Saturday, 15 February 2014

सूक्त - 29

[ऋषि- वसुक्र ऐन्द्र । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9085
वने न वा यो न्यधानि  चाकञ्छुचिर्वां स्तोमो  भुरणावजीगः।
यस्येदिन्द्रः पुरुदिनेषु  होता  नृणां नर्यो नृतमः क्षपावान्॥1॥

प्रभु मुझको शुभ-चिन्तन देना मुझको सत्पथ पर ले चलना।
पर-हित में ही सुख है मेरा सुख पाऊँ ऐसा उपक्रम करना॥1॥

9086
प्र  ते  अस्या  उषसः प्रापरस्या  नृतौ स्याम नृतमस्य नृणाम् ।
अनु त्रिशोकः शतमावहन्नृन्कुत्सेन रथो यो असत्ससवान्॥2॥

जिस  राजा  की  प्रजा  सुखी  है  वह  राजा  ही  जन-नायक है ।
प्रजा  हेतु  वह  पिता  सदृश  है  यह राजा ही सुख-दायक है॥2॥

9087
कस्ते  मद  इन्द्र  रन्त्यो  भूद्दुरो  गिरो  अभ्यु1  ग्रो  वि  धाव ।
कद्वाहो अर्वागुप मा मनीषा आ त्वा शक्यामुपमं राधो अन्नैः॥3॥

करो   मनो - रथ   पूर्ण   प्रभु  जी  द्वार  तुम्हारे  हम   आए  हैं ।
तुम  यश - वैभव के स्वामी हो आज तुम्हें सम्मुख पाए हैं ॥3॥

9088
कदु  द्युम्नमिन्द्र  त्वावतो  नृन्कया धिया करसे कन्न आगन् ।
मित्रो न सत्य उरुगाय भृत्या अन्ने समस्य यदसन्मनीषा:॥4॥

कब पाऊँ प्रभु तेरा दर्शन क्या सचमुच मिलता है साधन-फल ।
तुम  तो  मेरे  सखा - सदृश  हो  बिन  दर्शन हैं नैन विकल ॥4॥

9089
प्रेरय  सूरो  अर्थं  न  पारं  ये  अस्य  कामं जनिधा इव ग्मन् ।
गिरश्च ये  ते  तुविजात  पूर्वीर्नर  इन्द्र प्रतिशिक्षन्त्यन्नैः॥5॥

हम  जैसे  भी  हैं  तेरे हैं प्रभु जीवन-नैया के तुम्हीं खिवैय्या ।
बेडा - पार तुम्हीं करना प्रभु नटवर नागर कृष्ण-कन्हैया॥5॥

9090
मात्रे  नु  ते  सुमिते  इन्द्र  पूर्वी द्यौर्मज्मना पृथिवी काव्येन ।
वराय ते घृतवन्तः सुतासः स्वाद्मन्भवन्तु पीतये मधूनि॥6॥

शौर्य - धैर्य  के  स्वामी  तुम  हो प्रभु मुझको देना चारों बल ।
तुम  जग  के  पालक-पोशक हो कर्मानुरूप  देते हो फल ॥6॥

9091
आ मध्वो अस्मा असिचन्नमत्रमिन्द्राय पूर्णं स हि सत्यराधा:।
स  वावृधे  वरिमन्ना  पृथिव्या  अभि क्रत्वा नर्यः पौंस्यैश्च॥7॥

धन और धान हमें देना प्रभु सर्वाधिक निकट तुम्हीं लगते हो ।
तुम  ही  सबके  सखा  हितैषी सबका ध्यान सदा रखते हो ॥7॥

9092
व्यानळिन्द्रः  पृतना:  स्वोजा आस्मै  यतन्ते  सख्याय पूर्वीः ।
आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे॥॥8॥

प्रेरक  बनना  बहुत  कठिन  है  पर  तुम  सतत  निभाए  हो ।
सदा   प्रेरणा   देते   रहना   मुझे   तुम   ही  अपनाए   हो ॥8॥

       

1 comment:

  1. रचित विश्व, निर्वाह सभी का,
    प्रकृति चक्र चलता रहता है।

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