Wednesday, 12 February 2014

सूक्त - 32

[ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

9119
प्र सु ग्मन्ता धियसानस्य  सक्षणि  वरेभिर्वरॉं अभि  षु प्रसीदतः ।
अस्माकमिन्द्र उभयं जुजोषति यत्सोम्यस्यान्धसो बुबोधति॥1॥

परमेश्वर  वैभव - स्वामी  है  अतुलित  गुण  का  वही  निधान ।
हम  उसके  गुण  को  अपनायें  हम  हैं  उसकी ही सन्तान ॥1॥

9120
वीन्द्र  यासि  दिव्यानि  रोचना  वि  पार्थिवानि  रजसा पुरुष्टुत ।
ये त्वा वहन्ति मुहुरध्वरॉ उप ते सु वन्वन्तु वग्वनॉ अराधसः॥2॥

आदित्य -  देव  आलोक - प्रदाता  तमस  से  हमें  रखते  दूर ।
जो  भी   शुभ-चिन्तन  करता है देते हैं उसे प्यार भर-पूर ॥2॥

9121
तदिन्मे  छन्त्सद्वपुषो  वपुष्टरं  पुत्रो  यज्जानं  पित्रोरधीयति ।
जाया पतिं वहति वग्नुना सुमत्पुंस इद्भद्रो वहतुःपरिष्कृतः॥3॥

उत्तम  जीवन  हमें  प्राप्त  हो  वह  परमेश्वर  है  पिता  हमारा ।
हे प्रभु सत्पथ पर ले चलना सुमिरन करते हैं हम तुम्हारा॥3॥

9122
तदित्सधस्थमभि चारु दीधय गावो यच्छासन्वहतुं न धेनवः।
माता यन्मन्तुर्यूथस्य पूर्व्याभि वाणस्य सप्तधातुरिज्जनः॥4॥

प्रभु  वाणी  का  वैभव  देना  हम  पर  वरद - हस्त  रखना ।
सस्वर  वेद - ऋचा  को  गायें मनो-कामना पूरी करना ॥4॥

9123
प्र  वोSच्छा  रिरिचे  देवयुष्पदमेको  रुद्रेभिर्याति  तुर्वणिः ।
जरा वा येष्वमृतेषु दावने परि व ऊमेभ्यःसिञ्चता मधु॥5॥

त्याग-सहित उपभोग करें हम सबको मिले दिव्य हवि-भोग।
सदा आत्म - वत समझें सबको यह सत्कर्म यही है योग॥5॥

9124
निधीयमानमपगूळ्हमप्सु   प्र   मे   देवानां   व्रतपा   उवाच ।
इन्द्रो विद्वॉ अनु हि त्वा चचक्ष तेनाहमग्ने अनुशिष्ट आगाम्॥6॥

अग्नि - देव  जल-थल-नभ में हैं जल के भीतर हैं बडवानल ।
वन  में  दावानल  बन  जाते  नर - तन  में  हैं जठरानल ॥6॥

9125
अक्षेत्रवित्क्षेत्रविदं   ह्यप्राट्   स   प्रैति   क्षेत्रविदानुसशिष्टः ।
एतद्वै भद्रमनुशासनस्योत स्त्रुतिं  विन्दत्यञ्जसीनाम् ॥7॥ 

पथ की पहचान  नहीं  होने  पर  राही  राह भटक जाता है ।
विज्ञ-जनों से राह पूछकर वह अपनी मञ्जिल पाता है॥7॥

9126
अद्येदु   प्राणीदममन्निमाहापीवृतो   अधयनन्मातुरूधः ।
एमेनमाप  जरिमा  युवानमहेळन्वसु  सुमना  बभूव ॥8॥ 

अग्नि- देव यश धन के स्वामी सबको देते हैं धन- धान ।
वाक् - शक्ति  वे  ही  देते  है पा सकते हैं हम भी ज्ञान ॥8॥

9127
एतानि  भद्रा  कलश  क्रियाम  कुरुश्रवण  ददतो मघानि ।
दान इद्वो मघवानःसो अस्त्वयं च सोमो हृदि यं बिभर्मि॥9॥

हे  प्रभु  पूजनीय  परमेश्वर  हम  सत्पथ  पर  चलते  हैं ।
मेरे मन में तुम बस जाओ यही प्रार्थना हम करते हैं ॥9॥ 
     

2 comments:

  1. आदित्य - देव आलोक - प्रदाता तमस से हमें रखते दूर ।
    जो भी शुभ-चिन्तन करता है देते हैं उसे प्यार भर-पूर ॥2॥

    परमात्मा सदा आश्वासन देता है..

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  2. बड़ा ही रोचक अनुवाद।

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