Monday, 3 February 2014

सूक्त - 41

[ऋषि- सुहस्त्य धौषेय । देवता- अश्विनीकुमार । छन्द- जगती ।]

9224
समानमु त्यं पुरुहूतमुक्थ्यं1 रथं त्रिचक्रं सवना गनिग्मतम् ।
परिज्मानं  विदथ्यं  सुवृक्तिभिर्वयं  व्युष्टा उषसो हवामहे ॥1॥

अन्वेषण  अति  आवश्यक  है  नित - नूतन  अन्वेषण  हो ।
अन्य  ग्रहों  की  हलचल  जानें  सदा  सफल प्रक्षेपण हो ॥1॥

9225
प्रातर्युजं  नासत्याधि  तिष्ठवः प्रातर्यावाणं  मधुवाहनं  रथम् ।
विशो येन गच्छथो यज्वरीर्नरा कीरेश्चिद्यज्ञं होतृमन्तमश्विना॥2॥

मन  की गति से चले रथ मेरा हम चाहे जहॉ निकल जायें ।
वैज्ञानिक नित नई खोज में अन्य ग्रहों का पता लगायें॥2॥

9226
अध्वर्युं वा मधुपाणिं सुहस्त्यमग्निधं वा धृतदक्षं दमूनसम् ।
विप्रस्य वा यत्सवनानि गच्छथोSत आ यातं मधुपेयमश्विना॥3॥

विश्व  आज  ऑंगन  जैसा  है  अब  आगे  भी  हो  विस्तार ।
अन्य-ग्रहों पर भ्रमण करें हम वैज्ञानिक पर है यह भार ॥3॥   

 

2 comments:

  1. विश्व आज ऑंगन जैसा है अब आगे भी हो विस्तार ।
    अन्य-ग्रहों पर भ्रमण करें हम वैज्ञानिक पर है यह भार ॥3॥

    अद्भुत है हमारे ऋषियों की सोच !

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  2. अन्वेषण अति आवश्यक है नित - नूतन अन्वेषण हो ।
    अन्य ग्रहों की हलचल जानें सदा सफल प्रक्षेपण हो ॥

    कमाल की क्षमता है आपकी !!
    बधाई !

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