-सन्तति देना भर-पूर ।
हे  प्रभु  तुम  ही  रक्षा करना  कभी  न  हमसे  होना  दूर ॥8॥

8991
कृष्णः श्वेतोSरुसषो यामो अस्य ब्रध्न ऋज्र उत शोणो यशस्वान्।
हिरण्यरूपं जनिता जजान॥9॥

हे  प्रभु  पावक  पूज्य  हमारे  जल  थल  नभ  है  तेरा  धाम ।
सागर  में  तुम  ही  बडवानल  जंगल  में  दावानल  नाम॥9॥

8992
एवा  ते  अग्ने  विमदो  मनीषामूर्जो  नपादमृतेभिः सजोषा: ।
गिर आ वक्षत्सुमतीरियान इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभा:॥10॥

पावन-पावक तुम प्रणम्य हो तुम हो सुधा-सदृश सुख - धाम ।
अन्न - धान  तुम देना प्रभु-वर तुमको बारम्बार प्रणाम ॥10॥          

Sunday, 23 February 2014

सूक्त - 21

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- अग्नि । छन्द- आस्तार पंक्ति ।]

8993
आग्निं न स्ववृक्तिभिर्होतारं त्वा वृणीमहे ।
यज्ञाय स्तीर्णबर्हिषे वि वो मदे शीरं पावकशोचिषं विवक्षसे॥1॥

वेद-ऋचा के सुरभित सुर सँग अग्नि-देव का आवाहन है ।
जगती के कल्याण के लिए यज्ञ - देव  का अनुष्ठान है॥1॥

8994
त्वामु ते स्वाभुवः शुम्भन्त्यश्वराधसः ।
वेति त्वामुपसेचनी वि वो मद ऋजीतिरग्न आहुतिर्विवक्षसे॥2॥

इस  दुनियॉ  की  रीत  यही  है  जो  देता है वह ही पाता है ।
अग्नि-देव हवि-भोग बॉटते यह प्रसाद सबको भाता है॥2॥

8995
त्वे धर्माण आसते जुहूभिः सिञ्चतीरिव ।
कृष्णा रूपाण्यर्जुना वि वो मदे विश्वा अधि श्रियो धिषे विवक्षसे॥3॥

पावस-पय  पृथ्वी  पर  पडता रिमझिम प्यारी यह बरसात ।
अन्न फूल फल सबको मिलता खिल उठता है पात-पात॥3॥

8996
यमग्ने मन्यसे रयिं सहसावन्नमर्त्य ।
तमा नो वाजसातये वि वो मदे यज्ञेषु चित्रमा भरा विवक्षसे॥4॥

हे  अग्न - देव  उत्तम  धन  देना  यश - वैभव  का  देना दान ।
सभी  सुखी  हों सभी निरोगी मन से  मिटे सकल अज्ञान॥4॥

8997
अग्निर्जातो अथर्वणा विदद्विश्वानि काव्या ।
भुवद्दूतो विवस्वतो वि वो मदे प्रियो यमस्य काम्यो विवक्षसे॥5॥

अग्नि - देव  आनन्द - प्रदाता  हम  सबका  करना  कल्याण ।
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर जब तक है इस तन में प्राण॥5॥

8998
त्वां यज्ञेष्वीळतेSग्ने प्रयत्यध्वरे ।
त्वं वसूनि काम्या वि वो मदे विश्वा दधासि दाशुषे विवक्षसे॥6॥

हे  अग्नि -  देव  तुम  जाओ  हम  प्रेम  से  तुम्हें  बुलाते  हैं ।
हवि-भोग तुम्हें अर्पित करते हैं सस्वर वेद-ऋचा गाते हैं॥6॥

8999
त्वां यज्ञेष्वृत्विजं चारुमग्ने नि षेदिरे ।
घृतप्रतीकं मनुषो वि वो मदे शुक्रं चेतिष्ठमक्षभिर्विवक्षसे॥7॥

सभी  तुम्हें आमंत्रित  करते  तुम  ही  सबको  सुख  देते हो ।
सबका कल्याण तुम्हीं करते अपनेपन से अपना लेते हो॥7॥

9000
अग्ने शुक्रेण शोचिषोरु प्रथयसे बृहत् ।
अभिक्रन्दन्वृषायसे वि वो मदे गर्भं दधासि जामिषु विवक्षसे॥8॥

सुख - कारी औषधि  देते  हो  सबको  देते  हो  धन - धान ।
सभी तुम्हारी महिमा गाते हे अग्नि-देव तुम हो महान ॥8॥   
    

Saturday, 22 February 2014

सूक्त - 22

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- इन्द्र । छन्द- बृहती-अनुष्टुप्- त्रिष्टुप् ।]

9001
कुह श्रुत इन्द्रः कस्मिन्नद्य जने मित्रो न श्रूयते ।
ऋषीणां  वा  यः क्षये  गुहा  वा  चर्कृषे गिरा ॥1॥

हे  परममित्र  हे  परमेश्वर  मेरे  अपने  तुम  ही  लगते  हो ।
उपासना की विविध विधा से तुम मति मन में बसते हो॥1॥

9002
इह श्रुत इन्द्रो अस्मे अद्य स्तवे वज्रयृचीषमः ।
मित्रो  न  यो  जनेष्वा  यशश्चक्रे असाम्या॥2॥

हे  परमेश्वर तुम प्रणम्य हो मुझको भी यश-वैभव देना ।
प्रभु उपासना हम करते हैं अपने-पन से अपना लेना॥2॥

9003
महो यस्पतिः शवसो असाम्या महो नृम्णस्य तूतुजिः ।
भर्ता    वज्रस्य   धृष्णोः   पिता    पुत्रमिव   प्रियम् ॥3॥

तुम्हीं हमारे पिता सदृश हो सभी गुणों के तुम स्वामी हो।
सदा  हमारी  रक्षा  करना प्रभु तुम ही अन्तर्यामी हो ॥3॥

9004
युजानो अश्वा  वातस्य  धुनी  देवो देवस्य वज्रिवः ।
स्यन्ता पथा विरुक्मता सृजानः स्तोष्यध्वनः॥4॥

हे  परमेश्वर  प्रेरक बन कर सत्पथ पर तुम मुझे चलाना ।
भूले से गलत राह पर जाऊँ तो सही मार्ग पर ले आना॥4॥

9005
त्वं त्या चिद्वातस्याश्वागा ऋज्रा त्मना वहध्यै ।
ययोर्देवो न मर्त्यो यन्ता नकिर्विदाय्यः ॥5॥

प्राण-अपान नियन्ता तुम हो तुम ही प्रभु इसके ज्ञाता हो ।
तुम प्राणों के प्राण प्रभु जी पिता तुम्हीं तुम ही माता हो॥5॥

9006
अध ग्मन्तोशना पृच्छते वां कदर्था न  आ गृहम् ।
आ  जग्मथुः  पराकाद्दिवशच  ग्मश्च  मर्त्यम् ॥6॥

कर्मानुरूप  ही  फल मिलता है विविध-विधा से होता भोग ।
यही प्रश्न अत्यन्त कठिन है क्या है प्राण-प्रयोजन योग॥6॥

9007
आ    न    इन्द्र    पृक्षसेSस्माकं    ब्रह्मोद्यतम् ।
तत्त्वा याचामहेSवः शुष्णं यध्दन्नमानुषम्॥7॥

हे प्रभु पूज्य प्रणम्य तुम्हीं हो सबका ध्यान सदा रखना ।
रक्षा  करना  सदा  हमारी  सँग   मेरे   हरदम   रहना ॥7॥

9008
अकर्मा दस्युरभि नो अमन्तुरन्यव्रतो अमानुषः ।
त्वं      तस्यामित्रहन्वधर्दासस्य      दम्भय ॥8॥

षड् - रिपुओं  से  तुम्हीं   बचाते दुष्टों को दण्ड तुम्हीं देते हो ।
हम सबके अवगुण हर लेते अपने पन से अपना लेते हो॥8॥

9009
त्वं  न  इन्द्र  शूर शूरैरुत त्वोतासो बर्हणा ।
पुरुत्रा ते वि पूर्तयो नवन्तक्षोणयो यथा॥9॥

अतुलनीय  महिमा  है  तेरी  जीवन - रण  में  देना साथ ।
इस जगती के रक्षक तुम हो करते हो तुम हमें सनाथ॥9॥

9010
त्वं तान्वृत्रहत्ये चोदयो नृन्कार्पाणे शूर वज्रिवः ।
गुहा   यदी   कवीनां  विशां  नक्षत्रशवसाम् ॥10॥

नभ - जल  पृथ्वी  पर  बरसाते  धरती  पर  आती  हरियाली ।
शाक फूल फल मिले सभी को मिले खेत में धान की बाली॥10॥

9011
मक्षू  ता  त  इन्द्र दानाप्नस आक्षाणे शूर वज्रिवः ।
यध्द शुष्णस्य दम्भयो जातं विश्वं सयावभिः॥11॥

जल - भण्डार  हमें  देना  प्रभु  देते  रहना रिमझिम बरसात ।
सबको दाल-भात मिल जाए पेडों पर पसरे पल्लव-पात॥11॥

9012
माकुध्रय्गिन्द्र शूर वस्वीरस्मे भूवन्नभिष्टयः ।
वयंवयं त आसां सुम्ने स्याम वज्रिवः ॥12॥

हे  प्रभु  पूजनीय  परमेश्वर  मनो-कामना  पूरी  करना ।
हमें सुरक्षा देना प्रभु-वर धन-वैभव तुम देते रहना ॥12॥

9013
अस्मे ता त इन्द्र सन्तु सत्याहिंसन्तीरुपस्पृशः ।
विद्याम  यासां  भुजो  धेनूनां  न  वज्रिवः ॥13॥

सबके  हित  में  मेरा  हित  हो  यही  मंत्र  मुझको समझाना ।
कर्मानुरुप सुख-दुख तो होगा बार-बार मुझको बतलाना॥13॥

9014
अहस्ता यदपदी वर्धत क्षा: शचीभिर्वेद्यानाम् ।
शुष्णं परि प्रदक्षिणिद्विश्वायवे नि शिश्नथः॥14॥

भू - सम्पदा  भरी  यह  धरती  सूर्य - देव  से  आलोकित  है ।
पृथ्वी के नीचे भी जल है नभ-जल से धरा प्रफुल्लित है॥14॥

9015
पिबापिबेदिन्द्र  शूर  सोमं  मा  रिषण्यो  वसवान वसुः सन् ।
उत त्रायस्व गृणतो मघोनो महश्च रायो रेवतस्कृधी नः॥15॥

इस  जगती  के  रक्षक तुम हो तुम अनन्त वैभव के स्वामी ।
तुम वरद-हस्त मुझ पर रखना बन जाऊँ तेरा अनुगामी॥15॥   

        
 

Friday, 21 February 2014

सूक्त - 23

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती- त्रिष्टुप्- अभिसारिणी ।]

9016
यजामह   इन्द्रं  वज्रदक्षिणं   हरीणां   रथ्यं1   विव्रतानाम् ।
प्र श्मश्रु दोधुवदूर्ध्वथा भूद्वि सेनाभिर्दयमानो वि राधसा॥1॥

हे  प्रभु  तुम  यश - वैभव  देना  सदा  हमारी  रक्षा  करना ।
सत्पथ  पर  ही  हम   चलते हैं धन-धान हमें देते रहना॥1॥

9017
हरी  न्यस्य  या  वने  विदे  वस्विन्द्रो  मघैर्मघवा  वृत्रहा  भुवत् ।
ऋभुर्वाज ऋभुक्षा:पत्यते शवोSव क्ष्णौमि दासस्य नाम चित्॥2॥

इन्द्र - देव  अति   तेजस्वी   हैं   दुष्टों   को    दण्ड  वही   देते   हैं ।
भूल   से   कोई   भूल  हो  जाए  अपने - पन  से  अपनाते   हैं॥2॥

9018
यदा  वज्रं  हिरण्यमिदथा  रथं  हरी यमस्य वहतो वि सूरिभिः ।
आ तिष्ठति मघवा सनश्रुत इन्द्रो वाजस्य दीर्घश्रवसस्पतिः॥3॥

तुम  यश - वैभव  के  स्वामी  हो  वरद - हस्त  हम पर रखना ।
बार - बार  तुम  हमें  सिखाना  कर्म - योग पथ पर चलना ॥3॥

9019
सो चिन्नु वृष्टिर्यूथ्या3 स्वा सचॉ इन्द्रः श्मश्रूणि हरिताभि प्रष्णुते।
अव   वेति   सुक्षयं   सुते  मधूदिद्दधूनोति  वातो  यथा  वनम् ॥4॥

रिमझिम  बरसात  तुम्हीं  देते  हो  बारिश  की  है  बात  निराली ।
धरा   भीग -  कर  उर्वर   होती   पृथ्वी   पर  आती  हरियाली ॥4॥

9020
यो   वाचा   विवाचो   मृध्रवाचः   पुरू   सहस्त्राशिवा   जघान ।
तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसि पितेव यस्तविषीं वावृधे शवः॥5॥

दुष्ट - दमन  अति  आवश्यक  है  तुम्हीं  हमारी  रक्षा  करना ।
इन्द्र - देव तुम पिता-सदृश हो तुम ही सबकी पीडा हरना ॥5॥

9021
स्तोमं  त  इन्द्र  विमदा अजीजनन्नपूर्व्यं पुरुतमं सुदानवे ।
विद्मा  ह्यस्य  भोजनमिनस्य  यदा पशुं न गोपा: करामहे॥6॥

तुम  धन - वैभव  के  स्वामी  हो  हमको भी देना धन-धान ।
अति-आत्मीय तुम्हीं लगते हो वेद-ऋचाओं का दो ज्ञान॥6॥

9022
माकिर्न  एना  सख्या  वि  यौषुस्तव  चेन्द्र  विमदस्य  च  ऋषेः।
विद्मा हि ते प्रमतिं देव जामिवदस्मे ते सन्तु सख्या शिवानि॥7॥

अति - प्रिय  सखा  सदा  तुम  मेरे सख्य-भाव यह रहे निरन्तर ।
बनें   प्रेरणा   एक  -  दूजे   के   प्रेरित   करते   रहें   परस्पर ॥7॥  



   

Thursday, 20 February 2014

सूक्त - 24

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- इन्द्र - अश्विनीकुमार । छन्द- आस्तार पंक्ति- अनुष्टुप् ।]

9023
इन्द्र सोममिमं पिब मधुमन्तं चमू सुतम् ।
अस्मे  रयिं  नि धारय वि वो मदे सहस्त्रिणं पुरुवसो विवक्षसे॥1॥


हे  पूजनीय  प्रभु  परमेश्वर  तुम  धरा - गगन  की  रक्षा  करना ।
यश-वैभव हमको देना प्रभु जन-मन का ध्यान तुम्हीं रखना॥1॥

9024
त्वां यज्ञेभिरुक्थैरुप हव्येभिरीमहे ।
शचीपते शचीनां वि वो मदे श्रेष्ठं नो धेहि वार्यं विवक्षसे ॥2॥

ज्ञान - निधान पूज्य परमेश्वर हम तुमको प्रणाम करते हैं ।
पर- हित में यह जीवन रत हो यही अपेक्षा हम करते हैं॥2॥

9025
यस्पतिर्वार्याणामसि रध्रस्य चोदिता ।
इन्द्र स्तोतृणामविता वि वो मदे द्विषो नःपाह्यंहसो विवक्षसे॥3॥

इस  जगती  के परमेश्वर - प्रभु तुम सत्पथ पर ही ले चलना ।
तुम  ही  वसुधा  के  रक्षक हो सदा अनुग्रह हम पर करना॥3॥

9026
युवं शक्रा मायाविना समीची निरमन्थतम् ।
विमदेन यदीळिता नासत्या ननिरमन्थतम्॥4॥

कर्म-योग की गरिमा अद्भुत मुझको यही मार्ग दिखलाना ।
मन के दोषों को हर लेना सुख की परिभाषा सिखलाना॥4॥

9027
विश्वे देवा अकृपन्त समीच्योर्निष्पतन्त्योः ।
नासत्यावब्रुवन्देवा:  पुनरा   वहतादिति॥5॥

हम  सबके  संकल्प  पूर्ण  हों  यश - वैभव  का  दे  दो दान ।
सत्पथ पर तुम प्रेरित करना देना अन्न और धन-धान॥5॥

9028
मधुमन्मे    परायणं     मधुमत्पुनरायनम् ।
ता नो देवा देवतया युवं मधुमतस्कृतम्॥6॥

इस  जग  में  आना  और  जाना सज्जन समुचित नेह निभाये।
वरद-हस्त हम पर रखना प्रभु आना-जाना सार्थक हो जाये॥6॥     
   

Wednesday, 19 February 2014

सूक्त - 25

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- सोम । छन्द- आस्तार पंक्ति ।]

9029
भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत क्रतुम् ।
अधा ते सख्ये अन्धसो वि वो मदे रणन्गावो न यवसे विवक्षसे॥1॥

मेरे  आनन्द - पूर्ण  प्रभु  मुझको  दे  दो  सुन्दर  तन  और  मन ।
सुख-सान्निध्य सुखद मिल जाए मिल जाए तुमसे अपनापन॥1॥

9030
हृदिस्पृशस्त आसते विश्वेषु सोम धामसु ।
अधा कामा इमे मम वि वो मदे तिष्ठन्ते वसूयवो विवक्षसे ॥2॥

प्रभु  तेरी  महिमा  अपार  है  मेरी  सेवा  स्वीकार  करो ।
मात्र तुम्हीं  मेरे  अपने हो अक्षत-चन्दन माथ-धरो ॥2॥ 

9031
उत व्रतानि सोम ते प्राहं मिनामि पाक्या ।
अधा पितेव सूनवे वि वो मदे मृळा नो अभि चिद्वधाद्विवक्षसे॥3॥

तेरे  प द - चिन्हों  पर  चलकर  हम  सदा  बढायें  मान  तेरा ।
सबका कल्याण तुम्हीं करते हो स्वीकार करो हवि-भाग मेरा॥3॥

9032
समु प्र यन्ति धीतयः सर्गासोSवतॉ इव ।
क्रतुं नः सोम जीवसे वि वो मदे धारया चमसॉ इव विवक्षसे ॥4॥

प्रभु  समझो  सम्प्रेषण  मेरा  कर्म - योग  का  दे दो ज्ञान ।
तुम महान हो पिता सभी के सबका रखना पूरा ध्यान ॥4॥

9033
तव त्ये सोम शक्तिभिर्निकामासो व्यृण्विरे ।
गृत्सस्य धीरास्तवसो वि वो मदे व्रजं गोमन्तमश्विनं विवक्षसे॥5॥

यह जीवन व्यर्थ न हो जाए तुम ही सत्पथ पर ले चलना ।
मेरा ध्यान सदा रखना प्रभु मनो-कामना पूरी करना ॥5॥

9034
पशुं नः सोम रक्षसि पुरुत्रा विष्ठितं जगत् ।
समाकृणोषि जीवसे वि वो मदे विश्वा सम्पश्यन्भुवना विवक्षसे॥6॥

हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी  तुम  सबकी  रक्षा करते हो ।
अन्न-धान सबको देते हो तुम सबकी पीडा हरते हो॥6॥

9035
त्वं नः सोम विश्वतो गोपा अदाभ्यो भव ।
सेध राजन्नप स्त्रिधो वि वो मदे मा नो दुःशंस ईशिता विवक्षसे॥7॥

हे  सोम - देव तुम सुधा-सदृश हो सदा हमारी रक्षा करना ।
रिपु-दल से तुम हमें बचाना मन का ताप तुम्हीं हरना॥7॥

9036
त्वं नः सोम सुक्रतुर्वयोधेयाय जागृहि ।
क्षेत्रवित्तरो मनुषो वि वो मदे द्रुहो नः पाह्यंहसो विवक्षसे॥8॥

तुम  ही  हम सबके आश्रय हो हम खेती करके पायें धान ।
अति-अद्भुत है महिमा तेरी अति-अद्भुत है कर्म महान॥8॥

9037
त्वं नो वृत्रहन्तमेन्द्रस्येन्दो शिवः सखा ।
यत्सीं हवन्ते समिथे वि वो मदे युध्यमानास्तोकसातौ विवक्षसे॥9॥

तुम  ही  मेरे  सखा - सदृश  हो  बन  जाते  हो  सदा - सहायक ।
जन-कल्याण सदा करते हो महिमा-मण्डित हो जन-नायक ॥9॥

9038
अयं घ स तुरो मद इन्द्रस्य वर्धत प्रियः ।
अयं कक्षीवतो महो वि वो मदे मतिं विप्रस्य वर्धयद्विवक्षसे॥10॥

अति  व्यापक  है  वेग  तुम्हारा  सभी  जीव  के सखा तुम्हीं हो ।
तुम ही सबको सुख देते हो सबके शुभ-चिन्तक तुम ही हो॥10॥

9039
अयं विप्राय दाशुषे वाजॉ इयर्ति गोमतः ।
अयं सप्तभ्य आ वरं वि वो मदे प्रान्धं श्रोणं च तारिषद्विवक्षसे॥11॥

खेती से अन्न-धान मिल जाए गो-रस भी मिल जाए सुख-कर ।
मुझे  लक्ष्य  तक  पहुँचाना प्रभु मुझ पर सदा अनुग्रह कर ॥11॥     

Tuesday, 18 February 2014

सूक्त - 26

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- पूषा । छन्द- अनुष्टुप्- उष्णिक् ।]

9040
प्र ह्यच्छा मनीषा: स्पार्हा यन्ति नियुतः ।
प्र दस्त्रा नियुद्रथः पूषा अविष्टु माहिनः॥1॥

विविध-विधा से भाव हमारे परमेश्वर तक आते-जाते हैं ।
वह प्रभु प्रेम-भाव का पूजक भाव में बहकर ही आते हैं॥1॥

9041
यस्य    त्यन्महित्वं    वाताप्यमनं    जनः ।
विप्र आ वंसध्दीतिभिश्चिकेत सुष्टुतीनाम्॥2॥

जगती-ध्वनि में ही ज्ञानी जन परमेश्वर की छवि पाते हैं ।
प्रभु  सम्प्रेषण  के माध्यम से प्रेम परस्पर पहुँचाते हैं॥2॥

9042
स      वेद     सुष्टुतीनामिन्दुर्म     पूषा     वृषा ।
अभि प्सुरः प्रुषायति व्रजं न आ पप्रुषायति॥3॥

सोम-सदृश वह सुख देता है प्रेम की करता है बरसात ।
हम पर दया-दृष्टि रखता है बतलाता है अपनी बात॥3॥

9043
मंसीमहि त्वा वयमस्माकं देव पूषन् ।
मतीनां च साधनं विप्राणां चाधवम्॥4॥

मन-मति की महिमा न्यारी प्रगति-पन्थ का वह पाथेय ।
वही  सारथी  मेरे  रथ  का वह ही तय करता है ध्येय ॥4॥

9044
प्रत्यर्धिर्यज्ञानामश्वहयो                    रथानाम् ।
ऋषिः स यो मनुर्हितो विप्रस्य यावयत्सखः॥5॥

जो जन सबका हित करता है वह जन ही ऋषि कहलाता है।
वह सबको सखा समझता है सुख संदेश-सदृश आता है॥5॥

9045
आधीषमाणाया: पतिः शुचायाश्च शुचस्य च ।
वासोवायोSवीनामा   वासांसि   मर्मृजत् ॥6॥

परमेश्वर हम  सबका  रक्षक  है रखता सदा हमारा ध्यान ।
सुख-कर साधन वह देता है पोषण करता पिता समान॥6॥

9046
इनो    वाजानां   पतिरिनः  पुष्टीनां    सखा ।
प्र श्मश्रु हर्यतो दूधोद्वि वृथा यो अदाभ्यः॥7॥

परमेश्वर जगती का पालक वह अति - शय  बलशाली  है ।
पर सबकी रक्षा करता है जग के उपवन  का माली  है ॥7॥

9047
आ   ते    रथस्य    पूषन्नजा    धुरं   ववृत्युः।
विश्वस्यार्थिनः सखा सनोजा अनपच्युतः॥8॥

जग  की  एक-एक गतिविधि का अन्वेषण अति आवश्यक है।
मन  में  अतिशय कौतूहल है इसकी वेग-विधा व्यापक है ॥8॥

9048
अस्माकमूर्जा  रथं  पूषा अविष्टु माहिनः ।
भुवद्वाजानां वृध इमं नः शृणवध्दवम्॥9॥

प्रभु  मेरा अभिप्राय  समझ  लो  तन-मन  से हमें समर्थ बनाओ।
सान्निध्य सहारा मुझे चाहिए तुम मन की पुकार बन जाओ॥9॥  




 

Monday, 17 February 2014

सूक्त - 27

[ऋषि- वसुक्र ऐन्द्र । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9049
असत्सु मे जरितः साभिवेगो यत्सुन्वते यजमानाय शिक्षम् ।
अनाशीर्दामहमस्मि प्रहन्ता स स्त्यध्वृतं वृजिनायन्तमाभुम्॥1॥

परमेश्वर  यश - वैभव  देता  है  मनो- कामना  पूरी  करता ।
दुष्टों  को  दण्ड  वही देता है वह ही सज्जन का दुख हरता ॥1॥

9050
यदीदहं  युधये  संनयान्यदेवयून्तन्वा3  शूशुजानान् ।
अमा ते तुम्रं वृषभं पचानि तीव्रं सुतं पञ्चदशं नि षिञ्चम्॥2॥

अभिमानी  जन  सुख  से  वञ्चित  यश - वैभव  से रहते दूर ।
सज्जन सब  कुछ पा लेता है मिलता है उसे प्यार भरपूर ॥2॥

9051
नाहं  तं  वेद  य  इति  ब्रवीत्यदेवयून्त्समरणे  जघन्वान्  ।
यदावाख्यत्समरणमृघावदादिध्द  मे  वृषभा  प्र ब्रुवन्ति॥3॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक है प्रभु सज्जन की पीडा हरना ।
जो सत्पथ पर ही चलते हैं उनकी अभिलाषा पूरी करना॥3॥

9052
यदज्ञातेषु  वृजनेष्वासं  विश्वे  सतो  मघवानो  म  आसन् ।
जिनामि वेत्क्षेम आ सन्तमाभुं प्र तं क्षिणां पर्वते पादगृह्य॥4॥

सदा  सुरक्षा  देना  प्रभुवर अन्न - धान  तुम  देते  रहना ।
दुष्टों को तुम दण्डित करना और संतों की रक्षा करना ॥4॥

9053
न  वा  उ  मां  वृजने  वारयन्ते  न पर्वतासो यदहं मनस्ये ।
मम स्वनात्कृधुकर्णो भयात एवेदनु द्यून्किरणः समेजात्॥5॥

अति - विचित्र  है जग की रचना कौन इसे किसको समझाए ।
मन हो जाता मगन कभी और कभी अचानक चुप हो जाए॥5॥

9054
दर्शन्न्वत्र   श्रृतपॉ  अनिन्द्रान्बाहुक्षदः  शरवे   पत्यमानान् ।
घृषुं  वा  ये  निनिदुः  सखायमध्यू  न्वेषु  पवयो  ववृत्युः ॥6॥

त्याग-सहित उपभोग करें हम अन्यथा अशुभ की आशंका है ।
सही   राह पर  नहीं  चले  तो जल जाती सोने की लंका है ॥6॥

9055
अभूर्वौक्षीर्व्यु1  आयुरानाड्   दर्षन्नु   पूर्वो  अपरो  नु   दर्षत् ।
द्वे  पवस्ते  परि  तं  न  भूतो  यो अस्य पारे रजसो विवेष ॥7॥

अनन्त  अजन्मा  अति  अद्भुत है वह ही पावन परम पूर्ण है ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा शेष सभी कुछ तो अपूर्ण  है॥7॥

9056
गायो  यवं  प्रयुता  अर्यो अक्षन्ता अपश्यं  सहगोपाश्चरन्तीः ।
हवा इदर्यो अभितः समायन्कियदासु स्वपतिश्छन्दयाते॥8॥

मनुज - मात्र कर्तव्य निभाता निज सुख-दुख पाया करता है ।
कर्म  स्वतंत्र  बनाया  प्रभु  ने  बुलावे  पर जाना पडता है ॥8॥

9057
सं   यद्वयं   यवसादो   जनानामहं   यवाद   उर्वज्रे   अन्तः ।
अत्रा युक्तोSवसातारमिच्छादथो अयुक्तं  युनजद्ववन्वान्॥9॥

हमने  जग  में  जन्म  लिया है कर्मानुरूप हम फल पाते हैं ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए इसी लोभ में अकुलाते हैं॥9॥

9058
अत्रेदु  मे  मंससे  सत्यमुक्तं द्विपाच्च यच्चतुष्पात्संसृजानि ।
स्रीभिर्यो अत्र वृषणं पृतन्यादयुध्दो अस्य वि भजानि वेदः॥10॥

इस  दुनियॉ में  नर - नारी  सब  निज  दायित्व  निभाने आते ।
जो  नारी   तिरस्कार करते हैं वे खुद अपमानित हो जाते ॥10॥

9059
यस्यानक्षा दुहिता जात्वास कस्तां विद्वॉ अभि मन्याते अन्धाम्।
कतरो मेनिं प्रति तं मुचाते य ईं वहाते य ईं वा वरेयात् ॥11॥

दृष्टि - हींन  को  कौन  शरण  दे कन्या हो गई कौडी - कानी ।
कौन  विवाह  करेगा  उससे  कौन है ऐसी सास-सयानी॥11॥

9060
कियती  योषा  मर्यतो  वधूयोः  परिप्रीता  पन्यसा  वार्येण ।
भद्रा वधूर्भवति यत्सुपेशा:स्वयं सा मित्रं वनुते जने चित्॥12॥

वही  बहू - रानी  उत्तम  है  जो  वर  स्वतः  वरण  करती  है ।
धन-वैभव पर ध्यान नहीं अपने अनुकूल सखा चुनती है।॥12॥ 

9061
पत्तो  जगार  प्रत्यञ्चमत्ति  शीर्ष्णा  शिरः  प्रति  दधौ  वरूथम् ।
आसीन ऊर्ध्वामुपसि क्षिणाति न्यङ्ङुत्तानामन्वेति भूमिम्॥13॥

रवि - रश्मि  थिरकती  वसुधा  पर  वह  तमस मिटाने आती है ।
तन  में  मन  में  प्रकाश भर कर वह मंद-मंद मुस्काती है ॥13॥

9062
बृहन्नच्छायो अपलाशो अर्वा तस्थौ माता  विषितो अत्ति गर्भः।
अन्यसा वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा नि दधे धेनुरूधः॥14॥

सचमुच  सूर्य  कर्म - योगी   है  करता  नहीं   कभी   विश्राम ।
रवि - किरणों  से  सबको छूता समरसता का है वह धाम॥14॥

9063
सप्त  वीरासो  अधरादुदायन्नष्टोत्तरात्तात्  समजग्मिरन्ते ।
नव पश्चातात्स्थिविमन्त आयन्दश प्राक्सानु वि तिरन्त्यश्नः॥15॥

अद्भुत रचना है उस प्रभु की चहुँ ओर थिरकती उसकी माया ।
माया से  हम  बँधे  हुए  हैं  माया  है परमेश्वर की छाया ॥15॥

9064
दशानामेकं  कपिलं  समानं  तं  हिन्वन्ति  क्रतवे  पार्याय ।
गर्भं माता सुधितं वक्षणास्ववेनन्तं तुषयन्ती बिभर्ति॥16॥

नियति - नटी  भी महतारी है हम सबका रखती है ध्यान ।
कर्म  हेतु  प्रभु  प्रेरित  करते है उनके ही हाथ कमान ॥16॥

9065
पीवानं  मेषमपचन्त  वीरा  न्युप्ता  अक्षा अनु  दीव आसन् ।
द्वा  धनुं  बृहतीमप्स्व1न्तः पवित्रवन्ता चरतः पुनन्ता॥17॥

स्थूल - देह  में  प्राण  प्रमुख है जिससे हम जीवित रहते हैं ।
मनुज-जन्म सार्थक हो जाए यही विचार सदा करते हैं॥17॥

9066
वि  क्रोशनासो  विष्वञ्च  आयन्पचाति  नेमो  नहिपक्षदर्धः।
अयं  मे  देवः सविता  तदाह  द्र्वन्न इद्वनवत्सर्पिरन्नः॥18॥

प्रभु - सान्निध्य  मुझे  मिल जाए इसी लोभ से हम आते हैं ।
विविध-विधा से हम जीते हैं निज कर्मों का फल पाते हैं॥18॥

9067
अपश्यं  ग्रामं  वहमानमारादचक्रया  स्वधया  वर्तमानम् ।
सिंषक्तर्य्यःप्र युगा जनानां सद्यःशिश्ना प्रमिनानो नवीयान्॥19॥

अनादि - काल  से  चलती आई मनुज-मात्र की यह क्रीडा है ।
वे प्रेम - पात्र को स्वयं मिलाते यह परमेश्वर की लीला है॥19॥

9068
एतौ  मे  गावौ  प्रमरस्य युक्तौ मो षु प्र सेधीर्मुहुरिन्ममन्धि ।
आपश्चिदस्य वि नशन्त्यर्थं सूरश्च  मर्क उपरो बभूवान्॥20॥

प्राण - अपान  वृषभ - द्वय  जैसे  देह- हेतु अत्यावश्यक  हैं ।
इन्हें  जोड-कर  रखें  देह में ध्येय-पूर्ति के ये साधक हैं॥20॥

9069
अयं  यो  वज्रः  पुरुधा  विवृत्तोSवः  सूर्यस्य  बृहतः  पुरीषात् ।
श्रव इदेना परो अन्यदस्ति तदव्यथी जरिमाणस्तरन्ति॥21॥

हे  प्रभु  कष्ट - निवारण  करना  समाधान  तुम  देते  रहना ।
यश-वैभव तुम देना प्रभुवर सत्पथ पर तुम ही ले चलना॥21॥

9070
वृक्षेवृक्षे  नियता  मीमयद्गौस्ततो  वयः  प्र  पतान् पूरुषादः ।
अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वदृषये च शिक्षत्॥22॥

नित-नवीन है न्याय-पालिका अत्यन्त निपुण है न्यायाधीश।
हर घडी न्याय करता फिरता है वह है मन-मोहन जगदीश॥22॥

9071
देवानां  माने  प्रथमा  अतिष्ठन्कृन्तत्रादेषामुपरा  उदायन् ।
त्रयस्तपन्ति  पृथिवीमनूपा  द्वा  बृबूकं  वहतः पुरीषम्॥23॥

अवनि और अम्बर-वैभव का अन्वेषण होता रहे निरन्तर ।
रचना अति विचित्र है उसकी आओ जानें उसे परख-कर॥23॥

9072
सा  ते  जीवातुरुत  तस्य विध्दि मा स्मैतादृगप गूहः समर्ये ।
आविःस्वःकृणुते गूहते बुसं स पादुरस्य निर्णिजो न मुच्यते॥24॥

आदित्य - देव आलोक-प्रदाता कई किस्म के कौतुक करता ।
सूर्य-रश्मियों को लेकर वह इधर-उधर अठखेली करता ॥24॥
     
                





    

Sunday, 16 February 2014

सूक्त -28

[ऋषिका- इन्द्रस्नुषा । देवता- वसुक्र ऐन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9073
विश्वो  ह्य1न्यो  अरिराजगाम  ममेदह  श्वशुरो  ना  जगाम ।
जक्षीयाध्दाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात्॥1॥

जो आगन्तुक की सेवा करता सुख का बीज वही बोता है ।
अतिथि पूज्य है सदा हमारा पहुना देव-सदृश होता है॥1॥

9074
स रोरुवद्वृषभस्तिग्मशृङ्गो वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्या: ।
विश्वेष्वेनं  वृजनेषु  पामि  यो  मे  कुक्षी  सुतसोमः पृणाति॥2॥

अपना  आयुध  लेकर  चलता  जो  हम  सबका  रखवाला  है ।
दूर  भी  है अत्यन्त  निकट है वह मन-मोहन मुरली वाला॥2॥

9075
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति  ते  वृषभॉ  अत्सि  तेषां  पृक्षेण  यन्मघवन्हूयमानः ॥3॥

सोम - लता  को  भली - भॉति  वे  वैद्य - राज  पहचानते  हैं ।
उसका  प्रभाव  है  सुधा - सदृश  यह बात वैद्य ही जानते हैं ॥3॥

9076
इदं  सु  मे  जरितरा  चिकिध्दि  प्रतीपं  शापं  नद्यो  वहन्ति ।
लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चमत्सा:कोष्टा वराहं निरतक्त कक्षात्॥4॥

आषधियॉ  हैं  दिव्य  इसी  से  जर्जर - काया  बल  पाती  है ।
इन  औषधियों  के  सेवन  से  बूढी   काया खिल जाती है ॥4॥

9077
कथा  त  एतदहमा  चिकेतं गृत्सस्य पाकस्तवसो मनीषाम्।
त्वं  नो विद्वॉ ऋतुथा वि वोचो यमर्धं ते मघवन्क्षेम्या धूः॥5॥

अति  समर्थ  है  वह  परमेश्वर  ज्ञानी  भी  पार  नहीं पाते हैं ।
आर्त्त - नाद  सुन - कर  पर  वे  ही  दौडे-दौडे आ जाते  हैं ॥5॥

9078
एवा  हि  मां  तवसं  वर्धयन्ति  दिवश्चिन्मे  बृहत  उत्तरा  धूः ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि साकमशत्रुं हि मा जनिता जजान॥6॥

वह  अनादि  अद्भुत  अनन्त  है  नहीं  है  कोई  परिभाषा ।
पर जाने क्यों प्यारा लगता है मिलने की होती अभिलाषा॥6॥

9079
एवा  हि  मां  तवसं  जज्ञुरुग्रं  कर्मन्कर्मन्वृषणमिन्द्र  देवा: ।
वधीं  वृत्रं  वज्रेण  मन्दसानोSप  व्रजं  महिना  दाषुषे  वम्॥7॥

भले  ही  हो  वह  बहुत  बडा  पर  सखा - सरीखा  लगता  है ।
वह बिल्कुल गैर नहीं लगता अपना-पन साफ झलकता है॥7॥

9080
देवास  आयन्परशूँरबिभ्रन्वना  वृश्चन्तो  अभि विङ्भिरायन् ।
नि   सुद्रवं1  दधतो  वक्षणासु  यत्रा  कृपीटमनु  तद्दहन्ति॥8॥

सत्पथ  पर  आओ  करो  भरोसा  पाओगे  तुम  उत्तम  फल ।
कर्मानुरूप  तुम  फल  पाओगे आज नहीं तो निश्चय कल॥8॥

9081
शशः   क्षुरं    प्रत्यञ्चं    जगाराद्रिं   लोगेन   व्यभेदमारात् ।
बृहन्तं  चिदृहते  रन्धयानि  वयद्वत्सो  वृषभं  शूशुवानः॥9॥

वह  ईश्वर  अद्भुत  अनुपम  है  करता  सदा  निराला  खेल ।
असंभव  संभव  हो  जाता  है  दुष्टों  को कर देता है फेल॥9॥

9082
सुपर्ण  इत्था  नखमा  सिषायावरुध्दः  परिपदं  न  सिंहः ।
निरुध्दश्चिन्महिषस्तर्ष्यावान्गोधा तस्मा अयथं कर्षदेतत्॥10॥

सोच - मात्र  से  क्षण - भर  में  ही  सभी  समस्या हल होती है ।
उसकी  बानी  बहुत  मधुर  है  बीज  प्रेम  का  वह बोती है॥10॥

9083
तेभ्यो  गोधा  अयथं  कर्षदेतद्ये  ब्रह्मणः  प्रतिपीयन्त्यन्नैः ।
सिम उक्ष्णोSवसृष्टॉ अदन्ति स्वयं बलानि तन्वःशृणाना:॥11॥

रिरु-दल से तुम मुझे बचाना आत्मीय मान-कर अपना लेना ।
भूल से यदि कोई भूल हो जाए तो तुम मुझे क्षमा कर देना॥11॥

9084
एते  शमीभिः सुशमी अभूवन्ये हिन्विरे तन्व1: सोम उक्थैः ।
नृवद्वदन्नुप नो माहि वाजान्दिवि श्रवो दधिषे नाम वीरः॥12॥

यज्ञ - भाव  से  इस तन - मन का भली-भॉति पोषण होता है ।
निज  दायित्व निभाता है सत्कर्म- बीज फिर से बोता है॥12॥                   

Saturday, 15 February 2014

सूक्त - 29

[ऋषि- वसुक्र ऐन्द्र । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9085
वने न वा यो न्यधानि  चाकञ्छुचिर्वां स्तोमो  भुरणावजीगः।
यस्येदिन्द्रः पुरुदिनेषु  होता  नृणां नर्यो नृतमः क्षपावान्॥1॥

प्रभु मुझको शुभ-चिन्तन देना मुझको सत्पथ पर ले चलना।
पर-हित में ही सुख है मेरा सुख पाऊँ ऐसा उपक्रम करना॥1॥

9086
प्र  ते  अस्या  उषसः प्रापरस्या  नृतौ स्याम नृतमस्य नृणाम् ।
अनु त्रिशोकः शतमावहन्नृन्कुत्सेन रथो यो असत्ससवान्॥2॥

जिस  राजा  की  प्रजा  सुखी  है  वह  राजा  ही  जन-नायक है ।
प्रजा  हेतु  वह  पिता  सदृश  है  यह राजा ही सुख-दायक है॥2॥

9087
कस्ते  मद  इन्द्र  रन्त्यो  भूद्दुरो  गिरो  अभ्यु1  ग्रो  वि  धाव ।
कद्वाहो अर्वागुप मा मनीषा आ त्वा शक्यामुपमं राधो अन्नैः॥3॥

करो   मनो - रथ   पूर्ण   प्रभु  जी  द्वार  तुम्हारे  हम   आए  हैं ।
तुम  यश - वैभव के स्वामी हो आज तुम्हें सम्मुख पाए हैं ॥3॥

9088
कदु  द्युम्नमिन्द्र  त्वावतो  नृन्कया धिया करसे कन्न आगन् ।
मित्रो न सत्य उरुगाय भृत्या अन्ने समस्य यदसन्मनीषा:॥4॥

कब पाऊँ प्रभु तेरा दर्शन क्या सचमुच मिलता है साधन-फल ।
तुम  तो  मेरे  सखा - सदृश  हो  बिन  दर्शन हैं नैन विकल ॥4॥

9089
प्रेरय  सूरो  अर्थं  न  पारं  ये  अस्य  कामं जनिधा इव ग्मन् ।
गिरश्च ये  ते  तुविजात  पूर्वीर्नर  इन्द्र प्रतिशिक्षन्त्यन्नैः॥5॥

हम  जैसे  भी  हैं  तेरे हैं प्रभु जीवन-नैया के तुम्हीं खिवैय्या ।
बेडा - पार तुम्हीं करना प्रभु नटवर नागर कृष्ण-कन्हैया॥5॥

9090
मात्रे  नु  ते  सुमिते  इन्द्र  पूर्वी द्यौर्मज्मना पृथिवी काव्येन ।
वराय ते घृतवन्तः सुतासः स्वाद्मन्भवन्तु पीतये मधूनि॥6॥

शौर्य - धैर्य  के  स्वामी  तुम  हो प्रभु मुझको देना चारों बल ।
तुम  जग  के  पालक-पोशक हो कर्मानुरूप  देते हो फल ॥6॥

9091
आ मध्वो अस्मा असिचन्नमत्रमिन्द्राय पूर्णं स हि सत्यराधा:।
स  वावृधे  वरिमन्ना  पृथिव्या  अभि क्रत्वा नर्यः पौंस्यैश्च॥7॥

धन और धान हमें देना प्रभु सर्वाधिक निकट तुम्हीं लगते हो ।
तुम  ही  सबके  सखा  हितैषी सबका ध्यान सदा रखते हो ॥7॥

9092
व्यानळिन्द्रः  पृतना:  स्वोजा आस्मै  यतन्ते  सख्याय पूर्वीः ।
आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे॥॥8॥

प्रेरक  बनना  बहुत  कठिन  है  पर  तुम  सतत  निभाए  हो ।
सदा   प्रेरणा   देते   रहना   मुझे   तुम   ही  अपनाए   हो ॥8॥

       

Friday, 14 February 2014

सूक्त - 30

[ऋषि- रक्षा कवच । देवता- आपो देवता । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9093
प्र  देवत्रा  ब्रह्मणे  गातुरेत्वपो  अच्छा  मनसो  न  प्रयुक्ति ।
महीं मित्रस्य वरुणस्य धासिं पृथुज्रयसे रीरधा सोवृक्ति॥1॥

मन  की  गति  से  पूजन  पहुँचे  यज्ञ-भोग का हो विस्तार ।
भाव-सहित उस परमेश्वर को मनुज नमन कर बारम्बार॥1॥

9094
अध्वर्यवो   हविष्मन्तो   हि   भूताच्छाप   इतोशतीरुशन्तः ।
अव याश्चष्टे अरुणः सुपर्णस्तमास्यध्वमूर्मिमद्या सुहस्ता:॥2॥

हविष्यान्न  हो  प्रचुर  धरा पर जी लें हम भी सुखमय जीवन ।
रवि-रश्मि युक्त यह ऊर्मि सुनहरी हे यज्ञदेव अर्पित है तन-मन॥2॥

9095
अध्वर्यवोSप  इता  समुद्रमपां  नपातं  हविषा  यजध्वम् ।
स वो दददूर्मिमद्या सुपूतं तस्मै सोमं मधुमन्तं सुनोत॥3॥

ओ  आदित्य- देवता  आओ  करते  हैं हम सब आवाहन ।
तुम्हें सोम अर्पित करते हैं सेवा में अर्पित पावन-मन॥3॥

9096
यो  अनिध्मो  दीदयदप्स्व1न्तर्यं  विप्रास  ईळते अध्वरेषु ।
अपां  नपान्मधुमतीरपो  दा याभिरिन्द्रो वावृधे वीर्याय॥4॥

हे  सूर्यदेव  तुम ही प्रणम्य हो तुम देते रिमझिम बरसात ।
अन्न फूल फल खाते  हैं और खिल उठता है पात-पात॥4॥

9097
याभिः  सोमो  मोदते  हर्षते   च  कल्याणीभिर्युवतिभिर्न   मर्यः।
ता अध्वर्यो अपो अच्छा परेहि यदासिञ्चा ओषधीभिःपुनीतात्॥5॥

औषधियों   का   मान   बढाओ   पुनर्नवा  होती  है   काया ।
हर पौधा औषधि है जिसने निर्बल-तन को सबल बनाया॥5॥

9098
एवेद्यूने     युवतयो     नमन्त     यदीमुशन्नुशतीरेत्यच्छ ।
सं जानते मनसा सं चिकित्रेSध्वर्यवो धिषणापश्च देवीः॥6॥

जल  जीवन  है  हम  यह  जानें वर्षा-जल का कर लें सञ्चय ।
नदी-जलाशय स्वच्छ रखें हम हमको लाभ मिलेगा निश्चय॥6॥

9099
यो वो वृताभ्यो अकृणोदु लोकं यो वो मह्या अभिशस्तेरमुञ्चत्।
तस्मा  इन्द्राय  मधुमन्तभूर्मिं  देवमादनं  प्र हिणोतनापः ॥7॥

हे  वरुण - देव  तुम  ही  वरेण्य  हो तुम्हें नमन करता संसार ।
जल  की  गरिमा  महिमा अद्भुत जल ही है जगती का सार॥7॥

9100
प्रास्मै हिनोत मधुमन्तभूर्मिं गर्भो यो वः सिन्धवो मध्व उत्सः।
घृतपृष्ठमीड्यमध्वरेष्वापो   रेवतीः   शृणुता   हवं   मे  ॥8॥ 

सरिता कल-कल ध्वनि करती है सागर सब रहते गम्भीर ।
तुम  रिमझिम  रव  लेकर आते हर लेते हो सबका पीर ॥8॥

9101
तं  सिन्धवो  मत्सरमिन्द्रपानमूर्मिं  प्र  हेत  य उभे इर्यति ।
मदच्युतमौशानं नभोजां परि त्रितन्तुं विचरन्तमुत्सम्॥9॥

रवि-रश्मि सहित सरितायें भी मधु-रव के सँग भाग रही हैं।
प्राण  उदान  सँग  बहती है सबके मन को लुभा रही है ॥9॥

9102
आवर्वृततीरध  नु  द्विधारा  गोषुयुधो  न  नियवं  चरन्तीः ।
ऋषे जनित्रीर्भुवनस्य पत्नीरपो वन्दस्व सवृधः सयोनीः॥10॥

जल - धारा  में  सोम  समाया  औषधि  ऑचल  में  लाई  है ।
विविध गुणों की यह निधान हमको पोषित करने आई है॥10॥ 

9103
हिनोता  नो  अध्वरं  देवयज्या  हिनोत  ब्रह्म सनये धनानाम् ।
ऋतस्य योगे वि ष्यध्वमूधः श्रुष्टीवरीर्भूतनास्मभ्यमापः॥11॥

हे  प्रभु  हमें  समर्थ  बनाओ  वेद - ऋचाओं  का  दो  ज्ञान ।
जीवन के अवरोध मिटाओ मन से मिटे तमस अज्ञान ॥11॥

9104
आपो  रेवतीः  क्षयथा  हि  वस्वः  क्रतुं  च  भद्रं  बिभृथामृतं च ।
रायश्च स्थ स्वपत्यस्य पत्नीः सरस्वती तद्गृणते वयो धात्॥12॥

वरुण - देव  वैभव  के  स्वामी  मिट  जाए  मन का अभिमान ।
सुख-संतति देना तुम प्रभुवर कलुष मिटा-कर देना ज्ञान॥12॥

9105
प्रति   यदापो  अदृश्रमायतीर्घृतं   पयांसि   बिभ्रतीर्मधूनि ।
अध्वर्युभिर्मनसा संविदाना इन्द्राय सोमं सुषुतं भरन्तीः॥13॥

हे  प्रभु  जी  यश - वैभव  देना तुम ही रखते हो सबका ध्यान ।
मन-मति के प्रेरक बन जाओ भर दो देश-भूमि अभिमान॥13॥

9106
एमा अग्मन्रेवतीर्जीवधन्या अध्वर्यवः सादयता सखायः ।
नि बर्हिषि धत्तन सोम्यासोSपां नप्त्रा संविदानास एना:॥14॥

सभी सुखी हों सभी निरोगी जल की महिमा का हो गान ।
कुश-आसन पर सोम धरा है ग्रहण करो हे देव महान॥14॥ 

9107
आग्मन्नाप   उशतीर्बहिरेदं   न्यध्वरे   असदन्देवयन्तीः ।
अध्वर्यवःसुनुतेन्द्राय सोममभूदु वःसुशका देवयज्या॥15॥

यज्ञ - वेदिका के समीप ही जल से भरा कलश धर - कर ।
करते हैं हम जल की पूजा हे प्रभु वरुण अनुग्रह कर ॥15॥    
        

Thursday, 13 February 2014

सूक्त - 31

[ ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9108
आ  नो  देवानामुप  वेतु  शंसो  विश्वेभिस्तुरैरवसे यजत्रः ।
तेभिर्वयं सुषखायो भवेम तरन्तो विश्वा दुरिता स्याम॥1॥

ज्ञानी  का  सान्निध्य- लाभ  लें उनसे सीखें हम भी ज्ञान ।
सत्कर्म बहुत ही आवश्यक है सम्पूर्ण तभी होता अभियान॥1॥

9109
परि चिन्मर्तो द्रविणं ममन्यादृतस्य पथा नमसा विवासेत् ।
उत स्वेन क्रतुना सं वदेत श्रेयांसं दक्षं मनसा जगृभ्यात्॥2॥

सत्पथ  पर हम चलें निरन्तर हमको तुम देना धन - धान ।
चिन्तन के अनुरूप कर्म हो लक्ष्य-मात्र पर ही हो ध्यान॥2॥

9110
अधायि  धीतिरससृग्रमंशास्तीर्थे  न  दस्ममुप  यन्त्यूमा:।
अभ्यानश्म  सुवितस्य  शूषं  नवेदसो  अमृतानामभूम॥3॥

हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी  रोग -  शोक  से  तुम्हीं   बचाओ ।
हमको भी यश-वैभव दे दो आनन्द-पथ पर तुम पहुँचाओ॥3॥

9111
नित्यश्चाकन्यात्  स्वपतिर्दमूना  यस्मा  उ देवः सविता जजान।
भगो वा गोभिरर्यमेमनज्यात्सो अस्मै चारुश्छदयदुत स्यात्॥4॥

विधि  ने  जग  की  रचना  की  है  सुख  के  सँग  हमें  जीना  है ।
पञ्चभूत  भी  सुख - स्वरूप  हैं  हमको  सुख-अमृत पीना है॥4॥

9112
इयं  सा  भूया  उषसामिव  क्षा  यध्द क्षुमन्तः शवसा समायन् ।
अस्य स्तुतिं जरितुर्भिक्षमाणा आ नःशग्मास उप यन्तु वाजा:॥5॥

सूरज  उजियारा  लेकर  आता प्रतिदिन देता स्वर्णिम आलोक ।
वरद - हस्त  हम  पर  रखना प्रभु रहे सुरक्षित यह भू-लोक ॥5॥

9113
अस्येदेषा     सुमतिः     पप्रथानाभवत्पूर्व्या     भूमना     गौः ।
अस्य सनीळा असुरस्य योनौ समान आ भरणे बिभ्रमाणा:॥6॥

प्रभु  तुम  पावन  पूजनीय  हो  शुभ-संस्कृति  का  हो  विस्तार ।
जन-कल्याण करें हम निशि-दिन जन-जन का नित हो सत्कार॥6॥

9114
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः ।
संतस्थाने अजरे  इतऊती  अहानि  पूर्वीरुषसो जरन्त ॥7॥

शस्य-श्यामला जन्म-भूमि यह जरा-रहित है  करो हिसाब । 
दिवा-रात्रि इससे परिचित हैं यह आज भी है कोरी किताब॥7॥

9115
नैतावदेना  परो  अन्यदस्त्युक्षा  स  द्यावापृथिवी  बिभर्ति ।
त्वचं पवित्रं कृणुत स्वधावान्यदीं सूर्यं न हरितो वदन्ति॥8॥

कैसे  हुई  धरा  की  रचना  कहॉ  से  आए  अन्न  और  धान।
इस अद्भुत अनुपम अवनि का है कौन धरा-सर्जक महान॥8॥

9116
स्तेगो न  क्षामत्येति पृथ्वीं मिहं न वातो वि  ह वाति भूम ।
मित्रो यत्र वरुणो अज्यमानोSग्निर्वने न व्यसृष्ट शोकम्॥9॥

धरती  नीति - नेम  से  चलती  पावन  पुरवाई  बहती  है ।
सूर्य-किरण चहुँ ओर थिरकती कौतुक काव्य कथा कहती है॥9॥

9117
स्तरीर्यत्सूत सद्यो अज्यमाना व्यथिरव्यथीः कृणुत स्वगोपा ।
पुत्रो यत्पूर्वः पित्रोर्जनिष्ट शम्यां गौर्जगार यध्द पृच्छान् ॥10॥

बिन  पीडा  सृजन  नहीं होता है फिर भी सृजन खुशी देता है ।
अनुष्ठान से तन-मन पकता पर समाधि-पथ पा लेता  है॥10॥

9118
उत  कण्वं  नृषदः  पुत्रमाहुरुत  श्यावो  धनमादत्त  वाजी ।
प्र कृष्णाय रुशदपिन्वतोधरृतमत्र नकिरस्मा अपीपेत्॥11॥

अग्नि - देव  की  महिमा  अद्भुत  सबको  देते हैं हवि-भोग ।
हम  भी  सदा  बॉट-कर खायें यह सबसे उत्तम है  योग॥11॥ 

 
  

Wednesday, 12 February 2014

सूक्त - 32

[ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

9119
प्र सु ग्मन्ता धियसानस्य  सक्षणि  वरेभिर्वरॉं अभि  षु प्रसीदतः ।
अस्माकमिन्द्र उभयं जुजोषति यत्सोम्यस्यान्धसो बुबोधति॥1॥

परमेश्वर  वैभव - स्वामी  है  अतुलित  गुण  का  वही  निधान ।
हम  उसके  गुण  को  अपनायें  हम  हैं  उसकी ही सन्तान ॥1॥

9120
वीन्द्र  यासि  दिव्यानि  रोचना  वि  पार्थिवानि  रजसा पुरुष्टुत ।
ये त्वा वहन्ति मुहुरध्वरॉ उप ते सु वन्वन्तु वग्वनॉ अराधसः॥2॥

आदित्य -  देव  आलोक - प्रदाता  तमस  से  हमें  रखते  दूर ।
जो  भी   शुभ-चिन्तन  करता है देते हैं उसे प्यार भर-पूर ॥2॥

9121
तदिन्मे  छन्त्सद्वपुषो  वपुष्टरं  पुत्रो  यज्जानं  पित्रोरधीयति ।
जाया पतिं वहति वग्नुना सुमत्पुंस इद्भद्रो वहतुःपरिष्कृतः॥3॥

उत्तम  जीवन  हमें  प्राप्त  हो  वह  परमेश्वर  है  पिता  हमारा ।
हे प्रभु सत्पथ पर ले चलना सुमिरन करते हैं हम तुम्हारा॥3॥

9122
तदित्सधस्थमभि चारु दीधय गावो यच्छासन्वहतुं न धेनवः।
माता यन्मन्तुर्यूथस्य पूर्व्याभि वाणस्य सप्तधातुरिज्जनः॥4॥

प्रभु  वाणी  का  वैभव  देना  हम  पर  वरद - हस्त  रखना ।
सस्वर  वेद - ऋचा  को  गायें मनो-कामना पूरी करना ॥4॥

9123
प्र  वोSच्छा  रिरिचे  देवयुष्पदमेको  रुद्रेभिर्याति  तुर्वणिः ।
जरा वा येष्वमृतेषु दावने परि व ऊमेभ्यःसिञ्चता मधु॥5॥

त्याग-सहित उपभोग करें हम सबको मिले दिव्य हवि-भोग।
सदा आत्म - वत समझें सबको यह सत्कर्म यही है योग॥5॥

9124
निधीयमानमपगूळ्हमप्सु   प्र   मे   देवानां   व्रतपा   उवाच ।
इन्द्रो विद्वॉ अनु हि त्वा चचक्ष तेनाहमग्ने अनुशिष्ट आगाम्॥6॥

अग्नि - देव  जल-थल-नभ में हैं जल के भीतर हैं बडवानल ।
वन  में  दावानल  बन  जाते  नर - तन  में  हैं जठरानल ॥6॥

9125
अक्षेत्रवित्क्षेत्रविदं   ह्यप्राट्   स   प्रैति   क्षेत्रविदानुसशिष्टः ।
एतद्वै भद्रमनुशासनस्योत स्त्रुतिं  विन्दत्यञ्जसीनाम् ॥7॥ 

पथ की पहचान  नहीं  होने  पर  राही  राह भटक जाता है ।
विज्ञ-जनों से राह पूछकर वह अपनी मञ्जिल पाता है॥7॥

9126
अद्येदु   प्राणीदममन्निमाहापीवृतो   अधयनन्मातुरूधः ।
एमेनमाप  जरिमा  युवानमहेळन्वसु  सुमना  बभूव ॥8॥ 

अग्नि- देव यश धन के स्वामी सबको देते हैं धन- धान ।
वाक् - शक्ति  वे  ही  देते  है पा सकते हैं हम भी ज्ञान ॥8॥

9127
एतानि  भद्रा  कलश  क्रियाम  कुरुश्रवण  ददतो मघानि ।
दान इद्वो मघवानःसो अस्त्वयं च सोमो हृदि यं बिभर्मि॥9॥

हे  प्रभु  पूजनीय  परमेश्वर  हम  सत्पथ  पर  चलते  हैं ।
मेरे मन में तुम बस जाओ यही प्रार्थना हम करते हैं ॥9॥ 
     

Tuesday, 11 February 2014

सूक्त - 33

[ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- बृहती- गायत्री ।]

9128
प्र  मा  युयुज्रे  प्रयुजो  जनानां  वहामि  स्म  पूषणमन्तरेण ।
विश्वे देवासो अध मामरक्षन्दुःशासुरागादिति घोष आसीत्॥1॥

हम  सब  संरक्षित  हों  प्रभुवर  सत्पथ  पर  हमको चलना है ।
जन-कल्याण  हेतु  जीना  है गिर-कर  भी हमें संभलना है॥1॥

9129
सं      मा      तपन्त्यभितः     सपत्नीरिव      पर्शवः ।
नि बाधते अमतिर्नग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मतिः ॥2॥

विहग - सदृश  चञ्चल  मेरा  मन  दीन - दरिद्र  हुआ  जाता है ।
विविध-विधा से दुख पाता है निशि-दिन मुझको तडपाता है॥2॥

9130
मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो ।
सकृत्सु नो मघवन्निन्द्र मृळयाधा पितेव नो भव ॥3॥

मन का दुख होता है भारी वह तन को जर्जर करता है ।
परमेश्वर है पिता हमारा वही हमारा दुख हरता है ॥3॥

9131
कुरुश्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम् ।
मंहिष्ठं                        वाघतामृषिः ॥4॥

मैं  द्रष्टा  हूँ  बल-शाली  हूँ  सत्संग  सदा  मैं  करता  हूँ ।
जन-कल्याण हेतु संग्रह कर मैं सबकी पीडा हरता हूँ॥4॥

9132
यस्य मा हरितो रथे तिस्त्रो वहन्ति साधुया ।  
स्तवै                              सहस्त्रदक्षिणे ॥5॥

परमेश्वर  तुम  ही  प्रणम्य  हो  दानी  को  धन  देते रहना ।
जगती को जिसका लाभ मिले वही प्रसाद ग्रहण करना॥5॥

9133
यस्य प्रस्वादसो गिर उपमश्रवसः पितुः ।
क्षेत्रं             न             रण्वममूचुषे ॥6॥

ऋषि तो समदर्शी होता है दुनियॉ  में  सब हैं एक समान ।
जन-हित है दायित्व उसी का करना है कर्तव्य महान॥6॥

9134
अधि पुत्रोपमश्रवो नपान्मित्रातिथेरिहि ।
पितुष्टे         अस्मि           वन्दिता ॥7॥

जगती  का  कल्याण  ज़रूरी  रखना है जन-जन का ध्यान ।
सभी सुखी हों सभी निरोगी जग में गूँजे संस्कृति महान॥7॥

9135
यदीशीयामृतानामुत वा   मर्त्यानाम्  ।
जीवेदिन्मघवा                     मम ॥8॥

प्रभु  मैं  भी  कुछ  दान  करूँ  जो  देता  है  वह  ही  पाता है ।
श्रुतियों  ने  भी  यही  कहा  है  लेन-देन  का यह नाता है॥8॥

9136
न देवानामति व्रतं शतात्मा कचन जीवति ।
तथा          युजा          वि          वावृते ॥9॥

जो अनुशासन  में  रहता  है  सुख  का  अमृत  वह  पीता  है । 
वह निश्चित शतायु होता है सुख-मय जीवन वह जीता है॥9॥