[ऋषि- वसुक्र ऐन्द्र । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9049
असत्सु मे जरितः साभिवेगो यत्सुन्वते यजमानाय शिक्षम् ।
अनाशीर्दामहमस्मि प्रहन्ता स स्त्यध्वृतं वृजिनायन्तमाभुम्॥1॥
परमेश्वर यश - वैभव देता है मनो- कामना पूरी करता ।
दुष्टों को दण्ड वही देता है वह ही सज्जन का दुख हरता ॥1॥
9050
यदीदहं युधये संनयान्यदेवयून्तन्वा3 शूशुजानान् ।
अमा ते तुम्रं वृषभं पचानि तीव्रं सुतं पञ्चदशं नि षिञ्चम्॥2॥
अभिमानी जन सुख से वञ्चित यश - वैभव से रहते दूर ।
सज्जन सब कुछ पा लेता है मिलता है उसे प्यार भरपूर ॥2॥
9051
नाहं तं वेद य इति ब्रवीत्यदेवयून्त्समरणे जघन्वान् ।
यदावाख्यत्समरणमृघावदादिध्द मे वृषभा प्र ब्रुवन्ति॥3॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है प्रभु सज्जन की पीडा हरना ।
जो सत्पथ पर ही चलते हैं उनकी अभिलाषा पूरी करना॥3॥
9052
यदज्ञातेषु वृजनेष्वासं विश्वे सतो मघवानो म आसन् ।
जिनामि वेत्क्षेम आ सन्तमाभुं प्र तं क्षिणां पर्वते पादगृह्य॥4॥
सदा सुरक्षा देना प्रभुवर अन्न - धान तुम देते रहना ।
दुष्टों को तुम दण्डित करना और संतों की रक्षा करना ॥4॥
9053
न वा उ मां वृजने वारयन्ते न पर्वतासो यदहं मनस्ये ।
मम स्वनात्कृधुकर्णो भयात एवेदनु द्यून्किरणः समेजात्॥5॥
अति - विचित्र है जग की रचना कौन इसे किसको समझाए ।
मन हो जाता मगन कभी और कभी अचानक चुप हो जाए॥5॥
9054
दर्शन्न्वत्र श्रृतपॉ अनिन्द्रान्बाहुक्षदः शरवे पत्यमानान् ।
घृषुं वा ये निनिदुः सखायमध्यू न्वेषु पवयो ववृत्युः ॥6॥
त्याग-सहित उपभोग करें हम अन्यथा अशुभ की आशंका है ।
सही राह पर नहीं चले तो जल जाती सोने की लंका है ॥6॥
9055
अभूर्वौक्षीर्व्यु1 आयुरानाड् दर्षन्नु पूर्वो अपरो नु दर्षत् ।
द्वे पवस्ते परि तं न भूतो यो अस्य पारे रजसो विवेष ॥7॥
अनन्त अजन्मा अति अद्भुत है वह ही पावन परम पूर्ण है ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा शेष सभी कुछ तो अपूर्ण है॥7॥
9056
गायो यवं प्रयुता अर्यो अक्षन्ता अपश्यं सहगोपाश्चरन्तीः ।
हवा इदर्यो अभितः समायन्कियदासु स्वपतिश्छन्दयाते॥8॥
मनुज - मात्र कर्तव्य निभाता निज सुख-दुख पाया करता है ।
कर्म स्वतंत्र बनाया प्रभु ने बुलावे पर जाना पडता है ॥8॥
9057
सं यद्वयं यवसादो जनानामहं यवाद उर्वज्रे अन्तः ।
अत्रा युक्तोSवसातारमिच्छादथो अयुक्तं युनजद्ववन्वान्॥9॥
हमने जग में जन्म लिया है कर्मानुरूप हम फल पाते हैं ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए इसी लोभ में अकुलाते हैं॥9॥
9058
अत्रेदु मे मंससे सत्यमुक्तं द्विपाच्च यच्चतुष्पात्संसृजानि ।
स्रीभिर्यो अत्र वृषणं पृतन्यादयुध्दो अस्य वि भजानि वेदः॥10॥
इस दुनियॉ में नर - नारी सब निज दायित्व निभाने आते ।
जो नारी तिरस्कार करते हैं वे खुद अपमानित हो जाते ॥10॥
9059
यस्यानक्षा दुहिता जात्वास कस्तां विद्वॉ अभि मन्याते अन्धाम्।
कतरो मेनिं प्रति तं मुचाते य ईं वहाते य ईं वा वरेयात् ॥11॥
दृष्टि - हींन को कौन शरण दे कन्या हो गई कौडी - कानी ।
कौन विवाह करेगा उससे कौन है ऐसी सास-सयानी॥11॥
9060
कियती योषा मर्यतो वधूयोः परिप्रीता पन्यसा वार्येण ।
भद्रा वधूर्भवति यत्सुपेशा:स्वयं सा मित्रं वनुते जने चित्॥12॥
वही बहू - रानी उत्तम है जो वर स्वतः वरण करती है ।
धन-वैभव पर ध्यान नहीं अपने अनुकूल सखा चुनती है।॥12॥
9061
पत्तो जगार प्रत्यञ्चमत्ति शीर्ष्णा शिरः प्रति दधौ वरूथम् ।
आसीन ऊर्ध्वामुपसि क्षिणाति न्यङ्ङुत्तानामन्वेति भूमिम्॥13॥
रवि - रश्मि थिरकती वसुधा पर वह तमस मिटाने आती है ।
तन में मन में प्रकाश भर कर वह मंद-मंद मुस्काती है ॥13॥
9062
बृहन्नच्छायो अपलाशो अर्वा तस्थौ माता विषितो अत्ति गर्भः।
अन्यसा वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा नि दधे धेनुरूधः॥14॥
सचमुच सूर्य कर्म - योगी है करता नहीं कभी विश्राम ।
रवि - किरणों से सबको छूता समरसता का है वह धाम॥14॥
9063
सप्त वीरासो अधरादुदायन्नष्टोत्तरात्तात् समजग्मिरन्ते ।
नव पश्चातात्स्थिविमन्त आयन्दश प्राक्सानु वि तिरन्त्यश्नः॥15॥
अद्भुत रचना है उस प्रभु की चहुँ ओर थिरकती उसकी माया ।
माया से हम बँधे हुए हैं माया है परमेश्वर की छाया ॥15॥
9064
दशानामेकं कपिलं समानं तं हिन्वन्ति क्रतवे पार्याय ।
गर्भं माता सुधितं वक्षणास्ववेनन्तं तुषयन्ती बिभर्ति॥16॥
नियति - नटी भी महतारी है हम सबका रखती है ध्यान ।
कर्म हेतु प्रभु प्रेरित करते है उनके ही हाथ कमान ॥16॥
9065
पीवानं मेषमपचन्त वीरा न्युप्ता अक्षा अनु दीव आसन् ।
द्वा धनुं बृहतीमप्स्व1न्तः पवित्रवन्ता चरतः पुनन्ता॥17॥
स्थूल - देह में प्राण प्रमुख है जिससे हम जीवित रहते हैं ।
मनुज-जन्म सार्थक हो जाए यही विचार सदा करते हैं॥17॥
9066
वि क्रोशनासो विष्वञ्च आयन्पचाति नेमो नहिपक्षदर्धः।
अयं मे देवः सविता तदाह द्र्वन्न इद्वनवत्सर्पिरन्नः॥18॥
प्रभु - सान्निध्य मुझे मिल जाए इसी लोभ से हम आते हैं ।
विविध-विधा से हम जीते हैं निज कर्मों का फल पाते हैं॥18॥
9067
अपश्यं ग्रामं वहमानमारादचक्रया स्वधया वर्तमानम् ।
सिंषक्तर्य्यःप्र युगा जनानां सद्यःशिश्ना प्रमिनानो नवीयान्॥19॥
अनादि - काल से चलती आई मनुज-मात्र की यह क्रीडा है ।
वे प्रेम - पात्र को स्वयं मिलाते यह परमेश्वर की लीला है॥19॥
9068
एतौ मे गावौ प्रमरस्य युक्तौ मो षु प्र सेधीर्मुहुरिन्ममन्धि ।
आपश्चिदस्य वि नशन्त्यर्थं सूरश्च मर्क उपरो बभूवान्॥20॥
प्राण - अपान वृषभ - द्वय जैसे देह- हेतु अत्यावश्यक हैं ।
इन्हें जोड-कर रखें देह में ध्येय-पूर्ति के ये साधक हैं॥20॥
9069
अयं यो वज्रः पुरुधा विवृत्तोSवः सूर्यस्य बृहतः पुरीषात् ।
श्रव इदेना परो अन्यदस्ति तदव्यथी जरिमाणस्तरन्ति॥21॥
हे प्रभु कष्ट - निवारण करना समाधान तुम देते रहना ।
यश-वैभव तुम देना प्रभुवर सत्पथ पर तुम ही ले चलना॥21॥
9070
वृक्षेवृक्षे नियता मीमयद्गौस्ततो वयः प्र पतान् पूरुषादः ।
अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वदृषये च शिक्षत्॥22॥
नित-नवीन है न्याय-पालिका अत्यन्त निपुण है न्यायाधीश।
हर घडी न्याय करता फिरता है वह है मन-मोहन जगदीश॥22॥
9071
देवानां माने प्रथमा अतिष्ठन्कृन्तत्रादेषामुपरा उदायन् ।
त्रयस्तपन्ति पृथिवीमनूपा द्वा बृबूकं वहतः पुरीषम्॥23॥
अवनि और अम्बर-वैभव का अन्वेषण होता रहे निरन्तर ।
रचना अति विचित्र है उसकी आओ जानें उसे परख-कर॥23॥
9072
सा ते जीवातुरुत तस्य विध्दि मा स्मैतादृगप गूहः समर्ये ।
आविःस्वःकृणुते गूहते बुसं स पादुरस्य निर्णिजो न मुच्यते॥24॥
आदित्य - देव आलोक-प्रदाता कई किस्म के कौतुक करता ।
सूर्य-रश्मियों को लेकर वह इधर-उधर अठखेली करता ॥24॥
9049
असत्सु मे जरितः साभिवेगो यत्सुन्वते यजमानाय शिक्षम् ।
अनाशीर्दामहमस्मि प्रहन्ता स स्त्यध्वृतं वृजिनायन्तमाभुम्॥1॥
परमेश्वर यश - वैभव देता है मनो- कामना पूरी करता ।
दुष्टों को दण्ड वही देता है वह ही सज्जन का दुख हरता ॥1॥
9050
यदीदहं युधये संनयान्यदेवयून्तन्वा3 शूशुजानान् ।
अमा ते तुम्रं वृषभं पचानि तीव्रं सुतं पञ्चदशं नि षिञ्चम्॥2॥
अभिमानी जन सुख से वञ्चित यश - वैभव से रहते दूर ।
सज्जन सब कुछ पा लेता है मिलता है उसे प्यार भरपूर ॥2॥
9051
नाहं तं वेद य इति ब्रवीत्यदेवयून्त्समरणे जघन्वान् ।
यदावाख्यत्समरणमृघावदादिध्द मे वृषभा प्र ब्रुवन्ति॥3॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है प्रभु सज्जन की पीडा हरना ।
जो सत्पथ पर ही चलते हैं उनकी अभिलाषा पूरी करना॥3॥
9052
यदज्ञातेषु वृजनेष्वासं विश्वे सतो मघवानो म आसन् ।
जिनामि वेत्क्षेम आ सन्तमाभुं प्र तं क्षिणां पर्वते पादगृह्य॥4॥
सदा सुरक्षा देना प्रभुवर अन्न - धान तुम देते रहना ।
दुष्टों को तुम दण्डित करना और संतों की रक्षा करना ॥4॥
9053
न वा उ मां वृजने वारयन्ते न पर्वतासो यदहं मनस्ये ।
मम स्वनात्कृधुकर्णो भयात एवेदनु द्यून्किरणः समेजात्॥5॥
अति - विचित्र है जग की रचना कौन इसे किसको समझाए ।
मन हो जाता मगन कभी और कभी अचानक चुप हो जाए॥5॥
9054
दर्शन्न्वत्र श्रृतपॉ अनिन्द्रान्बाहुक्षदः शरवे पत्यमानान् ।
घृषुं वा ये निनिदुः सखायमध्यू न्वेषु पवयो ववृत्युः ॥6॥
त्याग-सहित उपभोग करें हम अन्यथा अशुभ की आशंका है ।
सही राह पर नहीं चले तो जल जाती सोने की लंका है ॥6॥
9055
अभूर्वौक्षीर्व्यु1 आयुरानाड् दर्षन्नु पूर्वो अपरो नु दर्षत् ।
द्वे पवस्ते परि तं न भूतो यो अस्य पारे रजसो विवेष ॥7॥
अनन्त अजन्मा अति अद्भुत है वह ही पावन परम पूर्ण है ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा शेष सभी कुछ तो अपूर्ण है॥7॥
9056
गायो यवं प्रयुता अर्यो अक्षन्ता अपश्यं सहगोपाश्चरन्तीः ।
हवा इदर्यो अभितः समायन्कियदासु स्वपतिश्छन्दयाते॥8॥
मनुज - मात्र कर्तव्य निभाता निज सुख-दुख पाया करता है ।
कर्म स्वतंत्र बनाया प्रभु ने बुलावे पर जाना पडता है ॥8॥
9057
सं यद्वयं यवसादो जनानामहं यवाद उर्वज्रे अन्तः ।
अत्रा युक्तोSवसातारमिच्छादथो अयुक्तं युनजद्ववन्वान्॥9॥
हमने जग में जन्म लिया है कर्मानुरूप हम फल पाते हैं ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए इसी लोभ में अकुलाते हैं॥9॥
9058
अत्रेदु मे मंससे सत्यमुक्तं द्विपाच्च यच्चतुष्पात्संसृजानि ।
स्रीभिर्यो अत्र वृषणं पृतन्यादयुध्दो अस्य वि भजानि वेदः॥10॥
इस दुनियॉ में नर - नारी सब निज दायित्व निभाने आते ।
जो नारी तिरस्कार करते हैं वे खुद अपमानित हो जाते ॥10॥
9059
यस्यानक्षा दुहिता जात्वास कस्तां विद्वॉ अभि मन्याते अन्धाम्।
कतरो मेनिं प्रति तं मुचाते य ईं वहाते य ईं वा वरेयात् ॥11॥
दृष्टि - हींन को कौन शरण दे कन्या हो गई कौडी - कानी ।
कौन विवाह करेगा उससे कौन है ऐसी सास-सयानी॥11॥
9060
कियती योषा मर्यतो वधूयोः परिप्रीता पन्यसा वार्येण ।
भद्रा वधूर्भवति यत्सुपेशा:स्वयं सा मित्रं वनुते जने चित्॥12॥
वही बहू - रानी उत्तम है जो वर स्वतः वरण करती है ।
धन-वैभव पर ध्यान नहीं अपने अनुकूल सखा चुनती है।॥12॥
9061
पत्तो जगार प्रत्यञ्चमत्ति शीर्ष्णा शिरः प्रति दधौ वरूथम् ।
आसीन ऊर्ध्वामुपसि क्षिणाति न्यङ्ङुत्तानामन्वेति भूमिम्॥13॥
रवि - रश्मि थिरकती वसुधा पर वह तमस मिटाने आती है ।
तन में मन में प्रकाश भर कर वह मंद-मंद मुस्काती है ॥13॥
9062
बृहन्नच्छायो अपलाशो अर्वा तस्थौ माता विषितो अत्ति गर्भः।
अन्यसा वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा नि दधे धेनुरूधः॥14॥
सचमुच सूर्य कर्म - योगी है करता नहीं कभी विश्राम ।
रवि - किरणों से सबको छूता समरसता का है वह धाम॥14॥
9063
सप्त वीरासो अधरादुदायन्नष्टोत्तरात्तात् समजग्मिरन्ते ।
नव पश्चातात्स्थिविमन्त आयन्दश प्राक्सानु वि तिरन्त्यश्नः॥15॥
अद्भुत रचना है उस प्रभु की चहुँ ओर थिरकती उसकी माया ।
माया से हम बँधे हुए हैं माया है परमेश्वर की छाया ॥15॥
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दशानामेकं कपिलं समानं तं हिन्वन्ति क्रतवे पार्याय ।
गर्भं माता सुधितं वक्षणास्ववेनन्तं तुषयन्ती बिभर्ति॥16॥
नियति - नटी भी महतारी है हम सबका रखती है ध्यान ।
कर्म हेतु प्रभु प्रेरित करते है उनके ही हाथ कमान ॥16॥
9065
पीवानं मेषमपचन्त वीरा न्युप्ता अक्षा अनु दीव आसन् ।
द्वा धनुं बृहतीमप्स्व1न्तः पवित्रवन्ता चरतः पुनन्ता॥17॥
स्थूल - देह में प्राण प्रमुख है जिससे हम जीवित रहते हैं ।
मनुज-जन्म सार्थक हो जाए यही विचार सदा करते हैं॥17॥
9066
वि क्रोशनासो विष्वञ्च आयन्पचाति नेमो नहिपक्षदर्धः।
अयं मे देवः सविता तदाह द्र्वन्न इद्वनवत्सर्पिरन्नः॥18॥
प्रभु - सान्निध्य मुझे मिल जाए इसी लोभ से हम आते हैं ।
विविध-विधा से हम जीते हैं निज कर्मों का फल पाते हैं॥18॥
9067
अपश्यं ग्रामं वहमानमारादचक्रया स्वधया वर्तमानम् ।
सिंषक्तर्य्यःप्र युगा जनानां सद्यःशिश्ना प्रमिनानो नवीयान्॥19॥
अनादि - काल से चलती आई मनुज-मात्र की यह क्रीडा है ।
वे प्रेम - पात्र को स्वयं मिलाते यह परमेश्वर की लीला है॥19॥
9068
एतौ मे गावौ प्रमरस्य युक्तौ मो षु प्र सेधीर्मुहुरिन्ममन्धि ।
आपश्चिदस्य वि नशन्त्यर्थं सूरश्च मर्क उपरो बभूवान्॥20॥
प्राण - अपान वृषभ - द्वय जैसे देह- हेतु अत्यावश्यक हैं ।
इन्हें जोड-कर रखें देह में ध्येय-पूर्ति के ये साधक हैं॥20॥
9069
अयं यो वज्रः पुरुधा विवृत्तोSवः सूर्यस्य बृहतः पुरीषात् ।
श्रव इदेना परो अन्यदस्ति तदव्यथी जरिमाणस्तरन्ति॥21॥
हे प्रभु कष्ट - निवारण करना समाधान तुम देते रहना ।
यश-वैभव तुम देना प्रभुवर सत्पथ पर तुम ही ले चलना॥21॥
9070
वृक्षेवृक्षे नियता मीमयद्गौस्ततो वयः प्र पतान् पूरुषादः ।
अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वदृषये च शिक्षत्॥22॥
नित-नवीन है न्याय-पालिका अत्यन्त निपुण है न्यायाधीश।
हर घडी न्याय करता फिरता है वह है मन-मोहन जगदीश॥22॥
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देवानां माने प्रथमा अतिष्ठन्कृन्तत्रादेषामुपरा उदायन् ।
त्रयस्तपन्ति पृथिवीमनूपा द्वा बृबूकं वहतः पुरीषम्॥23॥
अवनि और अम्बर-वैभव का अन्वेषण होता रहे निरन्तर ।
रचना अति विचित्र है उसकी आओ जानें उसे परख-कर॥23॥
9072
सा ते जीवातुरुत तस्य विध्दि मा स्मैतादृगप गूहः समर्ये ।
आविःस्वःकृणुते गूहते बुसं स पादुरस्य निर्णिजो न मुच्यते॥24॥
आदित्य - देव आलोक-प्रदाता कई किस्म के कौतुक करता ।
सूर्य-रश्मियों को लेकर वह इधर-उधर अठखेली करता ॥24॥
ज्ञानभरा अनुवाद..
ReplyDeleteअति - विचित्र है जग की रचना कौन इसे किसको समझाए ।
ReplyDeleteमन हो जाता मगन कभी और कभी अचानक चुप हो जाए॥5॥
प्रकृति और सृष्टि एक रहस्य है...
बहुत सारगर्भित और रोचक अनुवाद...
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